Category Archives: शिक्षा और रोज़गार

भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ा दिल्ली के शाहबाद डेरी इलाके का उच्च माध्यमिक विद्यालय

शिक्षा का अधिकार जीने के अधिकार के साथ जुड़ा हुआ है। समान और निःशुल्क शिक्षा हर बच्चे का जन्मसिद्ध अधिकार है। अगर हम आज शिक्षा के क्षेत्र में जारी ग़ैरबराबरी के ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठायेंगे, तो अपने बच्चों के भविष्य के बरबाद होने के ज़िम्मेदार हम भी होंगे। याद रखें कि चुप्पी अन्याय करने वालों के लिए एक मौन समर्थन होता है। जिस तरह से हम ज़िन्दगी भर एक जगह से दूसरी जगह काम के लिए भागते रहते हैं, अगर आज हम नहीं बोलेंगे, तो हमारे बच्चे भी वैसी ही ज़िन्दगी जीने के लिए मजबूर होंगे।

फ़ासीवादियों द्वारा इतिहास के साम्प्रदायिकीकरण का विरोध करो! अपने असली इतिहास को जानो! (भाग-1)

फ़ासिस्ट इतिहास से ख़ौफ़ खाते हैं। ये इतिहास को इसलिए भी बदल देना चाहते हैं क्योंकि इनका अपना इतिहास राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन से ग़द्दारी, माफ़ीनामे लिखने, क्रान्तिकारियों की मुख़बिरी करने, साम्प्रदायिक हिंसा और उन्माद फैलाने का रहा है। जब भगतसिंह जैसे क्रान्तिकारी राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन में अपनी शहादत दे रहे थे, तो उस दौर में संघी फ़ासिस्टों के पुरखे लोगों को समझा रहे थे कि अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ने की बजाय मुसलमानों और कम्युनिस्टों के ख़िलाफ़ लड़ना चाहिए! संघी फ़ासिस्टों के गुरु “वीर” सावरकर का माफ़ीनामा, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे लोगों द्वारा मुख़बिरी और गाँधी की हत्या में संघ की भूमिका और ब्रिटिश सत्ता के प्रति वफ़ादारी के इतिहास को अगर फ़ासिस्ट सात परतों के भीतर छिपा देना चाहते हैं तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

मनरेगा मज़दूरों ने कैथल के ढाण्ड ब्लॉक में प्रदर्शन कर मज़दूर दिवस के शहीदों को किया याद

मनरेगा मज़दूरों के हालात पर ही बात की जाये तो आज कैथल जिले में मनरेगा के काम के हालात बेहद बदतर है। वैसे तो सरकार मनरेगा में 100 दिन के काम की गारण्टी देती है लेकिन वह अपनी ज़ुबान पर कहीं भी खरी नहीं उतरती। आँकड़ों के हिसाब से पूरे देशभर में और कलायत में भी मनरेगा में काम की औसत लगभग 25-30 दिन सालाना भी बड़ी मुश्किल से पड़ती है। हम सभी जानते है कि गाँवों में भी कमरतोड़ महँगाई के कारण मज़दूरों को परिवार चलाने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। ऐसे में हर रोज़ अपना हाड़-माँस गलाकर पेट भरने वाले मज़दूरों को गाँव में भी किसी न किसी काम-धन्धे  की ज़रूरत तो है ही।  ऐसे में उनका सहारा केवल मनरेगा ही हो सकता है। लेकिन मनरेगा में पहले से ही बजट में कमी के साथ-साथ अफसरों पर भी धाँधली करने के आरोप लगते रहते हैं।

पाठ्यक्रमों में बदलाव और इतिहास का विकृतिकरण करना फ़ासीवादी एजेण्डा है!

भारतीय फ़ासीवादियों का इतिहास को बदलने की एक वजह और है। वह है भारतीय राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन में इनकी ग़द्दारी। आज यह कितना भी ख़ुद को सबसे बड़ा देशभक्त होने के तमगे दे लें लेकिन सच्चाई से सब वाकिफ़ हैं कि आज़ादी की लड़ाई में इन्होंने एक ठेला तक नहीं उठाया उल्टे चन्द्रशेखर आज़ाद जैसे क्रान्तिकारियों की मुखबिरी की। वी डी सावरकर जैसे इनके नेताओं ने माफ़ीनामे लिखकर दिये।

अर्बन कम्पनी की “इंस्टा हेल्प” स्कीम: घरेलू कामगारों की सस्ती श्रमशक्ति से मुनाफ़ा कमाने की स्कीम!

घरेलू कामगारों के तहत काम करने वाली आबादी में अधिकांश संख्या स्त्री मज़दूरों की है। काम के दौरान घरेलू कामगारों की सुरक्षा की गारण्टी सुनिश्चित करने की कोई जवाबदेही कम्पनी अपने ऊपर नहीं लेगी। गुडगाँव से लेकर नोएडा और दिल्ली के अलग-अलग मध्यवर्गीय कॉलोनियों में घरेलू कामगारों के साथ होने वाली जघन्य घटनाओं, यौन-उत्पीड़न, छेड़खानी, जातिगत भेदभाव इत्यादि ख़बरों के हम साक्षी बनते रहते हैं। कई मसले तो पैसों के ढेर के नीचे दबा दिये जाते हैं और सामने तक नहीं आते। 15 मिनट में सेवा मुहैया कराने वाली इस स्कीम के आने के बाद ऐसी घटनाएँ और बढ़ेंगी क्योंकि भारत का खाया-पीया-अघाया और मानवीय मूल्यों से रहित खाता-पीता मध्य वर्ग कम से कम समय में अधिक से अधिक काम करवाने की लालसा के साथ इंस्टा हेल्प का इस्तेमाल करेगा और प्लेटफ़ॉर्म कम्पनियाँ क्योंकि औपचारिक तौर पर नियोक्ता की भूमिका में नहीं हैं, इसलिए उनकी कोई जवाबदेही इन तमाम मसलों पर नहीं होगी। प्लेटफ़ॉर्म कम्पनी से पहले यह काम तमाम प्लेसमेण्ट एजेंसियाँ करती रही हैं, जो उचित मज़दूरी या सुरक्षा की गारण्टी दिये बिना रोज़गार के लिए उच्च शुल्क वसूल कर घरेलू श्रमिकों का शोषण करती हैं। श्रमिकों को अक्सर उनके रोज़गार की शर्तों (जिनमें वेतन या नौकरी की ज़िम्मेदारियाँ शामिल हैं) के बारे में जानकारी नहीं दी जाती है।

साम्प्रदायिक फ़ासीवादी दौर में घटता जनवादी स्पेस व बढ़ते छात्र-युवा आन्दोलन

आज छात्रों को विराजनीतिकरण के ख़िलाफ़ संघर्ष करते हुए कैम्पस से बाहर भी निकलना होगा और आम मेहनतकश जनता के साथ मिलकर जनविरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठानी होगी। साथ ही, आम मेहनतकश जनता को भी जनवादी अधिकारों पर हो रहे हमलों के ख़िलाफ़ खड़ा होना होगा, जिसमें छात्र- युवा आन्दोलन के सही माँगो के साथ खड़ा होना भी शामिल है।

तेलंगाना में जातिगत जनगणना : युवाओं को रोज़गार देने में फिसड्डी रेवन्त रेड्डी सरकार का नया शिगूफ़ा

जातिगत जनगणना के समर्थन में एक अन्य तर्क यह दिया जा रहा है कि इससे भाजपा व संघ परिवार की हिन्दुत्व की राजनीति को मात दी जा सकती है। इस प्रकार का तर्क देने वाले यह मानकर चलते हैं कि यह हिन्दुत्व की राजनीति के द्वारा निर्मित हिन्दू एकता को निश्चय ही तोड़ेगा। परन्तु ऐसे लोग यह नहीं समझ पाते कि अन्य फ़ासीवादी विचारधाराओं की ही तरह हिन्दुत्व की विचारधारा का भी सबसे महत्वपूर्ण अंग व्यवहारवाद है। हिन्दुत्व फ़ासीवादी जहाँ एक ओर मुस्लिमों को दुश्मन बताते हुए एक पूर्ण रूप से विचारधारात्मक हिन्दू पहचान का निर्माण करते हैं वहीं दूसरी तरफ़ उन्हें जाति-आधारित पहचान की राजनीति करने से भी कोई परहेज़ नहीं है। अलग-अलग मंचों पर अलग-अलग श्रोताओं के अनुसार वे अलग-अलग पहलुओं पर ज़ोर देते हैं। उच्च जातियों के बीच घोर ब्राह्मणवादी श्रेष्ठतावादी प्रचार करने के साथ ही साथ उन्होंने पिछड़ी व दलित जातियों के बीच जाति-आधारित पहचान की राजनीति करने में अन्य सभी बुर्जुआ पार्टियों को पीछे छोड़ दिया है और साथ ही वे सभी हिन्दुओं के बीच मुस्लिम-विरोधी राजनीति को ज़हर फैलाते रहते हैं। यह महज़ इत्तेफ़ाक नहीं है कि भाजपा का उभार मण्डल की राजनीति के साथ-साथ ही हुआ और आज भाजपा के समर्थन आधार का बहुलांश पिछड़ी जातियों, दलितों व आदिवासियों के बीच से आता है। इस प्रकार मण्डल 1.0 कभी भी भाजपा की हिन्दुत्व की राजनीति के लिए प्रभावी चुनौती नहीं रहा है और यह मानने की कोई वजह नहीं है कि मण्डल 2.0 ऐसा करने में सक्षम होगा।

चिन्मय स्कूल प्रशासन की आपराधिक लापरवाही से प्रिन्स की मौत, फिर भी स्कूल प्रशासन को बचाने में लगी दिल्ली पुलिस

मोटी-मोटी फीस लेने वाले ये निजी स्कूल सरकार से शिक्षा के नाम पर सस्ती ज़मीन, बिजली और पानी हासिल करते हैं और मुनाफ़े की हवस में बेहद अप्रशिक्षित और अयोग्य लोगों को बेहद कम तनख्वाहों पर काम पर रखते हैं जो इस तरह के संकट से निपटने में अक्षम होते हैं। स्कूल प्रशासन की इस ग़ैर-ज़िम्मेदारी, लापरवाही और लचर व्यवस्था ने एक मासूम बच्चे की जान ले ली और एक माँ की गोद सूनी कर दी। प्रिन्स की हत्या हुई है और हत्यारा स्कूल प्रशासन है।

बढ़ती बेरोज़गारी के शिकार छात्रों-युवाओं पर टूटता फ़ासीवादी कहर – बिहार और उत्तराखण्ड में छात्रों पर बरसी लाठियाँ

फ़ासीवादी भाजपा सरकार छात्रों-युवाओं के लिए काल साबित हुई है। बेरोज़गारी के इस तूफ़ान ने करोड़ों छात्रों के भविष्य को अन्धकारमय बना दिया है। देश में अपराधों का रिकार्ड रखने वाली संस्था एनसीआरबी के आँकड़ों को देखें तो पता चला चलता है कि केवल वर्ष 2022 में 1 लाख 12 हज़ार छात्रों ने आत्महत्या की है। एक तरफ़ बेरोज़गारी जब विकराल रूप लेती जा रही है तो वहीं पर भर्तियों में भी तमाम तरीक़े के नये नियम लागू करके परिक्षाओं में चयन की प्रक्रिया को बेहद जटिल और मुश्किल बनाया जा रहा है। इसका ताज़ा उदाहरण इसी साल सितम्बर में झारखण्ड में हुई उत्पाद सिपाही भर्ती परीक्षा का है जिसमें दौड़ के नियमों में बदलाव करके 60 मिनट में 10 किलोमीटर दौड़ने का प्रावधान किया गया जबकि ये पहले 6 मिनट में 1600 मीटर था। इसका नतीज़ा ये हुआ कि दौड़ने के दौरान ही 12 छात्रों की मौत हो गयी।

उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग के ख़िलाफ़ छात्रों के आन्दोलन से हम मजदूरों को क्या सीखना चाहिए?

बिना किसी क्रान्तिकारी नेतृत्व के कोई भी स्वत:स्फूर्त आन्दोलन या जनउभार कुछ सफलताओं और अराजकता के साथ अन्ततः ज़्यादा से ज़्यादा किसी समझौते या अक्सर असफलता पर ही ख़त्म होता है। पिछले एक दशक में ही ऐसे तमाम जनान्दोलन दुनिया भर में देखने में आये हैं, जो स्वत:स्फूर्त थे, अपनी ताक़त से शासक वर्ग को भयभीत कर रहे थे, लेकिन किसी स्पष्ट राजनीतिक लक्ष्य, कार्यक्रम और नेतृत्व के अभाव में अन्त में वे दिशाहीन हो गये, जनता अन्तत: थककर वापस लौटी और शासक वर्गों को अपने आपको और अपनी सत्ता को वापस सम्भाल लेने का अवसर मिल गया। ऐसा ही हमें श्रीलंका और बंगलादेश में अचानक से हुए जनउभार में देखने को मिला। यही हमें अरब जनउभार में भी देखने को मिला था। इसलिए जो एक नकारात्मक सबक हमें इन उदाहरणों से मिलता है, वह यह कि हमें अपना ऐसा स्वतन्त्र राजनीतिक नेतृत्व और संगठन विकसित करना चाहिए जो पूँजीपति वर्ग के सभी चुनावबाज़ दलों के असर से मुक्त हो, पूर्ण रूप से मज़दूर वर्ग की नुमाइन्दगी करता हो, उसकी राजनीति और विचारधारा मज़दूर वर्ग की राजनीति और विचारधारा हो। ऐसे क्रान्तिकारी सर्वहारा संगठन के बिना जनसमुदाय कभी भी अपने जनान्दोलनों के उद्देश्यों की पूर्ति तक नहीं पहुँच सकते।