Category Archives: शिक्षा और रोज़गार

उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग के ख़िलाफ़ छात्रों के आन्दोलन से हम मजदूरों को क्या सीखना चाहिए?

बिना किसी क्रान्तिकारी नेतृत्व के कोई भी स्वत:स्फूर्त आन्दोलन या जनउभार कुछ सफलताओं और अराजकता के साथ अन्ततः ज़्यादा से ज़्यादा किसी समझौते या अक्सर असफलता पर ही ख़त्म होता है। पिछले एक दशक में ही ऐसे तमाम जनान्दोलन दुनिया भर में देखने में आये हैं, जो स्वत:स्फूर्त थे, अपनी ताक़त से शासक वर्ग को भयभीत कर रहे थे, लेकिन किसी स्पष्ट राजनीतिक लक्ष्य, कार्यक्रम और नेतृत्व के अभाव में अन्त में वे दिशाहीन हो गये, जनता अन्तत: थककर वापस लौटी और शासक वर्गों को अपने आपको और अपनी सत्ता को वापस सम्भाल लेने का अवसर मिल गया। ऐसा ही हमें श्रीलंका और बंगलादेश में अचानक से हुए जनउभार में देखने को मिला। यही हमें अरब जनउभार में भी देखने को मिला था। इसलिए जो एक नकारात्मक सबक हमें इन उदाहरणों से मिलता है, वह यह कि हमें अपना ऐसा स्वतन्त्र राजनीतिक नेतृत्व और संगठन विकसित करना चाहिए जो पूँजीपति वर्ग के सभी चुनावबाज़ दलों के असर से मुक्त हो, पूर्ण रूप से मज़दूर वर्ग की नुमाइन्दगी करता हो, उसकी राजनीति और विचारधारा मज़दूर वर्ग की राजनीति और विचारधारा हो। ऐसे क्रान्तिकारी सर्वहारा संगठन के बिना जनसमुदाय कभी भी अपने जनान्दोलनों के उद्देश्यों की पूर्ति तक नहीं पहुँच सकते।

काम के अत्यधिक दबाव और वर्कलोड से हो रही मौतें : ये निजी मुनाफ़े की हवस की पूर्ति के लिए व्यवस्थाजनित हत्याएँ हैं!

अत्यधिक कार्य दवाब से लोगों की मौत या और साफ़ शब्दों में कहे तो व्यवस्थाजनित हत्याओं पर सिर्फ़ अफ़सोस जताने से कुछ हासिल नहीं होगा। एक तरफ़ इस व्यवस्था में मुनाफ़े की हवास का शिकार होकर मरते लोग हैं और दूसरी ओर अत्यधिक कार्य दिवस की वकालत करने वाले धनपशुओं के “उपदेश” हैं। पिछले साल अक्टूबर में, इन्फ़ोसिस के सह संस्थापक नारायण मूर्ति ने कहा कि देश की आर्थिक तरक्की के लिए भारतीय युवाओं को सप्ताह में 70 घण्टे काम करना चाहिए! भारत में ओला के प्रमुख भावेश अग्रवाल ने उनके विचार से सहमति जतायी थी और कहा था कि काम और ज़िन्दगी के बीच संतुलन जैसे विचार में वह भरोसा नहीं करते और हिदायत दी कि “अगर आपको अपने काम में मज़ा आ रहा है, तो आपको अपनी ज़िन्दगी और काम दोनों में ख़ुशी मिलेगी, दोनों संतुलित रहेंगे।” साल 2022 में बॉम्बे शेविंग कम्पनी के संस्थापक शांतनु देशपांडे ने नौजवानों से काम के घण्टे को लेकर शिकायत नहीं करने को कहा था और सुझाव दिया था कि किसी भी नौकरी में रंगरूटों को अपने करियर के पहले चार या पाँच सालों में दिन के 18 घण्टे काम करने के लिए तैयार रहना चाहिए।

अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के आरक्षण में उप वर्गीकरण – मेहनतकशों को आपस में बाँटने का एक नया हथकण्डा !!

सच्चाई यह है कि जब नवउदारवादी दौर में सरकारी नौकरियाँ ही नहीं हैं, तो किसी जाति को औपचारिक तौर पर कितना आरक्षण दिया जाता है, दलितों के आरक्षण के बीच में कितना और कैसा उपवर्गीकरण कर दिया जाता है, उससे इस समूचे वर्ग की नियति पर, उनके हालात पर कोई गुणात्मक फ़र्क नहीं पड़ने वाला है। जब नौकरियों की पैदा होने की दर ही शून्य के निकट है और अगर उसे काम करने योग्य आबादी में होने वाली बढ़ोत्तरी के सापेक्ष रखें, तो नकारात्मक में है, तो फिर इन श्रेणीकरणों और वर्गीकरणों को आरक्षण की लागू नीति में घुसा देने से किसे क्या हासिल हो जायेगा? पूँजीवादी व्यवस्था में नगण्य होते अवसरों के लिए दलित मेहनतकश व आम मध्यवर्गीय जनता में ही आपस में सिर-फुटौव्वल होगा, दलित जातियों के बीच ही आपस में विभाजन की रेखाएँ खिंच जायेंगी और इसका पूरा फ़ायदा देश के हुक़्मरान उठायेंगे।

देश में बेतहाशा बढ़ती बेरोज़गारी

भारत में बेरोज़गारी तेजी से बढ़ रही है। भले ही लोगों का विकास नहीं हो रहा हो, पर बेरोज़गारी में लगातार ‘विकास’ देखने को मिल रहा है। करोड़ों मज़दूर और पढ़े-लिखे नौजवान, जो शरीर और मन से दुरुस्त हैं और काम करने के लिए तैयार हैं, उन्हें काम के अवसर से वंचित कर दिया गया है और मरने, भीख माँगने या अपराधी बन जाने के लिए सड़कों पर धकेल दिया गया है। आर्थिक संकट के ग़हराने के साथ हर दिन बेरोज़गारों की तादाद में बढ़ोत्तरी होती जा रही है। बहुत बड़ी आबादी ऐसे लोगों की है, जिन्हें बेरोज़गारी के आँकड़ों में गिना ही नहीं जाता लेकिन वास्तव में उनके पास साल में कुछ दिन ही रोज़गार रहता है या फिर कई तरह के छोटे-मोटे काम करके भी वे मुश्किल से जीने लायक कमा पाते हैं। हमारे देश में काम करने वालों की कमी नहीं है, प्राकृतिक संसाधनों की कोई कमी नहीं है, जीवन के हर क्षेत्र में बुनियादी सुविधाओं के विकास और रोज़गार के अवसर पैदा करने की अनन्त सम्भावनाएँ मौजूद हैं, फिर भी आज देश में बेरोज़गारी आसमान छू रही है।

पूँजीवाद आपके बेहतर जीवन के सपने को कैसे बर्बाद कर रहा है!

आप अगर भारत में रहने वाले निचले 90 प्रतिशत लोगो में शामिल हैं, जो मेहनत-मशक्कत कर एक बेहतर ज़िन्दगी का सपना देखते हैं, जिसमें आपका अपना घर हो, अच्छी नौकरी हो, बच्चे अच्छी शिक्षा पा रहे हों, तो आप यह ज़रूर जानते होंगे कि यह सपना पूरा होना आज कितना मुश्किल होता जा रहा है। देश की बहुसंख्यक आबादी की ज़िन्दगी इसी सपने को पूरा करने के प्रयास में ख़त्म हो जाती है।

दिशा छात्र संगठन और नौजवान भारत सभा के नेतृत्व में दिल्ली के जन्तर-मन्तर पर पेपर लीक और भर्तियों में धाँधली के खिलाफ़ छात्रों-युवाओं का जुझारू प्रदर्शन!

इस देश के हुक्मरानों का अपनी न्यायपूर्ण माँगों के लिए शान्तिपूर्ण विरोध कर रहे आम छात्रों-युवाओं के प्रति रवैया फिर से साफ़ हो गया। ख़ासतौर पर भाजपा सरकार के कार्यकाल के दौरान देश में बेरोज़गारी, परीक्षाओं में पेपर लीक और भर्तियों में भ्रष्टाचार पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ चुका है। प्रधानमन्त्री मोदी जी ने कभी इस बात पर गर्व किया था कि हमारा देश युवा आबादी का सबसे बड़ा देश है। लेकिन युवा आबादी के इस सबसे बड़े देश के युवाओं का भविष्य अँधेरे की गर्त में है। पिछले सात सालों के दौरान 80 से ज़्यादा परीक्षाओं के पेपर लीक हो चुके हैं। भर्तियों में होने वाला भ्रष्टाचार हम सबके सामने है। आरओ-एआरओ, यूपी पुलिस भर्ती परीक्षा, बीपीएससी से लेकर हाल में नीट और यूजीसी नेट जैसी परीक्षाओं की एक लम्बी फ़ेहरिस्त है। इस पर भी मौजूदा शिक्षा मन्त्री धर्मेन्द्र प्रधान संसद में यह बयान देने की बेशर्मी कर रहे हैं कि भाजपा के कार्यकाल में एक भी पर्चा लीक नहीं हुआ है। केन्द्रीय विश्वविद्यालयों की प्रवेश परीक्षाएँ भी आयोजित करने वाली एनटीए जैसी संस्था को बिना किसी सुव्यवस्थित ढाँचे के चलाया जा रहा है जिसका नतीजा यह है कि एनटीए द्वारा आयोजित की जाने वाली परीक्षाओं में बड़े पैमाने पर अनियमितताएँ सामने आ रही हैं। एनटीए द्वारा आयोजित की जाने वाली सभी परीक्षाएँ प्राइवेट एजेंसियों के माध्यम से करायी जा रही हैं।

सक्षम आँगनवाड़ी और पोषण 2.0 का अक्षम और कुपोषित बजट

नयी शिक्षा नीति 2020 के तहत शिक्षा के निजीकरण को बढ़ावा देने की स्कीम में आँगनवाड़ीकर्मियों के श्रम की लूट का भी हिस्सा है। ‘पोषण भी – पढ़ाई भी’ योजना मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में ही शुरू कर दिया गया था। इसके अनुसार आँगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को अब औपचारिक प्राथमिक शिक्षा का भार उठाना पड़ेगा। ज़ाहिरा तौर पर कार्यकर्ताओं का बोझ बढ़ेगा, मानदेय नहीं! एक रिपोर्ट के अनुसार जुलाई 2023 में पोषण ट्रैकर ऐप से जुटाया गया आँकड़ा यह बताता है कि महराष्ट्र, ओड़ीसा, राजस्थान और तेलंगाना में लाभार्थी और आँगनवाड़ी कार्यकर्ता का अनुपात क्रमशः 67.7, 55.4, 75.6 और 64.5 है। आबादी की ज़रूरत के अनुसार नये केन्द्र खोले जाने, खाली पड़े पदों की भर्ती इत्यादि पर महिला एवं बाल विकास मन्त्रालय का कोई ठोस कार्यक्रम नहीं है।

दिल्ली में निजी कोचिंग संस्थानों के मुनाफ़े की हवस ने ली छात्रों की जान

दिल्ली का ओल्ड राजेन्द्र नगर देश के कई इलाक़ों की तरह एक केन्द्र है जहाँ देश भर से छात्र आईएएस-आईपीएस बनने का सपना लेकर आते हैं। उनके इसी सपने का सौदा किया जाता है और जो इस सौदे को ख़रीदने की औकात रखता है, उसे ही इसके लिये सोचने का भी मौका दिया जाता है। यह बात दीगर है कि उसमें से एक प्रतिशत लोग भी यह सपना पूरा नहीं कर पाते हैं। आगे आँकड़ों से हम इस बात की पुष्टि भी करेंगे। यहाँ छात्रों के आते ही उन्हें लूटने की होड़ मची होती है। पहले तो यहाँ कोचिंग संस्थानों की फ़ीस लाखों में होती हैं जहाँ सैकड़ों छात्रों के कई बैच चलाये जाते हैं। इसमें भी छात्रों को भ्रमित करने और पैसे ऐंठने के लिये अलग-अलग कई किस्म के कोर्स रखे जाते हैं। इतना ही नही, इनसे वहाँ रहने पर भी इन्हें लूटा जाता है।

बंगलादेश का जनउभार और मेहनतकशों की एक क्रान्तिकारी पार्टी की ज़रूरत

राजनीतिक उथल-पुथल और विकल्पहीनता की इस स्थिति में धार्मिक कट्टरपंथी और साम्प्रदायिक ताक़तें बंगलादेश में मौजूद अल्पसंख्यकों को निशाना बनाकर अपनी नफ़रती राजनीति को हवा देने का काम कर रही हैं हालाँकि आन्दोलनकारी छात्रों-युवाओं-मज़दूरों ने इस साम्प्रदायिक राजनीति का सक्रिय प्रतिकार किया है। उन्होंने अल्पसंख्यक इलाक़ों में अपनी टोलियाँ बनाकर साम्प्रदायिक ताक़तों को खदेड़ने की मुहिम भी चलायी है। यहाँ इस बात को ध्यान में रखना भी ज़रूरी है कि भारत की मोदी सरकार और उसका भोंपू मीडिया यहाँ पर साम्प्रदायिक तनाव बढ़ाने के अपने घिनौने एजेंडे के तहत बंगलादेश में हिन्दुओं पर हमलों की घटनाओं को बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहा है।

एनटीए में पेपर लीक के लिए मोदी सरकार, प्रशासन और शिक्षा माफ़िया का नापाक गठजोड़ ज़िम्मेदार है

एक अनुमान के मुताबिक़ पिछले सात सालों में पर्चा लीक और परीक्षाओं में धाँधली की वजह से 1 करोड़ 80 लाख से ज़्यादा छात्र प्रभावित हुए हैं और कई छात्र अवसाद और निराशा में आत्महत्या तक के क़दम उठा रहे हैं। इतने बड़े पैमाने पर हो रही धाँधली के बाद अब तक मोदी सरकार और इसकी तमाम एजेंसियों ने जाँच के नाम पर केवल लीपापोती ही की है। हर बार ऐसी घटनाओं के बाद बयानबाज़ी और लफ्फाज़ी का दौर शुरू होता है। कुछ छोटे-मोटे कर्मचारियों, कुछ छात्रों को इसका ज़िम्मेदार ठहराकर पूरे मामले को ठिकाने लगा दिया जाता है और बहुत सफ़ाई के साथ असली अपराधियों को बचा लिया जाता है। यही वजह है कि मोदी सरकार के शासनकाल में अब तक इस मामले में न तो कोई बड़ी गिरफ़्तारी हुई है और न ही कोई कार्रवाई हुई है।