Category Archives: औद्योगिक दुर्घटनाएँ

तेलंगाना की फ़ार्मा-केमिकल फ़ैक्ट्री में भीषण आग – मालिक के मुनाफ़े की भट्ठी में जलकर ख़ाक हो गये 52 मज़दूर

सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, पिछले 10 वर्षों में भारत में 269 से अधिक केमिकल फ़ैक्टरियों, कोयला खदानों और निर्माण स्थलों पर बड़े औद्योगिक हादसे हुए हैं। इन सभी हादसों की जड़ में मुनाफ़े पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था ही है। ये बढ़ती औद्योगिक दुर्घटनाएँ पूँजीवाद के मानवद्रोही चरित्र को सरेआम उजागर कर देती हैं। आज मज़दूरों के सामने सवाल यह है कि वे आख़िर कब तक पूँजीपतियों के मुनाफ़े की भट्टी में झोंके जाने को बर्दाश्त करते रहेंगे? इससे पहले कि पूँजीवाद हमारी ज़िन्दगी और हमारे सपनो को जलाकर ख़ाक कर दे हमें पूँजीवाद को ख़ाक में मिलाने के लिए कमर कसनी होगी।

एक बार फिर आग में झुलसी मज़दूरों की ज़िन्दगियाँ! दिल्ली के शाहाबाद दौलतपुर में आग से हज़ारों झुग्गियाँ तबाह, चार बच्चों की मौत

27 अप्रैल को शाहाबाद दौलतपुर गाँव के श्रीनिकेतन अपार्टमेण्ट के पास की झुग्गियों में लगी भीषण आग से हज़ारों झुग्गियाँ तबाह हो गयी। इस घटना में चार बच्चों की मौत हो गयी और हज़ारों लोगों की ज़िन्दगियाँ तबाह-बर्बाद हो गयी। इन झुग्गियों में ज़्यादातर आबादी कूड़ा बीनने का काम करती है। झुग्गियों में आग उस समय लगी जब लोग काम पर गये हुए थे। एक घर में सिलेण्डर फटने की वजह से आग ने भयानक रूप ले लिया और हज़ार के करीब झुग्गियाँ आग की चपेट में आ गयी। स्थानीय प्रशासन ने इस घटना पर बहुत देरी से कार्रवाई की। साथ ही दमकल की गाड़ियों को भी पहुँचने में देरी हुई। प्रशासन द्वारा तुरन्त कार्रवाई न करने और घटना के प्रति लापरवाही दिखाने के कारण भी आग पूरे इलाक़े में फैल गयी और हज़ारों लोग सड़क पर आ गये। अब तक लोग दर-दर मारे फ़िर रहे है। सालों की मेहनत-मज़दूरी करके, एक-एक पायी जोड़कर अपना घर बनाते हैं और अचानक से सब बर्बाद हो जाता है। घटना के बाद अभी तक लोगों के लिए रहने की व्यवस्था नहीं की गयी है।

गीडा : मज़दूरों की जान की क़ीमत पर मालिकों के मुनाफ़े के लिए विकसित होता औद्योगिक क्षेत्र

वैसे तो देश के किसी भी कारख़ाने में मज़दूरों की ज़िन्दगी दाँव पर लगी रहती है। लेकिन इधर योगी आदित्यनाथ के “उत्तम प्रदेश” गोरखपुर के औद्योगिक क्षेत्र गीडा (गोरखपुर औद्योगिक विकास प्राधिकरण) ने इस मामले में मिसाल क़ायम कर दी है। गीडा में अप्रैल और मई के महीने में अलग-अलग कारख़ानों में होने वाली दुर्घटनाओं में 6 मज़दूरों की मौत हो गई और कई मज़दूर बुरी तरह से घायल  हो गये। घायल होने वाले मज़दूरों में अभी भी कई ज़िन्दगी और मौत की लड़ाई लड़ रहे हैं। भाजपा का “रामराज्य” मज़दूरों पर बहुत भारी पड़ रहा है।

हरियाणा के धारूहेड़ा में हीरो मोटोकार्प कम्पनी में इमारत गिरने से एक की मौत 5 मज़दूर घायल

हर मालिक अपने मुनाफ़े को बरक़रार रखने के लिए मज़दूरों से अत्यधिक काम करवाता है और मज़दूरों की ज़रूरत को पूरा करने वाले ख़र्च कम कर देता है। मज़दूरों की सुरक्षा पर ख़र्च उन्हें बेमतलब का ख़र्च लगता है। ऊपर से फ़ासिस्ट मोदी सरकार मालिकों को अपने यहाँ सबकुछ ठीक होने का ख़ुद सर्टिफि़केशन देने की इजाज़त दे रही है। इसी मुनाफ़े से पूँजीपति वर्ग नेता, मन्त्री और सरकारी एजेंसी को अपने हित के लिए इस्तेमाल कर लेता है। इसी वजह से मालिक हर रोज़ अपने मुनाफ़े की अन्धी हवस को पूरा करने के लिए मज़दूरों की जान को जोखिम में डालते हैं। नतीजतन आये दिन ऐसे अमानवीय व ख़तरनाक हादसे बढ़ते जा रहे हैं।

मज़दूरों की चीख़ों और मौतों पर टिका पूँजीवाद का निर्माण उद्योग

भारत में निर्माण क्षेत्र में कृषि क्षेत्र के बाद सर्वाधिक मज़दूर काम करते हैं। निर्माण क्षेत्र से देश की जीडीपी का लगभग 9 प्रतिशत से अधिक हिस्सा आता है। यूँ तो हर क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों का बर्बर शोषण होता है परन्तु निर्माण क्षेत्र के मज़दूर अत्यधिक अरक्षित हैं। इस क्षेत्र में काम करने वाले अधिकतर मज़दूर प्रवासी होते हैं तथा अनौपचारिक क्षेत्र में आते हैं। संगठित न होने के कारण ये अपनी माँगों को नहीं उठा पाते। बढ़ती महँगाई, बेरोज़गारी एवं सामाजिक सुरक्षा के अभाव में ये अत्यन्त कम मज़दूरी पर बेहद ख़राब परिस्थितियों में जान जोखिम में डालकर काम करने को मजबूर होते हैं। कार्य की असुरक्षा और इनकी मजबूरी का फ़ायदा सभी निर्माण कम्पनियाँ उठाती हैं। ये तमाम निर्माण कम्पनियाँ जहाँ एक ओर निर्माण स्थलों पर पर्यावरणीय एवं भू-वैज्ञानिक मानकों का उल्लंघन कर प्रकृति का दोहन करती हैं और जानलेवा प्रदूषण जैसी स्थितियों का एक कारण बनती हैं और पारिस्थितिकी तन्त्र को तबाह करती हैं, वहीं दूसरी ओर काम की जगहों पर सुरक्षा इन्तज़ामों की अनदेखी करती हैं। वे ऐसा इसलिए करती हैं ताकि इन पर होने वाले व्यय को कम करके अपने मुनाफ़े को बढ़ा सकें। ऊपर हमने देखा कि किस तरह तमाम घटनाओं में सुरक्षा मानकों की अनदेखी और आपदा प्रबन्धन की धज्जियाँ उड़ायी जाती हैं और मज़दूरों  की जान को जोखिम में डाला जाता है।  इन मुनाफ़ाख़ोरों के लिए मज़दूरों की जान की कोई क़ीमत नहीं है।

मज़दूर परिवार जान की गुहार लगाता रहा लेकिन प्रशासन चुनावी ताम-झाम में लगा रहा

पूँजीवाद लोकतन्त्र की सच्चाई अब इससे ज्यादा क्या साबित होगी कि एक युवक की जिन्दगी से महत्वपूर्ण चुनाव सम्पन्न करवाना था! इस गली सड़ी व्यवस्था में ऐसी घटनाएँ कोई नयी बात नहीं है। देशभर में खतरनाक कार्यों को बिना सुरक्षा उपकरणों के करते हुए मजदूरों की जिन्दगियाँ हर रोज मौत के मुँह में चली जाती हैं और प्रशासन के लिए यह महज एक दुर्घटना होती है किन्तु जिन परिवारों से कोई चला जाता है उनकी जिन्दगी गरीबों के बोझ तले और भी दब जाती है। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को सरकार द्वारा कोई मुआवजा नहीं दिया जाता अगर थोड़ा बहुत मुआवजा दिया भी जाता है तो उसका मकसद ये होता है कि मज़दूर परिवार न्याय के लिए आवाज ना उठा सकें और उनके गुस्से पर कुछ ठण्डे पानी के छींटे पड़ जाएँ।

भोपाल गैस हत्याकाण्ड के 40 साल – मेहनतकशों के हत्याकाण्डों पर टिका मानवद्रोही पूँजीवाद!!

मुनाफ़े की अन्धी हवस में अमेरिकी कम्पनी यूनियन कार्बाइड की भारतीय सब्सिडियरी यूसीआईएल चन्द पैसे बचाने के लिए सारे सुरक्षा उपायों को ताक पर रखकर मज़दूरों से काम करवा रही थी। मालूम हो कि नगरनिगम योजना के मानकों के अन्तर्गत भी इस फैक्ट्री को लगाना गलत था लेकिन मध्यप्रदेश सरकार ने यू.सी.सी. का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। 1979 तक फैक्ट्री ने काम भी शुरू कर दिया गया, लेकिन काम शुरू होते ही कई दुर्घटनाएँ हुईं। दिसम्बर 1981, में ही गैस लीक होने के कारण एक मज़दूर की मौत हो गई और दो बुरी तरह घायल हो गये। लगातार हो रही दुर्घटनाओं के मद्देनज़र मई, 1982 में तीन अमेरिकी इंजीनियरों की एक टीम फैक्ट्री का निरीक्षण करने के लिए बुलाई गई। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में साफ कहा कि मशीनों का काफी हिस्सा ख़राब है, एवं गैस भण्डारण की सुविधा अत्यन्त दयनीय है जिससे कभी भी गैस लीक हो सकती है और भारी दुर्घटना सम्भव है। इस रिपोर्ट के आधार पर 1982 में भोपाल के कई अखबारों ने लिखा था कि ‘वह दिन दूर नहीं, जब भोपाल में कोई त्रासदी घटित हो जाए।’ फिर भी न तो कम्पनी ने कोई कार्रवाई की और न ही सरकार ने।

मेट्रो रेल कॉरपोरेशन और प्रशासन की लापरवाही की वजह से पटना मेट्रो के निर्माण कार्य में लगे मज़दूरों की हुई मौतें

सवाल यह है कि क्या हम अपने जीवन की कीमत समझते हैं? क्या यूँ कीड़े-मकोड़ों के समान गुमनाम मौतें मरने रहना हमें स्वीकार है? क्या अपने बच्चों के लिए यह भविष्य हमें स्वीकार है? क्या हम इंसानी जीवन की गरिमा का अहसास रखते हैं? अगर हाँ, तो हमें इस समूचे मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था के विरुद्ध गोलबन्द और एकजुट होना ही होगा। वरना हम यूँ ही जानवरों की तरह मारे जाते रहेंगे।

कानपुर देहात में मुनाफ़े के लिए आपराधिक लापरवाही की भेंट चढ़े 6 मज़दूर!

उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात के औद्योगिक क्षेत्र रनियां में गद्दा फ़ैक्ट्री में भीषण आग लगने से छह मज़दूरों की दर्दनाक मौत हो गयी। शनिवार सुबह 6 बजे कारख़ाने की एलपीजी यूनिट में गैस रिसाव हो गया। इसके बाद तेज़ धमाका हुआ और आग लग गयी। कारख़ाने में न तो अग्निशमन यंत्र था और न ही अलार्म। ऊपर से मानकों को धता बताकर बनाया गया टिनशेड और दीवार आग की वजह से गिर गयी जिसके नीचे कई मज़दूर दब गये। इस वक़्त कारख़ाने में काम कर रहे 11 मज़दूरों में से 10 अन्दर ही फँस गये। 3 मज़दूर कारख़ाने में ज़िन्दा जल गये और तीन ने इलाज़ के दौरान दम तोड़ दिया।

रेल व्यवस्था का ग़रीब विरोधी चरित्र! लगातार बढ़ते ट्रेन हादसे! ज़िम्मेदार मोदी सरकार!!

एक ओर रेलवे का नेटवर्क विस्तारित किया गया है, दूसरी ओर रेलवे में कर्मचारियों की संख्या को लगातार कम करके मोदी सरकार मौजूदा कर्मचारियों पर काम के बोझ को भयंकर तरीके से बढ़ा रही है। ऐसे में, दुर्घटनाओं और त्रासदियों की संख्या में बढ़ोत्तरी की सँभावना नैसर्गिक तौर पर बढ़ेगी ही। ऐसी जर्जर अवरचना के भीतर मोदी सरकार बुलेट ट्रेन के शेखचिल्ली के ख़्वाब दिखा रही है, तो इससे बड़ा भद्दा मज़ाक और कुछ नहीं हो सकता।