दुनिया की सबसे त्रासदीपूर्ण-अमानवीय जीवन स्थितियों में रहने वाली शरणार्थी आबादी के ख़िलाफ़ दुनिया के दक्षिणपन्थी शासकों का सबसे क्रूर व्यवहार
अपूर्व मालवीय
2 सितम्बर 2015 को तुर्की के बोडरम समुद्र तट पर तीन साल का सीरियाई बच्चा आयलान कुर्दी लाल टी-शर्ट और नीली निक्कर में औंधे मुँह समुद्र तट पर मृत पड़ा था। यह फोटो तुर्की की पत्रकार नीलूफ़र ने खींची थी और कुछ ही घण्टों में यह तस्वीर दुनियाभर की मीडिया, सोशल मीडिया और अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर वायरल हो गयी। इस तस्वीर ने पूरी दुनिया को झकझोर दिया था। यह कुर्द परिवार मूल रूप से सीरिया के कोबानी शहर का निवासी था जो ISIS और कुर्द लड़ाकों के बीच युद्ध से तबाह हो गया था। यह परिवार तुर्की से ग्रीस (यूरोपीय यूनियन) के लिए एक छोटी-सी रबर बोट से निकला था। नाव में 12 शरणार्थी थे। नाव डगमगा गयी और समुद्र में पलट गयी। जिसमें आयलान, उसकी माँ और पाँच साल के भाई ग़ालिब की मौत हो गयी। सिर्फ़ आयलान के पिता ही जीवित बचे। बाद में उन्होंने कहा था कि “मेरे बच्चे मेरी हाथों से फिसल गये… मैं उन्हें बचा नहीं सका।” आयलान कुर्दी की तस्वीर दुनियाभर के शरणार्थी संकट का प्रतीक बन गयी। आयलान कुर्दी की मौत ने दुनिया को यह दिखाया कि शरणार्थी संकट केवल आँकड़े नहीं, इन्सानों की ज़िन्दगियाँ हैं।
आज पूरी दुनिया में शरणार्थियों की स्थिति अत्यन्त गम्भीर और जटिल है। इस स्थिति को और भी गम्भीर, अमानवीय व त्रासदीपूर्ण बनाने में दुनियाभर के दक्षिणपन्थी और फ़ासीवादी विचारधारा वाले शासकों की बहुत बड़ी भूमिका है। ग़ज़्ज़ा ,सीरिया, यमन, सूडान, यूक्रेन, म्यांमार, इथियोपिया आदि देशों में चल रहे युद्ध व गृहयुद्ध से करोड़ों की संख्या में लोगों का विस्थापन हुआ है और वे त्रासदीपूर्ण शरणार्थी जीवन जीने के लिए मजबूर हैं। यूएनएचसीआर (UNHCR – संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त) की नवीनतम रिपोर्ट (2024 के अन्त तक के आँकड़े) के अनुसार, दुनिया में जबरन विस्थापित लोगों की संख्या 120 मिलियन (12 करोड़) से अधिक हो चुकी है, जिनमें से लगभग 40 मिलियन (4 करोड़) शरणार्थी हैं।
शरणार्थियों के सन्दर्भ में अन्तर्राष्ट्रीय क़ानून बने हैं जिनका उद्देश्य उन व्यक्तियों को सुरक्षा प्रदान करना है जो अपने देश में उत्पीड़न, युद्ध या हिंसा के कारण पलायन करने पर विवश होते हैं। यह क़ानून मुख्यतः 1951 की “शरणार्थी संधि” और 1967 के प्रोटोकॉल पर आधारित है। इसके अनुसार किसी शरणार्थी को उस देश में जबरन वापस नहीं भेजा जा सकता जहाँ उसकी जान या स्वतन्त्रता को ख़तरा हो। साथ ही शरणार्थियों को आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार और न्यायिक सुरक्षा का अधिकार भी हासिल है। लेकिन आज दुनियाभर के तमाम दक्षिणपन्थी और फ़ासीवादी शासकों के लिए इन क़ानूनों का कोई महत्त्व नहीं है। ये अपने राजनीतिक हितों के लिए लाखों की आबादी को नारकीय हालात में मरने के लिए छोड़ सकते हैं। इसमें अब मोदी के सत्ता में आने के बाद भारत का नाम भी जुड़ गया है।
रोहिंग्या शरणार्थियों का मामला
यूनाइटेड नेशन ने इन्हें “दुनिया का सबसे प्रताड़ित अल्पसंख्यक समुदाय” माना है। ग़ज़्ज़ा की तरह रोहिंग्या शरणार्थियों का मामला भी आज के समय का एक सबसे संवेदनशील और गम्भीर मानवाधिकार संकट है। रोहिंग्या मूलतः म्यांमार (बर्मा) के रखाइन प्रांत में रहने वाला एक मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय है, जिन्हें म्यांमार की सरकार नागरिक नहीं मानती और उन्हें दशकों से व्यवस्थित भेदभाव, हिंसा और विस्थापन का सामना करना पड़ा है। 1982 में म्यांमार में बने नागरिकता क़ानून के तहत रोहिंग्या समुदाय को म्यांमार का नागरिक नहीं माना गया। उन्हें “अवैध बांग्लादेशी” कहा गया, जबकि वे पीढ़ियों से म्यांमार में रह रहे थे। रोहिंग्या लोगों पर शादी, यात्रा, शिक्षा, रोज़गार, धार्मिक क्रियाकलाप और चिकित्सा सेवाओं पर प्रतिबन्ध लगाये गये। उन्हें म्यांमार में जबरन मज़दूरी, बलात्कार, आगजनी, और हत्या जैसे अत्याचार झेलने पड़े हैं। अगस्त 2017 में म्यांमार सेना ने “क्लियरेंस ऑपरेशन” चलाया, जिसे मानवाधिकार संगठनों ने जातीय सफ़ाया कहा। क़रीब 7 लाख से अधिक रोहिंग्या सीमा पार कर बांग्लादेश भागे। इनमें अधिकतर महिलाएँ, बच्चे और बुज़ुर्ग थे। वर्तमान में 10 लाख से अधिक रोहिंग्या शरणार्थी अब भी बांग्लादेश के मुख्यतः कॉक्सबाजार और बाशन चार के शरणार्थी शिविरों में बेहद अमानवीय स्थितियों में रहने को मजबूर हैं।
भारत में लगभग 40,000 रोहिंग्या शरणार्थी दिल्ली, जम्मू, हैदराबाद, और हरियाणा के मेवात में हैं। कई राज्यों में उनके पास यूएनएचसीआर कार्ड हैं, लेकिन नागरिकता, राशन, शिक्षा, रोज़गार आदि सुविधाओं से वंचित हैं। इनकी वापसी की प्रक्रिया ठप है क्योंकि म्यांमार अब भी उन्हें नागरिकता देने या सुरक्षा की गारण्टी देने को तैयार नहीं है। वहीं दूसरी तरफ़ मोदी सरकार ने कई बार रोहिंग्या को “सुरक्षा ख़तरा” मानते हुए उन्हें जबरन वापस भेजने की कोशिश की है। यह जानते हुए भी कि बांग्लादेश उन्हें स्वीकार नहीं करेगा और म्यांमार में वे जीवित नहीं रह पायेंगे। मोदी सरकार एक ऐसी आबादी को “सुरक्षा ख़तरा” बता रही है जो अपनी बुनियादी जरूरतों तक से महरूम है! जिसे शिक्षा- स्वास्थ्य तो क्या दो वक़्त के भोजन तक न मिलने का संकट है!
दुनिया के कुछ फ़ासीवादी और दक्षिणपन्थी शासकों का शरणार्थियों के प्रति रवैय्या
शरणार्थियों के साथ बेहद असंवेदनशीलता से पेश आने वाले दुनिया के और भी देश हैं। सबसे ज़रूरी और सामान्य बात इसमें यह है कि इन सभी देशों के शासक धुर दक्षिणपन्थी और अति राष्ट्रवादी विचारों वाले हैं। हंगरी के विक्टर ओर्बान, जिनकी विचारधारा उग्र राष्ट्रवादी, यूरो-विरोधी, इस्लाम-विरोधी है, ने 2015 में सीरिया संकट के दौरान, हंगरी में बाड़ लगा दी ताकि शरणार्थी न घुस सकें। इन्होंने शरणार्थियों को “आक्रमणकारी” कह कर प्रचार किया और यूरोपीय संघ की शरणार्थी पुनर्वास योजना का तीखा विरोध किया। हंगरी में शरणार्थियों को लगभग कोई क़ानूनी या सामाजिक सुरक्षा हासिल नहीं है। पोलैण्ड में पीस पार्टी – कैथोलिक राष्ट्रवाद की हिमायती है। इसने पश्चिमी एशिया के और अफ्रीकी शरणार्थियों को प्रवेश न देने की नीति बना रखी है। 2021 में बेलारूस-पोलैण्ड सीमा पर शरणार्थियों को कँटीली बाड़ों के पीछे भूखा-प्यासा छोड़ दिया गया था। इटली में जियोर्जिया मेलोनी की ब्रदर्स ऑफ इटली पार्टी है, जिसकी विचारधारा राष्ट्रवादी फासीवादी है, ने भूमध्य सागर से आने वाले शरणार्थियों के जहाज़ों को बंदरगाहों में प्रवेश देने से मना कर दिया। यहाँ तक कि शरणार्थियों के बचाव के लिए चलाये जाने वाले विभिन्न अन्तरराष्ट्रीय एनजीओ के बचाव अभियानों को अवैध घोषित कर दिया। इटली में अफ्रीका और पश्चिम एशिया से आने वाले प्रवासी जहाज़ों को जबरन वापस लौटाया जाता है। संयुक्त राज्य अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप शासनकाल के दौरान मेक्सिको सीमा पर दीवार बनायी जाती है। “ज़ीरो टॉलरेंस” नीति, के तहत बच्चों को उनके माता-पिता से अलग कर हिरासत में लिया गया। हाल ही में कई मुस्लिम बहुल देशों के लोगों पर अमेरिका में प्रवेश पर प्रतिबन्ध (“मुस्लिम बैन”) लगाया गया है। तुर्की में रेसेप तैय्यप एर्दोआन की सत्ता है जो इस्लामिक दक्षिणपन्थी है। तुर्की में सबसे ज़्यादा सीरियाई शरणार्थी (34 लाख) हैं, लेकिन हाल के वर्षों में शरणार्थियों के प्रति सामाजिक असन्तोष और नस्लीय हमलों में वृद्धि हुई है। कई बार सीमा सील कर दी जाती है, और लौटाये जाने की धमकी दी जाती है। शरणार्थियों का राजनीतिक सौदेबाज़ी के रूप में उपयोग (यूरोपीय यूनियन से पैसा लेने के लिए) किया जाता है। इसके अलावा ग़ज़्ज़ा में इज़राइल की नेतन्याहू सरकार की बर्बरता आज पूरी दुनिया देख रही है।
फ़ासीवादी और दक्षिणपन्थी शासकों ने अपनी नीतियों से कई मानवीय त्रासदियों, उत्पीड़न-दमन, दंगों और सामूहिक क़त्लेआमों को जन्म दिया है। साथ ही इन सत्ताओं ने सबसे भयंकर स्थितियों में अपने जगह-ज़मीन से उजड़कर रहने वाली, बुनियादी मानवीय सुविधाओं तक से वंचित शरणार्थी आबादी के ख़िलाफ़ सबसे कठोर और बर्बर व्यवहार किया है। ये सत्ताएँ मनुष्यता के अस्तित्व और मानवीय संवेदनशीलता के लिए सबसे बड़ा ख़तरा हैं।
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2025













