Category Archives: आपदाएँ

देश के विकास में बारिश का योगदान!

बरसात के मौसम के साथ ही शुरूआत होती है सड़क में गढ्ढे बनने और उसके धँसने की। इसी मौसम में पुल गिरते हैं, पुरानी इमारतें गिरती हैं, पेड़-खम्भों से लेकर न जाने क्या-क्या गिर जाता है। आप सोच रहे होंगे बात तो ठीक है, पर इससे देश की अर्थव्यवस्था का आगे बढ़ने से क्या लेना-देना है! महोदय! देश की विकास को समझने में, यही तो आप चूक गये! अब देखिए, जब कोई सड़क टूटती है या उसमें गढ्ढे बन जाते हैं, तो इसके बाद क्या होता है? इसके बाद अगले साल सरकार सड़क की मरम्मत के लिए नया टेण्डर निकालती है। कोई बड़ी कम्पनी सबसे अधिक पैसा देकर टेण्डर ख़रीदती है। फिर कम्पनी ठेकेदार नियुक्त करती है। ठेकेदार मज़दूरों को काम पर रखता है। फिर दुबारा नयी सड़क बनकर तैयार होती है। इसके बाद मोदीजी या माननीय मुख्यमन्त्री सड़क का उद्घाटन करने आते हैं। यानी सड़क के टूटने के कारण ही कम्पनी को टेण्डर मिला, ठेकेदार को सड़क बनाने के लिए ठेका मिला, मुनाफ़ा मिला और इससे ही मज़दूरों को 2-3 महीने के लिए काम मिला और अपना शोषण करवाने का अधिकार प्राप्त हो पाया और अन्त में सरकार को भी जनता के हित में किये गये काम को दिखाने का मौक़ा मिला।

बारिश ने उजागर की “स्मार्ट सिटी” की हक़ीकत – हर बार की तरह मज़दूर और मेहनतकश तबका ही भुगत रहा है!

इन हालात में सबसे ज़्यादा मार उस वर्ग पर पड़ी है, जो हर रोज़ सुबह 5 बजे उठकर काम की तलाश में, या कारखानों, दफ़्तरों, दुकानों पर काम तक पहुँचने के लिए निकलता है — मज़दूर वर्ग। फुटपाथ पर रहने वाला, झुग्गियों में गुजर-बसर करने वाला, ईंट-भट्ठों और फ़ैक्टरियों में काम करने वाला, सफाई कर्मचारी, निर्माण मज़दूर, रेहड़ी-पटरी चलाने वाला, इन सबके लिए ये बारिश आफ़त बनकर आई है। जिन झुग्गियों में वे रहते हैं, वहाँ सीवर व्यवस्था नाम की कोई चीज़ नहीं। न कोई निकासी का प्रबन्ध है, न कोई प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधा। इसका नतीजा क्या होता है, ये हम मज़दूर जानते हैं। हमें इसी गन्दगी में पशुवत पड़े रहने के लिए छोड़ दिया जाता है, हालाँकि हमारे समाज के धनाढ्य वर्गों की समृद्धि की इमारतें हमारे श्रम की नींव पर ही खड़ी होती हैं।

आख़िर कब तक उत्तर बिहार की जनता बाढ़ की विभीषिका झेलने को मजबूर रहेगी?

आज विज्ञान और टेक्नोलॉजी जिस हद तक आगे बढ़ चुकी है, उसका उपयोग कर ऐसी प्राकृतिक आपदाओं के प्रभावों को कम किया जा सकता है। हालाँकि जैसा कि पहले भी कहा पूँजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत भी उत्पादक शक्तियों के विकास के कारण ऐसा सम्भव होते हुए भी इसे नहीं किया जाता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। हमें सत्ता में बैठी सरकारों को इन मसलों पर घेरते हुए उनसे सवाल करना होगा और पूँजीवादी व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करना होगा। बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा के प्रभावों को नियंत्रित करने के लिए हमें सरकारों को मजबूर करना होगा।

बाढ़, बेशर्म सरकार और संवेदनहीन प्रशासन का क़हर झेलती जनता

जैसे-जैसे मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था ‘विकास’ की नयी ऊँचाइयों पर पहुँच रही है, उसी अनुपात में जनता के जीवन में चलने वाली ‘विनाशलीला’ और ज़्यादा भयंकर रूप लेती जा रही है। इस विनाशलीला का एक दृश्य अगस्त के महीने में इलाहाबाद शहर में गंगा-यमुना के इलाक़े में आयी बाढ़ के रूप में सामने आया। गंगा और यमुना जैसी दो बड़ी नदियों और कई छोटी नदियों का शहर होने के चलते इस बाढ़ का क़हर जब टूटता है, तो इलाहाबाद की बहुत बड़ी आबादी उसका शिकार होती है। इस बार भी गंगा और यमुना के तटवर्ती इलाक़े, ससुर खदेरी और टौंस नदी के किनारे रहने वाली आबादी इस क़हर का शिकार बनी। बड़े पैमाने पर लोगों के काम-धन्धे का नुक़सान हुआ और बहुत से लोग विस्थापित हुए।

कोरोना से हुई मौतों का सच छिपाने की मोदी सरकार की कोशिश बेनक़ाब!

फ़ासीवादी मोदी सरकार द्वारा देश में कोरोना महामारी से हुई मौतों को छुपाने व मौत के ग़लत आँकड़े पेश करने के बावजूद कई रिपोर्टों से अब यह साबित हो रहा है कि दुनिया में कोरोना महामारी से सबसे ज़्यादा मौतें, एक रिपोर्ट के मुताबिक़ लगभग 47 लाख, भारत में हुई हैं। मानवद्रोही व संवेदनहीन मोदी सरकार का यह दावा कि कोरोना की दूसरी लहर में देश में ऑक्सीजन की कमी से एक भी मौत नहीं हुई, महज़ एक लफ़्फ़ाजी है।

कोरोना की आपदा : मालिकों के लिए मज़दूरों की लूट का अवसर

कोरोना काल को एक बार फिर अवसर में तब्दील करते हुए फासीवादी मोदी सरकार मज़दूरों की श्रम-शक्ति की लूट को तेज़ी से लागू कर रही है। कोरोना महामारी में सरकार की बदइन्तज़ामी की वजह से जब एक तरफ़ आम मेहनतकश आबादी दवा-इलाज़ की कमी और राशन की समस्या की दोहरी मार झेल रही है तब ऐसे वक्त में गोवा की सरकार ने मज़दूरों के काम के घण्टे बढ़ाकर उन पर एक और हमला किया है। कोविड-19 का हवाला देते हुए गोवा में भाजपा की सरकार ने मज़दूरों के काम के घंटे 8 से बढ़ाकर 12 कर दिये हैं ताकि मालिकों के मुनाफ़े को बरकरार रखा जा सके।

हमारे देश और दुनिया में पैदा हुई वैक्सीन की किल्लत का ज़िम्मेदार कौन?

कोविड-19 महामारी के बीच जब दुनिया के विभिन्न हिस्सों में कार्यरत वैज्ञानिकों की मेहनत रंग लायी और वैक्सीन के सफल निर्माण और शुरुआती ट्रायलों में उसकी प्रत्यक्ष प्रभाविता की ख़बरें आयीं तो दुनिया को इस अँधेरे समय में आशा की किरण दिखायी दी। लेकिन वैक्सीन निर्माण और उसके वितरण के रास्ते में रोड़ा बनकर खड़ी मुनाफ़ाख़ोर फ़ार्मा कम्पनियाँ, मौजूदा पेटेण्ट क़ानून और बौद्धिक सम्पत्ति अधिकारों के पूँजीवादी नियम, विज्ञान द्वारा पैदा की गयी इस आशा की इस किरण को लगातार मद्धम किये जा रहे हैं।

200 मेहनतकशों की जान लेने वाली चमोली दुर्घटना सरकार और व्यवस्था की पैदाइश है!

पिछली 7 फ़रवरी की सुबह चमोली ज़िले के ऋषिगंगा हाइड्रो इलेक्ट्रिक पॉवर प्रोजेक्ट पर काम कर रहे मज़दूरों की दिनचर्या सामान्य दिनों की तरह ही शुरू हो गयी थी। क़रीब 30-35 मज़दूर वहाँ काम कर रहे थे। लेकिन काम के एक घण्टे बाद ही सब कुछ बदल गया। वहाँ मशीन पर काम कर रहे एक मज़दूर कुलदीप पटवार को ऊपर पहाड़ से धूल और गर्द का एक बड़ा ग़ुबार नीचे आता हुआ दिखायी दिया।

कोविड 19 वैक्सीन : एक पड़ताल

बीता साल पूरी तरह से कोरोना वायरस के नाम रहा। पूरे साल कोरोना वायरस (SARS CoV 2) ने पूरे विश्व में क़हर बरपा कर रखा हुआ था। नये साल में हालाँकि इसके केसों में काफ़ी हद तक कमी आई है और अब अलग-अलग वैक्सीन भी आ चुकी हैं लेकिन फिर भी यह बीमारी पूरी तरह से कब तक क़ाबू में आयेगी कुछ कहा नहीं जा सकता।

कोरोना वैक्सीन के नाम पर जारी है बेशर्म राजनीति

मोदी सरकार देश में हर उपलब्धि का सेहरा ख़ुद के सिर बाँधने और हर विफलता का ठीकरा विपक्षी दलों पर फोड़ने के लिए कुख्यात है। कोरोना महामारी के दौर में भी सरकार का ज़ोर इस महामारी पर क़ाबू पाने की बजाय ख़ुद के लिए वाहवाही लूटने पर रहा है। जिन लोगों की राजनीतिक याददाश्त कमज़ोर नहीं है उन्हें याद होगा कि किस प्रकार सरकार ने इण्डियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च के ज़रिये वैक्सीन बनाने वाली कम्पनियों पर दबाव डाला था कि 15 अगस्त तक कोरोना की वैक्सीन तैयार हो जानी चाहिए ताकि प्रधान सेवक महोदय लाल किले से दहाड़कर वैक्सीन की घोषणा कर सकें और ख़ुद की पीठ थपथपा सकें।