Category Archives: मज़दूर बस्तियों से

शाहबाद डेरी में घरेलू कामगार महिलाओं को शिक्षित-प्रशिक्षित करने के लिए चल रही है दिल्ली घरेलू कामगार यूनियन की रात्रि पाठशाला

घरेलू कामगार महिलाओं में से अधिकतर महिलाएँ अशिक्षित हैं। इसलिए दिल्ली घरेलू कामगार यूनियन द्वारा महिलाओं को राजनीतिक रूप से शिक्षित-प्रशिक्षित करने के लिए यूनियन पाठशाला और अक्षर ज्ञान सिखाने के लिए रात्रि पाठशाला का आयोजन किया जा रहा है। यहाँ अक्षरज्ञान महज़ साक्षरता का प्रश्न नहीं है, बल्कि अपने आप को मुक्त करने के बारे में ज्ञान को प्राप्त करने का रास्ता है, उसका औज़ार है। लेकिन यूनियन पाठशाला में महज़ पढ़ना-लिखना ही नहीं सिखाया जाता है। यूनियन पाठशाला में देश-दुनिया के तमाम ज़िन्दा सवालों पर बातचीत की जाती है। जिस समाज में हम रहते हैं वह हमें चीज़ों को शासक वर्ग के नज़रिये से देखने का आदी बना देता है। इसमें स्कूल, कॉलेज, धर्म, मीडिया, क़ानून आदि सबका हाथ होता है। ये सभी शासक वर्ग की विचारधारा के उपकरण हैं और हमें शासक वर्ग के नज़रिये से दुनिया को देखने की आदत डलवाते हैं।

‘बंगलादेशी घुसपैठियों’ के नाम पर देशभर में मेहनतकश ग़रीब जनता पर पुलिस, प्रशासन और संघी संगठनों की गुण्डागर्दी व बर्बरता

पहली बात तो यह कि हर वह व्यक्ति जो इस देश में रहता है या आता है, सिर्फ़ पेट लेकर नहीं आता बल्कि दो हाथ भी लेकर आता है और मेहनत-मशक्क़त करता है और अपने हक़ का खाता है, वह यहाँ बस सकता है क्योंकि वह परजीवी नहीं बल्कि इसी समाज में अपने श्रम से भौतिक सम्पदा का सृजन कर रहा है। अगर किसी बंगलादेशी को देश से बाहर करना चाहिए तो वह बंगलादेश की ज़ालिम भूतपूर्व शासक शेख़ हसीना है, जिसे भारत की मोदी सरकार ने पनाह दे रखी है! वह तो बस यहाँ ऐश कर रही है! लेकिन निशाना मज़दूरों को बनाया जा रहा है, जिनमें से अधिकांश तो बंगलादेश से आये भी नहीं हैं, वे बस मुसलमान हैं और बांग्लाभाषी हैं।

हिण्डन नदी के किनारे बसे नोएडा-ग्रेटर नोएडा में लाखों लोग भीषण गर्मी में बिना बिजली के रहने को मजबूर!

दरअसल पूँजीवादी व्यवस्था में सरकार-प्रशासन से लेकर धन्नासेठों-अमीरज़ादों की जमातों तक मेहनतकश आबादी को इन्सान समझा ही नहीं जाता। इनके लिए ये बस काम करने वाली चलती-फिरती मशीन हैं, 12-14 घण्टे मज़दूरी करने वाले ग़ुलाम हैं और इसलिए ये मज़दूरों को कीड़े-मकोड़ों की तरह जीने के लिए छोड़ देते हैं। सत्ता में चाहे किसी भी चुनावबाज़ पार्टी की सरकार आ जाये, ये सभी तमाम अमीरों और पूँजीपतियों से चन्दे लेते हैं और इसलिए जीतकर आने के बाद तन-मन-धन से उनकी ही सेवा में लगे होते हैं। लेकिन इनमें भी फ़ासीवादी भाजपा यह काम सबसे अधिक तत्परता के साथ करती है और उत्तर प्रदेश की योगी सरकार तो इसमें काफ़ी ज़्यादा माहिर है। इसी का फ़ायदा तमाम बिचौलिये, दलाल और बाहुबली उठाते हैं जो लोगों की मजबूरी का इस्तेमाल कर अपना निजी फ़ायदा निकालते हैं। इन इलाक़ों में तो स्थानीय बाहुबली भी भाजपा का ही सदस्य है।

रेखा गुप्ता सरकार दिल्ली में मज़दूरों की बस्तियों पर बेरहमी से चला रही है बुलडोज़र!

पूँजीवाद में एक तरफ़ गाँव से शहरों की ओर प्रवास जारी रहता है और दूसरी तरफ़ शहर फैलते रहते हैं जिसमें शहरी “विकास” हर-हमेशा ग़रीबों की बस्तियों को उजाड़ने की क़ीमत पर किया जाता है। जो सीमित वैकल्पिक आवास मज़दूरों को मुहैया कराये जाते हैं वे मज़दूरों के रोज़गार के स्थान से दूर तथा अस्पताल, शिक्षा, पानी, बिजली जैसी सुविधाओं से रिक्त होते हैं। दिल्ली में बवाना और नरेला में झुग्गियों को उजाड़कर बसायी झुग्गी-झोंपड़ी क्लस्टर के मकान झुग्गियों से भी बदतर जीवन स्थिति देते हैं। झुग्गी-मुक्त शहर के दावे झूठे और बेमानी हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार ही भारत में 6.5 करोड़ झुग्गीवासी थे और क़रीब एक लाख झुग्गियाँ थीं। ये झुग्गियाँ पटरी किनारे, नाले किनारे या शहर के कोनों में बसी होती हैं जहाँ बिजली, पानी, सीवर, शौचालय, सड़क से लेकर साफ़-सफ़ाई की समस्या हमेशा रहती है। हालाँकि कई रिपोर्टें बताती हैं कि यह आँकड़ा सटीक नहीं था और असल संख्या 14-15 करोड़ है।

एक बार फिर आग में झुलसी मज़दूरों की ज़िन्दगियाँ! दिल्ली के शाहाबाद दौलतपुर में आग से हज़ारों झुग्गियाँ तबाह, चार बच्चों की मौत

27 अप्रैल को शाहाबाद दौलतपुर गाँव के श्रीनिकेतन अपार्टमेण्ट के पास की झुग्गियों में लगी भीषण आग से हज़ारों झुग्गियाँ तबाह हो गयी। इस घटना में चार बच्चों की मौत हो गयी और हज़ारों लोगों की ज़िन्दगियाँ तबाह-बर्बाद हो गयी। इन झुग्गियों में ज़्यादातर आबादी कूड़ा बीनने का काम करती है। झुग्गियों में आग उस समय लगी जब लोग काम पर गये हुए थे। एक घर में सिलेण्डर फटने की वजह से आग ने भयानक रूप ले लिया और हज़ार के करीब झुग्गियाँ आग की चपेट में आ गयी। स्थानीय प्रशासन ने इस घटना पर बहुत देरी से कार्रवाई की। साथ ही दमकल की गाड़ियों को भी पहुँचने में देरी हुई। प्रशासन द्वारा तुरन्त कार्रवाई न करने और घटना के प्रति लापरवाही दिखाने के कारण भी आग पूरे इलाक़े में फैल गयी और हज़ारों लोग सड़क पर आ गये। अब तक लोग दर-दर मारे फ़िर रहे है। सालों की मेहनत-मज़दूरी करके, एक-एक पायी जोड़कर अपना घर बनाते हैं और अचानक से सब बर्बाद हो जाता है। घटना के बाद अभी तक लोगों के लिए रहने की व्यवस्था नहीं की गयी है।

हैदराबाद की एक मज़दूर बस्ती नन्दा नगर में मज़दूरों की ज़िन्दगी की जद्दोजहद की एक तस्वीर

इस बस्ती में स्थानीय तेलुगूभाषी मज़दूरों के अलावा उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, उड़ीसा व पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों से आने वाले प्रवासी मज़दूर भी बड़ी संख्या में रहते हैं। यहाँ रहने वाले पुरुष कुशल मज़दूरों को 8 से 10 घण्टे काम के लिए औसतन 30 दिन के काम के बदले 12 से 15 हज़ार का वेतन मिलता है। जबकि स्त्री मज़दूरों को महज़ 8 से 12 हज़ार वेतन मिलता है। अकुशल मज़दूरों को इससे भी कम तनख़्वाह मिलती है। आसमान छूती महँगाई के दौर में गैस सिलिण्डर, राशन–सब्ज़ी, बच्चों की शिक्षा, दवा -इलाज का ख़र्च पूरा करना मज़दूर परिवारों के लिए बेहद मुश्किल होता है। मज़दूरों को एक छोटे से कमरे के लिए 5 से 6 हज़ार रुपये किराये के देने पड़ते हैं। इस प्रकार मज़दूरों का आधा वेतन तो किराया देने में ही निकल जाता है और बाक़ी सभी ख़र्चों के लिए शेष आधा वेतन ही बचता है। इस वजह से मज़दूरों को हर महीने आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ता है।

कुसुमपुर पहाड़ी में अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस पर सांस्कृतिक संध्या : एक शाम संघर्षों के नाम

दिल्ली घरेलू कामगार यूनियन की ओर से 8 मार्च अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस के अवसर पर कुसुमपुर पहाड़ी के मद्रासी मन्दिर पार्क में सांस्कृतिक संध्या का आयोजन किया गया। कामगार स्त्री दिवस के महत्व और आज के दौर में इसकी प्रासंगिकता को लेकर दिल्ली घरेलू कामगार यूनियन की ओर से 4 मार्च से कुसुमपुर पहाड़ी की गलियों में अभियान चलाया जा रहा था और मज़दूरों-मेहनतकशों को इस अवसर पर होने वाले सांस्कृतिक संध्या की सूचना दी जा रही थी। कुसुमपुर के स्त्री व पुरुष मज़दूरों को बताया गया कि कार्यक्रम में नाटक और गीतों के साथ दिल्ली घरेलू कामगार यूनियन की माँगों और कामों पर भी चर्चा होगी। अभियान के दौरान मज़दूरों ने कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए सहयोग भी किया।

भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु के 94वें शहादत दिवस (23 मार्च) पर दिल्ली के शाहबाद डेरी में भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी की ओर से लगा ‘शहीद मेला’

मज़दूरों के लिए यह मेला एक यादगार अनुभव था। कुछ कमियों के बावजूद इस सफ़ल आयोजन के बाद इलाक़े में लोगों के हौसले बुलन्द हुए। अपने महान शहीदों के सपनों का समाज बनाने के संघर्ष को आगे बढ़ाने का संकल्प मूर्त रूप में लोगों के समक्ष उपस्थित हुआ। इस तरह के मेले आम तौर पर मज़दूर इलाक़ों में नहीं होते। हज़ारों लोगों का मेले में शामिल होना मेले के प्रति उनकी दिलचस्पी को दर्शाता है। लोगों की भागीदारी केवल मेले में शामिल होने तक सीमित नहीं थी, बल्कि उन्होंने इसकी पूरी तैयारी में योगदान दिया। टेण्ट लगाने से लेकर, सजावट करने तक के काम में इलाक़े के नौजवान वॉलण्टियर बने। मेले में हुए ख़र्च का अधिकतम हिस्सा भी इलाक़े से ही जुटाया गया। मेले के दौरान आने वालों ने भी आर्थिक सहयोग किया। इससे यह भी साबित हुआ कि आम मेहनतकश आबादी अपने संसाधनों के दम पर अपने संघर्षों के साथ-साथ अपने उत्सवों और जश्न भी आयोजित कर सकती है। भविष्य में इस क़िस्म के कार्यक्रमों का नियमित आयोजन किया जायेगा।

मज़दूर परिवार जान की गुहार लगाता रहा लेकिन प्रशासन चुनावी ताम-झाम में लगा रहा

पूँजीवाद लोकतन्त्र की सच्चाई अब इससे ज्यादा क्या साबित होगी कि एक युवक की जिन्दगी से महत्वपूर्ण चुनाव सम्पन्न करवाना था! इस गली सड़ी व्यवस्था में ऐसी घटनाएँ कोई नयी बात नहीं है। देशभर में खतरनाक कार्यों को बिना सुरक्षा उपकरणों के करते हुए मजदूरों की जिन्दगियाँ हर रोज मौत के मुँह में चली जाती हैं और प्रशासन के लिए यह महज एक दुर्घटना होती है किन्तु जिन परिवारों से कोई चला जाता है उनकी जिन्दगी गरीबों के बोझ तले और भी दब जाती है। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को सरकार द्वारा कोई मुआवजा नहीं दिया जाता अगर थोड़ा बहुत मुआवजा दिया भी जाता है तो उसका मकसद ये होता है कि मज़दूर परिवार न्याय के लिए आवाज ना उठा सकें और उनके गुस्से पर कुछ ठण्डे पानी के छींटे पड़ जाएँ।

बवाना के मज़दूर की चिट्ठी

सुबह जगो तो काम के लिए, नहाओ तो काम के लिए, खाओ तो काम के लिए, रात बारह बजे सोओ तो काम के लिए। ऐसा लगता है की हम सिर्फ काम करने के लिए पैदा हुए हैं ‌तो हम फिर अपना जीवन कब जियेंगे। महीने की सात से दस तारीख के बीच तनखा मिलती है, पन्द्रह तारीख तक जेब में पैसे होते हैं तो अपने बच्चों के लिए फल या कुछ ज़रूरी चीजें ले सकते हैं । उसके बाद हर दिन एक-एक रुपया सोचकर खर्च करना पड़ता है। महीना ख़त्म होते-होते ये भी सोच ख़त्म हो जाती है। अगर कहीं बीमार पड़ गये तो क़र्ज़ के बोझ तले दबना तय है।