Category Archives: संशोधनवाद

दिल्ली में म्यूनिसिपल कर्मचारियों की हड़ताल – भाजपा का मज़दूर-कर्मचारी-विरोधी चेहरा एक बार फिर हुआ बेनक़ाब!

एमसीडी के ये कर्मचारी अपनी जान जोखिम में डालकर इन कामों को अंजाम देते हैं लेकिन दिल्ली में “चार इंजन” की सरकार इन्हें बुनियादी सुरक्षा देने में नाकाम है। ड्यूटी के दौरान जोखिम भरे हालात में काम करने वाले कर्मचारियों की मौत होने पर उनके परिजनों को नौकरी तक नहीं दी जाती है। बीमारी की स्थिति में, काम पर न आ पाने की सूरत में, जितने दिन काम पर नहीं आये उतने दिन की तनख़्वाह काट ली जाती है। “एक देश एक टैक्स” और “एक देश एक चुनाव” का राग अलापने वाली भाजपा सरकार देश की राजधानी में इन कर्मचारियों को कहीं 12 हज़ार रुपये तो कहीं 20 हज़ार रुपये में खटा रही है लेकिन “एक काम एक वेतन” नहीं दे रही है! एक ही विभाग के अन्दर छ: अलग अलग वेतनमान लागू होते हैं। 5200 कर्मचारियों में मात्र 212 लोगों को 27 हज़ार रुपये वेतन मिलता है।

फ़िलिस्तीन के समर्थन में हो रहे प्रदर्शनों पर केरल सीपीएम सरकार का दमन बदस्तूर जारी!

देश के अन्य राज्यों में सीपीएम और उसके छात्र संगठन व ट्रेड यूनियन चना जोर गरम बाते करते हैं, पर केरल में आते ही इनकी आँखों पर गाँधारी वाली पट्टी बन्ध जाती है। केरल में सीपीएम ने भी अन्य चुनावबाज़ पार्टियों की तरह ही उदारीकरण-निजीकरण की जन-विरोधी नीतियों को धड़ल्ले से लागू किया है और लम्बे समय से सत्ता की मलाई चाट रही है। साथ ही “प्रगतिशीलता का चोला” ओढ़कर इन्होनें आम जनता में भी भ्रम बना कर रखा था, जो अब टूटता जा रहा है। सत्ता बचाने की ख़ातिर अब इनके मुख्यमन्त्री खुलकर खुशी-खुशी मोदी और अडाणी के साथ मंच साझा करते हैं। बीते 2 मई को नरेन्द्र मोदी ने केरल के तिरुवनन्तपुरम में विझिनजाम अन्तर्राष्ट्रीय बन्दरगाह का उद्घाटन किया। इसी कार्यक्रम में केरल के मुख्यमन्त्री पिनाराई विजयन, अडानी समूह के अध्यक्ष गौतम अडाणी के साथ मौजूद थे। बता दें कि इसी विझिनजाम अन्तरराष्ट्रीय बन्दरगाह परियोजना के ख़िलाफ़ 2022 में सीपीएम और भाजपा ने मिलकर प्रदर्शन भी किया था। इसमें सीपीएम के ज़िला सचिव अनवूर नागप्पन और भाजपा ज़िलाध्यक्ष वी.वी राजेश ने एक साथ भागीदारी की थी। फ़ासीवाद और सामाजिक-फ़ासीवाद की गलबहियाँ देखते ही बन रही थी!

मज़दूर वर्ग को एक दिवसीय हड़तालों के वार्षिक अनुष्ठानों से आगे बढ़ना होगा!

हड़ताल की पाठशाला ही मज़दूर वर्ग को मालिकों की पूरी जमात को दुश्मन के तौर पर देखना सिखलाती है। लेनिन बताते हैं कि “हड़ताल मज़दूरों को सिखाती है कि मालिकों की शक्ति तथा मज़दूरों की शक्ति किसमें निहित होती है; वह उन्हें केवल अपने मालिक और केवल अपने साथियों के बारे में ही नहीं, बल्कि तमाम मालिकों, पूँजीपतियों के पूरे वर्ग, मज़दूरों के पूरे वर्ग के बारे में सोचना सिखाती है। जब किसी फ़ैक्टरी का मालिक, जिसने मज़दूरों की कई पीढ़ियों के परिश्रम के बल पर करोड़ों की धनराशि जमा की है, मज़दूरी में मामूली वृद्धि करने से इन्कार करता है, यही नहीं, उसे घटाने का प्रयत्न तक करता है और मज़दूरों द्वारा प्रतिरोध किये जाने की दशा में हज़ारों भूखे परिवारों को सड़कों पर धकेल देता है, तो मज़दूरों के सामने यह सर्वथा स्पष्ट हो जाता है कि पूँजीपति वर्ग समग्र रूप में पूरे मज़दूर वर्ग का दुश्मन है और मज़दूर केवल अपने ऊपर और अपनी संयुक्त कार्रवाई पर ही भरोसा कर सकते हैं।

देशभर में 9 जुलाई को हुई ‘आम हड़ताल’ से मज़दूरों ने क्या पाया?

हमें समझना होगा कि हड़ताल मज़दूर वर्ग का एक बहुत ताक़तवर हथियार है, जिसका इस्तेमाल बहुत तैयारी और सूझबूझ के साथ किया जाना चाहिए। हड़ताल के नाम पर एक या दो दिन की रस्मी क़वायद से इस हथियार की धार ही कुन्द हो सकती है। ऐसी एकदिनी हड़तालें मज़दूरों के गुस्से की आग को शान्त करने के लिए आयोजित की जाती हैं, ताकि कहीं मज़दूर वर्ग के क्रोध की संगठित शक्ति से इस पूँजीवादी व्यवस्था के ढाँचे को ख़तरा न हो। ये एकदिवसीय हड़ताल इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा रस्मी क़वायद है, जो मज़दूरों को अर्थवाद के जाल से बाहर नहीं निकलने देने का एक उपक्रम ही साबित होती है। यह अन्ततः मज़दूरों के औज़ार हड़ताल को भी धारहीन बनाने का काम करती है।

मई दिवस की है ललकार, लड़कर लेंगे सब अधिकार!

आज़ादी के बाद से केन्द्र व राज्य में चाहे जिस पार्टी की सरकार रही हो, सभी ने पूँजीपति वर्ग के पक्ष में मज़दूरों के मेहनत की लूट का रास्ता ही सुगम बनाया है। लेकिन 1990-91 में आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद और ख़ास-कर मोदी के सत्तासीन होने के बाद से मज़दूरों पर चौतरफ़ा हमला बोल दिया गया है। चार नए लेबर कोड के ज़रिये मज़दूरों के 8 घण्टे काम के नियम, यूनियन बनाने, कारख़ानों में सुरक्षा उपकरण आदि के अधिकार को ख़त्म कर दिया गया है। विरोध प्रदर्शनों को कुचलने लिए प्रशासन और पूँजीपतियों को वैध-अवैध तरीक़ा अपनाने की खुली छूट दे दी गयी है। जर्जर ढाँचे और सुरक्षा उपकरणों की कमी के चलते कारख़ाने असमय मृत्यु और अपंगता की जगहों में तब्दील हो गये हैं। हवादार खिड़कियाँ, ऊँची छत, दुर्घटना होने पर त्वरित बचाव के साधन नहीं हैं।

केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों ने एक बार फिर से की ग़द्दारी! 20 मई की एकदिवसीय देशव्यापी हड़ताल स्थगित!

दुअन्नी-चवन्नी की लड़ाई लड़ते-लड़ते मज़दूरों की जुझारू चेतना की धार भोथरी कर देने वाले और उन्हें इसी पूँजीवादी व्यवस्था में जीते रहने की शिक्षा देने वाले ट्रेड यूनियनों के ये मौक़ापरस्त, अर्थवादी, सुधारवादी, दलाल, धन्धेबाज़ नेता अब महज़ आर्थिक माँगों के लिए भी दबाव बना पाने की इच्छाशक्ति और ताक़त खो चुके हैं। संसदीय वामपन्थी और उनके सगे भाई ट्रेड यूनियनवादी मौक़ापरस्त शुरू से ही मज़दूर आन्दोलन के भितरघातियों के रूप में पूँजीवादी व्यवस्था की दूसरी-तीसरी सुरक्षा पंक्ति की भूमिका निभाते रहे हैं। आज इनका यह चरित्र इतना नंगा हो चुका है कि मज़दूरों को ये ठग और बरगला नहीं पा रहे हैं। मज़दूरों की भारी असंगठित आबादी के बीच तो इनकी उपस्थिति ही बहुत कम है। विकल्पहीनता में कहीं-कहीं मज़दूर इन बगुला भगतों के चक्कर में पड़ भी जाते हैं, तो जल्दी ही उनकी असलियत पहचानकर दूर भी हो जाते हैं। यह एक अच्छी बात है। लेकिन चिन्ता और चुनौती की बात यह है कि सही नेतृत्व की कमज़ोरियों और बिखराव के कारण मज़दूरों का क्रान्तिकारी आन्दोलन अभी संगठित नहीं हो पा रहा है। किसी विकल्प के अभाव, अपनी चेतना की कमी और संघर्ष के स्पष्ट लक्ष्य की समझ तथा आपस में एका न होने के कारण बँटी हुई मज़दूर आबादी अभी धन्धेबाज़ नेताओं के जाल में फँसी हुई है।

केरल की आशाकर्मियों का संघर्ष ज़िन्दाबाद! नकली मज़दूर पार्टी सीपीएम और इसकी ट्रेड यूनियन सीटू का दोमुहाँपन एक बार फिर उजागर!!

केरल में चल रहे आशाकर्मियों के आन्दोलन ने एक बार फ़िर से सीपीएम और सीटू जैसे ग़द्दारों को बेपर्द करने का काम किया है। आज देश भर में आन्दोलनरत स्कीम वर्करों के बीच इन जैसे विभीषणों, जयचन्दों और मीर जाफ़रों की सच्चाई उजागर करना बेहद ज़रूरी कार्यभार बनता है। किसी भी जुझारू आन्दोलन के लिए बुनियादी ज़रूरत है एक इन्क़लाबी और स्वतन्त्र यूनियन का गठन। सभी चुनावबाज़ पार्टियों से स्वतन्त्र यूनियन ही बिना किसी समझौते के किसी संघर्ष को उसके सही मुक़ाम तक पहुँचाने में सक्षम हो सकती है। केरल की आशाकर्मियों को हमारी दोस्ताना सलाह है कि वे हमारी बातों पर ज़रूर ग़ौर करें। ‘दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन’ केरल की आशाकर्मियों की माँगों का पुरज़ोर समर्थन करती है। बकाये के भुगतान; मानदेय बढ़ोत्तरी, सामाजिक सुरक्षा और नियमितीकरण की माँगें हमारी बेहद ही बुनियादी और ज़रूरी माँगें हैं। दिल्ली की आँगनवाड़ीकर्मी अपनी जायज़ माँगों के लिए संघर्षरत केरल की जुझारू आशाकर्मी बहनों के साथ हर क़दम पर खड़ी हैं।

केरल में ग़द्दार वामपन्थ के कारनामे – ‘धन्धा करने की आसानी’ को बढ़ावा, आशा कार्यकर्ताओं का दमन, अवसरवादियों का स्वागत

आशा कर्मियों की हड़ताल पर सबसे उग्र हमला सीटू नेताओं की ओर से हुआ। सामाजिक-जनवादियों के बीच के श्रम विभाजन के अनुसार, वामपन्थी सरकार पूरी तरह से नवउदारवादी नीतियों को लागू करके पूँजीपति वर्ग की सेवा करती है। उसके ट्रेड यूनियन मोर्चे के रूप में, सीटू का ‘वर्गीय कर्तव्य’ यह सुनिश्चित करना होता है कि मज़दूरों पर लगाम कसी रहे और वे इन नीतियों का विरोध क़तई न कर पायें। इसलिए, कोई भी हड़ताल जो सीटू की हड़तालों के ‘अनुष्ठानिक’ दायरे से आगे बढ़ती है, पूँजीपति वर्ग और सामाजिक-जनवाद के लिए ख़तरा बन जाती है। ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं कि सीटू के राज्य उपाध्यक्ष हर्षकुमार ने हड़ताल की एक महिला नेता को “संक्रामक रोग फैलाने वाला कीट” कहकर पुकारा।

The Renegade ‘Left’ in Kerala – Promoting ‘Ease of Doing Business’, Suppressing ASHA Workers, Courting Opportunists.

The Indian institutionalised Left, led by the CPIM, had abandoned Marxism and drifted into the line of social democracy decades ago. Lenin remarked that social democracy is the renegade inside the working class which, in the guise of a working class party, carries out bourgeois policies. This renegade nature of the Left is being unmasked before the public every day. Their prostration before Capital is complete. In power, they work as a facilitator to the bourgeoisie in ensuring the smooth exploitation of workers. Using the party structure and trade unions, they make sure that the working class is kept under control.

हालिया मज़दूर आन्दोलनों में हुए बिखराव की एक पड़ताल

आज के दौर के अलग-अलग कारख़ानों में अलग से हड़ताल करके जीतना पहले के मुकाबले कहीं ज़्यादा मुश्किल है। अगर आज मज़दूर आन्दोलन को आगे बढ़ाना है तो समूचे सेक्टर, या ट्रेड यानी, समूचे पेशे, के आधार पर सभी मज़दूरों को अपनी यूनियन व संगठन बनाने होंगे। इसके ज़रिये ही कारख़ानों में यूनियनों को भी मज़बूत किया जा सकता है और कारख़ाना-आधारित संघर्ष भी जीते जा सकते हैं। इसी आधार पर ठेका, कैजुअल, परमानेन्ट मज़दूरों को साथ आना होगा और अपने सेक्टर और इलाक़े का चक्का जाम करना होगा। तभी मालिकों और सरकार को झुकाया जा सकता है। एक फैक्ट्री के आन्दोलन तक ही सीमित होने के कारण उपरोक्त तीनों आन्दोलन आगे नहीं बढ़ सके। ऐसी पेशागत यूनियनों के अलावा, इलाकाई आधार पर मज़दूरों को संगठित करते हुए उनकी इलाकाई यूनियनों को भी निर्माण करना होगा। इसके ज़रिये पेशागत आधार पर संगठित यूनियनों को भी अपना संघर्ष आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी।