Category Archives: बुर्जुआ जनवाद – दमन तंत्र, पुलिस, न्‍यायपालिका

‘आई लव मुहम्मद’ विवाद और उसका फ़ासीवादी साम्प्रदायिक इस्तेमाल

कानपुर में मुस्लिमों पर एकतरफ़ा कार्यवाई के बाद पुलिस ने सफ़ाई देते हुए कहा कि यह कार्यवाई ‘आई लव मुहम्मद’ पर नहीं बल्कि नई परम्परा शुरू करने और माहौल ख़राब करने के लिए की गयी है।  लेकिन सवाल यह है कि माहौल ख़राब करने में हिन्दू संगठन के लोग भी ज़िम्मेदार थे लेकिन उन पर कोई कार्यवाई क्यों नहीं हुई? अपनी धार्मिक आस्था के अनुसार पोस्ट डालना कैसे गुनाह हो गया? बजरंग दल से लेकर कई कट्टरपंथी हिन्दू संगठनों ने ‘आई लव महादेव’ से लेकर ‘आई लव योगी’ तक के पोस्टर, बैनर लगाये और सोशल मीडिया पर पोस्ट डाली। लेकिन तब इस “नई परम्परा” पर कोई कार्यवाई नहीं हुई। सोशल मीडिया पर मुस्लिम-विरोधी साम्प्रदायिक पोस्ट की बाढ़ आ गयी लेकिन इस पर भी कोई कार्यवाई नहीं हुई। हाथरस में एक प्रदर्शन में तो ‘आई लव यूपी पुलिस’, ‘आई लव योगी’ और ‘आई लव महादेव’ के बैनर लेकर लोग नारे लगा रहे थे- ‘यूपी पुलिस तुम लट्ठ बजाओ, हम तुम्हारे साथ हैं’! क्या इससे माहौल ख़राब नहीं होता?

अडाणी की लूट उजागर करने पर स्वतन्त्र पत्रकारों को नोटिस – अब देश को बेधड़क लूट रहे धनकुबेरों का नाम लेना भी गुनाह!

आज जिस स्तर पर भाजपा खुले आम पूँजीपतियों के लिए काम कर रही है, यह किसी से शायद ही छिपा हो। ऐसे में थोड़ी-सी सच्चाई भी जनता को पता चलना सत्ता में बैठे फ़ासीवादियों को गवारा नहीं है। लोग पहले ही महँगाई, बेरोज़गारी, महँगी शिक्षा, महँगी स्वास्थ्य सेवाओं आदि जैसे मुद्दों से परेशान हैं। भाजपा और संघ की लाख कोशिशों के बावजूद हिन्दू–मुस्लिम, मन्दिर–मस्जिद, हिन्दुस्तान–पाकिस्तान जैसे नकली मुद्दे बड़ा रूप अख़्तियार नहीं कर पा रहे हैं। इसके उलट, बिहार में अडाणी को सस्ते दर पर ज़मीन देने, गडकरी के बेटे के एथेनॉल घोटाले से लेकर वोट चोरी का मामला छिपाये नहीं छिप रहा है। ऐसे में रही-सही मीडिया की आज़ादी इनके गले में हड्डी बन रही है।

लद्दाख में जनवादी व लोकप्रिय माँगों को लेकर चल रहे जनान्दोलन का बर्बर दमन

यह सच है कि सोनम वांगचुक सहित लद्दाख के आन्दोलन से जुड़े तमाम लोगों ने अनुच्छेद 370 को हटाने का समर्थन किया था। यह भी सच है कि सोनम वांगचुक की राजनीति एक सुधारवादी एनजीओपन्थ की राजनीति है और उन्होंने कश्मीरियों के दमन के ख़िलाफ़ कभी कुछ नहीं बोला। परन्तु आज जब फ़ासिस्ट राज्यसत्ता लद्दाख के लोगों के न्यायसंगत और जनवादी आन्दोलन का दमन करने पर उतारू है तो मज़दूर वर्ग के लिए यह लाज़िमी हो जाता है कि वह उनके आन्दोलन का समर्थन करे। दमन-उत्पीड़न की किसी एक भी घटना पर चुप्पी दरअसल आम तौर पर शासक वर्गों के दमन, उत्पीड़न और हिंसा के अधिकार को वैधता प्रदान करती है। ऐसे में, आज भारत में आम मेहनतकश आबादी को भी लद्दाख में चल रहे घटनाक्रम पर सर्वहारा नज़रिये से सही राजनीतिक अवस्थिति अपनाने की आवश्यकता है।

फ़िलिस्तीन के समर्थन में हो रहे प्रदर्शनों पर केरल सीपीएम सरकार का दमन बदस्तूर जारी!

देश के अन्य राज्यों में सीपीएम और उसके छात्र संगठन व ट्रेड यूनियन चना जोर गरम बाते करते हैं, पर केरल में आते ही इनकी आँखों पर गाँधारी वाली पट्टी बन्ध जाती है। केरल में सीपीएम ने भी अन्य चुनावबाज़ पार्टियों की तरह ही उदारीकरण-निजीकरण की जन-विरोधी नीतियों को धड़ल्ले से लागू किया है और लम्बे समय से सत्ता की मलाई चाट रही है। साथ ही “प्रगतिशीलता का चोला” ओढ़कर इन्होनें आम जनता में भी भ्रम बना कर रखा था, जो अब टूटता जा रहा है। सत्ता बचाने की ख़ातिर अब इनके मुख्यमन्त्री खुलकर खुशी-खुशी मोदी और अडाणी के साथ मंच साझा करते हैं। बीते 2 मई को नरेन्द्र मोदी ने केरल के तिरुवनन्तपुरम में विझिनजाम अन्तर्राष्ट्रीय बन्दरगाह का उद्घाटन किया। इसी कार्यक्रम में केरल के मुख्यमन्त्री पिनाराई विजयन, अडानी समूह के अध्यक्ष गौतम अडाणी के साथ मौजूद थे। बता दें कि इसी विझिनजाम अन्तरराष्ट्रीय बन्दरगाह परियोजना के ख़िलाफ़ 2022 में सीपीएम और भाजपा ने मिलकर प्रदर्शन भी किया था। इसमें सीपीएम के ज़िला सचिव अनवूर नागप्पन और भाजपा ज़िलाध्यक्ष वी.वी राजेश ने एक साथ भागीदारी की थी। फ़ासीवाद और सामाजिक-फ़ासीवाद की गलबहियाँ देखते ही बन रही थी!

नेपाल में युवाओं की बग़ावत के बाद केपी शर्मा ओली की भ्रष्ट सत्ता का पतन

नेपाल के युवाओं का विद्रोह सिर्फ़ सत्तारूढ़ संशोधनवादी पार्टी या उसके नेताओं के ख़िलाफ़ ही नहीं बल्कि उन सभी पार्टियो व नेताओं एवं धन्नासेठों के ख़िलाफ़ था जिन्होंने पिछले 2 दशकों के दौरान सत्ता में भागीदारी की या जो सत्ता के निकट रहे हैं। यही वजह है कि प्रदर्शनकारियों के निशाने पर संसद, प्रधानमन्त्री निवास, शासकीय व प्रशासनिक मुख्यालय, उच्चतम न्यायालय के अलावा तमाम बड़ी पार्टियों के कार्यालय और उनके नेताओं के आवास भी थे जिनमें पाँच बार नेपाल के प्रधानमन्त्री रह चुके शेर बहादुर देउबा और माओवादी नेता व पूर्व प्रधानमन्त्री प्रचण्ड के आवास भी शामिल थे। इसके अलावा प्रदर्शनकारियों ने काठमांडू की कई बहुमंज़िला व्यावसायिक इमारतों और आलीशान होटलों में भी आग लगा दी जो धनाढ्यता का प्रतीक थीं। इस प्रकार यह बग़ावत वस्तुत: समूचे पूँजीवादी निज़ाम के ख़िलाफ़ थी।

उमर ख़ालिद आदि की दिल्ली हाई कोर्ट से ज़मानत रद्द किया जाना – न्यायपालिका के फ़ासीवादीकरण का जीता-जागता उदाहरण

उमर ख़ालिद, गुलफ़िशा फ़ातिमा, शरजील इमाम, आनन्द तेलतुम्बडे जैसे सामाजिक कार्यकर्ता सालों से जेल में सड़ रहे हैं, लेकिन सत्ता पक्ष यानी फ़ासीवादी भाजपा व संघ परिवार से जुड़े या संरक्षण प्राप्त दंगाइयों, बलात्कारियों-व्याभिचारियों, भ्रष्टाचारियों व हत्यारों को कोई सज़ा नहीं मिलती है। फ़र्ज़ी मुठभेड़ करवाने और करने वालों को, झूठे आरोप व साक्ष्य गढ़ने वालों को, फ़र्ज़ी मुक़दमे चलाने वालों के ख़िलाफ़ अदालतें और न्यायाधीश चूँ तक नहीं करते हैं। आडवाणी, अमित शाह, आदित्यनाथ से लेकर प्रज्ञा सिंह ठाकुर, संगीत सोम, असीमानन्द, नरसिंहानन्द, कुलदीप सिंह सेंगर “बाइज़्ज़त बरी” कर दिये जाते हैं और इनके ख़िलाफ़ दर्ज हत्याओं, दंगों, धार्मिक उन्माद फैलाने, नफ़रती भड़काऊ भाषणों के तमाम मामले रातोंरात काफ़ूर हो जाते हैं। धारा 370 हटने से लेकर तमाम सबूतों को दरकिनार करते हुए राम जन्मभूमि मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के सभी जजों द्वारा एकराय से लिए गये फ़ैसले ये बताते हैं कि आज भारतीय न्यायपालिका का चरित्र किस हद तक फ़ासीवादी राज्यसत्ता के वैचारिक-राजनीतिक प्रोजेक्ट के अनुसार ढलता जा रहा है। फ़ासीवाद के मौजूदा दौर में इस देश की न्यायिक व्यवस्था भी नहीं चाहती है कि उसके चरित्र को लेकर कोई भ्रम या मुग़ालता पाला जाये!

लद्दाख से लेकर उत्तराखण्ड तक, नेपाल से लेकर बंगलादेश तक नयी युवा पीढ़ी का सड़कों पर उबलता रोष, लेकिन क्या स्वत:स्फूर्त विद्रोह पर्याप्त है ?

जनता के गुस्से का स्वत:स्फूर्त रूप से फूटना कितना भी हिंस्र और भयंकर हो, उसका स्वत:स्फूर्त विद्रोह कितना भी जुझारू हो, वह अपने आप में पूँजीवादी व्यवस्था को पलटकर कोई आमूलगामी बदलाव नहीं ला सकता है। वजह यह है कि ऐसे विद्रोह के पास कोई विकल्प नहीं होता है, कोई स्पष्ट राजनीतिक कार्यक्रम और नेतृत्व नहीं होता है। वह पूँजीवादी व्यवस्था के कुछ लक्षणों का निषेध करता है, लेकिन वह समूची पूँजीवादी व्यवस्था को कठघरे में नहीं खड़ा करता और न ही उसका कोई व्यावहारिक विकल्प पेश कर पाता है। क्या नहीं चाहिए, यह उसे कुछ लक्षणों के रूप में समझ आता है, लेकिन क्या चाहिए इसका कोई एक सुव्यवस्थित विचार उसके पास नहीं होता है।

काम से निकालने की धमकियों और सरकारी आदेश जारी कर शामिल किया गया आँगनवाड़ीकर्मियों व अन्य महकमों के कर्मचारियों को मोदी द्वारा किये जा रहे उद्घाटन समारोह में

अव्वलन तो सरकार द्वारा ऐसे उद्घाटन समारोहों का औचित्य ही समझ से परे है। ऊपर से कर्मचारियों को छुट्टी के दिन जबरन धमकी दे कर इन कार्यक्रमों में शामिल करवाने की ज़रूरत इन्हें क्यों पड़ रही है, यह ज़ाहिर है। भाजपा सरकार का देश में 11 साल का कार्यकाल और दिल्ली में छः महीने ही मेहनतकश जनता के लिए नर्क साबित हुए है। शिक्षा, रोज़गार, आवास, स्वास्थ्य जैसी ज़रूरतों को पूरा करने के बजाय इस सरकार ने जनविरोधी-नीतियों को लागू किया है और लोगों को नक़ली मुद्दों में उलझाये रखा है। गोदी मीडिया के चहेते “वर्ल्ड लीडर” की यह कैसी लोकप्रियता है कि इन्हें अपने कार्यक्रमों में भीड़ जुटाने के लिए सरकारी मुलाज़िमों को धमकी देने की ज़रूरत पड़ रही है!

‘महाराष्ट्र जन सुरक्षा क़ानून’ – “जन सुरक्षा” के नाम पर जनता के दमन की तैयारी!

सरकार की मर्जी के ख़िलाफ़ किसी भी व्यक्ति का सार्वजनिक व्यवस्था बिगाड़ने की ‘प्रवृत्ति’ होना, बस अब यह महसूस होने पर ही उक्त व्यक्ति अपराधी ठहराया जा सकता है। इसके लिए अब सरकार को सिर्फ “लगना” काफी होगा! क़ानून का उल्लंघन हुआ है या नहीं, यह तय करना अब तक न्यायालयों का काम था। सरकार आरोप लगा सकती थी, लेकिन न्यायालयों द्वारा फैसला आने तक अपराध सिद्ध नहीं माना जाता था। लेकिन इस क़ानून ने किसी संगठन को अवैध है या नहीं, यह तय करने का प्रभावी अधिकार सरकार को ही दे दिया है। धारा-3 के अनुसार सरकार राजपत्र में अधिसूचना जारी कर किसी भी संगठन को अवैध घोषित कर सकती है, और धारा-3(2) के अनुसार उसके कारण बताना भी सरकार के लिए अनिवार्य नहीं है।

‘बंगलादेशी घुसपैठियों’ के नाम पर देशभर में मेहनतकश ग़रीब जनता पर पुलिस, प्रशासन और संघी संगठनों की गुण्डागर्दी व बर्बरता

पहली बात तो यह कि हर वह व्यक्ति जो इस देश में रहता है या आता है, सिर्फ़ पेट लेकर नहीं आता बल्कि दो हाथ भी लेकर आता है और मेहनत-मशक्क़त करता है और अपने हक़ का खाता है, वह यहाँ बस सकता है क्योंकि वह परजीवी नहीं बल्कि इसी समाज में अपने श्रम से भौतिक सम्पदा का सृजन कर रहा है। अगर किसी बंगलादेशी को देश से बाहर करना चाहिए तो वह बंगलादेश की ज़ालिम भूतपूर्व शासक शेख़ हसीना है, जिसे भारत की मोदी सरकार ने पनाह दे रखी है! वह तो बस यहाँ ऐश कर रही है! लेकिन निशाना मज़दूरों को बनाया जा रहा है, जिनमें से अधिकांश तो बंगलादेश से आये भी नहीं हैं, वे बस मुसलमान हैं और बांग्लाभाषी हैं।