प्रधानमन्त्री आवास योजना की हक़ीक़त – दिल्ली के शाहबाद डेरी में 300 झुग्गियों को किया गया ज़मींदोज़!
देशभर में ग़रीब बस्तियों पर क़हर

 सिमरन

2019 के चुनाव से पहले जहाँ एक तरफ़ “मन्दिर वहीं बनायेंगे” जैसे साम्प्रदायिक फ़ासीवादी नारों की गूँज सुनायी दे रही है, वहीं 2014 में आयी मोदी सरकार के विकास और “अच्छे दिनों” की सच्चाई हम सबके सामने है। विकास का गुब्बारा फुस्स हो जाने के बाद अब मोदी सरकार धर्म के नाम पर अपनी चुनावी गोटियाँ लाल करने का पुराना संघी फ़ॉर्मूला लेकर मैदान में कूद पड़ी है। न तो मोदी सरकार बेरोज़गारों को रोज़गार दे पायी है, न आम आबादी को महँगाई से निज़ात दिला पायी है और न ही झुग्गीवालों को पक्के मकान दे पायी है। इसीलिए अब इन सभी अहम मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए मन्दिर का सहारा लिया जा रहा है। मोदी सरकार ने 2014 में चुनाव से पहले अपने घोषणापत्र में लिखे झुग्गी की जगह पक्के मकान देने का वायदा तो पूरा नहीं किया, उल्टा 2014 के बाद से दिल्ली के साथ-साथ देश भर में मेहनतकश आबादी के घरों को बेदर्दी से उजाड़ा गया है। हाल ही में 5 नवम्बर 2018 को दिल्ली के शाहबाद डेरी इलाक़े के सैकड़ों झुग्गीवालों के घरों को डीडीए ने ज़मींदोज़ कर दिया। 300 से भी ज़्यादा झुग्गियों को चन्द घण्टों में बिना किसी नोटिस या पूर्वसूचना के अचानक मिट्टी में मिला दिया गया। सालों से शाहबाद डेरी के मुलानी कैम्प की झुग्गियों में रहने वाले लोगों को सड़क पर पटक दिया गया। न तो केन्द्र सरकार ने झुग्गीवालों के रहने के लिए कोई इन्तज़ाम किया और न ही राज्य सरकार ने उनकी टोह ली। आज भी सरकार द्वारा मुलानी कैम्प के बाशिन्दों को किसी भी प्रकार की कोई राहत मुहैया नहीं करायी गयी है। दिल्ली जैसे महानगर में पिछले कई सालों में सर्दी शुरू होने के साथ झुग्गियाँ टूटने की ऐसी ख़बरें जैसे आम बात बन चुकी है। आवास एवं भूमि अधिकार नेटवर्क (हाउसिंग एण्ड लैण्ड राइट्स नेटवर्क) की फ़रवरी 2018 की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में अकेले 2017 में ही राज्य एवं केन्द्र सरकारों द्वारा 53,700 झुग्गियों को ज़मींदोज़ किया गया जिसके चलते 2.6 लाख से ज़्यादा लोग बेघर हो गये। इस रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में हर घण्टे 6 घरों को तबाह किया गया। ख़ुद आवास एवं भूमि अधिकार नेटवर्क की रिपोर्ट यह कहती है कि ये आँकड़े सिर्फ़ उन घटनाओं से हासिल हो पाये हैं जो शोध में उनके सामने आयी। यानी ये आँकड़े बस प्राि‍तनिधिक हैं, झुग्गियाँ तोड़े जाने की न जाने कितनी घटनाएँ दर्ज ही नहीं हुई होंगी। इस समस्या की गम्भीरता से सरकार और प्रशासन किस क़दर उदासीन है इसका पता इस बात से लग जाता है कि न तो झुग्गियों को ज़मींदोज़ करने से पहले और न ही बाद में झुग्गीवालों के पुनर्स्थापन के लिए सरकार कोई क़दम उठाती है। 2016 के मुकाबले 2017 में झुग्गियों को तोड़े जाने की कार्यवाही और तेज़ हुई है। और यह सब तब अंजाम दिया जा रहा है, जब मोदी सरकार 2022 तक प्रधानमन्त्री आवास योजना के तहत सबको घर देने की डींग हाक रही है। लोगों को पक्के मकान देना तो दूर की बात है, सरकार उनकी मेहनत की पाई-पाई से जोड़कर खड़ी की गयी झुग्गियों को तोड़ने की कवायद और तेज़ कर रही है। कई दशकों से एक ही झुग्गी-बस्ती में रहने वाले हज़ारों मेहनतकशों के घरौंदे रौंद दिये जाते हैं और सरकार इसे कभी अतिक्रमण हटाने तो कभी सौन्दर्यीकरण के नाम पर जायज़ ठहरा देती है। शाहबाद डेरी के मुलानी कैम्प की बात हो या पिछले कुछ सालों में शकूर बस्ती, शास्त्री पार्क, वज़ीरपुर, कठपुतली कॉलोनी जैसी अन्य झुग्गी-बस्तियों की बात हो। दिल्ली की कड़ाके की ठण्ड में मेहनतकश-ग़रीब आबादी के सिर से छत छीन उसे सड़कों पर जीने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। और सबसे हैरत की बात यह है कि मेहनतकश-ग़रीब आबादी के घरों को शहरों के सौन्दर्यीकरण और झुग्गी-मुक्त शहर बनाने के नाम पर उजाड़ा गया है। 2017 में उजाड़ी गयी झुग्गियों में से 46 प्रतिशत को शहरों के सौन्दर्यीकरण के नाम पर ज़मींदोज़ किया गया। शहरों की रफ़्तार जिन कन्धों पर टिकी होती है, उसी मेहनतकश आबादी के घरों को शहर की सुन्दरता पर धब्बा समझा जाता है। जिस मेहनतकश आबादी के बलबूते दिल्ली जैसे महानगर की चमचमाती इमारतों से लेकर इसकी फै़क्टरियों में काम चलता है, बसों से लेकर मेट्रो, सड़क की सफ़ाई, घरों की सफ़ाई से लेकर गटर की सफ़ाई तक, सब्ज़ी से लेकर ज़िन्दगी की हर ज़रूरत का सामान घरों तक पहुँचता है उसी आबादी के घरों को यह व्यवस्था गन्दगी समझती है। सुई से लेकर जहाज़ तक बनाने वाले मज़दूरों के बच्चों के सर से ही सबसे पहले छत छीन ली जाती है। इससे ज़्यादा विरोधाभास की बू किस तथ्य से आ सकती है। कामनवेल्थ खेलों के समय उजाड़ी गयी झुग्गियों की बात हो या मेहनतकश आबादी के रहने वाले इलाक़ों के आगे नीले रंग का टीन लगाकर छुपाने की कायरता हो।

इस देश की सरकारें चाहे वो किसी पार्टी की ही क्यों न हो, ने हरहमेशा मेहनतकश आबादी की पीठ में छुरा भौंका है। इस देश का संविधान सबको बराबरी का हक़ देता है, यह बात कागज़ों पर ज़रूर पढ़ने को मिल जाती है। लेकिन हक़ीक़त से सामना होने पर यह हवा-हवाई बात ही साबित होती है। और इसका सबसे बड़ा सबूत ग़रीबों की बस्तियों पर चलाये जाने वाले बुलडोज़र है। मुम्बई की कम्पा कोला सोसाइटी के बारे में शायद आपने अख़बारों में पढ़ा होगा, यह मुम्बई में ग़ैर-क़ानूनी रूप से बनायी गयी एक इमारत है जिसे मुम्बई म्यूनिसिपैलिटी 2002 से तोड़ नहीं पायी है क्योंकि इस इमारत में रहने वाले लोगों ने कोर्ट जाकर अपने और अपने बच्चों के भविष्य की गुहार लगाते हुए राहत देने की अर्ज़ी की है। यह मामला अभी भी कोर्ट में चल रहा है। और इस इमारत में रहने वाले लोग आज भी अपने घर की छत के नीचे चैन की ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं। लेकिन झुग्गियों के ग़ैर-क़ानूनी होने की दुहाई देते हुए न सिर्फ़ मुम्बई में बल्कि दिल्ली, चेन्नई, कलकत्ता और भारत के विभिन्न शहरों में आये दिन मेहनतकश आबादी को घर से बेघर किया जा रहा है। और ऐसा करते हुए हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट के सारे निर्देशों का खुला मख़ौल उड़ाया जा रहा है। संविधान का अनुच्छेद 21 आवास के अधिकार को जीवन के अधिकार (राइट टू लाइफ़) का अभिन्न अंग मानता है। इसके बावजूद मेहनतकश आबादी के घरों को बेरोकटोक तोड़ा जा रहा है। मार्च 2017 से लेकर सितम्बर 2017 के बीच डीडीए ने दिल्ली के किशनगढ़, बलजीत नगर और शास्त्री पार्क में बिना किसी पूर्वसूचना के झुग्गियों को अतिक्रमण हटाने के नाम पर तोड़ दिया। ग़ौर करने की बात है कि दिल्ली हाई कोर्ट के द्वारा जारी एक आॅर्डर के तहत किसी वैकल्पिक रहने के इन्तज़ाम के बिना किसी भी झुग्गी को न तोड़े जाने के निर्देश हैं। लेकिन इन सभी निर्देशों का खुला उल्लंघन करते हुए कड़कड़ाती सर्दी में लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है। इतना ही नहीं झुग्गियों को तोड़ने से पहले न ही झुग्गीवालों को पर्याप्त समय दिया जाता है कि वो अपना सामान और अपनी जमा-पूँजी अपने घरों से निकाल पायें। अक्टूबर 2017 में डीडीए ने कठपुतली कॉलोनी में 2000 घरों को तोड़ने के लिए बड़ी निर्ममता के साथ भारी पुलिस बल और आँसू गैस का इस्तेमाल किया। कई दशकों से वहाँ रह रहे लोगों की ज़िन्दगी भर की जमा पूँजी को बुलडोज़रों द्वारा रौंद दी गयी और अपने घरों को बख़्श देने की गुहार लगाने वाले झुग्गीवासियों पर आँसू-गैस के गोले और पुलिस की लाठियाँ भाँजी गयीं। पिछले साल के अन्त में फ्लाईओवरों के सौन्दर्यीकरण के नाम पर उनके नीचे सोने वाले लोगों को भी वहाँ से हटा दिया गया।

सिर्फ़ दिल्ली में ही नहीं देश के बाक़ी शहरों में भी हालात ऐसे ही हैं। कलकत्ता में अक्टूबर 2017 में अण्डर-17 फ़ीफ़ा वर्ल्ड कप टूर्नामेण्ट की तैयारी के लिए शहर के सौन्दर्यीकरण के नाम पर पश्चिम बंगाल की सरकार ने 88 कम आय वाले घरों को तोड़ दिया। इसके साथ-साथ 5000 फेरीवालों और 18,000 रिक्शा खींचने वालों को हटा दिया। इतना ही नहीं कलकत्ता पुस्तक मेले के लिए मण्डप और मंच बनाने के लिए 1200 परिवारों के घरों को उजाड़ दिया गया। सड़कें चौड़ी करने के लिए भी झुग्गियों को बेदर्दी से उजाड़ा गया। सबसे ज़्यादा आश्चर्य की बात तो यह है कि लोगों को घर देने के नाम पर ही वड़ोदरा और इन्दौर में बने बनाये घरों को उजाड़ दिया गया। 2017 में प्रधानमन्त्री आवास योजना के तहत लोगों को मकान देने के लिए ज़मीन सुरक्षित करने के नाम पर वड़ोदरा में 3,600 और इन्दौर में 550 मकानों को तोड़ दिया गया। ये सब मकान ग़रीब आबादी से आने वाले लोगों के थे। स्वच्छ भारत मिशन के तहत जनवरी और फ़रवरी 2017 में इन्दौर में 112 ऐसे घरों को तोड़ दिया गया जहाँ शौचालय नहीं थे! चेन्नई में सितम्बर-दिसम्बर 2017 में तमिलनाडु सरकार ने 4,784 परिवारों को जल निकायों की बहाली के नाम पर बेघर कर दिया। ग़ौर करने की बात है कि तोड़े गये घरों में से सभी शहरी ग़रीब आबादी के घर थे। लेकिन जल स्त्रोतों के किनारे सटे वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों को हाथ भी नहीं लगाया गया।

इन सब घटनाओं से जो सवाल पैदा होता है, वो यह है कि शहर आख़िर बनता किससे है? क्या शहरों की झुग्गी-बस्तियों में रहने वाली बहुसंख्य आबादी का इस शहर पर कोई हक़ नहीं? क्या उन हाथों को जो इस शहर को अपनी मेहनत से चलाते हैं, रहने के लिए कच्चा ही सही लेकिन घर देना भी इस व्यवस्था के लिए सम्भव नहीं? क्या झुग्गी-मुक्त शहर बनाने के लिए झुग्गीवालों के सिर से छत छीन लेना एक बेहूदा मज़ाक़ नहीं है? हर चुनाव से पहले झुग्गीवालों की उन्हीं बस्तियों में जाकर वोट माँगने वाले नेता-मन्त्रियों को चुनाव जीत जाने के बाद वही झुग्गियाँ शहर की गन्दगी प्रतीत होती हैं। अतिक्रमण के नाम पर 40 से 50 साल से एक झुग्गी-बस्ती में रह रहे लोगों, जिनके पास वहाँ के वोटर कार्ड से लेकर बिजली का बिल सब है, को रातो-रात वहाँ से खदेड़ दिया जाता है। इससे बड़ी नाइंसाफ़ी क्या हो सकती है। अगर वाक़ई सरकार को झुग्गीवालों की फ़िक्र होती तो उन्हें सडकों पर पटकने की बजाय वो उनके लिए रहने का बन्दोबस्त करती, झुग्गी की जगह उन्हें पक्के मकान देती। लेकिन पब्लिक लैण्ड यानी सार्वजानिक ज़मीन को अतिक्रमण मुक्त कराने और फिर बड़े-बड़े बिल्डरों को बहुमंज़िला इमारत या मॉल बनाने के लिए बेचने में कोई हिचक न रखने वाली सरकार को मेहनतकश आबादी की क्या फ़िक्र। वास्तव में जिस पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर आज हम जी रहे हैं, उसमें मेहनतकशों का शोषण सिर्फ़ उनके काम करने की जगह पर ही नहीं होता बल्कि कारख़ानों, फै़क्टरियों से निकल कर जिन दड़बेनुमा झुग्गियों में उन्हें जीने के लिए विवश किया जाता है वहाँ भी लगातार उनकी मानवीय गरिमा पर चोट की जाती है। इस व्यवस्था में मज़दूरों और मेहनतकशों की मेहनत की लूट काग़ज़ों पर ग़ैर-क़ानूनी होने के बावजूद भी उचित मानी जाती है। ठीक उसी तरह जिस तरह उनके घरों को ग़ैर-क़ानूनी या अतिक्रमण बता कर कभी भी ज़मींदोज़ किये जाने की कार्यवाही को उचित ठहराया जाता है। अपने आप को मज़दूर नम्बर 1 कहने वाले प्रधानमन्त्री मोदी और ख़ुद को आम आदमी कहने वाले मुख्यमन्त्री को दिल्ली की मेहनतकश आबादी को यह जवाब देना ही होगा कि जब उनके घरौंदों को उजाड़ा जा रहा था तब वे चुप क्यों थे। मोदी सरकार की प्रधानमन्त्री आवास योजना की हक़ीक़त यही है। यही इस देश की मेहनतकश आबादी की ज़िन्दगी का कड़वा सच है कि अपनी मेहनत से शहरों को चलाने और उसकी चकाचौंध को बरकरार रखने वाले हाथों के घर ही इस व्यवस्था की सेवा में लगी सरकार को शहरों की गन्दगी मालूम पड़ते हैं।

मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2018


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments