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भीषण बेरोज़गारी और तबाही झेलती दिल्ली की मज़दूर आबादी

दिल्ली में 29 औद्योगिक क्षेत्र हैं, जिनमें अधिकतर छोटे व मध्यम आकार के कारख़ाने हैं। इन औद्योगिक क्षेत्रों में दिल्ली की कुल 80 लाख मज़दूर आबादी का बड़ा हिस्सा काम करता है। इसके अलावा निर्माण से लेकर लोडिंग, कूड़ा बीनने व अन्य ठेके पर काम हेतु तमाम इलाक़ों में लेबर चौ‍क पर मज़दूर खड़े रहते हैं। परन्तु आज इन सभी इलाक़ों में कामों में सुस्ती छायी हुई है, बल्कि यह मन्दी पिछले तीन सालों से छायी है। देश एक बड़े आर्थिक संकट की आगोश में घिर रहा है और इन इलाक़ों में काम की परिस्थिति और बिगड़ने जा रही है।

कार्यस्थल पर मज़दूरों की मौतें : औद्योगिक दुर्घटनाएँ या मुनाफ़ाकेन्द्रित व्यवस्था के हाथों क्रूर हत्याएँ

कार्यस्थल पर मज़दूरों की मौतें : औद्योगिक दुर्घटनाएँ या मुनाफ़ाकेन्द्रित व्यवस्था के हाथों क्रूर हत्याएँ वृषाली हाल-फ़िलहाल देश में कई औद्योगिक हादसे सामने आये हैं। इन हादसों ने दिखा दिया…

प्रधानमन्त्री आवास योजना की हक़ीक़त – दिल्ली के शाहबाद डेरी में 300 झुग्गियों को किया गया ज़मींदोज़!

2019 के चुनाव से पहले जहाँ एक तरफ़ “मन्दिर वहीं बनायेंगे” जैसे साम्प्रदायिक फ़ासीवादी नारों की गूँज सुनायी दे रही है, वहीं 2014 में आयी मोदी सरकार के विकास और “अच्छे दिनों” की सच्चाई हम सबके सामने है। विकास का गुब्बारा फुस्स हो जाने के बाद अब मोदी सरकार धर्म के नाम पर अपनी चुनावी गोटियाँ लाल करने का पुराना संघी फ़ॉर्मूला लेकर मैदान में कूद पड़ी है। न तो मोदी सरकार बेरोज़गारों को रोज़गार दे पायी है, न आम आबादी को महँगाई से निज़ात दिला पायी है और न ही झुग्गीवालों को पक्के मकान दे पायी है। इसीलिए अब इन सभी अहम मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए मन्दिर का सहारा लिया जा रहा है। मोदी सरकार ने 2014 में चुनाव से पहले अपने घोषणापत्र में लिखे झुग्गी की जगह पक्के मकान देने का वायदा तो पूरा नहीं किया, उल्टा 2014 के बाद से दिल्ली के साथ-साथ देश भर में मेहनतकश आबादी के घरों को बेदर्दी से उजाड़ा गया है। हाल ही में 5 नवम्बर 2018 को दिल्ली के शाहबाद डेरी इलाक़े के सैकड़ों झुग्गीवालों के घरों को डीडीए ने ज़मींदोज़ कर दिया। 300 से भी ज़्यादा झुग्गियों को चन्द घण्टों में बिना किसी नोटिस या पूर्वसूचना के अचानक मिट्टी में मिला दिया गया।

दिल्ली परिवहन निगम (डीटीसी) के ठेका कर्मचारियों की हड़ताल : एक रिपोर्ट

डीटीसी विभाग में ठेके (अनुबन्ध) पर काम करने वाले ड्राइवर (4000) और कण्डक्टर (8000) को मिलाकर 12,000 कर्मचारी हैं। हालाँकि लम्बे समय से डीटीसी के ये ठेका कर्मचारी बुनियादी श्रम अधिकार भी न मिलने के कारण परेशान थे। इस साल के अगस्त माह में जब दिल्ली हाईकोर्ट का दिल्ली सरकार द्वारा बढ़ायी गयी न्यूनतम मज़दूरी पर रोक लगा दी गयी थी; जिसके कारण कर्मचारियों के वेतन में लगभग 4 से 5 हज़ार रुपये कम हो गये थे। वेतन कम होने के बाद इन कर्मचारियों की बैठक हुई और फ़ैसला किया गया वेतन कम होने, समान काम-समान वेतन व अन्य माँगों को लेकर कर्मचारी 22 अक्टूबर को एक दिन की हड़ताल करेंगे। इस एक दिन की हड़ताल में कर्मचारियों के साथ एक्टू (चुनावबाज़ संशोधनवादी कम्युनिस्ट पार्टी सीपीआई (माले-लिबरेशन) का मज़दूर फ्रण्ट) की भागीदारी भी थी। 22 अक्टूबर की शाम को ही दिल्ली सरकार ने इस हड़ताल की अगुवाई कर रहे 8 कर्मचारियों को नौकरी से बर्ख़ास्त कर दिया था। ऐसे में इन कर्मचारियों ने फ़ैसला लिया कि बर्ख़ास्त कर्मचारियों को वापस लेने व अन्य माँगों को लेकर अब अनिश्चितकालीन हड़ताल की जायेगी। कर्मचारियों के इस फ़ैसले से एक्टू सहमत नहीं था; उनका कहना था कि बस एक दिन की प्रतीकात्मक हड़ताल से ही सरकार पर दबाव बनाया जा सकता है। ऐसे में डीटीसी कर्मचारियों ने सीटू को अपनी अनिश्चितकालीन हड़ताल से पूरी तरह अलग करने का फ़ैसला किया।

आँगनवाड़ी एवं आशा कर्मियों के मानदेय में बढ़ोत्तरी की घोषणा : प्रधानमन्त्री का एक और वायदा निकला जुमला!

प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी द्वारा 11 सितम्बर 2018 को आँगनवाड़ी एवं आशा कर्मियों के मानदेय में बढ़ोत्तरी की घोषणा की गयी थी। ‘आँगनवाड़ी’ और ‘आशा’ महिलाकर्मियों को मानदेय बढ़ोत्तरी का यह वायदा दिवाली के तोहफ़े के तौर पर किया गया था किन्तु अभी तक भी इस मानदेय बढ़ोत्तरी की एक फूटी कौड़ी भी किसी के खाते में नहीं आयी है! दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन को जिस बात की पहले ही आशंका थी, वही हुआ। यूनियन के द्वारा अपनी पिछली प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस बात की आशंका भी जतायी गयी थी। प्रधानमन्त्री द्वारा किये गये वायदे के अनुसार अक्टूबर माह से कार्यकर्त्ताओं के वेतन में 1,500 रुपये और सहायिकाओं के वेतन में 750 रुपये की वृद्धि होनी थी लेकिन अक्टूबर के महीने से बढ़ी हुई यह राशि अब तक किसी महिलाकर्मी को प्राप्त नहीं हुई है।

महिला एवं बाल विकास विभाग में चल रहे भ्रष्टाचार का आँगनवाड़ी महिलाकर्मियों ने दिल्ली में किया पर्दाफ़ाश!

केन्द्र सरकार ने हाल में ही यह घोषणा की है कि आँगनवाड़ी कार्यकर्ताओं और सहायिकाओं के मानदेय में क्रमशः 1500 व 750 रुपये की बढ़ोत्तरी की जायेगी! वैसे तो इस देश में शिवाजी की मूर्ति पर 3600 करोड़ व पटेल की मूर्ति पर 3000 करोड़ ख़र्च कर दिये जा रहे हैं, जिसका सीधा मक़सद जातीय वोट बैंक को भुनाना है, उलजुलूल के कामों में अरबों रूपये पानी की तरह बहाये जाते हैं, किन्तु आँगनवाड़ियों में ज़मीनी स्तर पर मेहनत करने वाली कार्यकर्ताओं और सहायिकाओं को पक्का रोज़गार देने की बजाय या तब तक न्यूनतम वेतन के समान मेहनताना देने की बजाय भुलावे में रखने की कोशिश की जा रही है। मोदी सरकार 28 लाख महिलाकर्मियों के वोटों का आने वाले चुनाव के लिए 1500 और 750 रुपये में मोल-भाव कर रही है!?

12 जुलाई को क्लस्टर बसों के संवाहकों ने की एक दिवसीय हड़ताल

आमतौर पर एक संवाहक की एक दिन में डबल ड्यूटी लगती है यानी कि आठ-आठ घण्टे की दो पारियाँ। संवाहकों से काम डेली बेसिस पर लिया जाता है यानी उन्हें हर रोज़ अपने लिए ड्यूटी लेनी होती है और उसी हिसाब से उनका मासिक वेतन तय किया जाता है। दिल्ली सरकार द्वारा तय किया गया न्यूनतम वेतन तक संवाहकों को नहीं दिया जाता है। किसी अन्य किस्म का बोनस, भत्ता तो दूर की बात है, न कोई रविवार की छुट्टी दी जाती है, न ही कोई अन्य सरकारी छुट्टी। जैसे लेबर चौक पर मज़दूर अपनी श्रमशक्ति बेचने के लिए आपस में होड़ करते हैं, वैसे ही संवाहकों के बीच होड़ पैदा की जाती है। संवाहकों की संख्या जानबूझकर ज़रूरत से ज़्यादा रखी जाती है, ताकि एक संवाहक के ऊपर डीआईएमटीएस जब चाहे तब दबाव बना सके। संवाहकों के ऊपर लगतार ‘नो ड्यूटी’ की एक तलवार लटकती रहती है। ‘नो ड्यूटी’ एक किस्म का निलम्बन है जिसके तहत किसी संवाहक को अनिश्चित सीमा तक ड्यूटी मुहैया नहीं करायी जाती है।

कम बुरा विकल्प नहीं, सच्चे क्रान्तिकारी विकल्प को चुनो!

यह सच है कि पूँजीवादी चुनाव ही अपने आप में मज़दूर वर्ग के ऐतिहासिक कार्यभारों को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। समूची आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में आमूलगामी व क्रान्तिकारी बदलाव के बिना हमें बेरोज़गारी, भूख, महँगाई से स्थायी तौर पर निजात नहीं मिल सकती है। लेकिन पूँजीवादी चुनावों में मज़दूर वर्ग का स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष अनुपस्थित रहने के कारण समाज में जारी वर्ग संघर्ष में मज़दूर वर्ग कमज़ोर पड़ता है, वह पूँजीपति वर्ग का पिछलग्गू बनता है और साथ ही वह अपने उन अधिकारों को भी नहीं हासिल कर पाता है जिन्हें पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर हासिल किया जा सकता है जैसे कि आठ घण्टे का कार्यदिवस, न्यूनतम मज़दूरी, आवास का अधिकार आदि। इन हक़ों को सुनिश्चित करने के लिए ‘क्रान्तिकारी मज़दूर मोर्चा’ की ओर से मज़दूर वर्ग के स्वतन्त्र पक्ष को पेश करने की एक शुरुआत की जा रही है।

हमारी लाशों पर मालिकों के आलीशान बंगले और गाड़ियां खड़ी हैं!

अगर एक फैक्ट्री के मज़दूर चाहें भी तो मिलकर मालिक-पुलिस-दलाल-लेबरकोर्ट-सरकार की शक्ति से नहीं लड़ सकते हैं। वज़ीरपुर की एक फैक्ट्री में काम करने वाले मज़दूरों की संख्या औसतन 30 होती है और मालिक किसी भी बात पर पूरी फैक्ट्री के मज़दूरों की जगह दूसरे मज़दूरों को ला सकता है लेकिन अगर स्टील का पूरा सेक्टर जाम हो जाये या पूरे इलाके में हड़ताल हो जाये तो मालिक हमारी बात सुनाने को मजबूर होगा।

दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन के ठेका मज़दूरों के लम्बे संघर्ष की एक बड़ी जीत!

डीएमआरसी के ठेका मज़दूर लम्बे समय से स्थायी नौकरी, न्यूनतम मज़दूरी, ई.एस.आई., पी.एफ. आदि जैसे अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इस संघर्ष में ठेका कर्मियों ने कई जीतें भी हासिल की जैसे कि टॉम ऑपरेटरों के लिए न्यूनतम मज़दूरी को लागू करवाना, तमाम रिकॉल मज़दूरों के मुकदमों को सफलतापूर्वक लेबर कोर्ट में लड़ना। इस संघर्ष के साथ ही यूनियन पंजीकरण के लिए भी मज़दूर लगातार प्रयास कर रहे थे।