Category Archives: औद्योगिक दुर्घटनाएँ

मज़दूरों की चीख़ों और मौतों पर टिका पूँजीवाद का निर्माण उद्योग

भारत में निर्माण क्षेत्र में कृषि क्षेत्र के बाद सर्वाधिक मज़दूर काम करते हैं। निर्माण क्षेत्र से देश की जीडीपी का लगभग 9 प्रतिशत से अधिक हिस्सा आता है। यूँ तो हर क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों का बर्बर शोषण होता है परन्तु निर्माण क्षेत्र के मज़दूर अत्यधिक अरक्षित हैं। इस क्षेत्र में काम करने वाले अधिकतर मज़दूर प्रवासी होते हैं तथा अनौपचारिक क्षेत्र में आते हैं। संगठित न होने के कारण ये अपनी माँगों को नहीं उठा पाते। बढ़ती महँगाई, बेरोज़गारी एवं सामाजिक सुरक्षा के अभाव में ये अत्यन्त कम मज़दूरी पर बेहद ख़राब परिस्थितियों में जान जोखिम में डालकर काम करने को मजबूर होते हैं। कार्य की असुरक्षा और इनकी मजबूरी का फ़ायदा सभी निर्माण कम्पनियाँ उठाती हैं। ये तमाम निर्माण कम्पनियाँ जहाँ एक ओर निर्माण स्थलों पर पर्यावरणीय एवं भू-वैज्ञानिक मानकों का उल्लंघन कर प्रकृति का दोहन करती हैं और जानलेवा प्रदूषण जैसी स्थितियों का एक कारण बनती हैं और पारिस्थितिकी तन्त्र को तबाह करती हैं, वहीं दूसरी ओर काम की जगहों पर सुरक्षा इन्तज़ामों की अनदेखी करती हैं। वे ऐसा इसलिए करती हैं ताकि इन पर होने वाले व्यय को कम करके अपने मुनाफ़े को बढ़ा सकें। ऊपर हमने देखा कि किस तरह तमाम घटनाओं में सुरक्षा मानकों की अनदेखी और आपदा प्रबन्धन की धज्जियाँ उड़ायी जाती हैं और मज़दूरों  की जान को जोखिम में डाला जाता है।  इन मुनाफ़ाख़ोरों के लिए मज़दूरों की जान की कोई क़ीमत नहीं है।

मज़दूर परिवार जान की गुहार लगाता रहा लेकिन प्रशासन चुनावी ताम-झाम में लगा रहा

पूँजीवाद लोकतन्त्र की सच्चाई अब इससे ज्यादा क्या साबित होगी कि एक युवक की जिन्दगी से महत्वपूर्ण चुनाव सम्पन्न करवाना था! इस गली सड़ी व्यवस्था में ऐसी घटनाएँ कोई नयी बात नहीं है। देशभर में खतरनाक कार्यों को बिना सुरक्षा उपकरणों के करते हुए मजदूरों की जिन्दगियाँ हर रोज मौत के मुँह में चली जाती हैं और प्रशासन के लिए यह महज एक दुर्घटना होती है किन्तु जिन परिवारों से कोई चला जाता है उनकी जिन्दगी गरीबों के बोझ तले और भी दब जाती है। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को सरकार द्वारा कोई मुआवजा नहीं दिया जाता अगर थोड़ा बहुत मुआवजा दिया भी जाता है तो उसका मकसद ये होता है कि मज़दूर परिवार न्याय के लिए आवाज ना उठा सकें और उनके गुस्से पर कुछ ठण्डे पानी के छींटे पड़ जाएँ।

भोपाल गैस हत्याकाण्ड के 40 साल – मेहनतकशों के हत्याकाण्डों पर टिका मानवद्रोही पूँजीवाद!!

मुनाफ़े की अन्धी हवस में अमेरिकी कम्पनी यूनियन कार्बाइड की भारतीय सब्सिडियरी यूसीआईएल चन्द पैसे बचाने के लिए सारे सुरक्षा उपायों को ताक पर रखकर मज़दूरों से काम करवा रही थी। मालूम हो कि नगरनिगम योजना के मानकों के अन्तर्गत भी इस फैक्ट्री को लगाना गलत था लेकिन मध्यप्रदेश सरकार ने यू.सी.सी. का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। 1979 तक फैक्ट्री ने काम भी शुरू कर दिया गया, लेकिन काम शुरू होते ही कई दुर्घटनाएँ हुईं। दिसम्बर 1981, में ही गैस लीक होने के कारण एक मज़दूर की मौत हो गई और दो बुरी तरह घायल हो गये। लगातार हो रही दुर्घटनाओं के मद्देनज़र मई, 1982 में तीन अमेरिकी इंजीनियरों की एक टीम फैक्ट्री का निरीक्षण करने के लिए बुलाई गई। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में साफ कहा कि मशीनों का काफी हिस्सा ख़राब है, एवं गैस भण्डारण की सुविधा अत्यन्त दयनीय है जिससे कभी भी गैस लीक हो सकती है और भारी दुर्घटना सम्भव है। इस रिपोर्ट के आधार पर 1982 में भोपाल के कई अखबारों ने लिखा था कि ‘वह दिन दूर नहीं, जब भोपाल में कोई त्रासदी घटित हो जाए।’ फिर भी न तो कम्पनी ने कोई कार्रवाई की और न ही सरकार ने।

मेट्रो रेल कॉरपोरेशन और प्रशासन की लापरवाही की वजह से पटना मेट्रो के निर्माण कार्य में लगे मज़दूरों की हुई मौतें

सवाल यह है कि क्या हम अपने जीवन की कीमत समझते हैं? क्या यूँ कीड़े-मकोड़ों के समान गुमनाम मौतें मरने रहना हमें स्वीकार है? क्या अपने बच्चों के लिए यह भविष्य हमें स्वीकार है? क्या हम इंसानी जीवन की गरिमा का अहसास रखते हैं? अगर हाँ, तो हमें इस समूचे मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था के विरुद्ध गोलबन्द और एकजुट होना ही होगा। वरना हम यूँ ही जानवरों की तरह मारे जाते रहेंगे।

कानपुर देहात में मुनाफ़े के लिए आपराधिक लापरवाही की भेंट चढ़े 6 मज़दूर!

उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात के औद्योगिक क्षेत्र रनियां में गद्दा फ़ैक्ट्री में भीषण आग लगने से छह मज़दूरों की दर्दनाक मौत हो गयी। शनिवार सुबह 6 बजे कारख़ाने की एलपीजी यूनिट में गैस रिसाव हो गया। इसके बाद तेज़ धमाका हुआ और आग लग गयी। कारख़ाने में न तो अग्निशमन यंत्र था और न ही अलार्म। ऊपर से मानकों को धता बताकर बनाया गया टिनशेड और दीवार आग की वजह से गिर गयी जिसके नीचे कई मज़दूर दब गये। इस वक़्त कारख़ाने में काम कर रहे 11 मज़दूरों में से 10 अन्दर ही फँस गये। 3 मज़दूर कारख़ाने में ज़िन्दा जल गये और तीन ने इलाज़ के दौरान दम तोड़ दिया।

रेल व्यवस्था का ग़रीब विरोधी चरित्र! लगातार बढ़ते ट्रेन हादसे! ज़िम्मेदार मोदी सरकार!!

एक ओर रेलवे का नेटवर्क विस्तारित किया गया है, दूसरी ओर रेलवे में कर्मचारियों की संख्या को लगातार कम करके मोदी सरकार मौजूदा कर्मचारियों पर काम के बोझ को भयंकर तरीके से बढ़ा रही है। ऐसे में, दुर्घटनाओं और त्रासदियों की संख्या में बढ़ोत्तरी की सँभावना नैसर्गिक तौर पर बढ़ेगी ही। ऐसी जर्जर अवरचना के भीतर मोदी सरकार बुलेट ट्रेन के शेखचिल्ली के ख़्वाब दिखा रही है, तो इससे बड़ा भद्दा मज़ाक और कुछ नहीं हो सकता।

खाड़ी देशों में प्रवासी मज़दूरों के नारकीय हालात से उपजा एक और हादसा

खाड़ी के देशों में प्रवासी मज़दूरों के लिये कफ़ाला प्रणाली मौजूद है। कफ़ाला प्रणाली क़ानूनों और नीतियों का एक समुच्चय है जो प्रवासी मज़दूरों पर नियन्त्रण रखने के लिये ही बनाया गया है। इसके तहत कोई भी प्रवासी मज़दूर ठेकेदारों या मालिकों के पूर्ण नियन्त्रण में होता है। इसके अन्तर्गत मज़दूरों को देश में प्रवेश करने, वहाँ रहने और काम करने तथा वहाँ से बाहर जाने के लिये पूरी तरह से ठेकेदारों और मालिकों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। आमतौर पर अपने अनुबन्ध के पूरा होने से पहले, एक निश्चित समयावधि से पहले या अपने नियोक्ता की अनुमति के बिना वे नौकरी नहीं छोड़ सकते या उसे बदल नहीं सकते। जो लोग किसी कारण से नौकरी छोड़ते हैं, उन्हें फ़रार होने के अपराध में गिरफ़्तार तक कर लिया जाता है और कई मामलों में निर्वासित भी कर दिया जाता है। सीधे शब्दों में कहें तो कफ़ाला प्रणाली ठेकेदारों और मालिकों को शोषण करने की क़ानूनी इजाज़त देती है और इसके तहत मज़दूर बेहद कम तनख्वाह पर और नारकीय कार्य स्थितियों व जीवन स्थितियों में ग़ुलामों की तरह काम करने को मजबूर होते हैं।

लाइफ़ लौंग (धारूहेड़ा) के कारख़ाने में हुए भयानक विस्फोट में 16 मज़दूरों की मौत

लाइफ लौंग की दुर्घटना को महज़ लापरवाही कहना इस पर पर्दा डालने के समान है। वास्तव में यह मालिकों की मुनाफ़े की अन्धी हवस का नतीज़ा है। ये हादसे दर्शाते हैं कि मालिकों के लिए मज़दूरों की जान की कोई क़ीमत नहीं है, इसलिए कारख़ानों में सुरक्षा के इन्तज़ाम नहीं होते। आख़िर क्यों कारख़ाने मौत के कारख़ाने बन रहे हैं? आख़िर क्यों हरियाणा से लेकर देश भर में कारख़ानों समेत कार्यस्थलों में आग व भयानक दुर्घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं? इसे समझे बिना आगे की संघर्ष की दिशा और व्यापक मज़दूरों की सही लामबन्दी सम्भव नहीं है।

सिलक्यारा सुरंग हादसा : मुनाफे की अँधी हवस की सुरंग

ये हादसे और आपदाएँ आज हिमालय की नियति बनते जा रहे हैं। मुनाफ़े की अन्धी हवस में जिन परियोजनाओं को लागू किया जा रहा है उससे होने वाले नुकसान को केवल हिमालय ही नहीं बल्कि पूरे उत्तर भारत को भुगतना पड़ सकता है। हिमालय में बड़े-बड़े बाँधों से लेकर चार धाम परियोजना, ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल परियोजना, पंचेश्वर बाँध परियोजना आदि ने पूरे हिमालय को तबाह करके रख दिया है। इसके परिणाम भी लगातार देखने को मिल रहे हैं।

मालिकों की मुनाफ़े की हवस ले रही मज़दूरों की जान!

यह सब महज़ दुर्घटनाएँ नहीं मालिकों व इस पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा की जाने वाली निर्मम हत्याएँ हैं। आये-दिन कीड़े-मकौड़ों की तरह कारख़ानों में मज़दूरों को मरने के लिए पूँजीपति मज़बूर करते हैं। श्रम मन्त्रालय की एक रिपोर्ट बताती है कि बीते पाँच वर्षो में 6500 मज़दूर फैक्ट्री, खदानों, निर्माण कार्य में हुए हादसों में अपनी जान गवाँ चुके हैं। इसमें से 80 प्रतिशत हादसे कारखानों में हुए। 2017-2018 कारखाने में होने वाली मौतों में 20 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। साल 2017 और 2020 के बीच, भारत के पंजीकृत कारखानों में दुर्घटनाओं के कारण हर दिन औसतन तीन मज़दूरों की मौत हुई और 11 घायल हुए। 2018 और 2020 के बीच कम से कम 3,331 मौतें दर्ज़ की गयी। आँकड़ों के मुताबिक, फैक्ट्री अधिनियम, 1948 की धारा 92 (अपराधों के लिए सामान्य दण्ड) और 96ए (ख़तरनाक प्रक्रिया से सम्बन्धित प्रावधानों के उल्लंघन के लिए दण्ड) के तहत 14,710 लोगों को दोषी ठहराया गया, लेकिन आँकड़ों से पता चलता है कि 2018 और 2020 के बीच सिर्फ़ 14 लोगों को फैक्ट्री अधिनियम, 1948 के तहत अपराधों के लिए सज़ा दी गयी। यह आँकड़े सिर्फ़ पंजीकृत फैक्ट्रियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि दिल्ली और पूरे देश में लगभग 90 फ़ीसदी श्रमिक अनौपचारिक क्षेत्र से जुड़े हैं और अनौपचारिक क्षेत्र में होने वाले हादसों के बारे में कोई पुख़्ता आँकड़े नहीं हैं।