Category Archives: पर्यावरण

आज़ादी के 76 साल के बाद भी राजधानी के मेहनतकश पानी तक के लिए मोहताज

उपराज्यपाल और जल मन्त्री दोनों अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़कर दिल्ली में पानी की कमी का कारण जनसंख्या और झुग्गी-बस्तियों के विस्तार होने को बता रहे हैं। ज़ाहिरा तौर पर, अपनी नाकामी छिपाने के लिये ये दोनों ‘तू नंगा तू नंगा’ का खेल खेल रहे हैं और सारी समस्या का ठीकरा मेहनतकश जनता के सिर पर फोड़ रहे हैं, जो दिल्ली में सबकुछ चलाती है और सबकुछ बनाती है और जिसकी मेहनत की लूट के दम पर यहाँ के धन्नासेठों, नेताओं-मन्त्रियों और नौकरशाहों की कोठियाँ चमक रही हैं। भाजपा और आम आदमी पार्टी जनता की तकलीफ़ों के प्रति कितने सवेंदनशील हैं, ये तो साफ नज़र आ रहा है।

जंगलों में आग की बढ़ती घटनाएँ – यह जलवायु परिवर्तन के मद्देनज़र कुदरत की चेतावनी है!

चाहे जंगलों में आग की घटनाएँ हों या बाढ़ व सूखे की घटनाएँ अथवा भूस्खलन और सूनामी की घटनाएँ हों, ये सभी चीख-चीख कर हमें चेतावनी दे रही हैं कि अगर हम अनियोजित व मुनाफ़ाकेन्द्रित उत्पादन प्रणाली को उखाड़कर नियोजित व लोगों की ज़रूरत पर आधारित उत्पादन प्रणाली नहीं लाते हैं यानी पूँजीवाद को उखाड़कर समाजवाद नहीं लाते हैं तो पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व ही नहीं बचेगा। केवल एक समाजवादी समाज में ही कृषि व औद्योगिक उत्पादन को योजनाबद्ध रूप से संचालित किया जा सकता है और यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि मनुष्य की उत्पादक गतिविधियाँ प्रकृति की तबाही का सबब न बनें और जलवायु परिवर्तन एवं पारिस्थितिक असन्तुलन न पैदा हो। चाहे जंगलों में लगी आग हो या पर्यावरण सम्बन्धी कोई भी समस्या हो, उसका जड़मूल समाधान केवल समाजवादी समाज में ही मुमकिन है क्योंकि समाजवाद में ही तमाम समस्याओं की तरह पर्यावरण की समस्या का समाधान भी आम बहुसंख्यक मेहनतकश वर्गों के हित में तथा सामुदायिक व सामूहिक तरीक़े से योजनाबद्ध ढंग से किया जा सकता है और विज्ञान व प्रौद्योगिकी का समस्त ज्ञान मुट्ठी भर लोगों के मुनाफ़े के लिए न होकर लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने और पर्यावरण की समस्याओं को दूर करने के लिए किया जा सकता है।

दशकों से नासूर बनी हुई है, धारूहेड़ा क्षेत्र में फैक्ट्रियों से निकलने वाले केमिकल युक्त प्रदूषित पानी की समस्या!

ये फैक्ट्रियाँ मनमाने ढंग से ख़तरनाक स्तर तक प्रदूषित पानी बाहर बस्तियों-मोहल्लों में बिना प्रशोधन (ट्रीटमेण्ट) के छोड़ देती हैं। नतीजतन, सैकड़ों फैक्ट्रियों से निकलने वाला यह केमिकलयुक्त पानी धारूहेड़ा पहुँचते-पहुँचते विकराल रूप धारण करता जाता है। कभी बरसात के बहाने, कभी बिना बरसात के भी, इसे धारूहेड़ा की तरफ़ बहा दिया जाता है और जनता को उसके हालात पर मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। बीच-बीच में जब प्रभावित आबादी बदहाल हो जाती है, तब वह आक्रोशित होकर स्वत:स्फूर्त ढंग से कुछ करने के लिए आगे बढ़ती है। तब इन पार्टियों के छुटभैया नेता लोग आगे आ जाते हैं। नेताओं और प्रशासन की मीटिंगों का सिलसिला चल पड़ता है।

मुनाफ़े की भेंट चढ़ता हसदेव जंगल : मेहनत और कुदरत दोनों को लूट रहा पूँजीवाद

हसदेव के इलाके में कोयला निकालने के लिए ज़्यादा गहरा नहीं खोदना पड़ता है, इससे अडानी को खुदाई में होने वाले खर्च में काफ़ी बचत होगी और मोटा मुनाफ़ा होगा। अब सहज ही समझा जा सकता है कि यह उत्खनन देश में कोयले की आपूर्ति के लिए नहीं बल्कि अडानी को मुनाफ़ा पहुँचाने के लिए किया जा रहा है। जिसकी क़ीमत वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण आदि के जरिये इलाके की आम मेहनतकश जनता चुका रही है। वहीं दूसरी ओर अन्धाधुन्ध पेड़ों की कटाई के कारण हाथी तथा अन्य जीव-जन्तु मारे जा रहे हैं और कुछ भाग कर आसपास के गाँवों में जा रहे हैं। पहले से ही छत्तीसगढ़ मानव-हाथी संघर्ष से जूझ रहा है। जिन इलाकों में पेड़ काटे गए हैं वहाँ से हाथी भागकर आसपास के गाँवों में जा रहे हैं और आदिवासियों के घरों को तोड़ रहे हैं और खेतों को बर्बाद कर रहे हैं। हसदेव के कुछ इलाकों से जंगलों की कटाई के बाद हसदेव नदी की कुछ शाखाएँ सूख गई हैं जिसका खामियाजा वहाँ के किसान, जो इन नदियों से सिंचाई कर रहे थे, भुगत रहे हैं।

पर्यावरणीय विनाश के लिए ज़िम्मेदार पूँजीपति वर्ग और उसकी मार झेलती मेहनतकश आबादी

मुट्ठीभर पूँजीपतियों ने मुनाफ़े की होड़ में जलवायु संकट को इतने भयानक स्तर पर पहुँचा दिया है कि पूँजीवादी दाता एजेंसियों के टुकड़ों पर पलने वाले ऑक्सफ़ैम जैसे एनजीओ को भी आज यह लिखना पड़ रहा है कि “करोड़पतियों की लूट और प्रदूषण ने धरती को विनाश के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। समूची इंसानियत आज अत्यधिक गर्मी, बाढ़ और सूखे से दम तोड़ रही है।” इस रिपोर्ट ने एक बार फिर यह दिखा दिया है कि पर्यावरण को बचाने का हमारा संघर्ष समाज में चल रहे आम वर्ग संघर्ष का ही एक हिस्सा है। पर्यावरण के क्षेत्र में चल रहे इस वर्ग संघर्ष में भी हम मज़दूर वर्ग को ही नेतृत्वकारी भूमिका निभानी होगी।

बढ़ते प्रदूषण की दोहरी मार झेलती मेहनतकश जनता

पूँजीवादी व्यवस्था की बढ़ती हवस के कारण अन्धाधुन्ध अनियन्त्रित धुआँ उगलती चिमनियों के साथ-साथ सड़कों पर हर रोज़ निजी वाहनों की बढ़ती संख्या प्रदूषण के लिए मुख्य तौर पर ज़िम्मेदार है। अकेले दिल्ली में हर रोज़ सड़कों पर लगभग एक करोड़ से भी ज्यादा मोटर वाहन चलते हैं। इसकी मूल वजह पर्याप्त मात्रा में सार्वजनिक परिवहन के साधनों का न होना और पूँजीवादी असमान विकास के कारण पूरे देश से दिल्ली में काम-धन्धे के लिए लोगों का प्रवासन है। इसके कारण दिल्ली शहर पर भारी बोझ है और बढ़ते प्रदूषण में इसका भी योगदान है। यह पूँजीवादी विकास के मॉडल का कमाल है, जो कि व्यापक मेहनतकश आबादी को उसके निवास के करीब गुज़ारे योग्य रोज़गार नहीं मुहैया करा सकता। लाखों लोग दो-दो, तीन-तीन घण्टे सफ़र करके आसपास के शहरों से रोज़ दिल्ली आते हैं और फिर वापस जाते हैं।

बिपरजॉय चक्रवात आने वाले गम्भीर भविष्य की चेतावनी दे रहा है!

पूँजीवादी उत्पादन प्रक्रिया अनियोजित और अराजक होने की वजह से पूरी उत्पादन प्रक्रिया प्रकृति और पर्यावरण के लिए गम्भीर संकट पैदा कर रही है। जीवाश्म ईंधन के जलने, जंगलों के कटने और कारखानों, मशीनों और कई बिजली संयंत्रों से निकलने वाले ग्रीनहाउस गैस वायुमण्डल की सतह पर एकत्र हो जाते हैं और सूर्य के ताप को अधिक मात्रा में वायुमण्डल में कैद करने लगते हैं जिससे ग्रीन हाउस इफेक्ट पैदा होने लगता है। इससे पृथ्वी की सतह का तापमान बढ़ता है यानी ग्लोबल वार्मिंग होती है।

उत्तर प्रदेश, बिहार और अन्य जगहों में भीषण गर्मी और लू से हुई मौतें : ये महज़ प्राकृतिक आपदा नहीं पूँजीवाद की देन हैं!

आज जलवायु परिवर्तन के विकराल होते रूप ने समूची मानवजाति के अस्तित्व को ख़तरे में डाल दिया है। लेकिन तात्कालिक तौर पर जलवायु परिवर्तन से सबसे ज़्यादा नुक़सान मेहनतकशों का ही होता है। झुलसा देने वाली लू, कड़ाके की ठण्ड, बेमौसम मूसलाधार बारिश, नियमित सूखा, बाढ़ और चक्रवात आदि आपदाओं से तात्कालिक बचाव के लिए पूँजीपतियों, धन्नासेठों, धनी किसानों और नेता मन्त्रियों के पास पर्याप्त संसाधन होते हैं। लेकिन हम मेहनतकश जो कारख़ानों, खेतों और निर्माण परियोजनाओं में काम करते हैं, बेलदारी करते हैं, डिलीवरी सर्विस में लगे हैं, रेहड़ी-खोमचे लगाकर पेट पालते हैं, हम इन आपदाओं से कैसे बचेंगे? ‘मैकिंसी ग्लोबल इन्स्टीट्यूट’ के हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत के 75 प्रतिशत मज़दूर, यानी 38 करोड़ मज़दूर, भीषण गर्मी के कारण शारीरिक तनाव झेलते हैं। लू के जानलेवा प्रभाव से निपटने के लिए सरकार का मुख्य नीतिगत उपकरण है हीट एक्शन प्लान। अब तक सिर्फ़ केन्द्र सरकार, कुछ राज्यों और शहरों ने अपने हीट एक्शन प्लान बनाये हैं। जलवायु विशेषज्ञों ने इन नीतिगत योजनाओं में कई बुनियादी ख़ामियों पर विस्तार से लिखा है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मेहनतकश वर्ग इन हीट एक्शन प्लान से पूरी तरह ग़ायब हैं। इन योजनाओं में यह नहीं बताया जाता है कि ग़रीब और मेहनतकश आबादी लू से किस तरह प्रभावित होती है और इससे बचने के लिए उन्हें क्या विशेष सुविधाएँ मिलनी चाहिए।

विकास के नाम पर विनाश का मॉडल : गंगा विलास और टेण्ट सिटी

पूँजीपतियों के लिए टेण्ट सिटी और गंगा विलास तथा आम लोगों के लिए घाटों का धँसाव, नदी में प्रदूषण और भयंकर बीमारियों के ख़तरे के रूप में विनाश। अब यह हमें तय करना है कि हम विनाश के मॉडल को और ढोयेंगे और अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए विनाश के कगार पर खड़ी एक ज़हरीली दुनिया छोड़कर जायेंगे या इस विनाश के मॉडल को पलटकर सही मायने में एक इन्सानों के रहने लायक़ समाज बनाने की दिशा में आगे बढ़ेंगे।

जोशीमठ आपदा : मुनाफ़ाख़ोरी की योजनाओं के बोझ से धँसता एक शहर

हिमालय के पर्यावरण की तबाही के अलग-अलग कारणों को मिलाकर अगर देखा जाये तो इसकी बुनियाद में पूँजीवादी व्यवस्था की अराजकता, अमीरों की विलासिता और मुनाफ़े की अन्धी हवस है। हिमालय की आपदा केवल जोशीमठ जैसे शहरों, क़स्बों की नहीं है बल्कि ये एक राष्ट्रीय आपदा है। छोटे-मोटे आन्दोलनों से इस समस्या का समाधान सम्भव नहीं है। हिमालय की इस तबाही को राष्ट्रीय फलक पर लाने और एक व्यापक आन्दोलन खड़ा करने की आज ज़रूरत है। नहीं तो बड़ी-बड़ी ठेका कम्पनियों को फ़ायदा पहुँचाने, अमीरों की विलासिता और मुनाफ़े की अन्धी हवस में जिस प्रकार पूरे हिमालय के पारिस्थितिकीय तंत्र को बर्बाद किया जा रहा है, आने वाले वक़्त में इसका ख़ामियाज़ा पूरे उत्तर भारत को भुगतना पड़ सकता है। सरकारों के लिए ये आपदाएँ मौसमी चक्र बन चुकी हैं, जो आती और जाती रहती हैं। उसके लिए जनता उजड़ती-बसती रहती है। लेकिन मुनाफ़ा निरन्तर जारी रहना चाहिए!