Category Archives: बुर्जुआ जनवाद – दमन तंत्र, पुलिस, न्‍यायपालिका

मारुति सुज़ुकी के अस्थायी मज़दूरों के प्रदर्शन पर दमन से पुलिस-प्रशासन और मारुति सुज़ुकी प्रबन्धन का गठजोड़ एक बार फिर से नंगा!

आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए ऑटोमोबाइल सेक्टर के सभी मज़दूरों को भी इसमें शामिल करना होगा। हम लोग जानते हैं कि 80-90 प्रतिशत आबादी तमाम अस्थायी मज़दूरों यानी ठेका, अप्रेण्टिस, फिक्सड टर्म ट्रेनी, नीम ट्रेनी, कैज़ुअल, टेम्परेरी मज़दूर आदि विभिन्न श्रेणी के अस्थायी मज़दूर हैं। इनकी भी वहीं माँगे हैं जो मारुति सुज़ुकी-सुज़ुकी के तमाम अस्थायी मज़दूरों की माँगें हैं।

भारतीय संविधान के 75 साल – संविधान का हवाला देकर फ़ासीवाद से मुक़ाबले की ख़ामख्याली फ़ासीवाद-विरोधी संघर्ष के लिए घातक सिद्ध होगी!

“संविधान बचाओ” का नारा अपने आप में इसी व्यवस्था की चौहद्दी के भीतर हमारे संघर्ष को समाप्त कर देने वाला नारा है। हमें समझना होगा कि फ़ासीवाद के विरुद्ध लड़ाई में जब हम किसी प्रकार के बुर्जुआ जनवाद की पुनर्स्थापना की बात करते हैं तो वह फ़ासीवाद के विरुद्ध चल रही लड़ाई में बेहद घातक और आत्मघाती सिद्ध हो सकता है। हमें यह समझना होगा कि फ़ासीवाद का विकल्प किसी किस्म का शुद्ध-बुद्ध बुर्जुआ जनवाद नहीं हो सकता। असल में फ़ासीवाद आज के दीर्घकालिक मन्दी के दौर में एक कमोबेश स्थायी परिघटना बन चुका है। पूँजीवादी संकट आज एक दीर्घकालिक मन्दी का रूप ले चुका है, जो नियमित अन्तरालों पर महामन्दी के रूप में भी फूटती रहती है। आज तेज़ी के दौर बेहद कम हैं, छोटे हैं और काफ़ी अन्तरालों पर आते हैं और अक्सर वास्तविक उत्पादक अर्थव्यवस्था में तेज़ी के बजाय सट्टेबाज़ वित्तीय पूँजी के बुलबुलों की नुमाइन्दगी करते हैं। ऐसे में, बुर्जुआ वर्ग का प्रतिक्रिया और निरंकुशता की ओर झुकाव, टुटपुँजिया वर्गों के बीच सतत् असुरक्षा और परिणामतः प्रतिक्रिया की ज़मीन लगातार मौजूद रहती है और वर्ग-संघर्ष के ख़ास नाज़ुक मौक़ों पर यह एक पूँजीपति वर्ग व पूँजीवादी राज्य के राजनीतिक संकट की ओर ले जाने की सम्भावना से परिपूर्ण स्थिति सिद्ध होती है।

‘कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किसकी सेवा करता है’ पुस्तक से एक अंश

राज्यसत्ता का असली स्वरूप तब सामने आता है जब जनता अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करती है और कोई आन्दोलन संगठित होता है। ऐसे में विकास प्रशासन और कल्याणकारी प्रशासन का लबादा खूँटी पर टाँग दिया जाता है और दमन का चाबुक हाथ में लेकर राज्यसत्ता अपने असली खूनी पंजे और दाँत यानी पुलिस, अर्द्ध-सुरक्षा बल और फ़ौज सहित जनता पर टूट पड़ती है। पुलिस से तो वैसे भी जनता का सामना रोज़-मर्रे की जिन्दगी में होता रहता है। पुलिस रक्षक कम और भक्षक ज़्यादा नज़र आती है। आज़ादी के छह दशक बीतने के बाद भी आलम यह है कि ग़रीबों और अनपढ़ों की तो बात दूर, पढ़े लिखे और जागरूक लोग भी पुलिस का नाम सुनकर ही ख़ौफ़ खाते हैं। ग़रीबों के प्रति तो पुलिस का पशुवत रवैया गली-मुहल्लों और नुक्कड़-चौराहों पर हर रोज़ ही देखा जा सकता है। भारतीय पुलिस टॉर्चर, फ़र्जी मुठभेड़, हिरासत में मौत, हिरासत में बलात्कार आदि जैसे मानवाधिकारों के हनन के मामले में पूरी दुनिया में कुख़्यात है।

बढ़ती बेरोज़गारी के शिकार छात्रों-युवाओं पर टूटता फ़ासीवादी कहर – बिहार और उत्तराखण्ड में छात्रों पर बरसी लाठियाँ

फ़ासीवादी भाजपा सरकार छात्रों-युवाओं के लिए काल साबित हुई है। बेरोज़गारी के इस तूफ़ान ने करोड़ों छात्रों के भविष्य को अन्धकारमय बना दिया है। देश में अपराधों का रिकार्ड रखने वाली संस्था एनसीआरबी के आँकड़ों को देखें तो पता चला चलता है कि केवल वर्ष 2022 में 1 लाख 12 हज़ार छात्रों ने आत्महत्या की है। एक तरफ़ बेरोज़गारी जब विकराल रूप लेती जा रही है तो वहीं पर भर्तियों में भी तमाम तरीक़े के नये नियम लागू करके परिक्षाओं में चयन की प्रक्रिया को बेहद जटिल और मुश्किल बनाया जा रहा है। इसका ताज़ा उदाहरण इसी साल सितम्बर में झारखण्ड में हुई उत्पाद सिपाही भर्ती परीक्षा का है जिसमें दौड़ के नियमों में बदलाव करके 60 मिनट में 10 किलोमीटर दौड़ने का प्रावधान किया गया जबकि ये पहले 6 मिनट में 1600 मीटर था। इसका नतीज़ा ये हुआ कि दौड़ने के दौरान ही 12 छात्रों की मौत हो गयी।

भोपाल गैस हत्याकाण्ड के 40 साल – मेहनतकशों के हत्याकाण्डों पर टिका मानवद्रोही पूँजीवाद!!

मुनाफ़े की अन्धी हवस में अमेरिकी कम्पनी यूनियन कार्बाइड की भारतीय सब्सिडियरी यूसीआईएल चन्द पैसे बचाने के लिए सारे सुरक्षा उपायों को ताक पर रखकर मज़दूरों से काम करवा रही थी। मालूम हो कि नगरनिगम योजना के मानकों के अन्तर्गत भी इस फैक्ट्री को लगाना गलत था लेकिन मध्यप्रदेश सरकार ने यू.सी.सी. का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। 1979 तक फैक्ट्री ने काम भी शुरू कर दिया गया, लेकिन काम शुरू होते ही कई दुर्घटनाएँ हुईं। दिसम्बर 1981, में ही गैस लीक होने के कारण एक मज़दूर की मौत हो गई और दो बुरी तरह घायल हो गये। लगातार हो रही दुर्घटनाओं के मद्देनज़र मई, 1982 में तीन अमेरिकी इंजीनियरों की एक टीम फैक्ट्री का निरीक्षण करने के लिए बुलाई गई। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में साफ कहा कि मशीनों का काफी हिस्सा ख़राब है, एवं गैस भण्डारण की सुविधा अत्यन्त दयनीय है जिससे कभी भी गैस लीक हो सकती है और भारी दुर्घटना सम्भव है। इस रिपोर्ट के आधार पर 1982 में भोपाल के कई अखबारों ने लिखा था कि ‘वह दिन दूर नहीं, जब भोपाल में कोई त्रासदी घटित हो जाए।’ फिर भी न तो कम्पनी ने कोई कार्रवाई की और न ही सरकार ने।

अदालत ने भी माना : आँगनवाड़ीकर्मी हैं सरकारी कर्मचारी के दर्जे की हक़दार!

यह फ़ैसला लम्बे समय से संघर्षरत आँगनवाड़ीकर्मियों के संघर्ष का ही नतीजा है। कर्मचारी के दर्जे की माँग की हमारी लड़ाई को आगे ले जाने के में यह एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित होगा। ‘दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन’ देश भर की आँगनवाड़ीकर्मियों को इसके लिए बधाई देती है। लेकिन हमें कोर्ट के इस आदेश मात्र से निश्चिन्त होकर नहीं बैठ जाना होगा। देश भर में आन्दोलनरत स्कीम वर्करों के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती यह है कि किस प्रकार एक स्वतन्त्र और इन्क़लाबी यूनियनें खड़ी की जायें और अलग-अलग राज्यों में बिखरे हुए इन आन्दोलनों को एक सूत्र में पिरोया जाये। आँगनवाड़ीकर्मियों को सरकारी कर्मचारी का दर्जा देने के लिए नीति में ज़रूरी बदलाव केन्द्र सरकार के हाथों में है। इसके लिए केन्द्र सरकार के खिलाफ़ संघर्ष को तेज़ करने और देशभर में आँगनवाड़ीकर्मियों को एकजुट करने की ज़रूरत है।

अयोध्या और ज्ञानवापी के बाद अब सम्भल और अजमेर के ज़रिए ध्रुवीकरण बढ़ाने की तैयारी में जुटा फ़ासीवादी गिरोह !!

सम्भल के पूरे मसले ने एक बार फिर न सिर्फ़ न्याय व्यवस्था के फ़ासीवादी चरित्र को पुष्ट किया है बल्कि यह भी दिखा दिया है कि पूरी राज्य मशीनरी का किस हद तक फ़ासीवादीकरण हो चुका है। भारत में फ़ासीवादियों ने पिछले कई दशकों के दौरान राज्य की तमाम संस्थाओं में व्यवस्थित तौर पर घुसपैठ की है जिसके परिणाम आज हमारे सामने हैं।

हिमाचल प्रदेश में संघी लंगूरों का उत्पात और कांग्रेस सरकार की किंकर्तव्यविमूढ़ता

हिमाचल प्रदेश में अभी विगत दिनों देवभूमि संघर्ष समिति बैनर तले फ़ासीवादी आरएसएस एवं विश्व हिन्दू परिषद से सम्बन्ध रखने वाले गिरोह ने साम्प्रदायिक नफ़रत के खेल को खुले तौर पर अंजाम दिया। राज्य की कांग्रेस सरकार इस साम्प्रदायिक घटना से निपटने में न सिर्फ़ नाकाम रही, बल्कि विधानसभा के भीतर कांग्रेस पार्टी का एक विधायक स्वयं दंगाइयों की भाषा बोल रहा था। राज्य की कांग्रेस सरकार के इस बर्ताव पर अब वे लोग क्या कहेंगे, जो विधान सभा चुनावों में भाजपा की हार से आह्लादित होकर कांग्रेस की जीत को फ़ासीवाद की पराजय के तौर बताते नहीं थकते हैं और राज्यों में भाजपा की चुनावी जीत के बाद छाती पीट-पीटकर विलाप करने लगते हैं। फ़ासीवादी हमलों के समक्ष हिमाचल में कांग्रेस सरकार की दयनीय हालत पर हम आगे चर्चा करेंगे। उसके पहले संघियों द्वारा मचाये गये उत्पात पर बात करते हैं।

हैदराबाद में कांग्रेस सरकार द्वारा मूसी नदी और झीलों को बचाने के नाम पर ग़रीबों व मेहनतकशों के आशियानों और आजीवका पर ताबड़तोड़ हमला

जैसे ही बुलडोज़र को खुली छूट दी गयी, उसका आबादी के ग़रीब तबक़े की ओर बढ़ना तय था। रेवंत रेड्डी सरकार अब हैदराबाद में ग़रीब मेहनतकश लोगों के सपनों, आकांक्षाओं और आजीविका को मिट्टी में कुचलने का काम कर रही है। लोगों के घरों पर बुलडोज़र चलाने और उनकी आजीविका को नष्ट करने का भयावह दृश्य हैदराबाद में रोज़मर्रे की बात हो चुकी है। कई सामाजिक कार्यकर्ता और पर्यावरणवादी रेवंत रेड्डी सरकार की इस कार्रवाई का यह कह कर समर्थन कर रहे हैं कि वह झीलों को बचाने और बाढ़ रोकने का प्रयास ईमानदारी से कर रही है। हालाँकि, मुख्यमन्त्री की पर्यावरण हितैषी छवि के इस दावे पर एक बड़ा सवालिया निशान तब खड़ा हो जाता है जब हम देखते हैं कि यह वही सरकार है जो प्रदेश के विकाराबाद ज़िले के दामागुंडम जंगलों में नौसेना का रडार स्टेशन बनाने के लिए लगभग 12 लाख पेड़ों की योजनाबद्ध कटाई की योजना पर एक शातिराना चुप्पी बनाये रखती है। इस रडार स्टेशन को बनाने के लिए लगभग 3000 एकड़ वन भूमि नौसेना को सौंपने की योजना है। इसी तरह, यह साबित करने के भी पर्याप्त उदाहरण हैं कि जब बात कांग्रेस पार्टी के सदस्यों के स्वामित्व वाली संरचनाओं को ध्वस्त करने की आती है तो हाइड्रा के कर्मचारी उतना उत्साह नहीं दिखा रहे हैं।

चुनावी समीकरणों और जोड़-घटाव के बूते फ़ासीवाद को फ़ैसलाकुन शिक़स्त नहीं दी जा सकती है!

जहाँ तक इन नतीजों के बाद कुछ लोगों को धक्का लगने का सवाल है तो अब इस तरह के धक्के और झटके चुनावी नतीजे आने के बाद तमाम छद्म आशावादियों को अक्सर ही लगा करते हैं! 2014 के बाद से हुए कई चुनावों के बाद हम यह परिघटना देखते आये हैं। ऐसे सभी लोग भाजपा की चुनावी हार को ही फ़ासीवाद की फ़ैसलाकुन हार समझने की ग़लती बार-बार दुहराते हैं और जब ऐसा होता हुआ नहीं दिखता है तो यही लोग गहरी निराशा और अवसाद से घिर जाते है। इसका यह मतलब नहीं है कि भाजपा की चुनावी हार से देश की मेहनतकाश अवाम और क्रान्तिकारी शक्तियों को कुछ हासिल नहीं होगा। ज़ाहिरा तौर पर उन्हें कुछ समय के लिए थोड़ी-बहुत राहत और मोहलत मिलेगी और इससे हरेक इन्साफ़पसन्द व्यक्ति को तात्कालिक ख़ुशी भी मिलेगी। लेकिन जो लोग चुनावों में भाजपा की हार को ही फ़ासीवाद के विरुद्ध संघर्ष का क्षितिज मान लेते हैं वे दरअसल फ़ासीवादी उभार की प्रकृति व चरित्र और उसके काम करने के तौर-तरीक़ों को नहीं समझते हैं।