Category Archives: फ़ासीवाद / साम्‍प्रदायिकता

मोदी सरकार व केचुआ के वोट-घोटाले के विरुद्ध देशव्यापी जनान्दोलन खड़ा करो! मतदान और निष्पक्ष व स्वतन्त्र चुनावों का अधिकार जनता का एक बुनियादी राजनीतिक जनवादी अधिकार है!

मौजूदा फ़ासीवादी निज़ाम में हमसे पहला अधिकार, यानी ‘चुनने का अधिकार’ भी प्रभावत: और व्यवहारत: छीन लिया गया है। ईवीएम घोटाले और वोट-चोरी घोटाले का यही अर्थ है। वोट किसी को भी दें, पहले से ही विजेता तय है, यानी भाजपा। हमने पहले भी लिखा है कि इक्कीसवीं सदी के फ़ासीवाद की एक ख़ासियत यह है कि यह खुले तानाशाही क़ानून लाकर चुनावों, संसदों, विधानसभाओं आदि को भंग नहीं करता है। उल्टे यह पूँजीवादी लोकतन्त्र के खोल को, यानी उसके रूप को बनाये रखता है। लेकिन साथ ही यह पूँजीवादी राज्यसत्ता के समूचे उपकरण पर एक लम्बी प्रक्रिया में अन्दर से कब्ज़ा करता है, यानी सेना, पुलिस, नौकरशाही, समस्त संवैधानिक संस्थाएँ, न्यायपालिका, आदि सभी में फ़ासीवादी संगठन एक लम्बी प्रक्रिया में घुसपैठ कर अपनी जगहें बना लेता है। उसी प्रकार, फ़ासीवादी संगठन समाज के भीतर भी अपनी शाखाओं, स्कूलों, मीडिया, सुधार-कार्य की संस्थाओं जैसे अस्पताल आदि के ज़रिये अपनी अवस्थितियाँ बाँध लेता है, यानी अपनी खन्दकें खोद लेता है।

फ़ासिस्ट मोदी सरकार की धुन पर केचुआ का केंचुल नृत्य

केन्द्रीय चुनाव आयोग अर्थात ‘केचुआ’। इसकी कोई रीढ़ की हड्डी नहीं बची है। वह इस बात को बार-बार नंगे रूप में साबित भी कर रहा है। खासकर पिछले कुछ सालों में वह भाजपा की गोद में लोट-लोट कर फ़ासीवाद की गटरगंगा से लगातार पूरे समाज में गन्द फैला रहा है। आज यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि केचुआ भाजपा के विंग की तरह ही काम कर रहा है। पिछले कुछ समय से हर दिन ऐसे तथ्य सामने आ रहे हैं जो इसे और पुख़्ता कर रहे हैं। हालिया समय में बिहार में ‘स्पेशल इण्टेन्सिव रिविज़न’ (एसआईआर) के तहत नागरिकता प्रमाण के आधार पर 65 लाख लोगों को वोटर लिस्ट से काटने और पिछले 7 अगस्त को राहुल गाँधी द्वारा पेश किये गए तथ्यों के बाद यह जगज़ाहिर हो गया कि आज इक्कीसवीं सदी का फ़ासीवाद किस तरीक़े से हमारे जनवादी अधिकार छीन रहा है। पिछले कुछ चुनावों में सीधे-सीधे धाँधली करके भाजपा की डूबती नैया को बचाना हो या फिर लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के ख़िलाफ़ खड़े हो रहे लोगों की उम्मीदवारी को ही रद्द कर देना हो, केचुआ द्वारा फ़ासीवादी मोदी सरकार के समक्ष साष्टांग दण्डवत करने की कई मिसालें मिल जायेंगी।

‘केरला स्टोरी’ को राष्ट्रीय पुरस्कार, एक बेहूदा मज़ाक़

घोर स्त्री-विरोधी और मुसलमानों के प्रति नफ़रत और कुंठा से भरी यह फ़िल्म समाज को पीछे धकेलेने के सिवाय और कोई भूमिका नहीं अदा करती है। दर्शक के दिमाग में मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत बिठाकर यह फ़िल्म यह साबित करने का प्रयास करती है कि सारे मुसलमान आतंकवादी होते हैं। इतना ही नहीं बीच-बीच मैं इस फ़िल्म में कम्युनिस्टों और कश्मीर में राजकीय फौजी दमन के विरुद्ध संघर्षरत वहाँ की आम जनता को भी आतंकवादी क़रार देने की पूरी कोशिश की जाती है। कम्युनिस्टों को यहाँ जिस तरह बुरी और विदेशी विचारधारा फैलने वाले लोग और पश्चिमी संस्कृति के वाहकों के तौर पर दर्शाया गया है। वाक़ई में जो विचारधारा मज़दूरों-मेहनतकशों की बात करती है और उनकी मेहनत की लूट के ख़िलाफ़ जंग छेड़ती है उसे “विदेशी” दर्शाने का असल मकसद ही यह है की दर्शक के दिमाग़ में मज़दूर-विरोधी, न्‍याय-विरोधी, समानता-विरोधी भावनाएँ और सोच बिठायी जा सके और उनमें साम्‍प्रदायिक ज़हर घोला जा सके और इस साम्‍प्रदायिक उन्‍माद को ही देशी या “राष्‍ट्रीय” विचारधारा घोषित कर दिया जाय।

श्रीराम सेने नामक साम्प्रदायिक संगठन के नेता की शर्मनाक हरकत – मुस्लिम प्रिंसिपल से थी चिढ़ तो स्कूल की पानी टंकी में मिला दिया ज़हर

कर्नाटक में घटित इस घटना ने हमें सोचने पर मज़बूर कर दिया है कि आख़िर हमारा समाज किस ओर जा रहा है। यह घटना दिखाती है कि फ़ासीवादी भाजपा और आरएसएस की नफ़रती राजनीति और ज़हरीली मानसिकता कितनी गहराई में अपनी पैठ बना चुकी है। सत्ता में आने के बाद से फ़ासीवादी मोदी सरकार ने साम्प्रदायिकता की आग में देश को धकेला है, उसके परिणाम अब नग्न रूप में दिखने लगा है। एक ख़ास क़ौम के ख़िलाफ़ कभी टीवी मीडिया के रीढ़विहीन एंकरों द्वारा तो कभी अनुराग ठाकुर, कपिल मिश्रा, हेमन्ता बिस्वा शर्मा जैसे दंगाइयों के द्वारा नफ़रत उगला जाता है। इससे स्थानीय स्तर पर मौजूद छोटे-छोटे साम्प्रदायिक संगठनों को खुली छूट मिलती है, जो किसी न किसी रूप में सीधे या घुमा-फिराकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की समूची मशीनरी का ही हिस्सा होते हैं। इसलिये श्री राम सेने नामक दक्षिणपन्थी संगठन के नेता द्वारा पानी में ज़हर मिलाने की घटना को आरएसएस और भाजपा की साम्प्रदायिक फ़ासीवादी राजनीति से अलग करके नहीं देखा जा सकता।

काम से निकालने की धमकियों और सरकारी आदेश जारी कर शामिल किया गया आँगनवाड़ीकर्मियों व अन्य महकमों के कर्मचारियों को मोदी द्वारा किये जा रहे उद्घाटन समारोह में

अव्वलन तो सरकार द्वारा ऐसे उद्घाटन समारोहों का औचित्य ही समझ से परे है। ऊपर से कर्मचारियों को छुट्टी के दिन जबरन धमकी दे कर इन कार्यक्रमों में शामिल करवाने की ज़रूरत इन्हें क्यों पड़ रही है, यह ज़ाहिर है। भाजपा सरकार का देश में 11 साल का कार्यकाल और दिल्ली में छः महीने ही मेहनतकश जनता के लिए नर्क साबित हुए है। शिक्षा, रोज़गार, आवास, स्वास्थ्य जैसी ज़रूरतों को पूरा करने के बजाय इस सरकार ने जनविरोधी-नीतियों को लागू किया है और लोगों को नक़ली मुद्दों में उलझाये रखा है। गोदी मीडिया के चहेते “वर्ल्ड लीडर” की यह कैसी लोकप्रियता है कि इन्हें अपने कार्यक्रमों में भीड़ जुटाने के लिए सरकारी मुलाज़िमों को धमकी देने की ज़रूरत पड़ रही है!

काँवड़ यात्रा के ज़रिये फैलाया गया साम्प्रदायिक उन्माद!

यात्रा के दौरान तेज आवाज़ में डीजे बजाना, मारपीट करना, किसी भी शक़ मात्र से किसी की जान ले लेना, छेड़खानी करना, ड्रग्स लेकर आम राहगीरों को उत्पीड़ित करना… क्या यह सहने योग्य है? इसका भला धर्म-कर्म से क्या लेना-देना? यह तो एक दिशाहीन लम्पट आबादी को साम्प्रदायिक उन्माद से भरकर अपनी राजनीति के लिए फ़ासीवादी संघ व भाजपा द्वारा इस्तेमाल किया जाना है। यात्रा के दौरान तमाम ऐसी घटनाएँ सामने आयी, जिससे यह पता चलता है कि काँवड़ यात्रा लम्पटों की एक ऐसी भीड़ बन गयी है, जिसमें कोई भी गैरक़ानूनी काम करने का लाइसेंस मिल जाता है।

‘महाराष्ट्र जन सुरक्षा क़ानून’ – “जन सुरक्षा” के नाम पर जनता के दमन की तैयारी!

सरकार की मर्जी के ख़िलाफ़ किसी भी व्यक्ति का सार्वजनिक व्यवस्था बिगाड़ने की ‘प्रवृत्ति’ होना, बस अब यह महसूस होने पर ही उक्त व्यक्ति अपराधी ठहराया जा सकता है। इसके लिए अब सरकार को सिर्फ “लगना” काफी होगा! क़ानून का उल्लंघन हुआ है या नहीं, यह तय करना अब तक न्यायालयों का काम था। सरकार आरोप लगा सकती थी, लेकिन न्यायालयों द्वारा फैसला आने तक अपराध सिद्ध नहीं माना जाता था। लेकिन इस क़ानून ने किसी संगठन को अवैध है या नहीं, यह तय करने का प्रभावी अधिकार सरकार को ही दे दिया है। धारा-3 के अनुसार सरकार राजपत्र में अधिसूचना जारी कर किसी भी संगठन को अवैध घोषित कर सकती है, और धारा-3(2) के अनुसार उसके कारण बताना भी सरकार के लिए अनिवार्य नहीं है।

‘बंगलादेशी घुसपैठियों’ के नाम पर देशभर में मेहनतकश ग़रीब जनता पर पुलिस, प्रशासन और संघी संगठनों की गुण्डागर्दी व बर्बरता

पहली बात तो यह कि हर वह व्यक्ति जो इस देश में रहता है या आता है, सिर्फ़ पेट लेकर नहीं आता बल्कि दो हाथ भी लेकर आता है और मेहनत-मशक्क़त करता है और अपने हक़ का खाता है, वह यहाँ बस सकता है क्योंकि वह परजीवी नहीं बल्कि इसी समाज में अपने श्रम से भौतिक सम्पदा का सृजन कर रहा है। अगर किसी बंगलादेशी को देश से बाहर करना चाहिए तो वह बंगलादेश की ज़ालिम भूतपूर्व शासक शेख़ हसीना है, जिसे भारत की मोदी सरकार ने पनाह दे रखी है! वह तो बस यहाँ ऐश कर रही है! लेकिन निशाना मज़दूरों को बनाया जा रहा है, जिनमें से अधिकांश तो बंगलादेश से आये भी नहीं हैं, वे बस मुसलमान हैं और बांग्लाभाषी हैं।

1975 का आपातकाल और आज का अघोषित आपातकाल

जो काम आरएसएस और उनके नेताओं ने अंग्रेज़ों के समय में किया था, वही काम आरएसएस और उनके नेताओं ने आपातकाल के दौरान भी किया यानी-माफ़ीनामा और दमन में सरकार का साथ देना! वास्तव में, मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी और छात्रों-युवाओं के बीच मौजूद क्रानितकारी एक्टिविस्ट सबसे बहादुरी के साथ लड़ रहे थे, आपातकाल का विरोध कर रहे हैं, दमन-उत्पीड़न झेल रहे थे और यहाँ तक कि शहादतें भी दे रहे थे। इनमें क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट सबसे आगे थे, जो जनता के हक़ों पर हो रहे हमलों का ज़बर्दस्त प्रतिरोध कर रहे थे। दूसरी ओर, आरएसएस कायरता के साथ अपनी माँद में दुबक गयी थी और उसके नेता शर्मनाक माफ़ीनामे लिख रहे थे। आज भाजपा की मोदी-शाह सरकार और भाजपाई आपातकाल के 50 वर्षों के पूरे होने पर सियारों की तरह हुआँ रहे हैं कि आपातकाल लागू करके इन्दिरा गाँधी और कांग्रेस ने कितना ज़ुल्म किया। लेकिन ये ख़ुद उस समय माफ़ीनामों के बण्डल पर बैठकर इन्दिरा गाँधी के नाम कसीदे पढ़ रहे थे।

मतदाता सूची संशोधन, 2025 : जनता के मताधिकार को चुराने के लिए भाजपा का हथकण्डा और पीछे के दरवाज़े से एनआरसी लागू करने की नयी साज़िश

इस पूरी प्रक्रिया को लागू करने की असली मंशा पीछे के दरवाज़े से NRC को लागू करने की भी है। NRC के द्वारा देश की मेहनतकश जनता के एक विचारणीय हिस्से से उसकी नागरिकता छीनने की साज़िश मोदी सरकार ने 6 साल पहले ही रची थी लेकिन उस समय जनान्दोलनों के दबाव के कारण वह उसे लागू नहीं कर पाई थी। आज चुनाव आयोग द्वारा पिछले दरवाज़े से उसी NRC को लागू करने की कोशिश की जा रही है। इसके द्वारा लोगों से पहले वोट देने का अधिकार छीना जायेगा उसके बाद उसे विदेशी व घुसपैठिया साबित कर उसके सारे जनवादी अधिकारों को छीन लिया जायेगा। इस मौक़े पर भी देश की मुख्य धारा की मीडिया (गोदी मीडिया ) सरकार के पक्ष में राय का निर्माण करने के अपने कर्तव्य को बख़ूबी निभा रही है। सुबह-शाम चीख-चीखकर मीडिया के एंकर इसे “देशहित” में बता रहे हैं।