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दवा कम्पनियों की मुनाफ़ाखोरी और भ्रष्ट सरकारी तंत्र का गठजोड़

जब तक आवश्यक दवाओं का उत्पादन मुनाफे और निजी स्वार्थों से प्रेरित रहेगा, तब तक बाज़ार में महँगी, अप्रभावी, नकली और मिलावटी दवाएँ मिलती रहेंगी और इसका खामियाजा देश की आम जनता को भुगतना पड़ेगा। यह हालिया घटनाएँ एक बार फिर हमें इस सच्चाई से अवगत कराती हैं कि जबतक यह व्यवस्थागत ढाँचा बदला नहीं जायेगा और स्वास्थ्य सेवाओं को एक मूलभूत अधिकार न मानकर निजी हाथों में मुनाफ़ाख़ोरी का ज़रिया मात्र बनाकर रखा जायेगा, यह समस्या जड़ से हल नहीं की जा सकती है। ऐसा होना तभी सम्भव है जब एक वास्तविक जन पक्षधर स्वास्थ्य व्यवस्था हमारे पास हो।

‘केरला स्टोरी’ को राष्ट्रीय पुरस्कार, एक बेहूदा मज़ाक़

घोर स्त्री-विरोधी और मुसलमानों के प्रति नफ़रत और कुंठा से भरी यह फ़िल्म समाज को पीछे धकेलेने के सिवाय और कोई भूमिका नहीं अदा करती है। दर्शक के दिमाग में मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत बिठाकर यह फ़िल्म यह साबित करने का प्रयास करती है कि सारे मुसलमान आतंकवादी होते हैं। इतना ही नहीं बीच-बीच मैं इस फ़िल्म में कम्युनिस्टों और कश्मीर में राजकीय फौजी दमन के विरुद्ध संघर्षरत वहाँ की आम जनता को भी आतंकवादी क़रार देने की पूरी कोशिश की जाती है। कम्युनिस्टों को यहाँ जिस तरह बुरी और विदेशी विचारधारा फैलने वाले लोग और पश्चिमी संस्कृति के वाहकों के तौर पर दर्शाया गया है। वाक़ई में जो विचारधारा मज़दूरों-मेहनतकशों की बात करती है और उनकी मेहनत की लूट के ख़िलाफ़ जंग छेड़ती है उसे “विदेशी” दर्शाने का असल मकसद ही यह है की दर्शक के दिमाग़ में मज़दूर-विरोधी, न्‍याय-विरोधी, समानता-विरोधी भावनाएँ और सोच बिठायी जा सके और उनमें साम्‍प्रदायिक ज़हर घोला जा सके और इस साम्‍प्रदायिक उन्‍माद को ही देशी या “राष्‍ट्रीय” विचारधारा घोषित कर दिया जाय।