Category Archives: फ़ासीवाद / साम्‍प्रदायिकता

आरएसएस के 100 साल – संघ की सच्चाई और देश के मेहनतकशों से ग़द्दारी की दास्तान

आजादी की लड़ाई और आरएसएस का क्या सम्बन्ध है? कुछ नहीं! आइए देखते हैं। 1925 में विजयदशमी के दिन संघ की स्थापना होती है। अपनी स्थापना से लेकर 1947 तक संघ ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ किसी लड़ाई में कोई हिस्सा नहीं लिया। इतना ही नहीं अंग्रेज़ों को कई माफ़ीनामे भी लिखे और अंग्रेज़ी हुकूमत के प्रति वफ़ादार रहते हुए किसी भी आन्दोलन में शामिल नहीं होने का वादा तक किया। इसके साथ ही जो नौजवान आज़ादी की लड़ाई में शामिल होना चाहते थे उन्हें शामिल होने से भी रोका। इस बात की पुष्टि के लिए हम कुछ उदाहरण देख सकते हैं।

फ़ासिस्ट भाजपा और संघ के साम्प्रदायिक एजेण्डा और अम्बेडकर अस्पताल की आपराधिक लापरवाही के कारण नौजवान की मौत

इस घटना से यह बात स्पष्ट है। “हिन्दू हितैषी” होने का दावा करने वाली फ़ासीवादी भाजपा सरकार में एक “हिन्दू” बच्चा इलाज के बिना तड़प-तड़पकर अपना दम तोड़ देता है लेकिन ये सरकार उसको इलाज तक मुहैया नहीं कराती! कोई विधायक या सांसद इलाक़े में झाँकने तक नहीं आते हैं! साफ़ है कि आरएसएस और भाजपा हिन्दू धर्म का हवाला देकर सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारा फ़ायदा उठाना चाहते हैं, धर्म के नाम पर हमें बाँटना चाहती है और आम मेहनतकश आबादी के युवाओं को अपनी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी राजनीति का एक मोहरा बनाना चाहती है। हमारे इलाक़े में आरएसएस अपने साम्प्रदायिक ऐजेण्डे को पूरा करने के लिए ऐसे कार्यक्रम आयोजित करवाता रहता है, हमें “धर्म” और “राष्ट्र” की पट्टी पढ़ाता है। लेकिन साम्प्रदायिक फ़ासीवादी “राष्ट्र” ग़रीब मेहनतकशों की जगह क्या है, वह तमाम घटनाओं से रोज़-ब-रोज़ ज़ाहिर होता ही रहता है और इस घटना से भी ज़ाहिर हो गया।

‘आई लव मुहम्मद’ विवाद और उसका फ़ासीवादी साम्प्रदायिक इस्तेमाल

कानपुर में मुस्लिमों पर एकतरफ़ा कार्यवाई के बाद पुलिस ने सफ़ाई देते हुए कहा कि यह कार्यवाई ‘आई लव मुहम्मद’ पर नहीं बल्कि नई परम्परा शुरू करने और माहौल ख़राब करने के लिए की गयी है।  लेकिन सवाल यह है कि माहौल ख़राब करने में हिन्दू संगठन के लोग भी ज़िम्मेदार थे लेकिन उन पर कोई कार्यवाई क्यों नहीं हुई? अपनी धार्मिक आस्था के अनुसार पोस्ट डालना कैसे गुनाह हो गया? बजरंग दल से लेकर कई कट्टरपंथी हिन्दू संगठनों ने ‘आई लव महादेव’ से लेकर ‘आई लव योगी’ तक के पोस्टर, बैनर लगाये और सोशल मीडिया पर पोस्ट डाली। लेकिन तब इस “नई परम्परा” पर कोई कार्यवाई नहीं हुई। सोशल मीडिया पर मुस्लिम-विरोधी साम्प्रदायिक पोस्ट की बाढ़ आ गयी लेकिन इस पर भी कोई कार्यवाई नहीं हुई। हाथरस में एक प्रदर्शन में तो ‘आई लव यूपी पुलिस’, ‘आई लव योगी’ और ‘आई लव महादेव’ के बैनर लेकर लोग नारे लगा रहे थे- ‘यूपी पुलिस तुम लट्ठ बजाओ, हम तुम्हारे साथ हैं’! क्या इससे माहौल ख़राब नहीं होता?

योगी-राज में उत्तर प्रदेश में जातिवादी गुण्डों का कहर

आज देश में होने वाली जातिगत उत्पीड़न की घटनाओं में उत्तर-प्रदेश पहले नम्बर पर आता है। इस बात से समझा जा सकता है कि जातिवादी गुण्डों और अपराधियों के मन में कानून का डर बैठा है या संरक्षण पाने का विश्वास! ‘राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो’ के 2022 के आँकड़ों के अनुसार यूपी में दलितों के ख़िलाफ़ अपराध के 15,368 मामले दर्ज हुए जो देश में कुल दलित-विरोधी अपराधों का 26.7% है। वहीं इन घटनाओं में 2021 की तुलना में 16% की वृद्धि हुई है। शायद जातिगत उत्पीड़न में उत्तर प्रदेश के प्रथम स्थान और वृद्धि को ही देखकर नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि ‘योगी का कानून व्यवस्था मॉडल देश के लिए उदाहरण है।’ इसी मॉडल को राजस्थान और मध्य-प्रदेश की भाजपा सरकारों ने अपना लिया है, तभी तो ये राज्य दलितों के ख़िलाफ़ अपराध के मामले में दूसरे और तीसरे नम्बर पर हैं।

पेट्रोल में इथेनॉल की मिलावट के नाम पर भाजपा ने दिया एक और “राष्ट्रवादी” लूट को अंजाम!

निखिल गडकरी की कम्पनी ‘सी.आई.ए.एन एग्रो’ ने 2024 में इथेनॉल सेक्टर में क़दम रखा। इससे पहले यह मसाला और खाने के तेल बेचने वाली कम्पनी थी। 2024 में कम्पनी का टर्नओवर 171 करोड़ था, जोकि 2025 में बढ़कर 1029 करोड़ हो गया। इस कम्पनी के शेयर की क़ीमत जनवरी, 2025 में 41 रुपये थी, जो कि अब बढ़कर 850 रुपये से अधिक हो गयी है यानी इनकी क़ीमतों में 552 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। सिर्फ़ एक साल में यह कम्पनी इथेनॉल उत्पादन में देश की सबसे बड़ी कम्पनी बन चुकी है। यही है भाजपा के नेता-मन्त्रियों की “राष्ट्रवादी” लूट!

एसआईआर के फ़र्जीवाड़े से लाखों प्रवासी मज़दूरों, मेहनतकशों, स्त्रियों, अल्पसंख्यकों के मताधिकार के हनन के बीच बिहार विधानसभा चुनाव – जनता के सामने क्या है विकल्प?

दूसरी ख़ास बात जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए वह यह है कि एसआईआर के ज़रिये मोदी-शाह जोड़ी ने वास्तव में वह काम करने का प्रयास किया है जो जनता के जुझारू आन्दोलनों के कारण वे देश में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) और नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के ज़रिये नहीं कर पायी थी। वास्तव में, चुनाव आयोग को नागरिकता की वैधता जाँचने, उसे क़ायम रखने या रद्द करने का कोई अधिकार नहीं है। 2003 एसआईआर के दिशा-निर्देश स्पष्ट शब्दों में यह बात कहते हैं कि नागरिकता निर्धारित करने का अधिकार सिर्फ़ गृह मन्त्रालय को है। शाह का गृह मन्त्रालय देशव्यापी जनविरोध के कारण देश के पैमाने पर एनआरसी नहीं करवा सका, तो अब यह काम चोर-दरवाज़े से एसआईआर के ज़रिये करवाया जा रहा है। यही कारण है कि जब सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने वाले पक्षों ने 2003 के दिशा-निर्देशों को ज़ाहिर करने की बात की तो केचुआ ने कहा कि उसको वह दिशा-निर्देशों वाली फ़ाइल नहीं मिल रही है! यह भी मोदी-राज की एक ख़ासियत है! वही फ़ाइलें मिलती हैं जिसका फ़ायदा मोदी-शाह उठा सकते हैं! बाक़ी या तो ग़ायब हो जाती हैं, या फिर जल जाती हैं!

लद्दाख में जनवादी व लोकप्रिय माँगों को लेकर चल रहे जनान्दोलन का बर्बर दमन

यह सच है कि सोनम वांगचुक सहित लद्दाख के आन्दोलन से जुड़े तमाम लोगों ने अनुच्छेद 370 को हटाने का समर्थन किया था। यह भी सच है कि सोनम वांगचुक की राजनीति एक सुधारवादी एनजीओपन्थ की राजनीति है और उन्होंने कश्मीरियों के दमन के ख़िलाफ़ कभी कुछ नहीं बोला। परन्तु आज जब फ़ासिस्ट राज्यसत्ता लद्दाख के लोगों के न्यायसंगत और जनवादी आन्दोलन का दमन करने पर उतारू है तो मज़दूर वर्ग के लिए यह लाज़िमी हो जाता है कि वह उनके आन्दोलन का समर्थन करे। दमन-उत्पीड़न की किसी एक भी घटना पर चुप्पी दरअसल आम तौर पर शासक वर्गों के दमन, उत्पीड़न और हिंसा के अधिकार को वैधता प्रदान करती है। ऐसे में, आज भारत में आम मेहनतकश आबादी को भी लद्दाख में चल रहे घटनाक्रम पर सर्वहारा नज़रिये से सही राजनीतिक अवस्थिति अपनाने की आवश्यकता है।

पंजाब में प्रवासियों के ख़िलाफ़ भड़कायी जा रही नफ़रत से किसको होगा फ़ायदा ?

तर्क-विवेक और न्यायबोध को एक ओर रखकर एक प्रवासी मज़दूर के दोष का ठीकरा सभी प्रवासियों पर फोड़ा जाने लगा। देखते-देखते पंजाब में रहने वाले लाखों प्रवासी श्रमिकों में भय की लहर दौड़ गयी और उन्हें डर के साये में धकेल दिया गया। यह पूरा मामला दर्शाता है कि लोगों की निम्न राजनीतिक चेतना का फ़ायदा उठाकर उनका ध्यान उनके असली मुद्दों से भटकाना कितना आसान है।

उमर ख़ालिद आदि की दिल्ली हाई कोर्ट से ज़मानत रद्द किया जाना – न्यायपालिका के फ़ासीवादीकरण का जीता-जागता उदाहरण

उमर ख़ालिद, गुलफ़िशा फ़ातिमा, शरजील इमाम, आनन्द तेलतुम्बडे जैसे सामाजिक कार्यकर्ता सालों से जेल में सड़ रहे हैं, लेकिन सत्ता पक्ष यानी फ़ासीवादी भाजपा व संघ परिवार से जुड़े या संरक्षण प्राप्त दंगाइयों, बलात्कारियों-व्याभिचारियों, भ्रष्टाचारियों व हत्यारों को कोई सज़ा नहीं मिलती है। फ़र्ज़ी मुठभेड़ करवाने और करने वालों को, झूठे आरोप व साक्ष्य गढ़ने वालों को, फ़र्ज़ी मुक़दमे चलाने वालों के ख़िलाफ़ अदालतें और न्यायाधीश चूँ तक नहीं करते हैं। आडवाणी, अमित शाह, आदित्यनाथ से लेकर प्रज्ञा सिंह ठाकुर, संगीत सोम, असीमानन्द, नरसिंहानन्द, कुलदीप सिंह सेंगर “बाइज़्ज़त बरी” कर दिये जाते हैं और इनके ख़िलाफ़ दर्ज हत्याओं, दंगों, धार्मिक उन्माद फैलाने, नफ़रती भड़काऊ भाषणों के तमाम मामले रातोंरात काफ़ूर हो जाते हैं। धारा 370 हटने से लेकर तमाम सबूतों को दरकिनार करते हुए राम जन्मभूमि मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के सभी जजों द्वारा एकराय से लिए गये फ़ैसले ये बताते हैं कि आज भारतीय न्यायपालिका का चरित्र किस हद तक फ़ासीवादी राज्यसत्ता के वैचारिक-राजनीतिक प्रोजेक्ट के अनुसार ढलता जा रहा है। फ़ासीवाद के मौजूदा दौर में इस देश की न्यायिक व्यवस्था भी नहीं चाहती है कि उसके चरित्र को लेकर कोई भ्रम या मुग़ालता पाला जाये!

लद्दाख से लेकर उत्तराखण्ड तक, नेपाल से लेकर बंगलादेश तक नयी युवा पीढ़ी का सड़कों पर उबलता रोष, लेकिन क्या स्वत:स्फूर्त विद्रोह पर्याप्त है ?

जनता के गुस्से का स्वत:स्फूर्त रूप से फूटना कितना भी हिंस्र और भयंकर हो, उसका स्वत:स्फूर्त विद्रोह कितना भी जुझारू हो, वह अपने आप में पूँजीवादी व्यवस्था को पलटकर कोई आमूलगामी बदलाव नहीं ला सकता है। वजह यह है कि ऐसे विद्रोह के पास कोई विकल्प नहीं होता है, कोई स्पष्ट राजनीतिक कार्यक्रम और नेतृत्व नहीं होता है। वह पूँजीवादी व्यवस्था के कुछ लक्षणों का निषेध करता है, लेकिन वह समूची पूँजीवादी व्यवस्था को कठघरे में नहीं खड़ा करता और न ही उसका कोई व्यावहारिक विकल्प पेश कर पाता है। क्या नहीं चाहिए, यह उसे कुछ लक्षणों के रूप में समझ आता है, लेकिन क्या चाहिए इसका कोई एक सुव्यवस्थित विचार उसके पास नहीं होता है।