दिल्ली में म्यूनिसिपल कर्मचारियों की हड़ताल
भाजपा का मज़दूर-कर्मचारी-विरोधी चेहरा एक बार फिर हुआ बेनक़ाब!
आन्दोलन जीतना है तो एमसीडी कर्मचारियों को नेतृत्व कर रही संशोधनवादी ट्रेड यूनियन सीटू का असली चरित्र भी जान लेना चाहिए!
नीशू
दिल्ली में ‘सिविक सेण्टर’ के बाहर क़रीब 5200 एमसीडी कर्मचारी हड़ताल पर बैठे हैं। ये कर्मचारी 29 सितम्बर से ‘समान काम के लिए समान वेतन’, बकाया भुगतान और नौकरी की सुरक्षा जैसी माँगों को लेकर हड़ताल पर हैं। ग़ौरतलब है कि दिल्ली नगर निगम के तहत ‘मल्टी-टास्किंग स्टाफ’ (MTS) , डोमेस्टिक ब्रीडिंग चेकर्स (DBC) और ‘सिविक फील्ड वर्कर्स’ (CFW) काम करते हैं जो घरों और सार्वजनिक स्थानों में मच्छर के लार्वा के प्रजनन स्थलों की पहचान और नष्ट करना, नागरिकों को मच्छर जनित रोगों (जैसे डेंगू, मलेरिया) के बारे में जागरूक करना, स्वच्छता और जल संचयन के महत्व पर जानकारी देना आदि तरह के काम करते हैं। एमसीडी के ये कर्मचारी अपनी जान जोखिम में डालकर इन कामों को अंजाम देते हैं लेकिन दिल्ली में “चार इंजन” की सरकार इन्हें बुनियादी सुरक्षा देने में नाकाम है। ड्यूटी के दौरान जोखिम भरे हालात में काम करने वाले कर्मचारियों की मौत होने पर उनके परिजनों को नौकरी तक नहीं दी जाती है। बीमारी की स्थिति में, काम पर न आ पाने की सूरत में, जितने दिन काम पर नहीं आये उतने दिन की तनख़्वाह काट ली जाती है। “एक देश एक टैक्स” और “एक देश एक चुनाव” का राग अलापने वाली भाजपा सरकार देश की राजधानी में इन कर्मचारियों को कहीं 12 हज़ार रुपये तो कहीं 20 हज़ार रुपये में खटा रही है लेकिन “एक काम एक वेतन” नहीं दे रही है! एक ही विभाग के अन्दर छ: अलग अलग वेतनमान लागू होते हैं। 5200 कर्मचारियों में मात्र 212 लोगों को 27 हज़ार रुपये वेतन मिलता है।
ज़ाहिरा तौर पर आज की महँगाई के अनुसार यह वेतन नाकाफ़ी है और एमसीडी के हमारे साथी अपनी वाज़िब माँगों को लेकर संघर्ष कर रहे हैं। यह संघर्ष सीटू से सम्बद्ध ‘एण्टी मलेरिया एकता कर्मचारी यूनियन’ के बैनर तले चल रहा है। लेकिन सीटू जैसी तमाम ट्रेड यूनियनों की सच्चाई यह है कि ये यूनियनें मज़दूर वर्ग से ऐतिहासिक तौर पर ग़द्दारी कर चुकी हैं। ये और इनकी आका पार्टियाँ पूँजीवादी व्यवस्था की अन्तिम सुरक्षा-पंक्ति का काम करती हैं। जिन राज्यों में इनकी सरकारें हैं या थीं वहाँ इन्होंने पूँजीपरस्त नीतियों को धड़ल्ले से लागू करवाने का काम किया है। इतना ही नहीं, पिछले दिनों केरल में आशा कर्मियों की हड़ताल का दमन तक करने में इसी सीटू की आका पार्टी सीपीएम पीछे नहीं रही! आख़िर इस तरह का दोहरा चरित्र रखने वाला नेतृत्व हमारे एमटीएस के साथियों के आन्दोलन को कैसे सही दिशा दे सकता है, यह सवाल तो उठता है।
सर्वहारा वर्ग के महान शिक्षक लेनिन ने ‘हड़ताल’ को ‘युद्ध की पाठशाला’ कहा है। यह एक ऐसी पाठशाला है जिसमें मज़दूर वर्ग पूरी जनता को, मेहनत करने वाले तमाम लोगों को पूँजी के जुए से मुक्ति के लिए अपने दुश्मनों के ख़िलाफ़ युद्ध करना सिखाता है। एमटीएस के कर्मचारियों को भी समझना होगा कि हड़ताल महज कुछ वेतन-भत्ते की मामूली बढ़ोत्तरी हासिल करने का ज़रिया मात्र नहीं बल्कि इस शोषणकारी व्यवस्था के अन्त की दिशा में एक अहम क़दम है। इसलिए हड़ताल का नेतृत्व भी सही हाथों में होना चाहिए।
इन तमाम माँगों के साथ-साथ हमें पूँजीवादी व्यवस्था की गतिकी को भी समझना होगा और साथ ही हमारे देश के मौजूदा हालात को भी समझना होगा। दरअसल यह व्यवस्था पूँजीपति वर्ग के हितों की ही नुमाइन्दगी करती है जिनके अलग-अलग हिस्सों का प्रतिनिधित्व पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टियाँ (भाजपा, आप, काँग्रेस व नकली लाल झण्ड़े वाली पार्टियाँ) करती हैं। ये पार्टियाँ अपने आकाओं को ध्यान में रखकर नीतियाँ बनाती हैं। मौजूदा दौर में पूँजीवादी व्यवस्था दीर्घकालिक मन्दी के असमाधेय संकट से गुज़र रही है। पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े की दर में कमी आयी है, जिससे निपटने के लिए दुनिया के तमाम देशों सहित अपने देश में भी, पूँजीपति वर्ग सबसे प्रतिक्रियावादी, दक्षिणपन्थी, मज़दूर-विरोधी और फ़ासीवादी सरकारों को चुन रहा है। भारत में फ़ासीवादी मोदी सरकार का सत्ता में आना इसी की बानग़ी है। यहाँ के पूँजीपति वर्ग को भी ऐसी सरकार की ज़रूरत थी जो लोहे के हाथों से उन नीतियों को लागू करे जो मुनाफ़े की राह में सभी परेशानियों को हटा दे और पूँजी के लिए रास्ता साफ़ करे। 2014 में सत्ता में आने के बाद फ़ासीवादी मोदी सरकार ने सबसे पहले श्रम क़ानूनों में मज़दूर-विरोधी और पूँजीपरस्त बदलाव किये और मज़दूर-विरोधी चार लेबर कोड लेकर आयी। उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों को लागू करने का काम 1990 में काँग्रेस पार्टी ने किया, लेकिन भाजपा ने उसको लागू करने के पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये हैं। इन्हीं पूँजीपरस्त नीतियों के चलते सरकारी विभागों में स्थायी नौकरियों को ख़त्म कर लोगों को ठेके-संविदा पर खटाया जा रहा है।
यह रिपोर्ट लिखे जाने तक एमसीडी कर्मचारियों की हड़ताल के 20 दिन पूरे हो चुके हैं लेकिन अभी तक कोई ठोस नतीजा नहीं निकला है। एमसीडी के कर्मचारियों समेत अन्य जगहों पर ठेके-संविदा पर काम कर रहे मज़दूर व कर्मचारी साथियों को यह समझ हासिल करनी होगी कि अपनी तात्कालिक आर्थिक माँगों की लड़ाई के साथ ही हमें दूरगामी लड़ाई की तैयारी भी करनी होगी जोकि इस व्यवस्था को चुनौती दे सके। इन दोनों ही लड़ाइयों में क्रान्तिकारी हिरावल ही आन्दोलन को सही नेतृत्व दे सकता है, न कि कोई मौक़ापरस्त और समझौतावादी नेतृत्व। यही हमारे तात्कालिक संघर्षों की सफलता को भी सुनिश्चित करेगा और यही इस मानवद्रोही मुनाफ़ा केन्द्रित व्यवस्था से मुक्त करने की हमारी दूरगामी लड़ाई में भी अग्रसर होने के लिए आवश्यक है।
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2025













