Category Archives: पर्यावरण

चेन्नई बाढ़ त्रासदी – प्राकृतिक क़हर नहीं, विकास के पूँजीवादी रास्ते का नतीजा

चेन्नई में पूँजीपतियों, सरकार व अफ़सरों के गठजोड़ ने क़ानूनी-ग़ैरक़ानूनी तौर-तरीक़ों के ज़रिये नाजायज़ तौर पर ऐसी जगहों पर क़ब्ज़े कर लिये जहाँ से पानी की निकासी हो सकती थी। दौलत कमाने के लिए और अय्याशी के अड्डे स्थापित करने के लिए अन्धाधुन्ध ग़ैरयोजनाबद्ध ढंग से धड़ाधड़ निर्माण कार्य हुआ है। इस दौरान बाढ़, भूकम्प जैसी परिस्थितियों के पैदा होने का ध्यान नहीं रखा गया। नाजायज़ क़ब्ज़ों के लिए ग़रीबों को दोष दिया जा रहा है। झुग्गी-झोंपड़ी में रहने को मज़बूर लोगों के पुख्ता रिहायश के लिए कोई भी क़दम सरकार ने नहीं उठाये। इनके पास रहने के लिए और कोई जगह नहीं है। नाजायज़ क़ब्ज़े करने वाते तो पूँजीपति और सरकारी पक्ष है।

‘ऑड-इवेन’ जैसे फ़ॉर्मूलों से महानगरों की हवा में घुलता ज़हर ख़त्म नहीं होगा

कुछ लोग अकसर इस भ्रम का शिकार रहते है कि कानूनों को सही तरीके से लागू करके पूँजीपतियों पर लगाम कसी जा सकती है और वे अपनी बात के समर्थन में प्राय: यूरोप और अमेरिका का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। हालाँकि हालिया घटनाक्रम उनके इस भ्रम को तोड़ने के लिए काफी है। ‘वॉक्सवैगन’ नाम की कम्पनी ने यूरोप में उत्सर्जन कानूनों से बच निकलने के लिए गाडियों में ऐसे साफ्टवेयर लगाये जो प्रदूषण जाँच के दौरान तो उत्सर्जन को सामान्य स्तर पर दिखलाता था पर वास्तव मे बाकी समय उन गाडि़यों का उत्सर्जन स्थापित मानकों से 40 गुणा अधिक होता था। पूँजीपति वर्ग जब अपने मुनाफ़े पर ख़तरा मंडराता देखता है तब अपनी ही राज्य व्यवस्था द्वारा बनाये गए कानूनों की धज्जियां उड़ाने में उसे ज़रा भी हिचक नहीं होती है।

जलवायु संकट पर आयोजित पेरिस सम्मेलन : फिर खोखली बातें और दावे

यह सच है कि कार्बन उत्सर्जन नहीं घटाया गया तो दुनिया ऐसे संकट में फँस जायेगी जहाँ से पीछे लौटना सम्भव न होगा। इसका नतीजा दिखायी भी पड़ने लगा है मौसम में तेज़ी के साथ उतार-चढ़ाव हो रहे हैं। जलवायु में असाधारण बदलाव दिखने लगा है। तमिलनाडू जैसे कम पानीवाले और सूखे की मार से त्रस्त इलाक़े में पिछले दिनों बाढ़ ने कितना क़हर ढाया था, इससे हम सभी वाकिफ़ हैं। उत्तराखण्ड, जम्मू-कश्मीर की बाढ़, आन्ध्र प्रदेश में चक्रवात जैसे उदाहरण भारत में ही नहीं बल्कि दुनियाभर में देखे जा सकते हैं। अमेरिका, जापान, चीन से लेकर अन्य देशों में भी प्राकृतिक आपदाओं का सिलसिला बढ़ गया है। ग्लेशियर पिघलकर संकट की स्थिति पैदा कर सकते हैं। इससे कई देशों के सामने वजूद का संकट पैदा हो सकता है। आज अण्टार्कटिका की मोटी बर्फीली परत के टूटने का ख़तरा पैदा हो गया है। यह संकट लोगों को अपनी जगह-ज़मीन से उजाड़ देगा और लोग दर-दर भटकने के लिए मजबूर हो जायेंगे। ऐसी भयावहता को जलवायु संकट पर सम्मेलनों के नाम से होनेवाली नौटंकियाँ नहीं रोक सकतीं। जलवायु परिवर्तन केवल पर्यावरणीय मसला नहीं, यह सामाजिक और पारिस्थितिकीय संकट है। यह पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली का संकट है जहाँ मुनाफ़े को किसी भी क़ीमत पर कम नहीं किया जा सकता। फ़्रीज जैसे उपभोक्ता सामानों के अलावा कार्बन उत्सर्जन के लिए सबसे अधिक परिवहन तन्त्र ज़िम्मेदार होता है उसका प्रयोग राष्ट्रीय या अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर हो अथवा जल, हवा या ज़मीन पर हो लेकिन बाज़ार और मुनाफ़े की मौजूदा व्यवस्था से संचालित कोई भी देश इसमें कमी लाने या वैकल्पिक परिवहन तन्त्र मुहैया कराने का इरादा तक ज़ाहिर नहीं कर सकता। बी.पी., शेवरॉन, एक्सान मोबिल, शेल, सउदी अरामको और ईरानी तेल कम्पनी जैसी खनन और सीमेण्ट उत्पादन में लगी कम्पनियाँ जो जलवायु संस्थान के अध्ययन के मुताबिक़ 2/3 हिस्सा ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन कर रही हैं, अभी भी चालू स्थिति में हैं, न इन्हें बन्द किया जा सकता है और न ही मुनाफ़े को ख़तरे में डालते हुए इनमें उत्पादन के सुरक्षित तरीक़े अपनाये जा सकते हैं। यह केवल मनुष्य की बुनियादी ज़रूरतों को केन्द्र में रखनेवाली समाजवादी उत्पादन प्रणाली के ज़रिये ही सम्भव है।

दूसरा उत्तराखंड बनने की राह पर हैं हिमाचल प्रदेश

जहाँ तक विकास का सवाल है तो इन परियोजनाओं से ‘विकास’ तो नहीं पर हाँ ‘विनाश’ जरूर हो रहा है, जिसके परिणामस्वरूप आज यहाँ का भौगोलिक तथा जलवायु संतुलन लगातार बिगड़ता जा रहा है, जिससे आने वाले समय में यहाँ के निवासियों को भयंकर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। इसके अतिरिक्त, पूँजीवादी व्यवस्था में विकास के नाम पर लगातार जारी प्राकृतिक संसाधनों की अंधाधुंध लूट और उससे पैदा होने वाले भयंकर दुष्परिणामों की एक झलक हमें पिछले साल उत्तराखंड में देखने को मिली, जहाँ बाढ़, बादल फटने, तथा जमीन धंसने जैसी घटनाओं के कारण हज़ारों लोग असमय काल के ग्रास में समा गये।

औद्योगिक कचरे से दोआबा क्षेत्र का भूजल और नदियाँ हुईं ज़हरीली

देश के विभिन्न हिस्सों में फैले सभी औद्योगिक क्षेत्रों में औद्योगिक कचरा यूँ ही बिना किसी ट्रीटमेण्ट या रिसाइक्लिंग के आसपास की नदियों या जलाशयों में छोड़ दिया जाता है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि पूँजीपति ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़े के लक्ष्य की सनक में इतने डूबे रहते हैं कि कारख़ाने के भीतर श्रम क़ानूनों को ताक पर रखकर मज़दूरों की हड्डियाँ निचोड़ने से भी जब उनका जी नहीं भरता तो वे कचरे के ट्रीटमेण्ट में लगने वाले ख़र्च से बचने के लिए तमाम पर्यावरण सम्बन्धी क़ानूनों और कायदों को ताक पर रखकर ज़हरीले कचरे को आसपास की नदियों अथवा जलाशयों में बिना ट्रीट किये छोड़ देते हैं। यही वजह है कि इस देश की तमाम नदियाँ तेज़ी से परनाले में तब्दील होती जा रही हैं।

निवेश के नाम पर चीन के प्रदूषणकारी उद्योगों को भारत में लगाने की तैयारी

मोदी सरकार की ‘मेक इन इण्डिया’ की नीति ने चीन जैसे देशों के लिए बड़ी सहूलियत पैदा कर दी है। उन्हें अपने देश के अत्यधिक प्रदूषण पैदा करनेवाले और पुरानी तकनीक पर आधारित उद्योगों को भारत में ढीले और लचर श्रम क़ानूनों की बदौलत यहाँ खपा देने का मौक़ा मिल गया है। पिछले तीन दशकों से चीन में लगातार जारी औद्योगिकीकरण ने चीन की आबोहवा को इस कदर प्रदूषित कर डाला है कि वहाँ के कई शहरों में वायु प्रदूषण के चलते हमेशा एक धुन्ध जैसी छायी रहती है। यह किस ख़तरनाक हद तक मौजूद है इसे सिर्फ़ इस बात से समझा जा सकता है कि यहाँ एक क्यूबिक मीटर के दायरे में हवा के प्रदूषित कण की मात्र 993 माइक्रोग्राम हो गयी है जबकि इसे 25 से अधिक नहीं होना चाहिए। एक अन्तरराष्ट्रीय संस्था की रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनिया के 20 सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में 16 तो चीनी शहर ही हैं और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में इसका स्थान तीसरा है। चीन के पर्यावरण के लिए ये महाविपदा साबित हो रही हैं।

इबोला – महामारी या महाक़त्ल?

ग़रीबों की बस्तियों में सफ़ाई अभियान तब शुरू होता है जब वहाँ पर फैली गन्दगी से पैदा होने वाली बीमारियों का अमीरों के इलाक़ों में फैलने का ख़तरा खड़ा हो जाता है। यह बात आज के मेडिकल ‘अनुसन्धान’ पर अक्षरतः फिट बैठती है। 1976 में इबोला वायरस के पता चलने से लेकर अब तक, इस बीमारी के लिए वैक्सीन बनाने या दवा खोजने का काम कोल्ड-स्टोरेज में पड़ा रहा है क्योंकि इबोला अब तक ग़रीब अफ़्रीकी देशों की बीमारी थी! ग़रीबों को होने वाली बीमारियों के इलाज के लिए आज के मेडिकल अनुसन्धान को तब तक कोई दिलचस्पी नहीं होती है, जब तक कि वह अमीरों के लिए कोई ख़तरा नहीं बनतीं। आज का मेडिकल अनुसन्धान पूरी तरह दवा-कम्पनियों के कब्ज़े में है इसलिए अनुसन्‍धान उन बीमारियों के लिए होते हैं जिनके लिए दवा खोजने से बड़ा मुनाफ़ा होने की सम्भावना हो, यानी इसके ग्राहक अमीर तथा उच्च-मध्यवर्ग के लोग ही हैं। डायबिटीज़, उच्च रक्तचाप तथा दिल की बीमारियाँ जो मुख्यतः पूँजीपतियों और उनके टुकड़ों पर पलने वाले आरामपरस्त परजीवी लोगों को होती हैं, उनके लिए पहले ही अच्छी-खासी दवाएँ होने के बावजूद अरबों-खरबों डॉलर ‘अनुसन्धान’ पर लुटाये जा रहे हैं जबकि बहुसंख्यक मेहनतकश, मज़दूर आबादी के लिए नयी दवाएँ खोजना तो दूर, आधी सदी पहले से खोजे जा चुके इलाज तथा बीमारियों को रोकने के लिए जानकारी पहुँचाने के लिए फूटी-कौड़ी ख़र्च नहीं की जाती।

असली मुद्दा ख़नन की वैधता या अवैधता का नही बल्कि पूँजी द्वारा श्रम और प्रकृति की बेतहाशा लूट का है।

पूँजीवादी अदालतें और मीडिया अवैध खनन को वैध तरीके से चलाने की पुरज़ोर वकालत करते हैं। लेकिन मज़दूरों, मेहनतकशों के सामने तो असली सवाल यह है कि जहाँ यह ख़नन वैध तरीके से चल रहा है क्या वहाँ श्रम की लूट और प्रकृति का विनाश रुक गया है? अगर नहीं तो क्या वजह है कि सरकार, अदालतें और मीडिया मज़दूरों के श्रम की लूट के मुद्दे को एकदम गोल कर जाते हैं? उनका कुल ज़ोर ख़दानों को कानूनी बनाने पर ही क्यों रहता है। इस सवाल का जवाब ढूँढने के लिए हम रेत-खनन का ठोस उदाहरण लेते हैं।

उत्तराखण्डः दैवी आपदा या प्रकृति का कोप नहीं यह पूँजीवाद की लायी हुई तबाही है!

पूँजीवादी विकास के मॉडल के तहत पर्यावरण की परवाह न करते हुए जिस तरह अंधाधुंध तरीक़े से सड़कें, सुरंगें व बाँध बनाने के लिए पहाड़ियों को बारूद से उड़ाई गईं, उसकी वजह से इस पूरे इलाक़े की चट्टानों की अस्थिरता और बढ़ने से भूस्ख़लन का ख़तरा बढ़ गया। वनों की अंधाधुंध कटाई और अवैध खनन से भी पिछले कुछ बरसों में हिमालय के इस क्षेत्र में भूस्खलन, मृदा क्षरण और बाढ़ की परिघटना में बढ़ोत्तरी देखने में आयी है। यही नहीं इस पूरे इलाक़े में पिछले कुछ वर्षों में हिमालय की नदियों पर जो बाँध बनाये गये या जिन बाँधों की मंजूरी मिल चुकी है उनसे भी बाढ़ की संभावना बढ़ गई है

पर्यावरण संरक्षण का खेल

बताने की ज़रूरत नहीं है कि पर्यावरण के विनाश का नुकसान सबसे ज्यादा ग़रीब जनता को ही उठाना पड़ता है। 12-14 घण्टे रोज़ फैक्टरियों में खटते हुए, मुर्गी के दड़बेनुमा और कूड़ेदानों से घिरी असुरक्षित झुग्गियों में रहते हुए, प्रदूषित भूजल का सीधे उपयोग करते हुए, या बाढ़ में कच्चे घरों के बह जाने से होने वाली बरबादी-तबाही को ग़रीब जनता ही झेलती है। अमीरों के पास बड़े-बड़े वातानुकूलित आफिस, वातानुकूलित घर, बाज़ार, स्कूल, गाड़ियाँ हैं, पानी साफ करने के यन्त्र हैं व अन्य सुविधाएँ हैं। सीधी बात यह कि इस पूँजीवादी समाज में तबाही ग़रीब जनता झेलती है और जो वह पैदा करती है उसका उपभोग जोंक रूपी मालिक वर्ग और उसके दलाल करते हैं। पर्यावरण को ख़तरा, जो अन्तत: मानवजाति के लिए ख़तरा है इस पूँजीवादी प्रणाली ने पैदा किया है।