Category Archives: असंगठित मज़दूर

शाहबाद डेरी में घरेलू कामगार महिलाओं को शिक्षित-प्रशिक्षित करने के लिए चल रही है दिल्ली घरेलू कामगार यूनियन की रात्रि पाठशाला

घरेलू कामगार महिलाओं में से अधिकतर महिलाएँ अशिक्षित हैं। इसलिए दिल्ली घरेलू कामगार यूनियन द्वारा महिलाओं को राजनीतिक रूप से शिक्षित-प्रशिक्षित करने के लिए यूनियन पाठशाला और अक्षर ज्ञान सिखाने के लिए रात्रि पाठशाला का आयोजन किया जा रहा है। यहाँ अक्षरज्ञान महज़ साक्षरता का प्रश्न नहीं है, बल्कि अपने आप को मुक्त करने के बारे में ज्ञान को प्राप्त करने का रास्ता है, उसका औज़ार है। लेकिन यूनियन पाठशाला में महज़ पढ़ना-लिखना ही नहीं सिखाया जाता है। यूनियन पाठशाला में देश-दुनिया के तमाम ज़िन्दा सवालों पर बातचीत की जाती है। जिस समाज में हम रहते हैं वह हमें चीज़ों को शासक वर्ग के नज़रिये से देखने का आदी बना देता है। इसमें स्कूल, कॉलेज, धर्म, मीडिया, क़ानून आदि सबका हाथ होता है। ये सभी शासक वर्ग की विचारधारा के उपकरण हैं और हमें शासक वर्ग के नज़रिये से दुनिया को देखने की आदत डलवाते हैं।

रणनीति की कमी की वजह से हैदराबाद में ज़ेप्टो डिलीवरी वर्कर्स की हड़ताल टूटी

कम लोगों को ही इस बेरहम सच्चाई का एहसास होता है कि ज़ेप्टो कम्पनी का वायदा पूरा करने के लिए उसके डिलीवरी मज़दूरों को अपनी जान और सेहत जोख़िम में डालनी पड़ती है। एक ओर इन मज़दूरों की आमदनी में लगातार गिरावट आती जा रही है वहीं दूसरी ओर उनके काम की परिस्थितियाँ ज़्यादा से ज़्यादा कठिन होती जा रही हैं। समय पर डिलीवरी पहुँचाने की हड़बड़ी में आए दिन उनके साथ सड़क दुर्घटनाएँ होती रहती हैं। इन हालात से तंग आकर हाल ही में हैदराबाद में रामंतापुर और बोद्दुपल इलाक़ों में स्थित ज़ेप्टो डार्क स्टोर्स के डिलीवरी मज़दूरों ने हड़ताल पर जाने का फ़ैसला किया। डार्क स्टोर ज़ेप्टो जैसी गिग कम्पनियों द्वारा संचालित ऐसे स्टोर होते हैं जहाँ से डिलीवरी मज़दूर कोई ऑर्डर मिलने पर ग्राहक का सामान उठाते हैं।

मनरेगा मज़दूरों ने कैथल के ढाण्ड ब्लॉक में प्रदर्शन कर मज़दूर दिवस के शहीदों को किया याद

मनरेगा मज़दूरों के हालात पर ही बात की जाये तो आज कैथल जिले में मनरेगा के काम के हालात बेहद बदतर है। वैसे तो सरकार मनरेगा में 100 दिन के काम की गारण्टी देती है लेकिन वह अपनी ज़ुबान पर कहीं भी खरी नहीं उतरती। आँकड़ों के हिसाब से पूरे देशभर में और कलायत में भी मनरेगा में काम की औसत लगभग 25-30 दिन सालाना भी बड़ी मुश्किल से पड़ती है। हम सभी जानते है कि गाँवों में भी कमरतोड़ महँगाई के कारण मज़दूरों को परिवार चलाने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। ऐसे में हर रोज़ अपना हाड़-माँस गलाकर पेट भरने वाले मज़दूरों को गाँव में भी किसी न किसी काम-धन्धे  की ज़रूरत तो है ही।  ऐसे में उनका सहारा केवल मनरेगा ही हो सकता है। लेकिन मनरेगा में पहले से ही बजट में कमी के साथ-साथ अफसरों पर भी धाँधली करने के आरोप लगते रहते हैं।

केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों ने एक बार फिर से की ग़द्दारी! 20 मई की एकदिवसीय देशव्यापी हड़ताल स्थगित!

दुअन्नी-चवन्नी की लड़ाई लड़ते-लड़ते मज़दूरों की जुझारू चेतना की धार भोथरी कर देने वाले और उन्हें इसी पूँजीवादी व्यवस्था में जीते रहने की शिक्षा देने वाले ट्रेड यूनियनों के ये मौक़ापरस्त, अर्थवादी, सुधारवादी, दलाल, धन्धेबाज़ नेता अब महज़ आर्थिक माँगों के लिए भी दबाव बना पाने की इच्छाशक्ति और ताक़त खो चुके हैं। संसदीय वामपन्थी और उनके सगे भाई ट्रेड यूनियनवादी मौक़ापरस्त शुरू से ही मज़दूर आन्दोलन के भितरघातियों के रूप में पूँजीवादी व्यवस्था की दूसरी-तीसरी सुरक्षा पंक्ति की भूमिका निभाते रहे हैं। आज इनका यह चरित्र इतना नंगा हो चुका है कि मज़दूरों को ये ठग और बरगला नहीं पा रहे हैं। मज़दूरों की भारी असंगठित आबादी के बीच तो इनकी उपस्थिति ही बहुत कम है। विकल्पहीनता में कहीं-कहीं मज़दूर इन बगुला भगतों के चक्कर में पड़ भी जाते हैं, तो जल्दी ही उनकी असलियत पहचानकर दूर भी हो जाते हैं। यह एक अच्छी बात है। लेकिन चिन्ता और चुनौती की बात यह है कि सही नेतृत्व की कमज़ोरियों और बिखराव के कारण मज़दूरों का क्रान्तिकारी आन्दोलन अभी संगठित नहीं हो पा रहा है। किसी विकल्प के अभाव, अपनी चेतना की कमी और संघर्ष के स्पष्ट लक्ष्य की समझ तथा आपस में एका न होने के कारण बँटी हुई मज़दूर आबादी अभी धन्धेबाज़ नेताओं के जाल में फँसी हुई है।

आँगनवाड़ीकर्मी हैं सरकारी कर्मचारी के दर्जे की हक़दार!

दमन की इन कार्रवाइयों के बावजूद आँगनवाड़ीकर्मियों का संघर्ष देश भर में जारी है। आँगनवाड़ीकर्मियों की सरकारी कर्मचारी के माँग के मसले पर कई राज्यों के उच्च न्यायालयों में भी अलग-अलग यूनियनों ने अर्ज़ियाँ दायर की गयी हैं। इस मद्देनज़र हाल में कई महत्वपूर्ण बयान और फ़ैसले आये हैं। वर्ष 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा था कि आँगनवाड़ीकर्मियों को ग्रेच्युटी दी जानी चाहिए और इस दिशा में केन्द्र व राज्य सरकारों को ज़रूरी क़दम उठाने चाहिए। अब बीते 30 अक्टूबर को गुजरात हाईकोर्ट द्वारा का ज़रूरी फैसला आया है जिसमें केन्द्र व सभी राज्य सरकारों को यह आदेश दिया गया है कि वे आँगनवाड़ीकर्मियों को नियमित करने की दिशा में ठोस योजना बनाये। इसके साथ ही इस आदेश में यह भी बात कही गयी है कि जबतक आँगनवाड़ीकर्मियों को नियमित करने की योजना लागू नहीं होती है तब तक उन्हें ग्रेड 3 व ग्रेड 4 रैंक के सरकारी कर्मचारियों को मिलने वाला वेतन और तमाम अन्य सुविधाएँ मुहैया करायी जायें। इस फ़ैसले को राज्य सरकार और केन्द्र सरकार द्वारा तुरन्त संज्ञान में लेते हुए इसपर कारवाई शुरू की जाये।

राजधानी दिल्ली में एकजुट होकर अधिकारों के लिए आवाज़ उठायी मनरेगा मज़दूरों ने

मोदी सरकार द्वारा फण्ड रोकने से मनरेगा मज़दूर बेहद बुरे हाल से गुज़र रहे हैं। मोदी सरकार और राज्य सरकार की नूराँकुश्ती में मज़दूर रोज़गार के अधिकार से वंचित हैं। जबकि मनरेगा एक्ट की धारा 27 किसी विशिष्ट शिकायत के आधार पर “उचित समय के लिए” अस्थायी निलम्बन से अधिक कुछ भी अधिकृत नहीं करती है। यह निश्चित रूप से केन्द्र को उन श्रमिकों के वेतन को रोकने के लिए अधिकृत नहीं करता है जो पहले से ही काम कर चुके हैं।

नया साल मज़दूर वर्ग के फ़ासीवाद-विरोधी प्रतिरोध और संघर्षों के नाम! साम्राज्यवाद-पूँजीवाद के विरुद्ध क्रान्तिकारी संघर्षों के नाम!

यह सच है कि बीता साल भी पूरी दुनिया में मेहनतकश अवाम के लिए प्रतिक्रिया और पराजय के अन्धकार में बीता है। लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि कुछ भी स्थायी नहीं होता। यह समय पस्तहिम्मती का नहीं, बल्कि अपनी हार से सबक लेकर उठ खड़े होने का है। रात चाहे कितनी ही लम्बी क्यों न हो, सुबह को आने से नहीं रोक सकती। इस नये साल हमें सूझबूझ, जोशो-ख़रोश और ताक़त के साथ गोलबन्द और संगठित होने को अपना नववर्ष का संकल्प बनाना होगा। फ़ासीवाद के ख़िलाफ़, साम्राज्यवाद-पूँजीवाद के ख़िलाफ़, हर रूप में शोषण, दमन और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ समूची मेहनतकश जनता को संगठित करने के काम को नये सिरे से, रचनात्मक तरीक़े से अपने हाथों में लेना होगा।

बवाना के मज़दूर की चिट्ठी

सुबह जगो तो काम के लिए, नहाओ तो काम के लिए, खाओ तो काम के लिए, रात बारह बजे सोओ तो काम के लिए। ऐसा लगता है की हम सिर्फ काम करने के लिए पैदा हुए हैं ‌तो हम फिर अपना जीवन कब जियेंगे। महीने की सात से दस तारीख के बीच तनखा मिलती है, पन्द्रह तारीख तक जेब में पैसे होते हैं तो अपने बच्चों के लिए फल या कुछ ज़रूरी चीजें ले सकते हैं । उसके बाद हर दिन एक-एक रुपया सोचकर खर्च करना पड़ता है। महीना ख़त्म होते-होते ये भी सोच ख़त्म हो जाती है। अगर कहीं बीमार पड़ गये तो क़र्ज़ के बोझ तले दबना तय है।

अदालत ने भी माना : आँगनवाड़ीकर्मी हैं सरकारी कर्मचारी के दर्जे की हक़दार!

यह फ़ैसला लम्बे समय से संघर्षरत आँगनवाड़ीकर्मियों के संघर्ष का ही नतीजा है। कर्मचारी के दर्जे की माँग की हमारी लड़ाई को आगे ले जाने के में यह एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित होगा। ‘दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन’ देश भर की आँगनवाड़ीकर्मियों को इसके लिए बधाई देती है। लेकिन हमें कोर्ट के इस आदेश मात्र से निश्चिन्त होकर नहीं बैठ जाना होगा। देश भर में आन्दोलनरत स्कीम वर्करों के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती यह है कि किस प्रकार एक स्वतन्त्र और इन्क़लाबी यूनियनें खड़ी की जायें और अलग-अलग राज्यों में बिखरे हुए इन आन्दोलनों को एक सूत्र में पिरोया जाये। आँगनवाड़ीकर्मियों को सरकारी कर्मचारी का दर्जा देने के लिए नीति में ज़रूरी बदलाव केन्द्र सरकार के हाथों में है। इसके लिए केन्द्र सरकार के खिलाफ़ संघर्ष को तेज़ करने और देशभर में आँगनवाड़ीकर्मियों को एकजुट करने की ज़रूरत है।

गिग व प्लेटफॉर्म अर्थव्यवस्था के मज़दूरों के श्रम अधिकारों को छीनने के लिए कर्नाटक की कांग्रेस सरकार लायी ख़तरनाक मसविदा क़ानून

इसका मुख्य लक्ष्य यह है कि इन गिग मज़दूरों और प्लेटफॉर्म कम्पनियों के बीच के रोज़गार सम्बन्ध को ही नकार देना, ताकि इन मज़दूरों की मज़दूर पहचान ही उनसे छीन ली जाय। इसका प्लेटफॉर्म अर्थव्यवस्था के पूँजीपतियों को क्या फ़ायदा होगा? इसका यह फ़ायदा होगा कि औपचारिक तौर पर मज़दूरों को जो थोड़े-बहुत श्रम अधिकार प्राप्त हैं, उन पर इन गिग मजदूरों का कोई दावा नहीं होगा। यानी पुराने श्रम क़ानूनों के तहत और नये फ़ासीवादी लेबर कोड के तहत ये मज़दूर आयेंगे ही नहीं।