क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 29 : मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के सिद्धान्त : खण्ड-2
अध्याय – 3
पूँजी के परिपथ – III

अभिनव

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मालपूँजी का परिपथ

माल-पूँजी के परिपथ का आम सूत्र है:

C’ – M’ – C…P…C’

जैसा कि हम देख सकते हैं, इस परिपथ के सारे तत्व वही हैं जो मुद्रा-पूँजी और उत्पादक-पूँजी के परिपथ में थे, बस वे अलग क्रम में व्यवस्थित हैं। यह नैसर्गिक है क्योंकि ये तीनों परिपथ औद्योगिक पूँजी के परिपथ के ही तीन रूप हैं और वे उसी के सतत् रूप से जारी रहने के फलस्वरूप अस्तित्व में आते हैं। इसी सूत्र को अगर हम फैलाकर लिखें तो वह कुछ इस प्रकार दिखेगा:

जब हम इस परिपथ को फैलाकर लिखते हैं, तो हम देख सकते हैं कि यहाँ उत्पादित माल-पूँजी (C’) महज़ मुद्रा-पूँजी के परिपथ और उत्पादक-पूँजी के परिपथ का परिणाम मात्र नहीं है, बल्कि यह मुद्रा-पूँजी के परिपथ और उत्पादक-पूँजी के परिपथ की पूर्वशर्त भी है क्योंकि एक तो M – C में
M – mp भी शामिल है और इसलिए इस हद तक यह उत्पादन के साधनों का उत्पादन करने वाले अन्य औद्योगिक पूँजीपतियों के लिए उनकी माल-पूँजी का मुद्रा-पूँजी में तब्दील होना, यानी
C’ – M’ के चरण का पूर्ण होना है, और वहीं दूसरी ओर बिना C’ – M’ के सम्पन्न हुए, औद्योगिक पूँजी का परिपथ पुनरुत्पादन को जारी नहीं रख सकता है और मुद्रा-पूँजी और उत्पादक-पूँजी के अगले परिपथ भी सम्भव नहीं हो सकते हैं, क्योंकि माल-पूँजी मुद्रा-पूँजी में तब्दील होती है और पूँजीपति इसी मुद्रा-पूँजी को वापस निवेशित करके उत्पादन के साधन और श्रमशक्ति ख़रीदता है। यानी, यहाँ माल-पूँजी स्वयं अपने ही उत्पादन के तत्वों में तब्दील की जा रही होती है।

जैसे ही हम ऊपर के परिपथ को देखते हैं, यह बात स्पष्ट हो जाती है कि अगर हम साधारण पुनरुत्पादन की बात कर रहे हैं तो पहला C’ और परिपथ के अन्त में आने वाला दूसरा C’ बराबर होंगे, जबकि यदि हम विस्तारित पुनरुत्पादन व पूँजी संचय की बात कर रहे हैं तो दूसरा C’ पहले C’ से बड़ा होगा और उसे हम C’’ से भी दर्शा सकते हैं।

बहरहाल, हम सबसे पहले औद्योगिक पूँजी के परिपथ के तीसरे रूप यानी माल-पूँजी के परिपथ की कुछ विशिष्टताओं पर ग़ौर करेंगे, जो इसे मुद्रा-पूँजी और उत्पादक-पूँजी के परिपथों, यानी औद्योगिक पूँजी के परिपथ के पहले और दूसरे रूपों, से अलग करती हैं।  पहला फ़र्क तो यह है कि माल-पूँजी के परिपथ में संचरण की समूची प्रक्रिया परिपथ के शुरू में ही सम्पन्न हो जाती है (C’ – M’ – C) जबकि मुद्रा-पूँजी के परिपथ में संचरण की प्रक्रिया का एक चरण परिपथ की शुरुआत में ही घटित होता है
(M – C) जबकि दूसरा चरण परिपथ के अन्त में घटित होता है (C’ – M’) और उत्पादक-पूँजी के परिपथ में संचरण की पूरी प्रक्रिया पहले और अन्तिम चरण के बीच में सम्पन्न होती है
(C’ – M’ – C)।

दूसरा और कुछ मामलों में सबसे महत्वपूर्ण अन्तर यह है कि माल-पूँजी के परिपथ में पहला चरण C’ के साथ शुरू होता है, न कि C के साथ। प्रस्थान-बिन्दु पर ही हमारे पास महज़ पूँजी-मूल्य नहीं बल्कि पूँजी-मूल्य और बेशी मूल्य से लैस माल (C’) होता है जिसका मुद्रा में रूपान्तरण अभी होना होता है। मुद्रा-पूँजी के परिपथ में शुरुआत हमेशा M से होती है न कि M’ से। साधारण पुनरुत्पादन की स्थिति में यह बात स्वत: स्पष्ट हो जाती है, लेकिन अगर विस्तारित पुनरुत्पादन भी होता है तो परिपथ M से ही शुरू होता है क्योंकि बेशी मूल्य के उत्पादन के सारे सुराग़ ख़त्म हो चुके होते हैं और मुद्रा-रूप में पूँजी नये परिपथ को मुद्रा की किसी भी मात्रा के रूप में ही शुरू करती है और वह उन्हीं प्रकार्यों को सम्पन्न कर सकती है जिन्हें मुद्रा कर सकती है। दूसरी बात यह है कि यह सम्भव है कि मुद्रा-पूँजी के जिस परिपथ पर हम विचार कर रहे हैं वह वास्तव में उसका पहला परिपथ हो जहाँ M पहली बार निवेशित हो रहा हो और उसे उत्पादन की प्रक्रिया से अभी गुज़रना होता है।

उसी प्रकार, P यानी उत्पादक-पूँजी के परिपथ की बात करें तो आखिरी P अनिवार्यत: पहले P से मात्रा में ज़्यादा हो यह स्पष्ट नहीं होता। इसकी वजह यह है कि अगर पूँजी का संचय भी हो रहा होता है, तो विस्तारित पुनरुत्पादन होना अनिवार्य नहीं होता। अगर श्रमशक्ति और उत्पादन के साधन, यानी उत्पादक-पूँजी के तत्वों का मूल्य बढ़ जाता है, तो यह सम्भव है पूँजी-संचय होने के बावजूद उत्पादन पुराने स्तर पर ही जारी रहे या उससे भी निचले स्तर पर हो। इसलिए उत्पादक-पूँजी के परिपथ के पहले चरण की शुरुआत भी P से होती है, न कि P’ से। यहाँ भी बेशी मूल्य के पैदा होने के निशानात मिट चुके होते हैं और उत्पादक-रूप में पूँजी उन्हीं प्रकार्यों को अंजाम दे सकती है, जिन्हें वह श्रमशक्ति व उत्पादन के साधनों के रूप में दे सकती है, यानी उत्पादक उपभोग।

यह केवल मालपूँजी का परिपथ ही होता है जिसमें परिपथ की शुरुआत ही केवल पूँजीमूल्य से नहीं बल्कि पूँजीमूल्य और बेशी मूल्य से होती है क्योंकि C’ स्वयं पूँजीवादी उत्पादन का और इसलिए बेशी मूल्य के उत्पादन का परिणाम होता है। मुद्रा-पूँजी के परिपथ में परिपथ की शुरुआत महज़ पूँजी-मूल्य से ही होती है, जिसका मूल्य-संवर्धन अभी उत्पादन की प्रक्रिया द्वारा होना होता है और उत्पादक-पूँजी के परिपथ में भी परिपथ की शुरुआत केवल पूँजी-मूल्य से होती है, जिसका मूल्य-संवर्धन परिपथ के पहले ही चरण में उत्पादन की प्रक्रिया द्वारा अभी होना होता है। लेकिन C’…C’ में परिपथ की शुरुआत हमेशा बेशी मूल्य से लैस माल-पूँजी से होती है, जिसका मुद्रा के रूप में वास्तवीकरण होना और मुद्रा-पूँजी में तब्दील होना अभी बाक़ी रहता है। नतीजतन, औद्योगिक पूँजी के परिपथ में C’ यानी माल-पूँजी वापस अपने ही उत्पादन के तत्वों में तब्दील होती है

तो यहाँ C स्वयं इस औद्योगिक पूँजीपति की पूँजी के परिपथ का हिस्सा नहीं होता। जिस हद तक यह C उत्पादन के साधनों में तब्दील होता है, तो वह किसी दूसरे पूँजीपति की माल-पूँजी होती है, और जिस हद तक यह C श्रमशक्ति में तब्दील होता है, तो वह मज़दूरों के हाथों में मौजूद उसका अपना माल होती है। बाज़ार में ये दोनों ही उत्पादन के तत्व यानी उत्पादन के साधन और श्रमशक्ति औद्योगिक पूँजीपति के सामने माल के रूप में मौजूद होने चाहिए। इनके बिकने के बाद ही वे औद्योगिक पूँजीपति की उत्पादक-पूँजी के अंग बन जाते हैं। यहाँ सबसे अहम बात यह है कि औद्योगिक पूँजीपति की माल-पूँजी के परिपथ की शुरुआत कभी भी महज़ C के रूप में, यानी महज़ पूँजी-मूल्य के बराबर मूल्य रखने वाले माल के रूप में नहीं होती है, क्योंकि उसका मूल पूँजी-मूल्य व रूप उत्पादक-पूँजी के तत्वों में तब्दील हो, उत्पादन की प्रक्रिया से गुज़रकर उपयोग-मूल्य के रूप में भी बदल चुका होता है और मूल्य-संवर्धन की प्रक्रिया से गुज़र कर बेशी मूल्य से भी लैस हो चुका होता है। यानी, मूल्य और उपयोग-मूल्य दोनों में परिवर्तन हो चुका होता है और इस परिवर्तन के बाद ही C’ माल-पूँजी के परिपथ के प्रस्थान-बिन्दु पर मौजूद होता है।

मार्क्स बताते हैं कि केवल माल-पूँजी के परिपथ में ही उत्पादित माल के रूप में माल-पूँजी में से मूल पूँजी-मूल्य अपने आपको बेशी मूल्य से अलग करता है। चाहे यह प्रक्रिया C’ के स्तर पर ही घटित हो, मसलन, जब माल-पूँजी के रूप में माल छोटे-छोटे टुकड़ों में बिकने योग्य होता है, या फिर यह प्रक्रिया C’ के M’ में तब्दील होने के बाद घटित हो, मसलन, उन स्थितियों में जिसमें समूची माल-पूँजी एक अविभाज्य माल के रूप में, जैसे कि किसी बड़ी मशीन के रूप में मौजूद होती है, जिसे मुद्रा-रूप में तब्दील होने से पहले मूल पूँजी-मूल्य और बेशी मूल्य में विभाजित नहीं किया जा सकता है।

मार्क्स आगे बताते हैं कि इस प्रक्रिया को हम दो रूपों में देख सकते हैं। पहला, जिसमें पूँजी-मूल्य के बराबर मूल्य वाले मालों के बिकने के साथ पूँजीपति के हाथों में उसकी मूल निवेशित पूँजी (कुल स्थिर पूँजी c + कुल परिवर्तनशील पूँजी v) मुद्रा-रूप में वापस आ जाती है और फिर उसके बाद बिकने वाले मालों के साथ पूँजीपति के पास बेशी मूल्य (s) मुद्रा-रूप में आता जाता है; और दूसरा, जिसमें मालों के बिकने वाले हरेक हिस्से को हम मूल पूँजी (स्थिर पूँजी c + परिवर्तनशील पूँजी v) और बेशी मूल्य (s) में उसी अनुपात में तोड़कर देख सकते हैं, जिस अनुपात में समस्त माल उत्पाद के मूल्य में c, v और s मौजूद होते हैं। यानी, हम समूची माल-पूँजी C’ को उसके मूल्यगत संघटक अंगों यानी स्थिर पूँजी c, परिवर्तनशील पूँजी v और बेशी मूल्य s के रूप में तोड़कर देख सकते हैं, या फिर C’ के हर बिकने वाले हिस्से को भी हम c, v और s के रूप में तोड़कर देख सकते हैं। इसके लिए मार्क्स विस्तृत गणनाओं को पेश करते हैं (वही, पृ. 169-70), जिसे पाठक सन्दर्भित कर सकते हैं। अभी उसके विस्तार में जाना हमारे लिए आवश्यक नहीं है।

अगर हम मुद्रा-पूँजी के परिपथ यानी औद्योगिक पूँजी के परिपथ के पहले रूप पर विचार करें तो हम देखते हैं कि पहले मुद्रा-पूँजी द्वारा पूँजीपति माल-बाज़ार और श्रम-बाज़ार से उत्पादन के साधन और श्रमशक्ति ख़रीदता है, संयोजन में ये ही तत्व उसकी उत्पादक-पूँजी के तत्व में तब्दील होते हैं और उत्पादन की प्रक्रिया से गुज़र कर बेशी मूल्य से लदी माल-पूँजी में तब्दील होते हैं। अन्त में, यह माल-पूँजी बिककर मुद्रा-रूप में वापस पूँजीपति के पास आ जाती है। यह परिपथ अपने आप में इस बाबत कुछ भी नहीं बताता है कि बेशी मूल्य का कितना हिस्सा पूँजी में तब्दील किया जाता है या बेशी मूल्य के किसी हिस्से को पूँजी में तब्दील किया ही नहीं जाता। क्योंकि यह मुद्रा-पूँजी का पहला या आखिरी परिपथ भी हो सकता है। यह परिपथ अपने आप में पूर्ण होता है और पूँजीवादी उत्पादन के उद्देश्य को प्रकट कर देता है। यह परिपथ हमें इतना बताता है कि पैसे से ज़्यादा पैसा बनाया जा रहा है, यानी पूँजी का निवेश कर उससे ज़्यादा पूँजी बनायी जा रही है। मार्क्स लिखते हैं:

“यह धन्धे का एक परिपूर्ण और पूरा हो चुका चक्र है, जिसका नतीजा मुद्रा की एक मात्रा है जिसका इस्तेमाल किसी के भी द्वारा किसी भी उद्देश्य के लिए किया जा सकता है। इस प्रकार इस चक्र को दोबारा शुरू किया जायेगा या नहीं, इस ओर केवल एक सम्भावना के रूप में इशारा होता है। यह बिल्कुल सम्भव है कि M…P…M’ अन्तिम परिपथ हो जो किसी वैयक्तिक पूँजी के प्रकार्य के अन्त को दर्शा हो, जिसे अब धन्धे से निकाल लिया जाना हो, या फिर यह किसी पूँजी का पहला परिपथ हो जब अभी नयी-नयी इस प्रकार्य में प्रवेश कर रही हो। यहाँ आम गति है M…M’, यानी पैसे से ज़्यादा पैसा बनाना।” (वही, पृ. 172, अनुवाद हमारा)

कहने का अर्थ है कि यह औद्योगिक पूँजी के उद्देश्य के पूर्ण होने को दिखलाता है और इस परिपथ को निचिश्त तौर पर इस रूप में देखा जा सकता है कि यह किसी पूँजी का पहला या अन्तिम परिपथ है। लेकिन माल-पूँजी के परिपथ पर यह बात लागू नहीं होती है। पहला ही चरण दिखलाता है कि औद्योगिक पूँजी का प्रकार्य पहले से जारी है और उसका नतीजा, यानी बेशी मूल्य से लैस माल-पूँजी पूँजीपति के हाथों में है जिसे पहले मुद्रा-पूँजी और फिर उसी माल के उत्पादन के तत्वों में बदला जाना बाक़ी होता है। इस परिपथ के अन्त में भी बेशी मूल्य से लदी माल-पूँजी होती है, जिसे अभी मुद्रा-पूँजी में तब्दील होना होता है। इसलिए पूँजी का परिपथ अपने आप में पूर्ण नहीं माना जा सकता है।

अगर हम उत्पादक-पूँजी के परिपथ की बात करें तो यह उत्पादक-रूप में पूँजी-मूल्य की मौजूदगी से शुरू होता है। यह स्पष्ट नहीं होता है कि पूँजी संचय हुआ है या नहीं और विस्तारित पुनरुत्पादन हो रहा है या नहीं, यानी यह अपने आप में स्पष्ट नहीं होता है कि यह P है या फिर P’ है। परिपथ के शुरुआत में मौजूद उत्पादक-पूँजी उत्पादन से गुज़रती है, बेशी मूल्य से लैस माल पैदा करती है, वह माल-पूँजी बिककर मुद्रा-पूँजी में तब्दील होती है जो बेशी मूल्य के साथ या उसके बिना ही वापस उत्पादन के तत्वों को ख़रीदने के लिए निवेशित होती है। यह परिपथ यहीं समाप्त हो जाता है क्योंकि उत्पादक-पूँजी के तत्व अभी उत्पादन की प्रक्रिया से नहीं गुज़रते हैं। यहाँ हम महज़ पुनरुत्पादन को देख रहे होते हैं और यह अपने आप में अभिव्यक्त नहीं होता है कि पूँजी संचय हुआ है या नहीं, उत्पादन साधारण पैमाने पर हो रहा है या फिर विस्तारित पैमाने पर। इसके विपरीत, माल-पूँजी के परिपथ में यह शुरू से ही स्पष्ट होता है कि परिपथ की शुरुआत महज़ पूँजी-मूल्य के साथ नहीं बल्कि पूँजी-मूल्य और बेशी मूल्य के साथ होती है, जिसे मुद्रा में और फिर उत्पादक-पूँजी के तत्वों में तब्दील होना ही होता है, जो कि स्वयं उस पूँजीपति के हाथों में नहीं होती जिसके विशिष्ट परिपथ की हम बात कर रहे हैं, बल्कि उत्पादन के साधनों के मामले में यह अन्य पूँजीपतियों के हाथों में और श्रमशक्ति के मामले में मज़दूर के हाथों में होते हैं। इसके बिना यह परिपथ आगे बढ़ ही नहीं सकता है।

बस एक मामले में P…P और C’…C’ समान हैं और वह यह कि M…M’ के विपरीत ये परिपथ अपने आपमें पूर्ण नहीं होते क्योंकि मुद्रा-पूँजी के परिपथ के अन्त में पूँजीपति के हाथों में मुद्रा-पूँजी होती है, जिसका वह जो चाहे इस्तेमाल कर सकता है। लेकिन बाकी दोनों परिपथों में अन्त में पूँजीपति के हाथों में पूँजी जिस रूप में होती है, उसमें उसे या तो उत्पादन की प्रक्रिया से गुज़रना ही होता है या फिर उसे संचरण की प्रक्रिया से गुज़रकर मुद्रा-रूप में आना ही होता है, क्योंकि उस रूप में पूँजी का पूँजीपति के लिए कोई भी इस्तेमाल नहीं होता है।

यहाँ जो बात सबसे अहम है वह यह है कि माल-पूँजी का परिपथ औद्योगिक पूँजी के परिपथ का एकमात्र रूप होता है जिसमें परिपथ की शुरुआत ही पूँजी-मूल्य मात्र से नहीं बल्कि बेशी मूल्य से लैस हो चुकी पूँजी के साथ होता है और इस रूप में वह पहले ही क़दम पर यानी प्रस्थानबिन्दु से ही पूँजीसम्बन्ध को प्रदर्शित कर रहा होता है। इस रूप में C’ – M’ की प्रक्रिया का घटित होना समूचे परिपथ को निर्धारित करता है और साथ ही c – m – c और C – M – C<Lmp दोनों को ही अपने में समेटता है:

 

यानी, परिपथ के केवल इसी रूप में समूचे मालउत्पाद का उपभोग अन्तर्निहित होता है। इसमें पूँजीपति का वैयक्तिक उपभोग (c – m – c) भी शामिल होता है और उत्पादक उपभोग

भी शामिल होता है और इस उत्पादक उपभोग के ही अंग के रूप में मज़दूर का वैयक्तिक उपभोग (C – L) भी शामिल होता है। यहाँ यह ग़ौर करने वाली बात है कि इस समूची प्रक्रिया को हम एक सामाजिक प्रक्रिया के रूप में ही समझ सकते हैं, न कि केवल एक औद्योगिक पूँजी के परिपथ पर अलग से विचार करते हुए। मार्क्स लिखते हैं:

“C’…C’ के रूप में, हम समूचे माल उत्पाद के उपभोग को पूँजी के परिपथ के सामान्य पथ के पूरे होने की पूर्वशर्त मानकर चलते हैं…इस प्रकार अपनी सम्पूर्णता में उपभोग – वैयक्तिक और उत्पादक उपभोग समेत – C’ के परिपथ में एक पूर्वशर्त के रूप में शामिल होता है। उत्पादक उपभोग…हर पूँजी द्वारा किया जाता है। अलग-अलग पूँजीपतियों के अस्तित्व के लिए आवश्यक वैयक्तिक उपभोग के अलावा वैयक्तिक उपभोग की यहाँ सिर्फ़ एक सामाजिक कार्रवाई के रूप में पूर्वकल्पना की जाती है, जो किसी भी रूप में किसी एक अकेले पूँजीपति की कार्रवाई नहीं होता है।

“रूप-I और रूप-II में, समूची गति अपने आपको निवेशित पूँजी मूल्य की गति के रूप में पेश करती है। रूप-III में, मूल्य-संवर्धित पूँजी, कुल माल उत्पाद के रूप में, आरम्भ-बिन्दु का निर्माण करती है, और गतिमान पूँजी, माल-पूँजी के रूप में मौजूद होती है। केवल मुद्रा में इसके रूपान्तरण के बाद ही इस गति को पूँजी की गति और आय की गति के रूप में विभाजित किया जा सकता है। एक ओर व्यक्तिगत उपभोग निधि और दूसरी ओर पुनरुत्पादन निधि में कुल सामाजिक उत्पाद का विभाजन और हर वैयक्तिक माल-पूँजी के उत्पाद का विशिष्ट विभाजन पूँजी के परिपथ के इस रूप में शामिल होता है।” (वही, पृ. 173-74)

मुद्रा-पूँजी का परिपथ विस्तारित पुनरुत्पादन की महज़ सम्भावना को पेश करता है। उत्पादक-पूँजी के परिपथ की शुरुआत पहले से कम या ज़्यादा पूँजी-मूल्य के साथ हो सकती है, भले ही उसके पहले पूँजी का संचय किया गया हो, जैसा कि हमने पहले ज़िक्र किया। अगर उत्पादक-पूँजी के परिपथ के नये चक्र की शुरुआत के दौरान उत्पादन के साधनों की क़ीमत और श्रमशक्ति का मूल्य बढ़ जाता है, तो पूँजी-संचय के बाद भी यह सम्भव है कि उत्पादक-पूँजी का परिपथ पहले जितने या उससे भी कम स्तर पर शुरू हो। इसका विपरीत भी सम्भव है। यह मुमकिन है कि पूँजी संचय न किया जाय और उसके बावजूद उत्पादक-पूँजी के तत्वों के सस्ते हो जाने के कारण उत्पादन के पैमाने का विस्तार हो जाये। यहाँ भी विस्तारित पुनरुत्पादन कोई पूर्व-प्रदत्त तथ्य नहीं है। यही वजह है कि केवल माल-पूँजी के परिपथ में ही परिपथ की शुरुआत ही बेशी मूल्य से लैस पूँजी-मूल्य के साथ होती है और यह बिल्कुल स्पष्ट होता है।

माल-पूँजी के परिपथ में स्वयं माल का अस्तित्व ही उत्पादन की पूर्वशर्त होता है। इसे हम इस बात से समझ सकते हैं कि जैसे ही माल-पूँजी को वापस अपने ही उत्पादन के तत्वों में, यानी उत्पादन के साधनों और श्रमशक्ति में, बदला जाना होता है, वैसे ही यह प्रश्न खड़ा हो जाता है कि उत्पादन के साधन, जो किसी अन्य पूँजीपति की माल-पूँजी ही है, बाज़ार में मालों के रूप में उपलब्ध हैं या नहीं, और श्रम बाज़ार में श्रमशक्ति की पर्याप्त आपूर्ति है या नहीं। अगर ऐसा नहीं है, तो परिपथ का जारी रहना असम्भव हो जाता है। मुद्रा-पूँजी के परिपथ में ऐसी बाधा नहीं उत्पन्न होती क्योंकि उत्पादन के साधनों या श्रमशक्ति के उपलब्ध न होने पर भी पूँजी एक ऐसे रूप में, यानी मुद्रारूप में, पूँजीपति के हाथों में मौजूद होती है, जिसे वह औद्योगिक पूँजी के मौजूद परिपथ से निकालकर किसी अन्य उद्देश्य के लिए निवेशित कर सकता है। इसलिए सामाजिक तौर पर निश्चित मालों की उपस्थिति माल-पूँजी के परिपथ के जारी रहने की पूर्वशर्त होती है और इन निश्चित मालों की मौजूदगी उस औद्योगिक पूँजी के परिपथ का अंग नहीं होती है जिस पर हम विचार कर रहे हैं, बल्कि उसकी सीमा और उसके नियन्त्रण से बाहर होती है।

माल-पूँजी के परिपथ की एक अन्य विशिष्टता यह है कि इसका आरम्भ-बिन्दु और समाप्ति-बिन्दु, यानी बेशी मूल्य से लैस माल, दोनों ही एक वास्तविक रूपान्तरण, यानी उत्पादन द्वारा नये उपयोग मूल्य के निर्माण और मूल्य-संवर्धन द्वारा बेशी मूल्य के उत्पादन का परिणाम हैं। मुद्रा-पूँजी के परिपथ और उत्पादक-पूँजी के परिपथ में परिपथ की शुरुआत में मौजूद पूँजी-मूल्य और परिपथ के अन्त में मौजूद पूँजी-मूल्य (और मुद्रा-पूँजी के परिपथ में मामले में बेशी मूल्य) एक औपचारिक रूपान्तरण यानी संचरण, या ख़रीद-फ़रोख़्त का परिणाम होते हैं, जिसमें बस पूँजी-मूल्य के रूप का अन्तर होता है, उसमें कोई मूल्य-परिवर्तन नहीं होता। मार्क्स बताते हैं कि M…M’ और P…P के रूपों में अगर हम अन्तिम चरण की बात करें तो वहाँ पूँजी हमारे पास मुद्रा-रूप में या उत्पादक-पूँजी के तत्वों के रूप में मौजूद होती है। मुद्रा-पूँजी के परिपथ की बात करें तो स्पष्ट है कि अन्त में मौजूद मुद्रा-पूँजी माल-पूँजी के रूपान्तरण के ज़रिये अस्तित्व में आयी होती है और इसलिए यहाँ दूसरे उपभोक्ताओं के हाथों में मुद्रा होना अनिवार्य है क्योंकि उसके बिना पूँजीपति अपनी माल-पूँजी को बेचकर उसे मुद्रा में रूपान्तरित नहीं कर सकता है। अगर हम उत्पादक पूँजी के परिपथ की बात करें तो अन्त में मौजूद उत्पादक-पूँजी दूसरे पूँजीपतियों या व्यापारियों के हाथों में उत्पादन के साधनों के मौजूद होने और मज़दूरों के रूप में श्रमशक्ति के मौजूद होने की पूर्वकल्पना करती है क्योंकि इसके बिना पूँजी उत्पादन के तत्वों में तब्दील नहीं की जा सकती है। लेकिन मुद्रा-पूँजी और उत्पादक-पूँजी के परिपथों में इस औद्योगिक पूँजी के परिपथ से बाहर मुद्रा और उत्पादन के तत्वों की मौजूदगी की पूर्वशर्त केवल आखिरी चरण में होती है। इसलिए अगर हम मुद्रा-पूँजी के परिपथ की बात करें तो यहाँ यह कल्पना करना सम्भव है कि M यहाँ पहली मुद्रा-पूँजी है, जो इतिहास के मंच पर प्रकट हुई है। उसी प्रकार, उत्पादक-पूँजी के परिपथ के मामले में भी यह कल्पना करना सम्भव है कि यहाँ पहला P इतिहास के मंच पर प्रकट होने वाली पहली उत्पादक-पूँजी है। मार्क्स लिखते हैं:

“रूप-I में M एकमात्र मुद्रा-पूँजी हो सकती है, और रूप-II में P एकमात्र उत्पादक-पूँजी हो सकती है, जो ऐतिहासिक रंगमंच पर प्रकट हो रही हो।” (वही, पृ. 175, अनुवाद हमारा)

लेकिन माल-पूँजी के मामले में ऐसा नहीं है। माल-पूँजी के परिपथ के ऊपर विस्तारित किये गये रूप पर एक बार फिर से निगाह डालते हैं:

जैसा कि हम देख सकते हैं पहले ही चरण, यानी

और c – m – c में ही हम इस पूँजी के परिपथ के बाहर पूँजी के अस्तित्व की पूर्वकल्पना करने को मजबूर हैं। पूँजीपति के माल-पूँजी में पूँजी-मूल्य और बेशी मूल्य के अलग-अलग संचरण को देखें हम पाते हैं कि इस पूँजी के परिपथ के बाहर उसके माल के ख़रीदारों के हाथ में मुद्रा होना अनिवार्य है और साथ ही माल (L) और माल-पूँजी (mp) का होना भी अनिवार्य है। इस प्रकार, माल-पूँजी का परिपथ अपने परिपथ से बाहर मालों और मुद्रा दोनों के ही पहले से अस्तित्व की पूर्वकल्पना करता है, जिसके बिना उसका पहला चरण भी पूरा नहीं हो सकता है।

मार्क्स बताते हैं कि पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के विकसित होने के साथ अधिकांश माल माल-पूँजी के रूप में ही अस्तित्वमान होते हैं। पूँजीवादी उत्पादन बड़े पैमाने का उत्पादन होता है और पूँजीवादी उत्पादक आम तौर पर अपने उत्पादन के साधन के तौर पर जब ऐसे माल भी ख़रीदता है जो साधारण माल उत्पादक पैदा करते हैं, तो वह सीधे साधारण माल उत्पादक से नहीं ख़रीदता क्योंकि आम तौर पर कोई एक साधारण माल उत्पादक उस मात्रा में मालों की आपूर्ति कर ही नहीं सकता है, जिसकी पूँजीवादी माल उत्पादन को आवश्यकता होती है, और साथ ही पूँजीपति उत्पादन के साधनों को ख़रीदने के लिए दस माल उत्पादकों के पास नहीं दौड़ता है। वह ये उत्पादन के साधन जो कि साधारण माल उत्पादक पैदा कर रहे हैं, व्यापारी से ख़रीदता है जो कि साधारण माल उत्पादकों के मालों को उनके मूल्य से कम क़ीमत पर असमान विनिमय के ज़रिये ख़रीदता है। व्यापारिक पूँजीपति के हाथों में ये माल उसकी माल-पूँजी का ही अंग बन जाते हैं। इसलिए पूँजीपति या तो स्वयं उत्पादन के साधनों का उत्पादन करने वाले पूँजीपतियों से ये माल ख़रीदता है या फिर व्यापारिक पूँजीपति से ख़रीदता है। दोनों ही सूरत में ये उत्पादन के साधन किसी पूँजीपति की माल-पूँजी के रूप में अस्तित्वमान होते हैं। अन्य पूँजीपतियों की ये माल-पूँजी बाज़ार में ख़रीदार औद्योगिक पूँजीपति के लिए महज़ माल ही होते हैं, लेकिन जब उन्हें ख़रीद लिया जाता है तो वह उसकी उत्पादक-पूँजी के तत्व बन जाते हैं। श्रमशक्ति हर सूरत में साधारण माल के रूप में ही अस्तित्वमान होती है और श्रम बाज़ार में भी वह एक माल के रूप में ही अस्तित्वमान होती है और केवल ख़रीदे जाने के बाद ही वह ख़रीदार पूँजीपति के उत्पादक-पूँजी का एक तत्व बन जाती है।

बहरहाल, उपरोक्त कारणों के चलते मुद्रा-पूँजी और उत्पादक-पूँजी के परिपथों से अलग माल-पूँजी का परिपथ शुरू से ही अपने परिपथ के बाहर अन्य औद्योगिक पूँजियों की मौजूदगी की पूर्वकल्पना करता है। यही वजह है कि यह रूप यानी मालपूँजी के परिपथ का रूप केवल अलगअलग वैयक्तिक पूँजियों के परिपथों का एक रूप बन जाता है, बल्कि यह उन सभी पूँजियों के कुल योग, यानी कुल सामाजिक पूँजी की गति पर लागू होने वाला एक रूप भी बन जाता है। चूँकि केवल मालपूँजी के परिपथ में ही हम मूल पूँजीमूल्य और साथ ही बेशी मूल्य दोनों की ही गतियों को एक साथ देखते हैं, इसलिए कुल सामाजिक पूँजी की गति को केवल मालपूँजी के परिपथ के रूप द्वारा ही समझा जा सकता है। केवल यही रूप समाज के कुल वैयक्तिक उपभोग और कुल उत्पादक उपभोग दोनों को उपयुक्त रूप से अभिव्यक्त कर सकता है। जब हम कुल सामाजिक पूँजी की गति के अध्ययन के लिए माल-पूँजी के परिपथ का प्रयोग करते हैं तो इसमें प्रत्येक व्यक्तिगत औद्योगिक पूँजी की गति अपने आपमें महज़ आंशिक होती है और अन्य औद्योगिक पूँजियों के साथ अन्तर्गुन्थित होती है। यहाँ हम किसी देश की अर्थव्यवस्था के कुल माल उत्पाद पर विचार करते हैं, जिसका एक हिस्सा ख़र्च हो चुके उत्पादन के तत्वों की भरपाई में जाता है, जिसे हम स्थानापन्न उत्पाद कहते हैं, जबकि दूसरा हिस्सा सभी वर्गों के व्यक्तिगत उपभोग में चला जाता है। इसलिए C’…C’ को समूची सामाजिक पूँजी की गति के रूप में भी समझा जा सकता है। वास्तव में, केवल यही रूप है जिसे कुल सामाजिक पूँजी की गति को समझने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है क्योंकि यह पूँजी और बेशी मूल्य दोनों की गतियों को अपने अन्दर समेटता है। यही वजह है कि पूँजी के परिपथ का यह तीसरा रूप समूची पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के पुनरुत्पादन की प्रक्रिया को समझने के लिए सबसे महत्वपूर्ण हो जाता है। मार्क्स लिखते हैं:

“लेकिन ठीक इसी वजह से कि परिपथ C’…C’ अपने विवरण के दौरान रूप C (=L+mp) में एक दूसरी औद्योगिक पूँजी के अस्तित्व की पूर्वकल्पना करता है…यह रूप स्वयं यह माँग करता है कि इसे महज़ पूँजी के परिपथ के एक सामान्य रूप के तौर पर, यानी एक ऐसे सामाजिक रूप के तौर पर न समझा जाय जिसके तहत हरेक अलग-अलग औद्योगिक पूँजी पर विचार किया जा सकता है…और इस प्रकार केवल एक ऐसे रूप के तौर पर नहीं समझा जाय जो सभी वैयक्तिक औद्योगिक पूँजियों के लिए साझा है, बल्कि साथ ही इसे वैयक्तिक पूँजियों के कुल योग पर लागू होने वाले गति के रूप में, यानी पूँजीपति वर्ग की कुल सामाजिक पूँजी पर लागू होने वाले रूप के तौर पर समझा जाय, एक ऐसी गति के रूप में जिसमें किसी भी वैयक्तिक औद्योगिक पूँजी की गति बस एक आंशिक गति के रूप में प्रकट होती है, जो अन्य औद्योगिक पूँजियों की गति के साथ अन्तर्गुन्थित है और उनके द्वारा निर्धारित होती है। मिसाल के तौर पर, अगर हम किसी देश के कुल वार्षिक माल उत्पाद पर विचार करते हैं, और उस गति का विश्लेषण करते हैं जिसमें उसका एक हिस्सा सभी अलग-अलग धन्धों की उत्पादक पूँजी की भरपाई करता है, और दूसरा हिस्सा विभिन्न वर्गों के व्यक्तिगत उपभोग में जाता है, तो हम सामाजिक पूँजी और इसके द्वारा उत्पादित बेशी मूल्य या बेशी उत्पाद दोनों की ही गति के रूप के तौर पर C’…C’ पर विचार करते हैं।” (वही, पृ. 177, अनुवाद हमारा)

आगे मार्क्स बताते हैं कि जब हम एक औद्योगिक पूँजी के परिपथ के सन्दर्भ में C’…C’ के रूप पर विचार करते हैं, तो हम कई समस्याओं के स्वत: समाधान की कल्पना कर लेते हैं, लेकिन जब हम कुल सामाजिक पूँजी की गति का अध्ययन करते हुए C’…C’ पर विचार करते हैं, तो ये समस्याएँ स्वत: समाधित नहीं होती हैं। यहाँ पर मार्क्स समूचे पूँजीवादी उत्पादन में मौजूद अराजकता की ओर इशारा करते हैं, जिसमें वह अलग-अलग उत्पादन की शाखाओं और अलग-अलग पूँजियों की अन्तर्क्रिया में समानुपातिकता की मौजूदगी के सांयोगिक चरित्र की ओर इशारा करते हैं। एक पूँजी का अध्ययन करते हुए हम उत्पादन के तत्वों की बाज़ार में मौजूदगी, श्रमशक्ति की बाज़ार में मौजूदगी, माल-पूँजी के लिए प्रभावी माँग रखने वाले ख़रीदारों की मौजूदगी की पूर्वकल्पना कर सकते हैं। लेकिन जब हम कुल सामाजिक पूँजी की गति का अध्ययन करते हुए माल-पूँजी के परिपथ के रूप का इस्तेमाल करते हैं, तो सभी उत्पादन-शाखाओं और पूँजियों के बीच सम्बन्ध के मामले में हम ऐसी सहज पूर्वकल्पना नहीं कर सकते हैं। इसलिए मार्क्स लिखते हैं:

“यह तथ्य कि सामाजिक पूँजी वैयक्तिक पूँजियों (जिसमें जॉइण्ट स्टॉक पूँजी और राजकीय पूँजी भी इस हद तक शामिल होती है कि सरकारें भी उत्पादक उजरती-श्रम का खदानों, रेलवे, आदि में इस्तेमाल करती हैं और इस प्रकार औद्योगिक पूँजीपति के तौर पर ही काम करती हैं) के कुल योग के बराबर होती है, और यह तथ्य कि सामाजिक पूँजी की कुल गति सभी वैयक्तिक औद्योगिक पूँजियों की गतियों का बीजगणितीय योग होती है; एक अलग औद्योगिक पूँजी की गति के रूप में इस गति को उन परिघटनाओं से बिल्कुल अलग परिघटनाओं को प्रदर्शित करने से नहीं रोकती, जो यही गति तब प्रदर्शित करती है जब उसे सामाजिक पूँजी की कुल गति के एक अंग के रूप में, यानी सामाजिक पूँजी के अन्य अंगों की गतियों से इसके सम्बन्ध में देखा जाता है; इस बाद वाले पहलू के मामले में, उन समस्याओं का समाधान किया जा सकता है, बजाय यह मान लेने के कि उनका समाधान स्वत: इस अध्ययन से निकल जाता है, जिनका समाधान एक अकेली औद्योगिक पूँजी के परिपथ पर विचार करते हुए पूर्वकल्पित मान लेना अनिवार्य होता है।” (वही, पृ. 177, अनुवाद हमारा)

मतलब यह कि एक अकेली औद्योगिक पूँजी की गति के अध्ययन में जब हम परिपथ के तीसरे रूप यानी माल-पूँजी के परिपथ के रूप को लागू करते हैं, तो उन समस्याओं के समाधान की हम पूर्वकल्पना कर लेते हैं, जिन समस्याओं के समाधान की पूर्वकल्पना इसी वैयक्तिक पूँजी की गति का समूची सामाजिक पूँजी के गति के एक अंग के रूप में अध्ययन करते हुए हम नहीं कर सकते हैं। वहाँ उत्पादन की अलग-अलग शाखाओं व अलग-अलग पूँजियों की अन्तर्क्रिया में समानुपातिकता का प्रश्न समस्या को एक अलग रूप में और एक अलग स्तर पर उपस्थित करता है। इसलिए कुल सामाजिक पूँजी के पुनरुत्पादन का अध्ययन करते समय इस रूप यानी C’…C’ को लागू करने के साथ कुछ नये प्रश्न खड़े हो जाते हैं।

जैसा कि हमने ऊपर बताया, C’…C’ के रूप का प्रयोग हम कुल सामाजिक पूँजी की गति के अध्ययन में इसलिए कर सकते हैं क्योंकि इसमें हम शुरू से ही सिर्फ़ पूँजी ही नहीं बल्कि उसके द्वारा पैदा बेशी मूल्य की गति के पथ का भी अध्ययन करते हैं और इस प्रकार समूची औद्योगिक पूँजी और उसके उत्पाद की गति का अध्ययन करते हैं। किसी समाज की कुल सामाजिक पूँजी के कुल माल उत्पाद का एक हिस्सा ख़र्च हो चुके उत्पादन के तत्वों की भरपाई में जाता है, दूसरा हिस्सा यानी बेशी मूल्य या बेशी उत्पाद स्वयं दो हिस्सों में विभाजित होता है, जिसमें से एक पूँजीपति की आय में तब्दील होकर उसके व्यक्तिगत उपभोग में चला जाता है, जबकि दूसरा हिस्सा संचित होता है और फिर से उत्पादन में लगता है।

इस प्रकार, M’…M’ मूल्य-संवर्धन के लक्ष्य, यानी पैसा से ज़्यादा पैसा बनाने के लक्ष्य को प्रदर्शित करता है। P…P उत्पादन की प्रक्रिया को पुनरुत्पादन की प्रक्रिया के रूप में अभिव्यक्त करता है, चाहे वह साधारण स्तर पर हो या फिर विस्तारित स्तर पर। C’…C’ हमेशा शुरू से ही बेशी मूल्य और मूल पूँजी मूल्य दोनों की ही गति को प्रदर्शित करता है और इसलिए सामाजिक तौर पर वह स्थानापन्न उत्पाद और बेशी उत्पाद दोनों की ही गति को प्रदर्शित कर सकता है और इसीलिए वह समूचे उत्पादक उपभोग और वैयक्तिक उपभोग दोनों की ही प्रक्रिया को अपने भीतर समेटता है। अब अलग-अलग औद्योगिक पूँजियों के आपसी अनतर्गुन्थन, उनकी आपसी अन्तर्क्रिया का प्रश्न केन्द्रीय प्रश्न बन जाता है और यह प्रदर्शित करना होता है कि यह प्रक्रिया किन स्थितियों में सुचारू रूप से सम्पन्न हो सकती है या किन स्थितियों में यह सुचारू रूप से सम्पन्न नहीं हो सकती है। दूसरे शब्दों में, किन स्थितियों में पूँजीवादी व्यवस्था का पुनरुत्पादन हो सकता है और किन स्थितियों में यह पुनरुत्पादन होना मुश्किल हो जाता है, यह प्रश्न केन्द्रीय स्थान ले लेता है।

चूँकि C’…C’ अपने प्रस्थान-बिन्दु पर ही कुल उत्पाद से शुरुआत करता है इसलिए जब हम विस्तारित पुनरुत्पादन पर विचार कर रहे होते हैं, तो हम तत्काल ही पाते हैं कि यह तभी सम्भव हो सकता है जब विस्तारित पुनरुत्पादन के लिए अतिरिक्त उत्पादन के तत्व यानी उत्पादन के साधनों का उत्पादन हुआ हो, अतिरिक्त श्रमशक्ति की आपूर्ति मौजूद हो और साथ ही अतिरिक्त उपभोग की वस्तुओं का उत्पादन भी हुआ हो। इसके बिना, सामाजिक पैमाने पर विस्तारित पुनरुत्पादन सम्भव नहीं हो सकता। साथ ही, इन तत्वों की उपलब्धता न सिर्फ़ सही मात्रा में होनी चाहिए बल्कि सही आपसी अनुपात में भी होनी चाहिए। यानी, मौजूदा चक्र में उत्पादित C’ में ही संचित पूँजी के सभी भौतिक तत्व शामिल होने चाहिए।

अन्त में, मार्क्स इस रूप यानी C’…C’ के परिपथ-रूप की एक सीमा की ओर इशारा करते हैं। वह कहते हैं कि तीसरे रूप में हम उत्पादन व पुनरुत्पादन की प्रक्रिया की पूर्वशर्त के रूप में माल बाज़ार में निश्चित मालों की उपस्थिति पर विचार करते हैं। अगर हम इसी रूप पर विचार करते हैं तो हम यह मानकर चलते हैं कि उत्पादन के सभी तत्व मालों के संचरण से ही निकलते हैं और माल बाज़ार में मौजूद होते हैं। यह एकतरफ़ा नज़रिया उत्पादन की प्रक्रिया के उन तत्वों को नज़रन्दाज़ कर देता है जो मालों के संचरण से स्वतन्त्र या उसके बाहर मौजूद होते हैं। यहाँ उनका इशारा श्रमशक्ति की आपूर्ति पर है, जो साधारण माल नहीं है और साधारण माल बाज़ार में मौजूद नहीं होता है और जिसकी उपलब्धता का प्रश्न केवल मालों के संचरण से ही नहीं समझा जा सकता है।

कुल मिलाकर, जहाँ तक समूची पूँजीवादी व्यवस्था के पुनरुत्पादन का प्रश्न है, पूँजी के परिपथ का यह तीसरा रूप यानी मालपूँजी का परिपथ सबसे महत्वपूर्ण है। यह पूँजी और बेशी मूल्य की समूची गति को विवरित करता है और उत्पादन की शाखाओं के बीच समानुपातिकता के प्रश्न को पेश करता है। कुछ मार्क्सवादी अर्थशास्त्रियों ने बाद में मार्क्स की पूँजी के खण्ड-2 के एक कुपाठ के आधार पर या उसकी ग़लत समझदारी के आधार पर पूँजीवादी उत्पादन में समानुपातिकता के अभाव को ही पूँजीवादी संकट के मूल कारण के तौर पर पेश किया, यानी पूँजीवादी उत्पादन की अराजकता को संकट के आधारभूत कारण के तौर पर पेश किया, जबकि वास्तव में मार्क्स यहाँ केवल उन स्थितियों के विश्लेषण की बात कर रहे हैं, जिसमें पूँजीवादी अर्थव्यवस्था अपने आपको उत्पादन की विभिन्न शाखाओं के बीच कमोबेश उचित अनुपातों के साथ पुनरुत्पादित कर सकती है और जिसमें वह ऐसा नहीं कर सकती है। जब हम समानुपातिकता के प्रश्न को ही आधारभूत प्रश्न बना देते हैं, तो पूँजीवादी व्यवस्था के संकट की समस्या का समाधान नियोजन बन जाता है। नतीजतन, अगर पूँजीवादी राज्य समुचित नियोजन करे तो फिर पूँजीवादी व्यवस्था संकटमुक्त होकर अजर-अमर बन सकती है। लेकिन इतिहास ने दिखलाया कि किसी भी प्रकार का और किसी भी मात्रा में नियोजन पूँजीवाद को संकट से नहीं बचा सकता है, क्योंकि संकट का आधारभूत कारण समानुपातिकता का अभाव या निश्चित वर्गों के पास प्रभावी माँग का अभाव नहीं होता है। उल्टे समानुपातिकता का होना या न होना, प्रभावी माँग का होना या न होना तो पूँजीवाद में लाभप्रदता की गति का परिणाम मात्र होता है। वास्तव में, उत्पादन की शाखाओं, विभिन्न वैयक्ति पूँजियों और माँग व आपूर्ति के बीच के ये अनुपात स्वयं पूर्वप्रदत्त नहीं होते, बल्कि स्वयं पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में मुनाफ़े की औसत दर की गति से निर्धारित होते हैं। इस पहलू को मार्क्स पूँजी के तीसरे खण्ड में विस्तार से समझाते हैं कि उत्पादन की शाखाओं के बीच मूल्यों के प्रवाह और उपयोग मूल्यों के प्रवाह के बीच के उचित अनुपात का पैदा होना या न होना स्वयं लाभप्रदता की गति का एक प्रकार्य मात्र होता है, जो स्वयं श्रम और पूँजी, समाजीकृत उत्पादन व निजी विनियोग के बीच अन्तरविरोध की अभिव्यक्ति होता है। इसके विस्तार में हम पूँजी के खण्ड-3 पर चर्चा करते समय ही आयेंगे, जहाँ हम मार्क्स के संकट-सिद्धान्त पर विस्तार से बात करेंगे।

लेकिन अभी फिलहाल हमें सिर्फ़ यह समझने की आवश्यकता है कि कुल सामाजिक पूँजी की गति को समझने, उसके अन्तरविरोधों को समझने, उत्पादन की शाखाओं के बीच मूल्यों के प्रवाह और उपयोग मूल्यों के प्रवाह की समानुपातिकता को समझने और इसमें निहित समस्याओं और संकट की अभिव्यक्तियों को समझने के लिए माल-पूँजी का परिपथ बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि पूँजी के परिपथ के इसी रूप को हम कुल सामाजिक पूँजी पर लागू कर सकते हैं। वजह यह कि केवल इसी परिपथ में हम शुरू से ही केवल पूँजी-मूल्य की गति की पड़ताल नहीं करते हैं, बल्कि उसके साथ उसके द्वारा पैदा बेशी मूल्य की गति की भी पड़ताल करते हैं। सामाजिक पुनरुत्पादन को समझने के लिए इन अर्थों में औद्योगिक पूँजी के परिपथ का यह रूप सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।

(अगले अंक में जारी)

 

मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2025

 

 

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