लद्दाख में जनवादी व लोकप्रिय माँगों को लेकर चल रहे जनान्दोलन का बर्बर दमन
जनान्दोलनों से भयाक्रान्त फ़ासिस्ट भारतीय राज्यसत्ता

आनन्द

साल 2019 में अनुच्छेद 370 और 35(A) हटाकर जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा छीनने के बाद भारत की फ़ासीवादी ताक़तें वहाँ अमन-चैन, ख़ुशहाली और सामान्य स्थिति बहाल होने के दावे कर रही थीं। इन दावों की कलई कश्मीर घाटी में तो पहले ही खुल चुकी थी, अब लद्दाख में भी ये दावे तार-तार हो चुके हैं।

पिछले 10 सितम्बर से लद्दाख की राजधानी लेह में लद्दाख को राज्य का दर्जा दिलाने और उसे संविधान की छठीं अनुसूची में शामिल करने जैसी माँगों के साथ वहाँ के कई संगठनों द्वारा एक शान्तिपूर्ण प्रदर्शन और भूख हड़ताल का आयोजन किया गया था। भूख हड़ताल पर बैठे दो आन्दोलनकारियों की सेहत गिरने और उनके अस्पताल में दाखिले के बाद 24 सितम्बर को आन्दोलन उग्र हो गया और कुछ युवाओं ने आक्रोश में आकर भारतीय जनता पार्टी के कार्यालय और सीआरपीएफ़ के वाहन सहित कई वाहनों में आग लगा दी। इसके बाद पुलिस ने इस आन्दोलन को बर्बरता से कुचलने की ठान ली और पुलिस की गोलीबारी में 4 लोग मारे गये तथा 70 से ज़्यादा लोग घायल हो गये। बाद में आन्दोलन के एक नेता सोनम वांगचुक को गिरफ़्तार कर लिया गया, विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम (FCRA), 2010 के तहत उनके एनजीओ के खाते फ्रीज़ कर दिये गये और उनपर कुख़्यात राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून लगा दिया गया।

फ़ासिस्ट मोदी-शाह सरकार मीडिया में भाँति-भाँति की ख़बरें प्लाण्ट करके आन्दोलन को चीन, पाकिस्तान या अमेरिका की साज़िश बता रही है। नेपाल और बांग्लादेश के युवा विद्रोहों से भी इसके तार जोड़े जा रहे हैं। इन हास्यास्पद दावों से स्पष्ट है कि भारत के फ़ासिस्ट जनान्दोलनों से कितने भयभीत हैं। यह दीगर बात है कि कई जन आन्दोलनों में घुसपैठ कर बाहरी तत्व व साम्राज्यवादी ताक़तें भी अपनी रोटियाँ सेंकने का प्रयास करती हैं, वैसे ही जैसे भारतीय राज्यसत्ता पड़ोसी मुल्कों में जारी कई आन्दोलनों में अपने तत्वों की घुसपैठ करवाकर करती रही है। लेकिन ऐसे तमाम आन्दोलनों को शुद्ध साज़िश क़रार देने के पीछे की मंशा इन आन्दोलनों द्वारा उठायी जा रही मांगों को ही बदनाम या ग़ैर-जायज़ ठहराना होता है और मोदी-शाह सरकार यही कर रही है। वर्तमान में लद्दाख में चल रहे जनान्दोलन और उसके द्वारा उठायी जा रही माँगों को बेहतर तरीक़े से समझने के लिए हमें लद्दाख के इतिहास पर भी एक निगाह डालनी होगी।

लद्दाख की समस्या: इतिहास के आइने में

कराकोरम और हिमालय पर्वत के बीच स्थित लद्दाख एक शीत मरुस्थल है। इसका एक हिस्सा गिलगिट बल्तिस्तान पाकिस्तान के क़ब्ज़े में है और अकसाई चिन नामक दूसरा हिस्सा चीन के क़ब्ज़े में है। भारत में लद्दाख लेह और कारगिल नामक दो ज़िलों में बँटा है। ग़ौरतलब है कि अगस्त 2019 तक लद्दाख जम्मू व कश्मीर राज्य का हिस्सा था। राष्ट्रीयता, भाषा और संस्कृति के लिहाज़ से जम्मू और कश्मीर दोनों से अलग होने के बावजूद लद्दाख के जम्मू-कश्मीर का भाग होने के पीछे ऐतिहासिक कारण थे। 1846 में सम्पन्न हुए पहले आंग्ल-सिख युद्ध के बाद जब जम्मू व कश्मीर डोगरा राजा गुलाब सिंह के नियन्त्रण में आया उस समय से ही लद्दाख जम्मू व कश्मीर रियासत का हिस्सा बन गया था। ग़ौरतलब है कि 1842 में सिखों द्वारा पराजित होने से पहले तक लद्दाख एक अलग रियासत हुआ करती थी और उसका अलग राजा हुआ करता था। बहरहाल अंग्रेज़ों के भारत छोड़ने के बाद जब जम्मू व कश्मीर एक विशेष और विवादास्पद परिस्थिति में अनुच्छेद 370 के माध्यम से भारतीय यूनियन का हिस्सा बना तो उस रियासत का हिस्सा होने की वजह से लद्दाख भी जम्मू व कश्मीर राज्य में शामिल कर दिया गया। उस समय लद्दाख को जम्मू-कश्मीर राज्य में बने रहने देने के पीछे भारतीय राज्यसत्ता के अपने हित भी थे। कश्मीर घाटी की मुस्लिम बाहुल्य आबादी के प्रतिरोध को प्रतिसन्तुलित करने के लिए भारतीय राज्यसत्ता ने शुरू से ही जम्मू के हिन्दुओं और लेह के बौद्धों को अपनी ओर करने की कोशिश की। संघ परिवार की साम्प्रदायिक फ़ासीवादी राजनीति ने भी धार्मिक आधार पर इस क्षेत्रीय विभाजन को और सुदृढ़ करने का काम किया। 1950 के दशक से ही कश्मीर के लोगों को भारतीय राज्यसत्ता द्वारा राष्ट्रीय दमन का सामना करना पड़ रहा था और भारतीय राज्यसत्ता के साथ उनका अलगाव बढ़ रहा था। लेकिन दूसरी ओर लद्दाख की एक विशिष्ट समस्या थी।

1947 में भारत-पाकिस्तान विभाजन के पहले दक्षिण एशिया से मध्य एशिया के बीच के व्यापार मार्ग पर स्थित होने की वजह से लद्दाख का एक वाणिज्यिक महत्व था। भारत से तुर्किस्तान का रास्ता लेह से होकर जाता था और इस व्यापार मार्ग की वजह से लद्दाख कई सभ्यताओं, धर्मों और भाषाओं के लोगों के मिलन का केन्द्र भी था। परन्तु विभाजन के बाद यह व्यापार मार्ग बन्द हो गया और लद्दाख एक व्यापारिक केन्द्र से भारतीय राज्य के सूदूर सीमान्त क्षेत्र में तब्दील हो गया जिसके पश्चिम में पाकिस्तान की सीमा थी और उत्तर-पूर्व में चीन की सीमा। इस प्रकार जो इलाक़ा कभी व्यापारिक सरगर्मियों का केन्द्र हुआ करता था वह अब सैन्य गतिविधियों का अड्डा बन गया।

भारतीय राज्य ने लद्दाख के लोगों में अन्धराष्ट्रवादी विचारों को भी व्यवस्थित तरीक़े से फैलाया जिसके निशाने पर कभी चीन रहता है, कभी पाकिस्तान तो कभी कश्मीर। पूर्व जम्मू-कश्मीर राज्य में कश्मीरी नेताओं के प्रभुत्व और लद्दाख से उसकी दूरी की वजह से 1950 के दशक से ही लद्दाख को जम्मू-कश्मीर से अलग करके केन्द्रशासित प्रदेश बनाने की माँग उठनी शुरू हो गयी थी, हालाँकि यह माँग मुख्यतया लेह से उठती थी जो बौद्ध बाहुल्य क्षेत्र है ना कि कारगिल से जो कि मुस्लिम बाहुल्य है। 1980 और 1990 के दशक में लद्दाख में संघ परिवार की घुसपैठ तेज़ी से बढ़ती है। लद्दाख के सबसे बड़े बौद्ध संगठन लद्दाख बुद्धिस्ट एसोसिएशन (एलबीए) की संघ परिवार से क़रीबी भी बढ़ती है। 1989 में जब कश्मीर घाटी में पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद में तेज़ी आयी तो लद्दाख में कश्मीर से अलग होने और लद्दाख को केन्द्रशासित प्रदेश बनाने की माँग भी ज़ोर-शोर से उठने लगी और उस समय एलबीए ने अपना साम्प्रदायिक चेहरा दिखाते हुए कारगिल सहित लद्दाख के सभी हिस्सों में रहने वाले मुस्लिमों का बहिष्कार करने का अभियान चलाया। यह लद्दाख में संघ परिवार की बढ़ती घुसपैठ का प्रमाण था। इस अभियान के नतीजे के तौर पर 1995 में लद्दाख ऑटोनोमस हिल डिस्ट्रिक्ट काउंसिल का निर्माण किया गया जिसके पास एक सीमित हद तक विधायिका और कार्यपालिका के अधिकार हैं। लद्दाख में हिन्दुत्व की फ़ासीवादी विचारधारा का प्रचार-प्रसार करने के लिए संघ परिवार 1997 से वहाँ सिन्धु पर्व मानता आया है। इसके अलावा वह लद्दाख कल्याण संघ जैसे शैक्षिक और सांस्कृतिक संगठनों के ज़रिये भी अपनी ज़हरीली विचारधारा को फैलाता आया है। संघ परिवार की इन कोशिशों के नतीजे के तौर पर ही 2014 में भाजपा ने पहली बार लद्दाख की लोकसभा सीट जीतने में कामयाबी हासिल की और 2019 में भी उसने जीत हासिल की।

5 अगस्त 2019 को फ़ासिस्ट मोदी-शाह सरकार ने जम्मू-कश्मीर से राज्य का दर्जा छीनने के साथ ही साथ उसका विभाजन भी कर दिया और लद्दाख को केन्द्र शासित प्रदेश में तब्दील कर दिया। शुरू में लेह के लोगों ने इस फ़ैसले का स्वागत किया क्योंकि यह उनकी लम्बे समय से माँग थी। परन्तु जल्द ही वहाँ के लोगों को इस फ़ैसले के असली निहितार्थ समझ में आने लगे। यह निरंकुश और स्वेच्छाचारी क़दम भारतीय राज्यसत्ता ने लद्दाख के लोगों की भलाई में नहीं बल्कि कश्मीर में अपनी राष्ट्रीय दमन की नीति को उसकी पराकाष्ठा पर पहुँचाने के अपने मक़सद के साथ ही अपनी सुरक्षा और सामरिक ज़रूरतों के मद्देनज़र लद्दाख पर प्रत्यक्ष नियन्त्रण करने के लिए उठाया था क्योंकि लद्दाख की सीमा चीन और पाकिस्तान दोनों से लगती है। साथ ही लद्दाख में पूँजीवादी विकास की रफ़्तार बढ़ाना भी इस फ़ैसले का एक मक़सद था। अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35(A) हटने के बाद से लद्दाख से बाहर के लोगों को भी वहाँ ज़मीन और सम्पत्ति ख़रीदने की अनुमति मिल गयी है। ध्यान देने वाली बात यह हैकि लद्दाख की 95 फ़ीसदी से ज़्यादा आबादी आदिवासी है और वहाँ के लोगों को डर है कि बाहरी लोगों द्वारा उनकी ज़मीन और संसाधनों पर क़ब्ज़ा कर लिया जायेगा। वास्तव में यह क़ब्ज़ा पूँजीपतियों, धन्नासेठों और संघ परिवार से जुड़े लोगों द्वारा किया जा रहा है। मुनाफ़े की हवस में पूँजी देश के कोने-कोने तक पहुँच रही है और लोगों की आजीविका के साधनों और पर्यावरण को तबाह कर रही है। लद्दाख जैसे पहाड़ी और दूर-दराज के क्षेत्र भी पूँजी के इस विस्तार से अछूते नहीं रहे हैं। लद्दाख में पिछले कुछ सालों के दौरान कई बड़े-बड़े होटल खुले हैं जो वहाँ पर्यटन उद्योग में बड़ी पूँजी के प्रवेश को दिखाता है। साथ ही पूँजीवादी परियोजनाओं से पर्यावरण का संकट भी गहराने की आशंका भी लोगों की चिन्ता का सबब है। मिसाल के लिए भारत का सबसे बड़ा सोलर और विंड पार्क लद्दाख के उस हिस्से में बनाये जाने की योजना है जहाँ मशहूर पश्मीना बकरियाँ पायी जाती हैं। इस परियोजना से चांगपा चरवाहों के सामने आजीविका का संकट भी उत्पन्न हो गया है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर बड़े पैमाने पर लद्दाख में ज़मीन भारतीय सेना के हवाले की जा रही है और दुर्गम व बीहड़ रास्तों पर भी सड़कें बनायी जा रही हैं जिसकी वजह से पर्यावरण संकट और गहरा रहा है। उपरोक्त सभी वजहों से लद्दाख में रहने वाले आदिवासियों को अपनी संस्कृति और पहचान पर ख़तरा महसूस हो रहा है। दरअसल इस ख़तरे की वास्तविक वजह पूँजीवादी विकास है। ऐसा न समझने की वजह से अक्सर लोग बाहर के आम लोगों को ही अपने वजूद पर ख़तरे के लिए ज़िम्मेदार मानने लगते हैं और पूँजीवाद के ख़िलाफ़ लामबन्द होने के बजाय आम मेहनतकश आप्रवासियों के ख़िलाफ़ हो जाते हैं। देश के अन्य हिस्सों की ही तरह लद्दाख में भी लोगों को अपनी आजीविका और वजूद के संकट से निपटने के लिए पूँजीवाद के ख़िलाफ़ लामबन्द होना होगा।

बहरहाल, इस समय लद्दाख को छठीं अनुसूची में शामिल करने की माँग भी वहाँ काफ़ी लोकप्रिय हो चुकी है। भारतीय संविधान में छठीं अनुसूची में आदिवासी इलाक़ों में रहने वाले लोगों की आजीविका, संसाधनों, संस्कृति व विशिष्ट पहचान की रक्षा के मद्देनज़र इन इलाकों का प्रशासन स्वायत्तशासी संस्थाओं द्वारा करने के प्रावधान हैं। फ़िलहाल इस सूची में पूर्वोत्तर के राज्यों के कुछ हिस्से शामिल हैं। हालाँकि अगर यह माँग मान भी ली जाती है तो भी लद्दाख के आदिवासियों की आजीविका और वजूद का संकट ख़त्म नहीं होगा क्योंकि इस संकट की असली वजह पूँजीवाद है। लद्दाख में चल रहे आन्दोलन की एक और माँग यह है कि लद्दाख का अपना लोक सेवा आयोग होना चाहिए। यह माँग बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी के मद्देनज़र उठायी जा रही है जिसको लेकर लद्दाख के युवाओं में ज़बर्दस्त आक्रोश है जो 24 सितम्बर के उग्र प्रदर्शन में भी देखने में आया। इससे स्पष्ट है कि अनुच्छेद 370 के हटने के बाद लद्दाख के हिस्से भी ख़ुशहाली नहीं बदहाली ही आयी है।

लद्दाख के मसले पर मज़दूर वर्ग का क्या रुख़ होना चाहिए

लद्दाख में पिछले 4-5 वर्षों से जो आन्दोलन चल रहा है वह वहाँ हिन्दुत्ववादी फ़ासीवादी ताक़तों के वर्चस्व में गिरावट का संकेत है। लद्दाख के लोगों के ग़ुस्से के निशाने पर फ़ासीवादी भाजपा है। पहली बार लेह और कारगिल दोनों ज़िलों में रहने वाले सभी मज़हबों को मानने वाले लद्दाखी लोग एकजुट होकर यह आन्दोलन कर रहे हैं। लद्दाख के लोग साम्प्रदायिक आधार पर नहीं बल्कि अपनी साझा माँगों के आधार पर एकजुट हो रहे हैं, जो कि अच्छा संकेत है। यही वजह है कि भारतीय राज्यसत्ता ने बदहवासी में आकर दमन का चाबुक चलाने की ठानी है और संघ परिवार अपना आधार खिसकता देखकर आन्दोलन को बदनाम करने की साज़िशें रच रहा है। परन्तु इस दमन से आन्दोलन ख़त्म होने के बजाय और तेज़ी से फैल रहा है और समूचे लद्दाख के लोगों में एकजुटता का आधार भी बढ़ रहा है। मज़दूर वर्ग को लद्दाख के लोगों की न्यायसंगत और जनवादी माँगों का समर्थन करना चाहिए और इस आन्दोलन के दमन और नेताओं पर फ़र्जी मुक़दमे ठोकने और आन्दोलन को बदनाम करने की फ़ासिस्ट साज़िश की सख़्त भर्त्सना करनी चाहिए। मज़दूर वर्ग को जनवादी अधिकारों और जनवाद पर होने वाले हर फ़ासीवादी हमले की मुखालफत पुरज़ोर तरीक़े से करनी चाहिए।

यह सच है कि सोनम वांगचुक सहित लद्दाख के आन्दोलन से जुड़े तमाम लोगों ने अनुच्छेद 370 को हटाने का समर्थन किया था। यह भी सच है कि सोनम वांगचुक की राजनीति एक सुधारवादी एनजीओपन्थ की राजनीति है और उन्होंने कश्मीरियों के दमन के ख़िलाफ़ कभी कुछ नहीं बोला। परन्तु आज जब फ़ासिस्ट राज्यसत्ता लद्दाख के लोगों के न्यायसंगत और जनवादी आन्दोलन का दमन करने पर उतारू है तो मज़दूर वर्ग के लिए यह लाज़िमी हो जाता है कि वह उनके आन्दोलन का समर्थन करे। दमन-उत्पीड़न की किसी एक भी घटना पर चुप्पी दरअसल आम तौर पर शासक वर्गों के दमन, उत्पीड़न और हिंसा के अधिकार को वैधता प्रदान करती है। ऐसे में, आज भारत में आम मेहनतकश आबादी को भी लद्दाख में चल रहे घटनाक्रम पर सर्वहारा नज़रिये से सही राजनीतिक अवस्थिति अपनाने की आवश्यकता है।

 

मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2025

 

 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन