खाँसी की दवा पीने से 20 से ज़्यादा बच्चों की मौतें
इन बच्चों की मौतों के लिए दवा कम्पनियों की मुनाफ़ाखोरी और भ्रष्ट सरकारी तंत्र का गठजोड़ ज़िम्मेदार है!

ज्योति

देशभर में एक बार फिर से दवाओं में मिलावट और औषधि बनाने वाली फ़ार्मास्यूटिकल कम्पनियों की मुनाफ़ाखोरी की क़ीमत मासूम ज़िन्दगियों ने चुकायी है। हाल ही में सामने आयी रिपोर्टों के अनुसार, मध्य प्रदेश के परासिया में कोल्ड्रिफ नामक सिरप के सेवन से 20 बच्चों की मौत हो गयी, जबकि 10 से अधिक बच्चे गम्भीर हालत में अस्पताल में भर्ती हैं। यह सिरप श्रीसन फ़ार्मास्युटिकल्स द्वारा निर्मित था। इसी प्रकार राजस्थान में कैसन्स फ़ार्मा द्वारा तैयार खाँसी के सिरप के सेवन से 12 बच्चों की जान चली गयी। मध्यप्रदेश के ही ग्वालियर ज़िले में दूषित खाँसी के सिरप से हुई बच्चों की मौतों के मामले के ठीक कुछ दिन बाद ही एक सरकारी अस्पताल में सरकार द्वारा आपूर्ति की गयी एज़िथ्रोमाइसिन सिरप की बोतल में कीड़े पाये जाने की घटना सामने आयी है। एक महिला ने शिकायत की कि जब उसने अपने बच्चे को देने के लिए सिरप की बोतल खोली, तो उसमें कीड़े दिखायी दिये। इसके बाद अस्पताल प्रशासन ने इस दवा के पूरे बैच (लगभग 306 बोतलों) को सील कर दिया और नमूने भोपाल व कोलकाता की प्रयोगशालाओं में परीक्षण हेतु भेजे गये। इन सभी हादसों ने एक बार फिर सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था पर सवाल खड़े कर दिये हैं। इसके साथ ही ये घटनाएँ इस बात का भी प्रमाण हैं कि दवा उद्योग में मुनाफ़ाख़ोरी और सरकार की मिलीभगत का ख़ामियाज़ा किस प्रकार सीधे तौर पर आम जनता को अपनी ज़िन्दगी से भरना पड़ता है।

दवा के नाम पर ज़हर
‘इण्डियन एक्सप्रेस’ अख़बार में छपा कार्टून

बात अगर ज़हरीली दवाओं की की जाये तो हमें यह समझना होगा कि एक सामान्य-सी दिखने वाली दवा कैसे इतनी घातक बन जाती है। दरअसल प्रत्येक दवा दो प्रकार की चीज़ों को मिलाकर बनती है – पहला उसके सक्रिय तत्व, जो बीमारी का उपचार करते हैं, और  दूसरे उसके सहायक तत्व, जो यह सुनिश्चित करते हैं कि दवा शरीर के उचित हिस्से तक पहुँचे। इसलिए किसी भी औषधि को सुरक्षित घोषित करने से पहले उस पर अनेक प्रकार के परीक्षण (clinical trials) किये जाने आवश्यक होते हैं। सिरपों में प्रायः ग्लिसरीन और प्रोपिलीन ग्लाइकोल को सुरक्षित सहायक तत्व के रूप में उपयोग किया जाता है, लेकिन अक्सर पाया गया है कि लागत घटाने के उद्देश्य से कई कम्पनियाँ इनकी जगह सस्ते में उपलब्ध डाइएथिलीन ग्लाइकोल (DEG) का प्रयोग करती हैं जो कि एक विषैला औद्योगिक सॉल्वेंट है। DEG का सम्मिलन दवाओं को घातक बना देता है, क्योंकि यह एक ऐसा पदार्थ है जोकि लिवर, दिमाग़ और दिमाग़ की कोशिकाओं को गम्भीर रूप से नुकसान पहुँचा सकता है और इसलिए अन्त में जान बचाने वाली दवा ही मरीज़ की मृत्यु का कारण बन जाती है।

दुर्भाग्यवश, यह समस्या नयी नहीं है। भारत ही नहीं विश्व के कई देशों में डाइएथिलीन ग्लाइकोल के कारण सैकड़ों बच्चों की मौतें दर्ज की जा चुकी हैं। कई फ़ार्मा कम्पनियों के द्वारा लगातार की जा रही इस प्रकार की मिलावट की वजह से हाल के वर्षों में भारतीय कम्पनियों द्वारा निर्मित और निर्यात किये गये सिरपों से अफ्रीका के गाम्बिया में 70 और उज़्बेकिस्तान में 17 बच्चों की मृत्यु हुई थी जिसके चलते इन्हें विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और FDA (अमरीकी स्वास्थ्य संस्था) द्वारा बैन किया जा चुका है। वहीं भारत में ये दवाएँ ख़ुद सरकारी अस्पतालों में मुहैया की जा रही हैं! अक्सर ऐसा होता रहा है कि इस प्रकार के मामलों में जो भी जनहानि और मौतें होती हैं उनका और इस पूरी दुर्व्यवस्था का ठीकरा डॉक्टरों के सर फोड़ दिया जाता है, लेकिन सवाल यह है कि असल में इन मौतों के लिए ज़िम्मेदार कौन है?

दरअसल भारत में दवाओं की सुरक्षा और गुणवत्ता की निगरानी का दायित्व केन्द्रीय औषधि मानक नियन्त्रण संगठन (Central Drugs Standard Control Organisation – CDSCO) पर होता है, जो स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मन्त्रालय के अधीन कार्य करता है। इसके प्रमुख, ड्रग्स कण्ट्रोलर जनरल ऑफ इण्डिया (DCGI), नई दवाओं की स्वीकृति, नैदानिक परीक्षणों की अनुमति, और दवा सुरक्षा की निगरानी के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। किसी भी दवा को बाज़ार में बेचने से पहले उसे तीन चरणों में नैदानिक परीक्षणों (Phase I, II और III Trials) से गुज़रना पड़ता है, जिनका उद्देश्य उसकी सुरक्षा, प्रभावशीलता और ख़ुराक निर्धारित करना होता है। इन परीक्षणों की रिपोर्टों का मूल्यांकन विशेषज्ञ समितियों द्वारा किया जाता है, जिसके बाद ही DCGI उस दवा को भारत में विपणन की अनुमति (Marketing Authorization) देता है। इसके अतिरिक्त, राज्य औषधि नियन्त्रण विभाग (State Drug Control Departments) अपने-अपने राज्यों में दवाओं के निर्माण, वितरण और बिक्री की निगरानी करते हैं। भारत में औषधि नियमन का आधार Drugs and Cosmetics Act, 1940 और Drugs and Cosmetics Rules, 1945 हैं, जिनके तहत दवा निर्माण के मानक, लेबलिंग, लाइसेंसिंग और परीक्षण की सभी प्रक्रियाएँ निर्धारित होती हैं। ऐसे नियामक ढाँचे के मौजूद होने के बावजूद, ऐसे ‘हादसों’ का होना बिना राजनीतिक हस्तक्षेप और सरकारी मिलीभगत के हो पाना नामुनकिन है। वास्तविकता तो यह है कि यह पूँजीवादी व्यवस्था दवा कम्पनियों के हितों और उनके मुनाफ़े को आम जानता के स्वास्थ्य के ऊपर रखती है जिसके कारण ऐसी असुरक्षित और घटिया दवाएँ आम जनता तक पहुँच पाती हैं।

मिलावटी और नकली दवाओं का निर्माण जनता के जीवन के साथ सीधा खिलवाड़ है। मिलावटी और नकली दवाओं का इतना विशाल नेटवर्क सरकारी संस्थानों की खुली या मौन सहमति के बिना सम्भव नहीं। परासिया की घटना इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। मौतों के बाद, मध्य प्रदेश सरकार ने शुरू में कोल्ड्रिफ सिरप में किसी भी मिलावट के आरोपों को नकार दिया और निर्माता कम्पनी का बचाव किया। लेकिन तमिलनाडु की सरकारी प्रयोगशाला में परीक्षण के बाद जब मिलावट की पुष्टि हुई, तो सरकार को शर्मनाक यू-टर्न लेना पड़ा। इसके बावजूद, कम्पनी के शीर्ष प्रबन्धन पर कार्रवाई करने के बजाय सिरप लिखने वाले डॉक्टरों को दोषी ठहराया गया और उन्हें निलम्बित कर दिया गया!

राजस्थान में स्थिति और भी चिन्ताजनक रही। वहाँ सरकार ने एक माँ को गिरफ्तार कर लिया जिसने सिरप अपने बच्चे के लिए खरीदा था! दोषपूर्ण बैच की बिक्री पर प्रतिबन्ध लगाने के अलावा कम्पनियों पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गयी। यह खाद्य सुरक्षा और औषधि नियन्त्रण विभाग की सीधी विफलता है, जिसकी ज़िम्मेदारी है कि वह नकली दवाएँ बनाने वाली कम्पनियों की पहचान करे और उन पर कठोर कार्रवाई करे।

कई सूत्रों के अनुसार राजस्थान के उप औषधि संग्राहक राजाराम शर्मा ने “नकली दवाओं” की परिभाषा में ऐसा संशोधन किया जिससे लगभग 14–15 कम्पनियों को सार्वजनिक स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने की छूट मिल गयी। विभाग अब केवल शर्मा को दोषी ठहराने की कोशिश कर रहा है, जबकि सबूत यह दर्शाते हैं कि अन्य वरिष्ठ अधिकारी भी इस गड़बड़ी में शामिल थे। लोकसभा में नकली दवाओं का मुद्दा उठने के बावजूद, विभाग के ख़िलाफ़ अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है। इस लापरवाही की क़ीमत निर्दोष बच्चों ने अपनी जान देकर चुकायी है।

यह स्थिति इस गम्भीर प्रश्न को जन्म देती है कि क्या ऐसी मौतों को हत्या या कम से कम ग़ैर-इरादतन हत्या नहीं माना जाना चाहिए? मूलतः दवाएँ मानव जीवन की रक्षा और उपचार के लिए बनायी जाती हैं, लेकिन आज की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में उनका निर्माण मुनाफे के उद्देश्य से किया जा रहा है। यदि दवाओं की प्रभावशीलता और सुरक्षा ही सुनिश्चित नहीं की जायेगी, तो स्वयं दवाएँ ही मृत्यु या गम्भीर चिकित्सीय समस्याओं का कारण बन जायेंगी! दवा निर्माण को लोक स्वास्थ्य नीति से जोड़ना आवश्यक है, लेकिन भारत में यह प्रक्रिया लगभग पूरी तरह से निजी कम्पनियों के नियन्त्रण में है जो केवल अपने लाभ को प्राथमिकता देती हैं। आँकड़ों के अनुसार, भारतीय दवा उद्योग आज दुनिया का चौथा सबसे बड़ा निर्माता है, जिसकी वार्षिक घरेलू आय लगभग ₹20,000 करोड़ और निर्यात से होने वाला कारोबार करीब ₹10,000 करोड़ है। लेकिन intellectual property rights यानी ज्ञान को निजी सम्पत्ति घोषित करने वाले कानून और कम्पनियों के निजी स्वार्थों के चलते दवाएँ अनावश्यक रूप से महँगी हैं और उनका उत्पादन मुनाफे की भूख से प्रेरित है। कई जाँच- पड़तालों में पाया गया है कि भारत में बिकने वाली लगभग 20 प्रतिशत दवाएँ नकली या मिलावटी हैं और विश्वभर में पाये जाने वाले ऐसे उत्पादों में 75 प्रतिशत भारतीय दवाएँ हैं।

जिस प्रकार उपरोक्त मामलों में किसी डॉक्टर को या फिर किसी एक अफ़सर को दोषी ठहराया गया और समस्या के जड़ के तौर पर पेश किया गया, वह दरअसल इन तमाम मामलों को व्यवस्थागत मसला के तौर पर पेश न करके एक अफ़सर की कामचोरी या एक डॉक्टर की लापरवाही का मसला बना कर रख देती है। आज हम सबको यह समझने की ज़रूरत है कि जब तक आवश्यक दवाओं का उत्पादन मुनाफे और निजी स्वार्थों से प्रेरित रहेगा, तब तक बाज़ार में महँगी, अप्रभावी, नकली और मिलावटी दवाएँ मिलती रहेंगी और इसका खामियाजा देश की आम जनता को भुगतना पड़ेगा। यह हालिया घटनाएँ एक बार फिर हमें इस सच्चाई से अवगत कराती हैं कि जबतक यह व्यवस्थागत ढाँचा बदला नहीं जायेगा और स्वास्थ्य सेवाओं को एक मूलभूत अधिकार न मानकर निजी हाथों में मुनाफ़ाख़ोरी का ज़रिया मात्र बनाकर रखा जायेगा, यह समस्या जड़ से हल नहीं की जा सकती है। ऐसा होना तभी सम्भव है जब एक वास्तविक जन पक्षधर स्वास्थ्य व्यवस्था हमारे पास हो।

 

मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2025

 

 

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