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मेट्रो मज़दूरों के अधिकारों पर मेट्रो प्रशासन का नया फ़ासीवादी हमला

गत 4 फ़रवरी को मेट्रो प्रशासन ने अपने कर्मचारियों के नाम ‘कोड ऑफ़ वैल्यू एण्ड एथिक्स’ नाम से एक सर्कुलर जारी करके उन्हें उनके सभी बुनियादी अधिकारों से वंचित कर दिया है। इस सर्कुलर में मज़दूरों व कर्मचारियों से स्पष्‍टतः कहा गया है कि वे किसी भी अन्य सरकारी विभाग में मेट्रो प्रशासन की शिकायत नहीं कर सकते हैं। वे मेट्रो में चल रहे किसी भी अन्याय या धाँधली के ख़िलापफ़ मीडिया को जानकारी नहीं दे सकते हैं। अपने साथ होने वाले किसी अन्याय के ख़िलाफ़ अदालत का दरवाज़ा खटखटाने पर भी मनाही है और अगर अदालत में जाना ही हो तो पहले डी.एम.आर.सी. से अनुमति लेनी होगी। कोई भी अन्याय, भ्रष्‍टाचार या गड़बड़ी होने पर कर्मचारी के पास सिर्फ़ यह अधिकार होगा कि वह डी.एम.आर.सी. के सतर्कता विभाग में शिकायत कर सके। यानी मेट्रो प्रशासन के ख़िलाफ़ मेट्रो प्रशासन से ही शिकायत करनी होगी! यानी गवाह भी मेट्रो प्रशासन, वकील भी मेट्रो प्रशासन और जज भी मेट्रो प्रशासन! ऐसे में मज़दूरों के साथ होने वाले अन्याय पर क्या न्याय होगा यह ख़ुद ही समझा जा सकता है। यानी, कर्मचारी न मीडिया में जा सकता है, न ही वह किसी उपयुक्त सरकारी विभाग में शिकायत कर सकता है, और सबसे बड़ी बात कि वह न्याय पाने के लिए न्यायालय में भी नहीं जा सकता है।

राष्‍ट्रीय राजधानी में ग़रीबों के गुमशुदा बच्चों और पुलिस-प्रशासन के ग़रीब-विरोधी रवैये पर बिगुल मज़दूर दस्ता और नौजवान भारत सभा की रिपोर्ट

दिल्ली आज भी गुमशुदा बच्चों के मामले में देश में पहले स्थान पर है, जिनमें 80 प्रतिशत से ज़्यादा संख्या ग़रीबों के बच्चों की होती है। शायद इसीलिए पुलिस से लेकर सरकार तक कोई इस मुद्दे पर गम्भीर नहीं है। पिछले वर्ष सितम्बर तक दिल्ली में 11,825 बच्चे गुमशुदा थे। राष्‍ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुसार हर साल दिल्ली से क़रीब 7,000 बच्चे गुम हो जाते हैं, लेकिन यह संख्या दिल्ली पुलिस के आँकड़ों पर आधारित है। हालाँकि विभिन्न संस्थाओं का अनुमान है कि वास्तविक संख्या इससे कई गुना अधिक हो सकती है क्योंकि ज़्यादातर लोग अपनी शिकायत लेकर पुलिस के पास जाते ही नहीं। पुलिस के पास गुमशुदगी की जो सूचनाएँ पहुँचती भी हैं, उनमें से भी बमुश्किल 10 प्रतिशत मामलों में एफ़आईआर दर्ज की जाती है। ज़्यादातर मामलों को पुलिस रोज़नामचे में दर्ज करके काग़ज़ी ख़ानापूर्ति कर लेती है।

मज़दूरों पर मन्दी की मार: छँटनी, बेरोज़गारी का तेज़ होता सिलसिला

पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजीपति वर्ग मुनाफ़े की अन्धी हवस में जिस आर्थिक संकट को पैदा करता है वह इस समय विश्‍वव्यापी आर्थिक मन्दी के रूप में समूचे संसार को अपने शिकंजे में जकड़ती जा रही है। मन्दी पूँजीवादी व्यवस्था में पहले से ही तबाह-बर्बाद मेहनतकश के जीवन को और अधिक नारकीय तथा असुरक्षित बनाती जा रही है। इस मन्दी ने भी यह दिखा दिया है कि पूँजीवादी जनतन्त्र का असली चरित्र क्या है? पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी यानी ‘सरकार’ पूँजीपतियों के लिए कितनी परेशान है यह इसी बात से जाना जा सकता है कि सरकार पूँजीवादी प्रतिष्‍ठानों को बचाने के लिए आम जनता से टैक्स के रूप में उगाहे गये धन को राहत पैकेज के रूप में देकर एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रही है। जबकि मेहनतकशों का जीवन मन्दी के कारण बढ़ गये संकट के पहाड़ के बोझ से दबा जा रहा है। परन्तु सरकार को इसकी ज़रा भी चिन्ता नहीं है। दिल्ली के कुछ औद्योगिक क्षेत्रों के कुछ कारख़ानों की बानगी से भी पता चल जायेगा कि मन्दी ने मज़दूरों के जीवन को कितना कठिन बना दिया है।

दिल्ली मेट्रो की चकाचौंध के पीछे की काली सच्चाई

सफाई कर्मचारी ही नहीं मेट्रो के सभी कामगारों के हालात कमोबेश एक जैसे हैं, चाहे अपनी जान को जोखिम में डालकर कांस्ट्रक्शन में दिन-रात खटने वाले मजदूर हों या स्टेशनों पर काम करने वाले गार्ड व अन्य वर्कर किसी को भी उनके जायज हक और सुविधाएं नहीं मिल रही हैं। किसी को कभी भी बिना कारण बताये काम पर से हटा दिया जाता है। वह दिन दूर नहीं जब एक जैसे हालात में काम करने वाले मेट्रो के सभी कर्मचारी इस बात को समझेंगे और अपने हकों के लिए एकजुट होकर आवाज बुलंद करेंगे। अधिकार माँगने से नहीं मिलते वरन उनके लिए संघर्ष करना पड़ता है। मजदूर अपने रोजमर्रा के अनुभवों से अच्छी तरह जानते हैं कि अकेले अपने दम पर वे भ्रष्ट मेट्रो प्रशासन और लुटेरे ठेकेदारों से नहीं लड़ सकते, उन्हें एकजुट होकर संघर्ष करना ही होगा।

दिल्ली के ग़रीब बच्चों की नहीं मॉल वालों की चिन्ता है नगर निगम को

सरकारी स्कूलों के साथ अपेक्षा का भाव महज़ सरकारी उदासीनता या लापरवाही नहीं है। मौजूदा लागू आर्थिक नीतियाँ तमाम कल्याणकारी कामों को धीरे-धीरे सरकार से बाज़ार के हवाले कर देने की पैरवी करती हैं। इन नीतियों को लागू करने में कांग्रेस, बीजेपी से लेकर सपा-बसपा और पश्चिम बंगाल-केरल के कथित मार्क्सवादी भी बढ़-चढ़ कर आगे रहते हैं। इसलिए एक धीमी प्रक्रिया में सरकारी शिक्षा की हालत को ख़राब किया जा रहा है और निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। गली-गली में खुलती जा रही शिक्षा की दुकानें (प्राईवेट स्कूल) इसका उदाहरण हैं। शिक्षा को निजी क्षेत्र के लिए पैसा कमाने की दुकानों में तब्दील करके इसे आम आदमी के बच्चों की पहुँच से लगातार बाहर धकेला जा रहा है। दिल्ली नगर निगम द्वारा स्कूलों की ज़मीन मॉल, मल्टीप्लेक्सों, होटलों को बेचना इसी प्रक्रिया की एक कड़ी है।