Category Archives: पर्यावरण

सी.ओ.पी-26 की नौटंकी और पर्यावरण की तबाही पर पूँजीवादी सरकारों के जुमले

बीते 31 अक्टूबर से 13 नवम्बर तक स्कॉटलैण्ड के ग्लासगो में ‘कॉन्फ़्रेंस ऑफ़ पार्टीज़ (सीओपी) 26’ का आयोजन किया गया। पर्यावरण की सुरक्षा, कार्बन उत्सर्जन और जलवायु संकट आदि से इस धरती को बचाने के लिए क़रीब 200 देशों के प्रतिनिधि इसमें शामिल हुए। कहने के लिए पर्यावरण को बचाने के लिए इस मंच से बहुत ही भावुक अपीलें की गयीं, हिदायतें दी गयीं, पर इन सब के अलावा पूरे सम्मेलन में कोई ठोस योजना नहीं ली गयी है। (ज़ाहिर है कि ये सब करना इनका मक़सद भी नहीं था।)

पर्यावरण और मज़दूर वर्ग

हर साल की तरह इस बार भी इस मौसम में दिल्ली-एनसीआर एक गैस चैम्बर बन गया है जिसमें लोग घुट रहे हैं। दिल्ली और आसपास के शहरों में धुँआ और कोहरा आपस में मिलकर एक सफ़ेद चादर की तरह वातावरण में फैला हुआ है, जिसमें हर इन्सान का साँस लेना दूभर हो रहा है। ‘स्मोक’ और ‘फॉग’ को मिलाकर इसे दुनियाभर में ‘स्मॉग’ कहा जाता है। मुनाफ़े की अन्धी हवस को पूरा करने के लिए ये पूँजीवादी व्यवस्था मेहनतकशों के साथ-साथ प्रकृति का भी अकूत शोषण करती है, जिसका ख़ामियाज़ा पूरे समाज को जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण व ध्वनि प्रदूषण के रूप में भुगतना पड़ता है।

200 मेहनतकशों की जान लेने वाली चमोली दुर्घटना सरकार और व्यवस्था की पैदाइश है!

पिछली 7 फ़रवरी की सुबह चमोली ज़िले के ऋषिगंगा हाइड्रो इलेक्ट्रिक पॉवर प्रोजेक्ट पर काम कर रहे मज़दूरों की दिनचर्या सामान्य दिनों की तरह ही शुरू हो गयी थी। क़रीब 30-35 मज़दूर वहाँ काम कर रहे थे। लेकिन काम के एक घण्टे बाद ही सब कुछ बदल गया। वहाँ मशीन पर काम कर रहे एक मज़दूर कुलदीप पटवार को ऊपर पहाड़ से धूल और गर्द का एक बड़ा ग़ुबार नीचे आता हुआ दिखायी दिया।

विकृत विकास का क़हर : फेफड़ों में घुलता ज़हर

हर साल की तरह सर्दियाँ ठीक से शुरू होने के पहले ही दिल्ली और आसपास के शहरों में धुँआ और कोहरा आपस में मिलकर सड़कों और घरों पर एक स्लेटी चादर की तरह पसर गये और लोगों का साँस लेना दूभर हो गया। ‘स्मोक’ और ‘फॉग’ को मिलाकर इसे दुनिया भर में ‘स्मॉग’ कहा जाता है। हिन्दी में धुँआ और कुहासा को जोड़कर ‘धुँआसा’ भी कहा जा सकता है। यह जाड़े के दिनों की स्थायी समस्या है जो साल-दर-साल गम्भीर होती जा रही है।

बढ़ता हुआ प्रदूषण और घुटती हुई आबादी

बढ़ता हुआ प्रदूषण और घुटती हुई आबादी – डॉ. नवमीत दीवाली के अगले दिन से ही भारत के तमाम शहरों में वायु प्रदूषण का स्तर बहुत ज्‍़यादा हो गया है।…

पूँजी के राक्षसी जबड़ों से धरती और पर्यावरण को बचाना होगा

50 डिग्री गरमी के बाद एयरकण्डीशनर काम करना बन्द कर देते हैं। 52 डिग्री तापमान होने के बाद चिड़ियाँ मर जाती हैं। 55 डिग्री तापमान होने पर इंसान का ख़ून उबल जाता है और इंसान मर जाता है। सारी दुनिया में गर्मी बढ़ती जा रही है। जंगलों को काटना इसकी सबसे बड़ी वजहों में से एक है। आप सरकार चुनते हैं ताकि सरकार जंगलों को काटने वाले लोगों पर रोक लगाये। लेकिन अगर सरकार ही जंगल कटवाये तो तापमान को 55 डिग्री होने से कौन रोक सकता है।

मोदी सरकार का दूसरा कार्यकाल : पर्यावरण विनाशक नीतियों के निरंकुश विस्तार और उसके भयावह परिणामों के लिए तैयार रहें

कुछ महीने पहले वैश्विक पर्यावरण सूचकांक की एक रिपोर्ट आयी जिसके अनुसार दुनिया के 180 देशों में पर्यावरण के क्षेत्र में किये गये प्रदर्शन के आधार पर भारत को 177वाँ पायदान दिया गया। इसके अलावा विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट ने विश्व के 20 सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में 15 भारतीय शहरों को रखा।

अमीरों के पैदा किये प्रदूषण से मरती ग़रीब अाबादी

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार साल 2016 में प्रदूषण और ज़हरीली हवा की वजह से भारत में एक लाख बच्चों की मौत हुई, और दुनिया में छह लाख बच्चे मौत के मुँह में चले गये। कहने की ज़रूरत नहीं कि इनमें से ज़्यादातर ग़रीबों के बच्चे थे। मुम्बई, बैंगलोर, चेन्नई, कानपुर, त्रावणकोर, तूतीकोरिन, सहित तमाम ऐसे शहर हैं, जहाँ खतरनाक गैसों, अम्लों व धुएँ का उत्सर्जन करते प्लांट्स, फैक्ट्रीयाँ, बायोमेडिकल वेस्ट; प्लांट, रिफाइनरी आदि को तमाम पर्यावरण नियमों को ताक पर रखते हुए ठीक गरीब मेहनतकश मज़दूर बस्तियों में लगाया जाता है। आज तमाम ज़हरीले गैसों, अम्लों, धुएँ आदि के उत्सर्जन को रोकने अथवा उन्हें हानिरहित पदार्थों में बदलने, एसिड को बेअसर करने, कणिका तत्वों को माइक्रो फ़िल्टर से छानने जैसी तमाम तकनीकें विज्ञान के पास मौजूद हैं, लेकिन मुनाफे की अन्धी हवस में कम्पनियाँ न सिर्फ पर्यावरण नियमों का नंगा उल्लंघन करती हैं, बल्कि सरकारों, अधिकारियों को अपनी जेब में रखकर मनमाने ढंग से पर्यावरण नियमों को कमज़ोर करवाती हैं।

जलवायु परिवर्तन रिपोर्ट – अगर समय रहते पूँजीवाद को ख़त्म न किया गया तो वह मनुष्यता को ख़त्म कर देगा

ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन द्वारा उपजे संकट के मूल में पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था ही है क्योंकि जंगलों की अन्धाधुन्ध कटाई से लेकर ग्रीन हाउस गैसें पैदा करने वाले ईंधन की बेरोकटोक खपत के पीछे मुनाफ़े की अन्तहीन हवस ही है जिसने प्रकृति में अन्तर्निहित सामंजस्य को तितर-बितर कर दिया है। इस व्यवस्था से यह उम्मीद करना बेमानी है कि इस संकट का समाधान इसके भीतर से निकलेगा। समाधान तो दूर इस व्यवस्था में इस संकट से भी मुनाफ़ा पीटने के नये-नये मौक़े दिन-प्रतिदिन र्इज़ाद हो रहे हैं। उदाहरण के लिए समुद्र तट पर स्थित बस्तियों के डूबने के ख़तरे से बचने के लिए एक संरक्षण दीवार बनाने की कवायद हो रही है, जिससे भारी मुनाफ़ा पीटा जा सके। ऐसे में जीवन का नाश करने पर तुली इस मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था का नाश करके ही इस संकट से छुटकारा मिल सकता है।

साल-दर-साल बाढ़ की तबाही : महज़ प्राकृतिक आपदा नहीं मुनाफ़ाखोर पूँजीवादी व्यवस्था का कहर!

आज़ादी के बाद के 71 वर्षों के दौरान बाढ़ के नाम पर खरबों रुपये की लूट भले ही हुई हो, लेकिन इसकी तबाही कम करने और लोगों के जान-माल के बचाव के वास्तविक इन्तज़ाम बहुत कम हुए हैं। शुरू में नदियों के किनारे तटबन्ध बनाये जाने से नदी किनारे के इलाक़ों में बाढ़ का ताण्डव कुछ कम हुआ लेकिन बेलगाम पूँजीवादी विकास के कारण कुछ ही वर्षों में बाढ़ पहले से भी ज़्यादा भयंकर होकर तबाही मचाने लगी। जंगलों की अन्धाधुन्ध कटाई, नदियों के किनारे बेरोकटोक होने वाले निर्माण-कार्यों, गाद इकट्ठा होने से नदियों के उथला होते जाने, बरसाती पानी की निकासी के क़ुदरती रास्तों के बन्द होने, शहरी नालों आदि को पाट देने जैसे अनेक कारणों ने न केवल बाढ़ की बारम्बारता बढ़ा दी है, बल्कि शहरों में होने वाली तबाही को पहले से कई गुना बढ़ा दिया है। पूँजीवादी विकास की अन्धी दौड़ के चलते अब शहर भी बाढ़ों से बचे नहीं रहते। पहले की तरह अब बाढ़ सिर्फ़ गाँवों में ही नहीं आती बल्कि शहरों को भी अपनी चपेट में ले लेती है। पूँजीवाद गाँव और शहर के बीच के भेद को इसी तरह मिटाता है!