भोपाल गैस हत्याकाण्ड के 40 साल
मेहनतकशों के हत्याकाण्डों पर टिका मानवद्रोही पूँजीवाद!!

बिगुल डेस्क

भोपाल गैस त्रासदी के 40 साल बाद आज भी इस नरसंहार के ज़ख्म ताज़ा हैं और न्याय के लिए लोगों के संघर्ष ज़िन्दा है। 2 दिसम्बर को भोपाल में इस घटना से प्रभावित लोगों और कई संगठनों ने प्रदर्शन कर सरकार के सामने एक बार फिर  अपनी माँगें रखी हालाँकि इस पूरे मसले में सरकार से लेकर न्याय व्यवस्था तक का चेहरा 1984 में ही साफ हो गया था।

2 दिसम्बर 1984 की रात को जो हुआ वह महज़ कोई दुर्घटना नहीं थी क्योंकि इस दिल दहला देने वाली घटना की पटकथा काफ़ी समय पहले से लिखी जा रही थी। मुनाफ़े की अन्धी हवस में अमेरिकी कम्पनी यूनियन कार्बाइड की भारतीय सब्सिडियरी यूसीआईएल चन्द पैसे बचाने के लिए सारे सुरक्षा उपायों को ताक पर रखकर मज़दूरों से काम करवा रही थी। मालूम हो कि नगरनिगम योजना के मानकों के अन्तर्गत भी इस फैक्ट्री को लगाना गलत था लेकिन मध्यप्रदेश सरकार ने यू.सी.सी. का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। 1979 तक फैक्ट्री ने काम भी शुरू कर दिया गया, लेकिन काम शुरू होते ही कई दुर्घटनाएँ हुईं। दिसम्बर 1981, में ही गैस लीक होने के कारण एक मज़दूर की मौत हो गई और दो बुरी तरह घायल हो गये। लगातार हो रही दुर्घटनाओं के मद्देनज़र मई, 1982 में तीन अमेरिकी इंजीनियरों की एक टीम फैक्ट्री का निरीक्षण करने के लिए बुलाई गई। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में साफ कहा कि मशीनों का काफी हिस्सा ख़राब है, एवं गैस भण्डारण की सुविधा अत्यन्त दयनीय है जिससे कभी भी गैस लीक हो सकती है और भारी दुर्घटना सम्भव है। इस रिपोर्ट के आधार पर 1982 में भोपाल के कई अखबारों ने लिखा था कि ‘वह दिन दूर नहीं, जब भोपाल में कोई त्रासदी घटित हो जाए।’ फिर भी न तो कम्पनी ने कोई कार्रवाई की और न ही सरकार ने।

मिथाइल आइसोसायनाइड गैस जो इतनी ज़हरीली होती है कि उसकी बहुत छोटी मात्रा ही भण्डारित की जा सकती है, परन्तु उसका इतना बड़ा भण्डार रखा गया था जो शहर की आबादी को ख़त्म करने के लिए काफ़ी था। इतना ही नहीं सुरक्षा इन्तज़ामों में भी एक-एक करके कटौती की गयी थी। मिथाइल आइसोसायनाइड गैस को 0 से 5 डिग्री तापमान पर भण्डारित करना आवश्यक होता है। जबकि कूलिंग सिस्टम 6 महीने पहले से ही बन्द था। गैस टैंक के मेण्टेनेंस स्टाफ़ की संख्या को भी घटाकर आधा कर दिया गया था और गैस लीक होने की चेतावनी देने वाला सायरन भी बन्द कर दिया गया था। फ़ैक्टरी में काम करने वाले मज़दूर जानते थे कि शहर मौत के मुहाने पर खड़ा है और उन्होनें फ़ैक्टरी प्रशासन को कई बार इसपर कार्यवाही करने को चेताया भी था किन्तु उनकी सुनने वाला भला वहाँ कौन था?

यह गैस इतनी ज़हरीली थी कि पचासों वर्ग किलोमीटर के दायरे में मवेशी और पक्षी तक मर गये और ज़मीन और पानी तक में इसका ज़हर फैल गया। जो उस रात मौत से बच गये वे चालीस साल बाद आज भी तरह-तरह की बीमारियों से जूझ रहे हैं। इस ज़हर के असर से कई-कई वर्ष बाद तक उस पूरे इलाके में पैदा होने वाले बच्चे जन्म से ही विकलांग या बीमारियाँ लिये पैदा हो रहे हैं।

कीटनाशक कारख़ाने की टेक्नोलॉजी बेहद पुरानी पड़ चुकी थी और ख़तरनाक होने के कारण उसे अन्य देशों में ख़ारिज भी किया जा चुका था परन्तु हमारे देश के हुक्मरानों ने मौत के उस कारखाने को लगाने से पहले लाखों मज़दूरों की ज़िन्दगियों के बारे में सोचने का बीड़ा नहीं उठाया!

आज भी वहाँ की ज़मीन और पानी से इस ज़हर का असर ख़त्म नहीं हुआ है। कई अध्ययनों ने साबित किया है कि माँओं के दूध तक में यह ज़हर घुल चुका है।

गैस जिस दिन मौत बनकर शहर पर टूटी तो इस लापरवाही के ज़िम्मेदार सफ़ेदपोश कातिलों में से किसी को खरोंच तक नहीं आयी क्योंकि वे फ़ैक्टरी इलाक़े और मज़दूर बस्तियों से काफ़ी दूर अपने आलीशान इमारतों में सुरक्षा के तमाम इन्तज़ाम के साथ बैठे थे।

पूँजीवाद का पूरा इतिहास बर्बर हत्याकाण्डों और नृशंस जनसंहारों से भरा हुआ है। इस मानवद्रोही-मुनाफ़ाखोर व्यवस्था ने युद्धों के दौरान हिरोशिमा और नागासाकी को अंजाम दिया है तो जैसे शान्ति के दिनों में भोपाल जैसे जनसंहारों का इतिहास रचा है। कम से कम बीस हज़ार लोगों को मौत के घाट उतारने और करीब छह लाख लोगों को बीमारियों और विकलांगता का शिकार बनाने वाली यह घटना दुनिया की सबसे बड़े औद्योगिक हत्याकाण्डों में से एक है।

इस हादसे ने जहाँ इस बात को एक बार फिर रेखांकित कर दिया कि मालिकों के लिए मज़दूरों की ज़िन्दगी से बढ़कर उनका मुनाफ़ा होता है। मुनाफ़े में किसी भी तरह की रुकावट और कमी को रोकने के लिए सुरक्षा के सारे इन्तज़ाम ताक पर रख दिये जाते हैं। वहीं दूसरी तरफ भोपाल गैस त्रासदी ने पूँजीवादी न्याय व्यवस्था और तमाम बुर्जुआ पार्टियों की असलियत को भी उघाड़ कर रख दिया।

भोपाल में जिस समय लाशों के ढेर लगे थे और शहर के अस्पताल घायलों एवं विकलांगों से पटे पड़े थे, उसी समय तत्कालीन राज्य सरकार हत्यारे वारेन एण्डरसन को बेशर्मी के साथ ससम्मान अमेरिका भेजने की जुगत में लगी हुई थी और उस समय मध्यप्रदेश के मुख्यमन्त्री रहे अर्जुन सिंह इस मुद्दे पर अपना बचाव करते हुए कहते हैं कि क़ानून-व्यवस्था को बनाये रखने के लिए एण्डरसन को भोपाल से बाहर निकालना ज़रूरी था। यह बेहूदा तर्क देकर हज़ारों बेगुनाहों के हत्यारे एण्डरसन को देश से भगाने का काम सरकार की शह पर हुआ। भोपाल की घटना ने इस बात को दिखा दिया कि पूँजीवादी सरकारें पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी होती हैं और पूँजीपति वर्ग और उनके हितों की रक्षा करना इनका सर्वोपरि कर्तव्य है। एण्डरसन के साथ ही कार्बाइड के भारतीय सब्सिडियरी के प्रमुख केशव महेन्द्रा सहित सभी बड़े अधिकारी भी जो इस नरसंहार के जिम्मेदार थे, उन्हें बचाने में पूरा सत्तातन्त्र ने अपनी जान लगा दी!

लाखों लोगों की मौत के ज़िम्मेदार लोगों पर 7 जून 2010 को भोपाल की एक निचली अदालत ने अपने फ़ैसले में कम्पनी के 8 पूँजीपतियों को 2-2 साल की सज़ा सुनायी और कुछ ही देर बाद उनकी जमानत भी हो गयी और वे ख़ुशी-ख़ुशी अपने घरों को लौट गये। दरअसल इन्साफ़ के नाम पर इस घिनौने मज़ाक़ की बुनियाद 1996 में भारत के भूतपूर्व प्रधान न्यायाधीश जस्टिस अहमदी द्वारा रख दी गयी थी जिसने कम्पनी और मालिकान पर आरोपों को बेहद हल्का बना दिया था और उन पर मामूली मोटर दुर्घटना के तहत लागू होने वाले क़ानून के तहत मुक़दमा दर्ज़ किया गया जिसमें आरोपियों को 2 साल से अधिक की सज़ा नहीं दी जा सकती और इसके बदले में अहमदी को भोपाल गैस पीड़ितों के नाम पर बने ट्रस्ट का आजीवन अध्यक्ष बनाकर पुरस्कृत किया गया। कई वर्ष बाद सरकार ने कम्पनी के साथ शर्मनाक समझौता किया जिसके तहत कम्पनी ने 47 करोड़ डॉलर का जुर्माना देकर लोगों की मौत और ज़िन्दगियों का सौदा किया।

इस  भयावह नरसंहार के इतने सालों बाद भी दोषी धड़ल्ले से आज़ाद घूम रहे हैं और इस त्रासदी से प्रभावित लोग धीमी मौत मरने के लिए मजबूर है।

भोपाल हादसे को चालीस बरस हो गये मगर इस बीच अनेक छोटे-छोटे भोपाल देशभर में होते रहे हैं। मुनाफ़े की अन्धाधुन्ध हवस में मज़दूरों और आम लोगों की मौत होती रहती है, जिनमें से कुछ अख़बारों की सुर्ख़ियाँ बनती हैं, मगर बहुतों की तो ख़बर तक नहीं हो पाती। हमें यह नहीं भूलना होगा कि जब तक पूँजीवाद रहेगा, भोपाल जैसे हादसे होते रहेंगे। फ़ासीवादी भाजपा सरकार के पिछले दस साल इस देश के मज़दूरों-मेहनतकशों के लिए बाद से बदतर हुए हैं,औद्योगिक हादसो की बात करें तो उसकी संख्या में भी काफी बढ़ोतरी हुई है।

भारत सरकार के श्रम मन्त्रालय की एक रिपोर्ट बताती है कि बीते पाँच वर्षो में 6500 मज़दूर फैक्ट्री, खदानों, निर्माण कार्य में हुए हादसों में अपनी जान गवाँ चुके हैं। इसमें से 80 प्रतिशत हादसे कारखानों में हुए। 2017-2018 कारखाने में होने वाली मौतों में 20 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। साल 2017 और 2020 के बीच, भारत के पंजीकृत कारखानों में दुर्घटनाओं के कारण हर दिन औसतन तीन मज़दूरों की मौत हुई और 11 घायल हुए। 2018 और 2020 के बीच कम से कम 3,331 मौतें दर्ज़ की गयी। आँकड़ों के मुताबिक, फैक्ट्री अधिनियम, 1948 की धारा 92 (अपराधों के लिए सामान्य दण्ड) और 96ए (ख़तरनाक प्रक्रिया से सम्बन्धित प्रावधानों के उल्लंघन के लिए दण्ड) के तहत 14,710 लोगों को दोषी ठहराया गया, लेकिन आँकड़ों से पता चलता है कि 2018 और 2020 के बीच सिर्फ़ 14 लोगों को फैक्ट्री अधिनियम, 1948 के तहत अपराधों के लिए सज़ा दी गयी। यह आँकड़े सिर्फ़ पंजीकृत फैक्ट्रियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि दिल्ली और पूरे देश में लगभग 90 फ़ीसदी श्रमिक अनौपचारिक क्षेत्र से जुड़े हैं और अनौपचारिक क्षेत्र में होने वाले हादसों के बारे में कोई पुख़्ता आँकड़े नहीं हैं।

मई 2022 में भारत की राजधानी नई दिल्ली के मुंडका इलाके में एक चार मंजिला इलेक्ट्रॉनिक्स फैक्ट्री में भीषण आग लग गई। इस हादसे में 27 लोगों की जान चली गई और ऐसी औद्योगिक दुर्घटनाओं आम बात बनती जा रही हैं जिसमें हर साल हजारों लोग मारे जाते हैं या फिर बीमारियों या विकलांगता की चपेट में आते हैं। बुनियादी सुरक्षा उपायों की कमी के कारण भारतीय कारखानों में हर दिन औसतन तीन कामगारों की मौत हो जाती है और मोदी सरकार द्वारा बचे-खुचे श्रम क़ानूनों को ख़त्म करने के बाद तो मज़दूरों की ज़िन्दगी के साथ खिलवाड़ को खुली छूट मिल जाएगी।

नए लेबर कोड के तहत ‘व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यस्थल स्थिति संहिता’ में नाम के उलट मज़दूरों की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ को क़ानूनी रूप दे दिया जाएगा क्योंकि इसमें सुरक्षा समिति बनाये जाने के काम को सरकार के विवेक पर छोड़ दिया गया है, जो पहले कारख़ाना अधिनियम, 1948 के हिसाब से अनिवार्य था। पुराने क़ानून में स्पष्ट किया गया था कि मज़दूर अधिकतम कितने रासायनिक और विषैले माहौल में काम कर सकते हैं, जबकि नये कोड में रासायनिक और विषैले पदार्थों की मात्रा का साफ़-साफ़ ज़िक्र करने के बजाय उसे निर्धारित करने का काम राज्य सरकारों के ऊपर छोड़ दिया गया है। मालिकों की सेवा में सरकार इस हद तक गिर गयी है कि इस कोड के मुताबिक़, अगर कोई मालिक, मज़दूरों के लिए तय किये गये काम के घण्टे, वेतन और अन्य ज़रूरी सुरक्षा सुविधाओं की शर्तें नहीं पूरी करता है तो भी उसे ‘कार्य-विशिष्ट’ का लाइसेंस दिया जा सकता है। यानी, अब क़ानूनी और खुले तौर पर इस देश के मेहनतकशों को अपना जीवन मालिकों के मुनाफ़े की भेंट चढ़ाना होगा।

फ़ासीवादी दौर में मेहनतकश जनता के मानवीय अधिकारों तथा जीने के अधिकारों का छीने जाना, उनकी लूट, दमन और हादसों के खि़लाफ़ कोई क़ानूनी कार्यवाही कर सकना असम्भव हो गया है।

भोपाल गैस हत्याकाण्ड पूँजीवादी व्यवस्था की क्रूरता की असलियत को दिखाता है। और साथ ही विधायिका से लेकर कार्यपालिका, न्यायपालिका तक के मज़दूर-विरोधी चरित्र को सरेआम बेपर्द करता है। मुनाफ़ाखोर व्यवस्था का यह भयानक इतिहास चीख़-चीख़कर इस मानवद्रोही व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंकने की माँग करता है।

 

 

मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2024 – जनवरी 2025


 

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