Category Archives: Slider

बेरोज़गारी की आग अब टेक व आईटी सेक्टर के खाते-पीते मज़दूरों को भी ले रही है अपनी ज़द में

पिछले महीने प्राइवेट सेक्टर के स्वर्ग कहे जाने वाले टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज (टीसीएस), और उसके बाद पूरे आईटी सेक्टर में, तब खलबली मच गयी जब कम्पनी ने 12,000 कर्मचारियों की छँटनी का खुलासा किया। इनमें से कई मँझोले स्तर के खाते-पीते, 6 से 10 साल काम कर चुके कर्मचारी भी हैं। नौकरी से निकाले जाने वाले इन कर्मचारियों को उनकी छँटनी के बारे में पहले से कोई सूचना या कोई नोटिस भी नहीं दी गयी है। टीसीएस कर्मचारियों के अनुसार हर दिन दर्जनों कर्मचारियों को मैनेजर के दफ़्तर में बुलाकर धमकाया जा रहा है कि अगर वे “स्वेच्छा” से नौकरी से इस्तीफ़ा नहीं देते हैं तो उनकी वेतन रोक दी जायेगी और उन्हें ‘ब्लैकलिस्ट’ कर दिया जायेगा जिससे उन्हें भविष्य में कोई दूसरी कम्पनी नौकरी नहीं देगी। आईटी सेक्टर के कार्यपद्धति के जानकारों का यह कहना है कि इस तरीक़े से डरा-धमका कर “स्वैच्छिक” इस्तीफ़ा लेना आईटी सेक्टर में एक आम बात है जो हर कम्पनी करती है। यह इसलिए किया जाता है ताकि इस मसले पर कम्पनियों की अपनी जबावदेही ख़त्म हो जाये और औद्योगिक विवाद अधिनियम जैसे बचेखुचे श्रम क़ानूनों और छँटनी-सम्बन्धी क़ानूनों में उन्हें न उलझना पड़े। बिना नोटिस के छँटनी करना और फिर डरा-धमका कर “स्वैच्छिक” इस्तीफ़ा लेने पर मजबूर करना – यह पूरी प्रक्रिया निहायत ही ग़ैरक़ानूनी है। लेकिन बिडम्बना यह है कि टीसीएस, विप्रो, इन्फोसिस, एचसीएल जैसी बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ यह सब श्रम विभाग और सरकार के शह पर करती हैं। आख़िर मज़ाल है किसी की जो “विकसित भारत” के विकास रथ के इन अग्रिम घोड़ों के तरफ़ आँख भी उठाकर देख सके!

मोदी सरकार व केचुआ के वोट-घोटाले के विरुद्ध देशव्यापी जनान्दोलन खड़ा करो! मतदान और निष्पक्ष व स्वतन्त्र चुनावों का अधिकार जनता का एक बुनियादी राजनीतिक जनवादी अधिकार है!

मौजूदा फ़ासीवादी निज़ाम में हमसे पहला अधिकार, यानी ‘चुनने का अधिकार’ भी प्रभावत: और व्यवहारत: छीन लिया गया है। ईवीएम घोटाले और वोट-चोरी घोटाले का यही अर्थ है। वोट किसी को भी दें, पहले से ही विजेता तय है, यानी भाजपा। हमने पहले भी लिखा है कि इक्कीसवीं सदी के फ़ासीवाद की एक ख़ासियत यह है कि यह खुले तानाशाही क़ानून लाकर चुनावों, संसदों, विधानसभाओं आदि को भंग नहीं करता है। उल्टे यह पूँजीवादी लोकतन्त्र के खोल को, यानी उसके रूप को बनाये रखता है। लेकिन साथ ही यह पूँजीवादी राज्यसत्ता के समूचे उपकरण पर एक लम्बी प्रक्रिया में अन्दर से कब्ज़ा करता है, यानी सेना, पुलिस, नौकरशाही, समस्त संवैधानिक संस्थाएँ, न्यायपालिका, आदि सभी में फ़ासीवादी संगठन एक लम्बी प्रक्रिया में घुसपैठ कर अपनी जगहें बना लेता है। उसी प्रकार, फ़ासीवादी संगठन समाज के भीतर भी अपनी शाखाओं, स्कूलों, मीडिया, सुधार-कार्य की संस्थाओं जैसे अस्पताल आदि के ज़रिये अपनी अवस्थितियाँ बाँध लेता है, यानी अपनी खन्दकें खोद लेता है।

‘महाराष्ट्र जन सुरक्षा क़ानून’ – “जन सुरक्षा” के नाम पर जनता के दमन की तैयारी!

सरकार की मर्जी के ख़िलाफ़ किसी भी व्यक्ति का सार्वजनिक व्यवस्था बिगाड़ने की ‘प्रवृत्ति’ होना, बस अब यह महसूस होने पर ही उक्त व्यक्ति अपराधी ठहराया जा सकता है। इसके लिए अब सरकार को सिर्फ “लगना” काफी होगा! क़ानून का उल्लंघन हुआ है या नहीं, यह तय करना अब तक न्यायालयों का काम था। सरकार आरोप लगा सकती थी, लेकिन न्यायालयों द्वारा फैसला आने तक अपराध सिद्ध नहीं माना जाता था। लेकिन इस क़ानून ने किसी संगठन को अवैध है या नहीं, यह तय करने का प्रभावी अधिकार सरकार को ही दे दिया है। धारा-3 के अनुसार सरकार राजपत्र में अधिसूचना जारी कर किसी भी संगठन को अवैध घोषित कर सकती है, और धारा-3(2) के अनुसार उसके कारण बताना भी सरकार के लिए अनिवार्य नहीं है।

मध्य-पूर्व में साम्राज्यवादी युद्ध का विस्तार – युद्ध, नरसंहार और विनाश के अलावा साम्राज्यवाद मानवता को कुछ और नहीं दे सकता!

आने वाले दिनों में अमेरिकी साम्राज्यवाद अपने पतित होते वर्चस्व को रोकने के लिए मध्य-पूर्व सहित दुनिया के विभिन्न हिस्सों में युद्ध, नरसंहार, बेपनाह हिंसा का सहारा लेने से बाज़ नहीं आने वाला है। मध्य-पूर्व में चल रही मौजूदा उथल-पुथल का असर न सिर्फ़ उस क्षेत्र में होगा बल्कि तेल व गैस का भण्डार होने की वजह से उस क्षेत्र मे अस्थिरता का असर समूचे विश्व की अर्थव्यवस्थाओं पर होना लाज़िमी है। साथ ही यह उथल-पुथल, अनिश्चितता और अस्थिरता जनबग़ावतों की ज्वाला को भी भड़काने का काम करेगी।

विश्व की “चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था” के शोर के पीछे की सच्चाई

जीडीपी का बढ़ना किसी भी देश की आर्थिक स्थिति के ठीक होने का सूचक नहीं है। क्योंकि इससे इस बात का पता नहीं चलता कि देश में पैदा होने वाली कुल सम्पदा का कितना हिस्सा देश के बड़े धनपशु हड़प लेते हैं और देश की आम मेहनतकश जनता की स्थिति क्या है? पिछले दिनों विश्व असमानता लैब की नवीनतम रिपोर्ट ‘भारत में आय और सम्पत्ति असमानता, 1922-2023: अरबपति राज का उदय’ (मार्च 2024) ने बताया कि भारत की शीर्ष 1% आबादी का राष्ट्रीय आय के 22.6% हिस्से पर नियन्त्रण है। शीर्ष 10% आबादी के पास राष्ट्रीय आय का 57.7% हिस्सा है, जबकि निचले 50% के पास केवल 15% हिस्सा है। यह असमानता दुनिया में सबसे अधिक है। साफ़ है कि दुनिया की “चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था” में पूँजीपतियों-धन्नासेठों की तिजोरियों का आकार तो बढ़ता जा रहा है लेकिन आम मेहनतकश आबादी इस “चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था” में तबाही और बरबादी की और गहरी खाई में धकेली जा रही है। यह हास्यास्पद है कि जिस जापान को पीछे छोड़कर चौथी अर्थव्यवस्था होने का दावा किया जा रहा है, वहाँ प्रति व्यक्ति जीडीपी भारत की तुलना में लगभग 11.8 गुना अधिक है।

रेखा गुप्ता सरकार दिल्ली में मज़दूरों की बस्तियों पर बेरहमी से चला रही है बुलडोज़र!

पूँजीवाद में एक तरफ़ गाँव से शहरों की ओर प्रवास जारी रहता है और दूसरी तरफ़ शहर फैलते रहते हैं जिसमें शहरी “विकास” हर-हमेशा ग़रीबों की बस्तियों को उजाड़ने की क़ीमत पर किया जाता है। जो सीमित वैकल्पिक आवास मज़दूरों को मुहैया कराये जाते हैं वे मज़दूरों के रोज़गार के स्थान से दूर तथा अस्पताल, शिक्षा, पानी, बिजली जैसी सुविधाओं से रिक्त होते हैं। दिल्ली में बवाना और नरेला में झुग्गियों को उजाड़कर बसायी झुग्गी-झोंपड़ी क्लस्टर के मकान झुग्गियों से भी बदतर जीवन स्थिति देते हैं। झुग्गी-मुक्त शहर के दावे झूठे और बेमानी हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार ही भारत में 6.5 करोड़ झुग्गीवासी थे और क़रीब एक लाख झुग्गियाँ थीं। ये झुग्गियाँ पटरी किनारे, नाले किनारे या शहर के कोनों में बसी होती हैं जहाँ बिजली, पानी, सीवर, शौचालय, सड़क से लेकर साफ़-सफ़ाई की समस्या हमेशा रहती है। हालाँकि कई रिपोर्टें बताती हैं कि यह आँकड़ा सटीक नहीं था और असल संख्या 14-15 करोड़ है।

पाठ्यक्रमों में बदलाव और इतिहास का विकृतिकरण करना फ़ासीवादी एजेण्डा है!

भारतीय फ़ासीवादियों का इतिहास को बदलने की एक वजह और है। वह है भारतीय राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन में इनकी ग़द्दारी। आज यह कितना भी ख़ुद को सबसे बड़ा देशभक्त होने के तमगे दे लें लेकिन सच्चाई से सब वाकिफ़ हैं कि आज़ादी की लड़ाई में इन्होंने एक ठेला तक नहीं उठाया उल्टे चन्द्रशेखर आज़ाद जैसे क्रान्तिकारियों की मुखबिरी की। वी डी सावरकर जैसे इनके नेताओं ने माफ़ीनामे लिखकर दिये।

भारत की मेहनतकश जनता को फ़िलिस्तीन की जनता का साथ क्यों देना चाहिए?

अगर आपके देश में कोई साम्राज्यवादी ताक़त आकर कब्ज़ा कर ले तो क्या आपको हथियार उठा कर लड़ने का हक़ है? बिल्कुल है। अगर आप अन्तरराष्ट्रीय क़ानून की बात करें, जिसे सभी देश मान्यता देते हैं, तो वह भी कहता है कि किसी भी जबरन कब्ज़ा करने वाली ताक़त के ख़िलाफ़ किसी भी देश के लोगों को हथियारबन्द बग़ावत करने और अपनी आज़ादी के लिए सशस्त्र संघर्ष करने की पूरी आज़ादी है। यह आतंकवाद नहीं है। यह आत्मरक्षा और मुक्ति के लिए और ग़ुलामी के विरुद्ध संघर्ष है। अगर आप को हथियारबन्द ताक़त और हिंसा के ज़रिये कोई ग़ुलाम बनाकर रखता है तो अन्तरराष्ट्रीय क़ानून के ही मुताबिक आप हथियारबन्द संघर्ष और क्रान्तिकारी हिंसा द्वारा उसकी मुख़ालफ़त कर सकते हैं, उसके विरुद्ध लड़ सकते हैं। यह भी हम नहीं, अन्तरराष्ट्रीय क़ानून कहता है, जिसे सभी देशों से मान्यता प्राप्त है, भारत से भी।

हैदराबाद की एक मज़दूर बस्ती नन्दा नगर में मज़दूरों की ज़िन्दगी की जद्दोजहद की एक तस्वीर

इस बस्ती में स्थानीय तेलुगूभाषी मज़दूरों के अलावा उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, उड़ीसा व पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों से आने वाले प्रवासी मज़दूर भी बड़ी संख्या में रहते हैं। यहाँ रहने वाले पुरुष कुशल मज़दूरों को 8 से 10 घण्टे काम के लिए औसतन 30 दिन के काम के बदले 12 से 15 हज़ार का वेतन मिलता है। जबकि स्त्री मज़दूरों को महज़ 8 से 12 हज़ार वेतन मिलता है। अकुशल मज़दूरों को इससे भी कम तनख़्वाह मिलती है। आसमान छूती महँगाई के दौर में गैस सिलिण्डर, राशन–सब्ज़ी, बच्चों की शिक्षा, दवा -इलाज का ख़र्च पूरा करना मज़दूर परिवारों के लिए बेहद मुश्किल होता है। मज़दूरों को एक छोटे से कमरे के लिए 5 से 6 हज़ार रुपये किराये के देने पड़ते हैं। इस प्रकार मज़दूरों का आधा वेतन तो किराया देने में ही निकल जाता है और बाक़ी सभी ख़र्चों के लिए शेष आधा वेतन ही बचता है। इस वजह से मज़दूरों को हर महीने आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ता है।

शहीदे-आज़म भगतसिंह आज देश के मज़दूरों, ग़रीब किसानों और मेहनतकशों को क्या सन्देश दे रहे हैं?

भारत के मज़दूरो, ग़रीब किसानो, आम मेहनतकशो और आम छात्रो व युवाओ! तुम चाहे किसी भी धर्म, जाति, नस्ल, क्षेत्र या भाषा से रिश्ता रखते हो, तुम्हारे राजनीतिक व आर्थिक हित समान हैं, तुम्हारी एक जमात है! तुम्हें लूटने वाली इस देश की परजीवी पूँजीवादी जमात है जिसमें कारख़ाना मालिक, खानों-खदानों के मालिक, ठेकेदार, धनी व्यापारी, धनी किसान व ज़मीन्दार, दलाल और बिचौलिये शामिल हैं! ये जोंक के समान इस देश की मेहनतकश अवाम के शरीर पर चिपके हुए हैं! ये ही इस देश की मेहनत और कुदरत की लूट के बूते अपनी तिजोरियाँ भर रहे हैं! इनके जुवे को अपने कन्धों से उतार फेंको! इसके लिए संगठित हो, अपनी क्रान्तिकारी पार्टी का निर्माण करो! केवल यही शहीदे-आज़म भगतसिंह की स्मृतियों को इस देश के मेहनती हाथों का सच्चा क्रान्तिकारी सलाम होगा, उनको सच्ची आदरांजलि होगी : एक ऐसे समाज का निर्माण करके जिसमें सुई से लेकर जहाज़ बनाने वाले मेहनतकश वर्ग उत्पादन, समाज और राज-काज पर अपना नियन्त्रण स्थापित करेंगे, परजीवी लुटेरी जमातों के हाथों से राजनीतिक और आर्थिक सत्ता छीन ली जायेगी, जो मेहनत नहीं करेगा उसे रोटी खाने का भी अधिकार नहीं होगा, दूसरे की मेहनत की लूट का हक़ किसी को नहीं होगा, जिसमें, भगतसिंह के ही शब्दों में, मनुष्य के हाथों मनुष्य का शोषण असम्भव हो जायेगा।