Category Archives: पर्यावरण

अनियोजित विकास, प्रकृति की लूट, भ्रष्टाचार, पर्यावरणीय तबाही से धराली जैसी आपदाओं की मार झेलने को अभिशप्त उत्तराखण्ड

हिमालय के पर्यावरण की तबाही के अलग-अलग कारणों को मिलाकर अगर देखा जाये तो इसके बुनियाद में पूँजीवादी व्यवस्था की अराजकता, अमीरों की विलासिता और मुनाफे की अन्धी हवस है। हिमालय की आपदा केवल धराली जैसे गाँवों, शहरों, कस्बों की नहीं है बल्कि ये एक राष्ट्रीय आपदा है। छोटे-मोटे आन्दोलनों से इस समस्या का समाधान सम्भव नहीं है। हिमालय की इस तबाही को राष्ट्रीय फलक पर लाने और एक व्यापक आन्दोलन खड़ा करने की आज ज़रूरत है। नहीं तो बड़ी-बड़ी ठेका कम्पनियों को फायदा पहुँचाने, अमीरों की विलासिता और मुनाफे की अन्धी हवस में जिस प्रकार पूरे हिमालय की पारिस्थितिकीय तन्त्र को बर्बाद किया जा रहा है, आने वाले वक़्त में इसका खामियाजा पूरे उत्तर भारत को भुगतना पड़ सकता है। सरकारों के लिए ये आपदाएँ मौसमी चक्र बन चुकीं हैं, जो आती और जाती रहती हैं। उसके लिए जनता उजड़ती-बसती रहती है। लेकिन मुनाफ़ा निरन्तर जारी रहना चाहिए!

बारिश ने उजागर की “स्मार्ट सिटी” की हक़ीकत – हर बार की तरह मज़दूर और मेहनतकश तबका ही भुगत रहा है!

इन हालात में सबसे ज़्यादा मार उस वर्ग पर पड़ी है, जो हर रोज़ सुबह 5 बजे उठकर काम की तलाश में, या कारखानों, दफ़्तरों, दुकानों पर काम तक पहुँचने के लिए निकलता है — मज़दूर वर्ग। फुटपाथ पर रहने वाला, झुग्गियों में गुजर-बसर करने वाला, ईंट-भट्ठों और फ़ैक्टरियों में काम करने वाला, सफाई कर्मचारी, निर्माण मज़दूर, रेहड़ी-पटरी चलाने वाला, इन सबके लिए ये बारिश आफ़त बनकर आई है। जिन झुग्गियों में वे रहते हैं, वहाँ सीवर व्यवस्था नाम की कोई चीज़ नहीं। न कोई निकासी का प्रबन्ध है, न कोई प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधा। इसका नतीजा क्या होता है, ये हम मज़दूर जानते हैं। हमें इसी गन्दगी में पशुवत पड़े रहने के लिए छोड़ दिया जाता है, हालाँकि हमारे समाज के धनाढ्य वर्गों की समृद्धि की इमारतें हमारे श्रम की नींव पर ही खड़ी होती हैं।

पर्यावरणीय विनाश के चलते सिमटता वसन्त

जानलेवा होते ये पर्यावरण परिवर्तन पूँजी द्वारा प्रकृति की अन्धी लूट के कारण हैं। पर्यावरण परिवर्तन की तमाम चिन्ता पूँजीवादी देशों के हुक्मरानों के एजेण्‍डे में ही नहीं हैं। उनकी चिन्ता मुनाफ़े की गिरती दर को रोकने के ख्यालों और प्रयासों में ही डूबी है जो उन्हें श्रम और प्रकृति को और अधिक लूटने की ओर ही धकेलती है। भारत सरकार द्वारा जंगलों से लेकर पर्वतों, नदियों को नष्ट करने की योजनाओं पर मुहर लगाने से लेकर साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा ग्रीनलैण्‍ड, आर्कटिक और अण्टार्क्टिक में जीवाश्म ईंधन के भण्डार की लूट के लिए रस्साकशी हो या ब्राज़ील के अमेज़न जंगलों की तबाही, यह स्पष्ट है कि पर्यावरण को बचाना इनके एजेण्डे में है ही नहीं। स्पष्ट ही है कि पर्यावरण को बचाने का मुद्दा भी आम मेहनतकश जनता के जीने के हक़ से जुड़ा मुद्दा है। पर्यावरण वैज्ञानिक हान्सेन की ‘2 सी इज़ डेड’ की यह चेतावनी पूँजीवादी हुक्मरानों के बहरे कानों पर पड़ रही है। यह मसला आज मज़दूरवर्गीय राजनीति का अहम मुद्दा है। यह दुनिया के मज़दूरों और मेहनतकशों के जीवन के अधिकार का ही मुद्दा है और इसके लिए संघर्ष भी मज़दूरवर्गीय राजनीति से ही लड़कर दिया जा सकता है न कि हुक्मरानों के आगे की गयी गुहारों से!

भोपाल गैस हत्याकाण्ड के 40 साल – मेहनतकशों के हत्याकाण्डों पर टिका मानवद्रोही पूँजीवाद!!

मुनाफ़े की अन्धी हवस में अमेरिकी कम्पनी यूनियन कार्बाइड की भारतीय सब्सिडियरी यूसीआईएल चन्द पैसे बचाने के लिए सारे सुरक्षा उपायों को ताक पर रखकर मज़दूरों से काम करवा रही थी। मालूम हो कि नगरनिगम योजना के मानकों के अन्तर्गत भी इस फैक्ट्री को लगाना गलत था लेकिन मध्यप्रदेश सरकार ने यू.सी.सी. का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। 1979 तक फैक्ट्री ने काम भी शुरू कर दिया गया, लेकिन काम शुरू होते ही कई दुर्घटनाएँ हुईं। दिसम्बर 1981, में ही गैस लीक होने के कारण एक मज़दूर की मौत हो गई और दो बुरी तरह घायल हो गये। लगातार हो रही दुर्घटनाओं के मद्देनज़र मई, 1982 में तीन अमेरिकी इंजीनियरों की एक टीम फैक्ट्री का निरीक्षण करने के लिए बुलाई गई। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में साफ कहा कि मशीनों का काफी हिस्सा ख़राब है, एवं गैस भण्डारण की सुविधा अत्यन्त दयनीय है जिससे कभी भी गैस लीक हो सकती है और भारी दुर्घटना सम्भव है। इस रिपोर्ट के आधार पर 1982 में भोपाल के कई अखबारों ने लिखा था कि ‘वह दिन दूर नहीं, जब भोपाल में कोई त्रासदी घटित हो जाए।’ फिर भी न तो कम्पनी ने कोई कार्रवाई की और न ही सरकार ने।

आख़िर कब तक उत्तर बिहार की जनता बाढ़ की विभीषिका झेलने को मजबूर रहेगी?

आज विज्ञान और टेक्नोलॉजी जिस हद तक आगे बढ़ चुकी है, उसका उपयोग कर ऐसी प्राकृतिक आपदाओं के प्रभावों को कम किया जा सकता है। हालाँकि जैसा कि पहले भी कहा पूँजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत भी उत्पादक शक्तियों के विकास के कारण ऐसा सम्भव होते हुए भी इसे नहीं किया जाता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। हमें सत्ता में बैठी सरकारों को इन मसलों पर घेरते हुए उनसे सवाल करना होगा और पूँजीवादी व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करना होगा। बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा के प्रभावों को नियंत्रित करने के लिए हमें सरकारों को मजबूर करना होगा।

केरल में भूस्खलन एवं असम और आन्ध्र-तेलंगाना में बाढ़ से भीषण तबाही

पूँजीवाद के दायरे में पर्यावरण को बचाने और पारिस्थितिक तन्त्र को स्थिर करने की तमाम कोशिशों के बावजूद अगर यह संकट कम होने की बजाय तीखा ही होता जा रहा है तो ऐसा इसलिए है कि मुनाफ़ा-केन्द्रित और अनियोजित विकास पूँजीवाद की संरचना में ही निहित है। मुनाफ़े की दर को लगातार बढ़ाते जाने की ज़रूरत पूँजी को नियन्त्रण और नियोजन की दीवारों को तोड़कर बेक़ाबू होने पर मजबूर करती है। इस समस्या के समाधान की दिशा में तभी आगे बढ़ा जा सकता है जब सामाजिक उत्पादन की प्रेरणा मुनाफ़ा न होकर लोगों की ज़रूरत पूरा करना हो। केवल तभी जलवायु परिवर्तन, पेड़ों की अन्धाधुन्ध कटाई, बेरोकटोक खनन-उत्खनन की प्रक्रिया को काबू में लाया जा सकता है। केवल ऐसे समाज में ही न सिर्फ़ फ़ैक्टरी के भीतर उत्पादन को योजनाबद्ध किया जा सकता है बल्कि समाज के स्तर पर भी उत्पादन व वितरण की एक समग्र योजना बनायी जा सकती है और उसपर अमल किया जा सकता है। इस प्रक्रिया में ही शहरीकरण को नियोजित किया जा सकता है। सामाजिक उत्पादन की प्रणाली को नज़रअन्दाज़ करके पर्यावरण विनाश की समस्या के समाधान की दिशा में एक क़दम भी नहीं बढ़ाया जा सकता है।         

जलवायु परिवर्तन और ग़रीब मेहनतकश आबादी

इन प्रदूषणों की मार सबसे अधिक ग़रीब मेहनतकश आबादी पर ही पड़ी है। क्योंकि पूँजीपति वर्ग के पास तो पानी से लेकर हवा तक को साफ करने के प्यूरीफायर मौजूद हैं! रसायन मुक्त, कीटनाशक मुक्त ऑर्गेनिक महँगा भोजन तक आसानी से उपलब्ध है! लेकिन आम मेहनतकश आबादी के पास इस तरह के न तो कोई साधन मौजूद हैं और न ही आर्थिक क्षमता है। उसे तो इसी जहरीले दमघोंटू हवा में साँस लेना है! प्रदूषित पानी पीना है! तमाम रसायन और कीटनाशकों से भरा हुआ मिलावटी भोजन लेना है! इसके अलावा ग्लोबल वार्मिंग के जो दूसरे ख़तरे प्राकृतिक आपदा के रूप में आ रहे हैं उसे भी झेलना है!

आज़ादी के 76 साल के बाद भी राजधानी के मेहनतकश पानी तक के लिए मोहताज

उपराज्यपाल और जल मन्त्री दोनों अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़कर दिल्ली में पानी की कमी का कारण जनसंख्या और झुग्गी-बस्तियों के विस्तार होने को बता रहे हैं। ज़ाहिरा तौर पर, अपनी नाकामी छिपाने के लिये ये दोनों ‘तू नंगा तू नंगा’ का खेल खेल रहे हैं और सारी समस्या का ठीकरा मेहनतकश जनता के सिर पर फोड़ रहे हैं, जो दिल्ली में सबकुछ चलाती है और सबकुछ बनाती है और जिसकी मेहनत की लूट के दम पर यहाँ के धन्नासेठों, नेताओं-मन्त्रियों और नौकरशाहों की कोठियाँ चमक रही हैं। भाजपा और आम आदमी पार्टी जनता की तकलीफ़ों के प्रति कितने सवेंदनशील हैं, ये तो साफ नज़र आ रहा है।

जंगलों में आग की बढ़ती घटनाएँ – यह जलवायु परिवर्तन के मद्देनज़र कुदरत की चेतावनी है!

चाहे जंगलों में आग की घटनाएँ हों या बाढ़ व सूखे की घटनाएँ अथवा भूस्खलन और सूनामी की घटनाएँ हों, ये सभी चीख-चीख कर हमें चेतावनी दे रही हैं कि अगर हम अनियोजित व मुनाफ़ाकेन्द्रित उत्पादन प्रणाली को उखाड़कर नियोजित व लोगों की ज़रूरत पर आधारित उत्पादन प्रणाली नहीं लाते हैं यानी पूँजीवाद को उखाड़कर समाजवाद नहीं लाते हैं तो पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व ही नहीं बचेगा। केवल एक समाजवादी समाज में ही कृषि व औद्योगिक उत्पादन को योजनाबद्ध रूप से संचालित किया जा सकता है और यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि मनुष्य की उत्पादक गतिविधियाँ प्रकृति की तबाही का सबब न बनें और जलवायु परिवर्तन एवं पारिस्थितिक असन्तुलन न पैदा हो। चाहे जंगलों में लगी आग हो या पर्यावरण सम्बन्धी कोई भी समस्या हो, उसका जड़मूल समाधान केवल समाजवादी समाज में ही मुमकिन है क्योंकि समाजवाद में ही तमाम समस्याओं की तरह पर्यावरण की समस्या का समाधान भी आम बहुसंख्यक मेहनतकश वर्गों के हित में तथा सामुदायिक व सामूहिक तरीक़े से योजनाबद्ध ढंग से किया जा सकता है और विज्ञान व प्रौद्योगिकी का समस्त ज्ञान मुट्ठी भर लोगों के मुनाफ़े के लिए न होकर लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने और पर्यावरण की समस्याओं को दूर करने के लिए किया जा सकता है।

दशकों से नासूर बनी हुई है, धारूहेड़ा क्षेत्र में फैक्ट्रियों से निकलने वाले केमिकल युक्त प्रदूषित पानी की समस्या!

ये फैक्ट्रियाँ मनमाने ढंग से ख़तरनाक स्तर तक प्रदूषित पानी बाहर बस्तियों-मोहल्लों में बिना प्रशोधन (ट्रीटमेण्ट) के छोड़ देती हैं। नतीजतन, सैकड़ों फैक्ट्रियों से निकलने वाला यह केमिकलयुक्त पानी धारूहेड़ा पहुँचते-पहुँचते विकराल रूप धारण करता जाता है। कभी बरसात के बहाने, कभी बिना बरसात के भी, इसे धारूहेड़ा की तरफ़ बहा दिया जाता है और जनता को उसके हालात पर मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। बीच-बीच में जब प्रभावित आबादी बदहाल हो जाती है, तब वह आक्रोशित होकर स्वत:स्फूर्त ढंग से कुछ करने के लिए आगे बढ़ती है। तब इन पार्टियों के छुटभैया नेता लोग आगे आ जाते हैं। नेताओं और प्रशासन की मीटिंगों का सिलसिला चल पड़ता है।