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जंगलों में आग की बढ़ती घटनाएँ – यह जलवायु परिवर्तन के मद्देनज़र कुदरत की चेतावनी है!

चाहे जंगलों में आग की घटनाएँ हों या बाढ़ व सूखे की घटनाएँ अथवा भूस्खलन और सूनामी की घटनाएँ हों, ये सभी चीख-चीख कर हमें चेतावनी दे रही हैं कि अगर हम अनियोजित व मुनाफ़ाकेन्द्रित उत्पादन प्रणाली को उखाड़कर नियोजित व लोगों की ज़रूरत पर आधारित उत्पादन प्रणाली नहीं लाते हैं यानी पूँजीवाद को उखाड़कर समाजवाद नहीं लाते हैं तो पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व ही नहीं बचेगा। केवल एक समाजवादी समाज में ही कृषि व औद्योगिक उत्पादन को योजनाबद्ध रूप से संचालित किया जा सकता है और यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि मनुष्य की उत्पादक गतिविधियाँ प्रकृति की तबाही का सबब न बनें और जलवायु परिवर्तन एवं पारिस्थितिक असन्तुलन न पैदा हो। चाहे जंगलों में लगी आग हो या पर्यावरण सम्बन्धी कोई भी समस्या हो, उसका जड़मूल समाधान केवल समाजवादी समाज में ही मुमकिन है क्योंकि समाजवाद में ही तमाम समस्याओं की तरह पर्यावरण की समस्या का समाधान भी आम बहुसंख्यक मेहनतकश वर्गों के हित में तथा सामुदायिक व सामूहिक तरीक़े से योजनाबद्ध ढंग से किया जा सकता है और विज्ञान व प्रौद्योगिकी का समस्त ज्ञान मुट्ठी भर लोगों के मुनाफ़े के लिए न होकर लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने और पर्यावरण की समस्याओं को दूर करने के लिए किया जा सकता है।

खाड़ी देशों में प्रवासी मज़दूरों के नारकीय हालात से उपजा एक और हादसा

खाड़ी के देशों में प्रवासी मज़दूरों के लिये कफ़ाला प्रणाली मौजूद है। कफ़ाला प्रणाली क़ानूनों और नीतियों का एक समुच्चय है जो प्रवासी मज़दूरों पर नियन्त्रण रखने के लिये ही बनाया गया है। इसके तहत कोई भी प्रवासी मज़दूर ठेकेदारों या मालिकों के पूर्ण नियन्त्रण में होता है। इसके अन्तर्गत मज़दूरों को देश में प्रवेश करने, वहाँ रहने और काम करने तथा वहाँ से बाहर जाने के लिये पूरी तरह से ठेकेदारों और मालिकों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। आमतौर पर अपने अनुबन्ध के पूरा होने से पहले, एक निश्चित समयावधि से पहले या अपने नियोक्ता की अनुमति के बिना वे नौकरी नहीं छोड़ सकते या उसे बदल नहीं सकते। जो लोग किसी कारण से नौकरी छोड़ते हैं, उन्हें फ़रार होने के अपराध में गिरफ़्तार तक कर लिया जाता है और कई मामलों में निर्वासित भी कर दिया जाता है। सीधे शब्दों में कहें तो कफ़ाला प्रणाली ठेकेदारों और मालिकों को शोषण करने की क़ानूनी इजाज़त देती है और इसके तहत मज़दूर बेहद कम तनख्वाह पर और नारकीय कार्य स्थितियों व जीवन स्थितियों में ग़ुलामों की तरह काम करने को मजबूर होते हैं।

मज़दूरों-मेहनतकशों के लिए लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजों के मायने – भावी सम्भावनाएँ, भावी चुनौतियाँ और हमारे कार्यभार

लोकसभा चुनाव के इस नतीजे का मुख्य कारण यह है कि बेरोज़गारी, महँगाई, भयंकर भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता से जनता त्रस्त थी और भाजपा की जनविरोधी और अमीरपरस्त नीतियों की वजह से उसकी जनता में भारी अलोकप्रियता थी। यही वजह थी कि आनन-फ़ानन में अपूर्ण राम मन्दिर के उद्घाटन करवाने का भी भाजपा को कोई फ़ायदा नहीं मिला और फ़ैज़ाबाद तक की सीट भाजपा हार गयी, जिसमें अयोध्या पड़ता है।

लोकसभा चुनाव में ईवीएम, केन्द्रीय चुनाव आयोग (केचुआ) और न्यायपालिका से सहयोग के भरोसे मोदी सरकार

राज्यसत्ता के समस्त निकायों में फ़ासीवादी घुसपैठ और उसके ऊपर आन्तरिक क़ब्ज़े की बात हम पिछले कई वर्षों से कहते आये हैं और ये सारा घटनाक्रम उसे सही सिद्ध कर रहा है। आज पूँजीवादी जनवाद का महज़ खोल बाकी है। औपचारिक तौर पर वोटिंग होती है लेकिन उसके भी निष्पक्ष, न्यायपूर्ण, पारदर्शी और ईमानदार होने पर गम्भीर सवालिया निशान हैं। और जब जनता उसके बारे में जानना चाहती है तो फ़ासीवादी सरकार का नारा होता है : “जनता को जानने का अधिकार नहीं!” भाजपा के खिलाफ़ बड़े पैमाने पर वोटिंग के कारण तमाम भ्रष्टाचार और हेरफेर के बावजूद अगर भाजपा चुनाव हारकर सरकार से बाहर भी हो जाये, तो राज्यसत्ता में उसकी घुसपैठ पर केवल मात्रात्मक असर ही पड़ सकता है।

फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में क्यों ‘इण्डिया’ गठबन्धन नहीं हो सकता  भाजपा का विकल्प?

अपने दूरगामी वर्ग संघर्ष के हितों को ध्यान में रखते हुए जनता को यह सुनिश्चित करना होगा कि 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को शिकस्त दी जाय। यह फ़ासीवाद की निर्णायक पराजय नहीं होगी, लेकिन यह फ़ासीवादी शक्तियों को एक तात्कालिक झटका देगी और जनता को अपनी शक्तियों को क्रान्तिकारी नेतृत्व के मातहत संचित और संगठित करने की एक मोहलत, वक़्त और मौका देगी। इसलिए यह नकारात्मक नारा हमारे लिए आज प्रासंगिक है कि भाजपा को हराया जाये। यह कोई सकारात्मक नारा नहीं है जो सीधे किसी अन्य पूँजीवादी दल या पूँजीवादी दलों के गठबन्धन को समर्थन देता है (जैसा कि संसदीय वामपन्थी, सुधारवादी और उदारवादी देते हैं), क्योंकि वह सर्वहारा पक्ष की स्वतन्त्रता को गिरवी रखने के समान होगा, वह किसी अन्य पूँजीवादी दल या उनके किसी गठबन्धन के राजनीतिक कार्यक्रम को समर्थन देना होगा।

लोकसभा चुनाव 2024 – हमारी चुनौतियाँ, हमारे कार्यभार, हमारा कार्यक्रम

देश की अट्ठारहवीं लोकसभा  के लिए चुनाव एक ऐसे समय में होने जा रहे हैं, जब हमारे देश में फ़ासीवादी उभार एक नये चरण में पहुँच चुका है। 2019 से 2024 के बीच ही राज्यसत्ता के फ़ासीवादीकरण और समाज में फ़ासीवादी सामाजिक आन्दोलन का उभार गुणात्मक रूप से नये चरण में गया है। ग़ौरतलब है कि किसी देश में फ़ासीवादी सामाजिक आन्दोलन का उभार और राज्यसत्ता का फ़ासीवादीकरण एक प्रक्रिया होती है, कोई घटना नहीं जो किसी निश्चित तिथि पर घटित होती है। इसलिए इसे समझा भी एक प्रक्रिया के तौर पर ही जा सकता है, जो कई चरणों और दौरों से गुज़रती है।

क्या ईवीएम सचमुच अभेद्य है?

विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि चुनाव आयोग की जानकारी के बिना बड़ी संख्या में छेड़छाड़ की गयी या नकली ईवीएम को असली ईवीएम से बदलना तीन चरणों में सम्भव है। पहला, ईवीएम निर्माण करने वाली कम्पनियों भारत इलेक्ट्रॉनिक लिमिटेड (बीईएल) और इलेक्ट्रॉनिक कॉर्पोरेशन ऑफ इण्डिया लिमिटेड (ईसीआईएल) में ईवीएम-निर्माण चरण में; दूसरा, गैर-चुनाव अवधि के दौरान जिला स्तर पर जब ईवीएम को अपर्याप्त सुरक्षा प्रणालियों के साथ कई स्थानों पर पुराने गोदामों में संग्रहीत किया जाता है; और तीसरा, चुनाव से पहले प्रथम-स्तरीय जाँच के चरण में जब ईवीएम की सेवा बीईएल और ईसीआईएल के अधिकृत तकनीशियनों द्वारा की जाती है।

मोदी सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार का बेशर्म ऐलान : बेरोज़गारी जैसी समस्याओं को हल करने की उम्मीद सरकार से न करें!

जिन लोगों को रोज़गार मिल भी रहा है उनमें पक्का रोज़गार पाने वाले लोगों की संख्या बमुश्किल 10 फ़ीसदी है। यानी 90 फ़ीसदी से ज़्यादा लोगों को अनौपचारिक क़िस्म का काम मिल रहा है, भले ही वे नियमित प्रकृति के काम कर रहे हों। जिन लोगों की गिनती रोज़गार प्राप्त लोगों में होती है उनमें से करीब दो-तिहाई स्व-रोज़गार की श्रेणी में आते हैं जो रोज़गार के नाम पर धोखा है। ऐसे स्व-रोज़गार प्राप्त लोगों का ही उदाहरण देते हुए हमारे प्रधानमन्त्री महोदय ने अपना 56 इंच का सीना फुलाते हुए पकौड़ा बेचने को भी रोज़गार बताया था। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि हाल के वर्षों में स्विगी और ज़ोमैटो जैसे प्लेटफ़ॉर्मों पर डिलीवरी का काम करने वाले गिग वर्करों की संख्या में इज़ाफ़ा हुआ है लेकिन उनके काम की ख़ून चूस लेने वाली और पीठ तोड़ देने वाली परिस्थितियों व सेवा शर्तों से हम सभी वाक़िफ़ हैं। इसके अलावा रिपोर्ट में इस तथ्य की भी पुष्टि हुई है कि कोविड लॉकडाउन की वजह से कृषि से उद्योग अथवा गाँवों से शहरों की ओर होने वाले पलायन में कमी आयी और इस दौर में जिन लोगों ने पलायन किया उन्हें उद्योग में नहीं बल्कि निर्माण व सेवाक्षेत्रों में ही रोज़गार मिला।  

दिल्ली के करावल नगर में जारी बादाम मज़दूरों का जुझारू संघर्ष : एक रिपोर्ट

हड़ताल मज़दूरों को सिखाती है कि मालिकों की शक्ति तथा मज़दूरों की शक्ति किसमें निहित होती है; वह उन्हें केवल अपने मालिक और केवल अपने साथियों के बारे में ही नहीं, वरन तमाम मालिकों, पूँजीपतियों के पूरे वर्ग, मज़दूरों के पूरे वर्ग के बारे में सोचना सिखाती है। जब किसी फ़ैक्टरी का मालिक, जिसने मज़दूरों की कई पीढ़ियों के परिश्रम के बल पर करोड़ों की धनराशि जमा की है, मज़दूरी में मामूली वृद्धि करने से इन्कार करता है, यही नहीं, उसे घटाने का प्रयत्न तक करता है और मज़दूरों द्वारा प्रतिरोध किये जाने की दशा में हज़ारों भूखे परिवारों को सड़कों पर धकेल देता है, तो मज़दूरों के सामने यह सर्वथा स्पष्ट हो जाता है कि पूँजीपति वर्ग समग्र रूप में समग्र मज़दूर वर्ग का दुश्मन है और मज़दूर केवल अपने ऊपर और अपनी संयुक्त कार्रवाई पर ही भरोसा कर सकते हैं।

उत्तराखण्ड समान नागरिकता क़ानून: अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने वाला और नागरिकों के निजी जीवन में राज्यसत्ता की दखलन्दाज़ी बढ़ाने वाला पितृसत्तात्मक फ़ासीवादी क़ानून

इस क़ानून के समर्थकों का दावा है कि यह महिलाओं के सशक्तीकरण की दिशा में उठाया गया क़दम है, जबकि सच्चाई यह है कि इस क़ानून के तमाम प्रावधान ऐसे हैं जो स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार नहीं देते हैं और पितृसत्तात्मक समाज को स्त्रियों की यौनिकता, उनकी निजता को नियन्त्रित करने का खुला मौक़ा देते हैं। इस क़ानून के सबसे ख़तरनाक प्रावधान ‘लिव-इन’ से जुड़े हैं जो राज्यसत्ता व समाज के रूढ़िवादी तत्वों को लोगों के निजी जीवन में दखलन्दाज़ी करने का पूरा अधिकार देते हैं। इन प्रावधानों की वजह से अन्तरधार्मिक व अन्तरजातीय सम्बन्धों पर पहरेदारी और सख़्त हो जायेगी। इन तमाम प्रतिगामी प्रावधानों को देखते हुए इस बात में शक की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती है कि यह अल्पसंख्यक-विरोधी एवं स्त्री-विरोधी क़ानून आज के दौर में फ़ासीवादी शासन को क़ायम रखने का औज़ार है। इसमें क़तई आश्चर्य की बात नहीं है कि भाजपा शासित मध्य प्रदेश व गुजरात की सरकारों ने भी इस प्रकार के क़ानून बनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी है।