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अनियोजित विकास, प्रकृति की लूट, भ्रष्टाचार, पर्यावरणीय तबाही से धराली जैसी आपदाओं की मार झेलने को अभिशप्त उत्तराखण्ड

हिमालय के पर्यावरण की तबाही के अलग-अलग कारणों को मिलाकर अगर देखा जाये तो इसके बुनियाद में पूँजीवादी व्यवस्था की अराजकता, अमीरों की विलासिता और मुनाफे की अन्धी हवस है। हिमालय की आपदा केवल धराली जैसे गाँवों, शहरों, कस्बों की नहीं है बल्कि ये एक राष्ट्रीय आपदा है। छोटे-मोटे आन्दोलनों से इस समस्या का समाधान सम्भव नहीं है। हिमालय की इस तबाही को राष्ट्रीय फलक पर लाने और एक व्यापक आन्दोलन खड़ा करने की आज ज़रूरत है। नहीं तो बड़ी-बड़ी ठेका कम्पनियों को फायदा पहुँचाने, अमीरों की विलासिता और मुनाफे की अन्धी हवस में जिस प्रकार पूरे हिमालय की पारिस्थितिकीय तन्त्र को बर्बाद किया जा रहा है, आने वाले वक़्त में इसका खामियाजा पूरे उत्तर भारत को भुगतना पड़ सकता है। सरकारों के लिए ये आपदाएँ मौसमी चक्र बन चुकीं हैं, जो आती और जाती रहती हैं। उसके लिए जनता उजड़ती-बसती रहती है। लेकिन मुनाफ़ा निरन्तर जारी रहना चाहिए!

उत्तराखण्ड मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन के पहले चरण की शुरुआत

देश की 46 करोड़ मज़दूर आबादी में 43 करोड़ मज़दूर बिना किसी क़ानूनी और सामाजिक सुरक्षा के असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे हैं। आज सरकारी और अर्द्धसरकारी विभागों में भी दैनिक संविदा और ठेके के तहत कर्मचारियों को रखा जा रहा है जिनके ऊपर हमेशा छटनी की तलवार लटकी रहती है। जबकि सरकार का यह दायित्व बनता है कि वह सभी कार्य कर सकने वाले नागरिकों को स्थायी रोज़गार को गारण्टी दे।

भगतसिंह को याद करेंगे – फासिस्टों को नहीं सहेंगे!

तीन चरणों में चलने वाली इस यात्रा का पहला चरण गढ़वाल क्षेत्र की घाटी और तराई क्षेत्र में चला। दूसरा चरण गढ़वाल के पहाड़ी क्षेत्र में चलाया गया और तीसरे चरण में कुमाऊँ के पहाड़ी व तराई क्षेत्र में चलाने के बाद देहरादून में ‘स्मृति संकल्प सभा’ के साथ इस यात्रा का समापन किया गया। इस पूरी यात्रा के दौरान व्यापक पर्चा वितरण, नुक्कड़ सभा, गोष्ठी, पुस्तक-पोस्टर प्रदर्शनी व फि़ल्म स्कीनिंग आदि की गयी।

दूसरा उत्तराखंड बनने की राह पर हैं हिमाचल प्रदेश

जहाँ तक विकास का सवाल है तो इन परियोजनाओं से ‘विकास’ तो नहीं पर हाँ ‘विनाश’ जरूर हो रहा है, जिसके परिणामस्वरूप आज यहाँ का भौगोलिक तथा जलवायु संतुलन लगातार बिगड़ता जा रहा है, जिससे आने वाले समय में यहाँ के निवासियों को भयंकर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। इसके अतिरिक्त, पूँजीवादी व्यवस्था में विकास के नाम पर लगातार जारी प्राकृतिक संसाधनों की अंधाधुंध लूट और उससे पैदा होने वाले भयंकर दुष्परिणामों की एक झलक हमें पिछले साल उत्तराखंड में देखने को मिली, जहाँ बाढ़, बादल फटने, तथा जमीन धंसने जैसी घटनाओं के कारण हज़ारों लोग असमय काल के ग्रास में समा गये।

उत्तराखण्डः दैवी आपदा या प्रकृति का कोप नहीं यह पूँजीवाद की लायी हुई तबाही है!

पूँजीवादी विकास के मॉडल के तहत पर्यावरण की परवाह न करते हुए जिस तरह अंधाधुंध तरीक़े से सड़कें, सुरंगें व बाँध बनाने के लिए पहाड़ियों को बारूद से उड़ाई गईं, उसकी वजह से इस पूरे इलाक़े की चट्टानों की अस्थिरता और बढ़ने से भूस्ख़लन का ख़तरा बढ़ गया। वनों की अंधाधुंध कटाई और अवैध खनन से भी पिछले कुछ बरसों में हिमालय के इस क्षेत्र में भूस्खलन, मृदा क्षरण और बाढ़ की परिघटना में बढ़ोत्तरी देखने में आयी है। यही नहीं इस पूरे इलाक़े में पिछले कुछ वर्षों में हिमालय की नदियों पर जो बाँध बनाये गये या जिन बाँधों की मंजूरी मिल चुकी है उनसे भी बाढ़ की संभावना बढ़ गई है