एसआईआर के फ़र्जीवाड़े से लाखों प्रवासी मज़दूरों, मेहनतकशों, स्त्रियों, अल्पसंख्यकों के मताधिकार के हनन के बीच बिहार विधानसभा चुनाव
जनता के सामने क्या है विकल्प?

सम्पादकीय अग्रलेख

केन्द्रीय चुनाव आयोग (केचुआ) ने घोषणा की है कि 6 से 11 नवम्बर के बीच बिहार में विधानसभा चुनाव आयोजित कराये जायेंगे। लेकिन इन चुनावों पर जून महीने से ही भाजपा की गोद में बैठे केचुआ द्वारा आयोजित कराये गये स्पेशल इण्टेंसिव रिवीज़न (एसआईआर) की काली छाया मँडरा रही है। एसआईआर के ज़रिये भाजपा सरकार ने बिहार की जनता के उन हिस्सों के मताधिकार को छीनने की साज़िश की है, जो हिस्से ग़रीब दलित, स्त्रियों, अल्पसंख्यकों और प्रवासी मज़दूरों के बीच से आते हैं। ग़ौरतलब है कि ये ही वे समुदाय व वर्ग हैं जिनके बीच से भाजपा को वोट मिलने की सम्भावना कम है और विपक्षी गठबन्धन को वोट मिलने की सम्भावना ज़्यादा है। भाजपा सरकार ने देश के पैमाने पर इसी प्रकार का एसआईआर कराने का इरादा अपने पिट्ठू केचुआ के ज़रिये ज़ाहिर कर दिया है। हम मेहतनकश और मज़दूर जानते हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था में चुनावों के ज़रिये ही किसी बुनियादी बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि मताधिकार छीन लिये जाने का हमारे लिए कोई अर्थ नहीं है। यह हमारा राजनीतिक जनवादी अधिकार है और इसके इस्तेमाल के ज़रिये भी मेहनतकश आबादी अपने स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष को खड़ा करने की जद्दोजहद करती है, जनविरोधी सरकारों व उनकी नीतियों के विरुद्ध अपनी सामूहिक इच्छा को अभिव्यक्त करती है, विविध तात्कालिक सुधारों के लिए दबाव बनाती है, व पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी द्वारा नीति-निर्माण की प्रक्रिया में आंशिक दख़ल रखती है।

एसआईआर: मेहनतकश जनता के मताधिकार को छीनने और चोर दरवाज़े से एनआरसी की साज़िश को लागू करने की फ़ासीवादी चाल

भाजपा की मोदी-शाह नीत फ़ासीवादी सरकार आज इस राजनीतिक जनवादी अधिकार को ही मूलत: रद्द कर देने की फ़िराक़ में है। जनता के बीच मोदी सरकार की बढ़ती अलोकप्रियता के मद्देनज़र संघ परिवार और भाजपा सरकार उन सामाजिक वर्गों व समुदायों के मताधिकार को रद्द करने का प्रयास कर रही है जो उसके विरुद्ध जाने की प्रबल सम्भावना रखते हैं। जनता के मताधिकार को पहले भी भाजपा सरकार ईवीएम घोटाले और अन्य प्रकार के चुनावी फ्रॉड के ज़रिये रद्द करने के कुकर्मों में लिप्त रही है। आज यह बात भारत का हर जागरूक नागरिक जानता है। एसआईआर आयोजित करवाने की ताज़ा मुहिम भी इसी साज़िश का एक हिस्सा है। इसलिए यह समझना हमारे लिए ज़रूरी है कि एसआईआर में क्या घपला किया जा रहा है।

यह सही है कि समय-समय पर वोटर सूची का संशोधन होता है। उसके लिए एसआईआर आयोजित करवाये जाते हैं। ऐसा एसआईआर सरकार ने 2003 में भी आयोजित किया था। उस समय इस बाबत एक दिशा-निर्देश जारी किये गये थे और यह तय किया गया था कि इस प्रक्रिया को आयोजित करने में चुनाव आयोग के कर्तव्य और अधिकार क्या हैं। इस बार हुए एसआईआर में उन सभी दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करते हुए केचुआ ने भाजपा के इशारे पर लाखों वोटरों के नाम सूची से काट दिये हैं। इनमें अधिकांश प्रवासी मज़दूर, औरतें, दलित और मुसलमान हैं। यह प्रक्रिया इसी साल 25 जून से शुरू हुई थी। इस बार के एसआईआर के बारे में कुछ बुनियादी बातों को जान लिया जाय तो मोदी-शाह की साज़िश स्पष्ट हो जाती है।

पहली बात यह है कि पहले होने वाले वोटर सूची संशोधन में केचुआ को वोटरों की वैधता की जाँच व सत्यापन करना होता था। लेकिन इस बार यह ज़िम्मेदारी ख़ुद वोटरों पर ही डाल दी गयी। इस बार उन्हें एक फ़ॉर्म भरना था और 11 में से कोई एक दस्तावेज़ पेश करना था ताकि वे अपने आपको वैध वोटर सिद्ध कर सकें। एक ऐसे राज्य में जहाँ निरक्षरता की दर देश के सभी राज्यों में से सबसे ज़्यादा निरक्षरता दरों में से एक है और जहाँ व्यापक मेहनतकश आबादी के पास पहचान पत्र हैं ही नहीं, वहाँ ऐसी प्रक्रिया का क्या हो सकता था, यह अच्छी तरह से समझा जा सकता है। इन दस्तावेज़ों में शुरुआत में आधार कार्ड को शामिल नहीं किया गया था, जिस पर विपक्षी दलों और नागरिक समाज के संगठनों ने काफ़ी हल्ला मचाया, सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएँ दायर कीं जिसके बाद काफ़ी देर से सुप्रीम कोर्ट ने मजबूर होकर यह फ़ैसला दिया कि आधार कार्ड को भी इन दस्तावेज़ों में शामिल किया जाय। लेकिन तब तक काफ़ी देर हो चुकी थी और इसके कारण मताधिकार से वंचित कर दिये गये सभी वोटर अपनी वैधता को सिद्ध नहीं कर सके।

सुप्रीम कोर्ट को भी हस्तक्षेप इसलिए करना पड़ा कि अपनी पहले से ही काफ़ी गिर चुकी इज़्ज़त को बचाना उसके लिए अनिवार्य था। जनता का पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर न्यायपालिका से भरोसा आम तौर पर देर से उठता है और यह व्यवस्था के लिए दूरगामी तौर पर अच्छी बात नहीं होती है। भाजपा की रंगा-बिल्ला की जोड़ी ने पहले ही सभी पूँजीवादी जनवादी संस्थाओं और प्रक्रियाओं का ऐसा कचरा कर दिया है कि जनता उन पर तनिक भी भरोसा नहीं करती। ऐसे में, न्यायपालिका भी अगर पूरी तरह से भरोसा खो बैठेगी तो यह पूँजीवादी शासन के लिए ख़तरनाक बात होगी। इसलिए मजबूर होकर सुप्रीम कोर्ट को काफ़ी देर से यह फ़ैसला देना ही पड़ा। लेकिन इसके बावजूद क़रीब 0.4 करोड़ मतदाताओं के नाम काट दिये गये और अब बिहार में 7.8 करोड़ वोटरों की जगह मात्र 7.4 करोड़ वोटर हैं। आम तौर पर जब वोटर सूची संशोधन होता है तो मतदाताओं की संख्या बढ़ती है क्योंकि जनसंख्या के बढ़ने के साथ यह होना नैसर्गिक है। लेकिन मोदी-शाह राज में उल्टी गंगा बह रही है। भाजपा सरकार और संघ परिवार द्वारा प्रचार यह किया गया है कि यह सारे बंगलादेशी घुसपैठिये मुसलमान थे! यह बात एसआईआर के पूरे होने के बाद सरासर झूठ साबित हुई है, जिसे हम आगे आँकड़ों से देखेंगे।

दूसरी ख़ास बात जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए वह यह है कि एसआईआर के ज़रिये मोदी-शाह जोड़ी ने वास्तव में वह काम करने का प्रयास किया है जो जनता के जुझारू आन्दोलनों के कारण वे देश में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) और नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के ज़रिये नहीं कर पायी थी। वास्तव में, चुनाव आयोग को नागरिकता की वैधता जाँचने, उसे क़ायम रखने या रद्द करने का कोई अधिकार नहीं है। 2003 एसआईआर के दिशा-निर्देश स्पष्ट शब्दों में यह बात कहते हैं कि नागरिकता निर्धारित करने का अधिकार सिर्फ़ गृह मन्त्रालय को है। शाह का गृह मन्त्रालय देशव्यापी जनविरोध के कारण देश के पैमाने पर एनआरसी नहीं करवा सका, तो अब यह काम चोर-दरवाज़े से एसआईआर के ज़रिये करवाया जा रहा है। यही कारण है कि जब सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने वाले पक्षों ने 2003 के दिशा-निर्देशों को ज़ाहिर करने की बात की तो केचुआ ने कहा कि उसको वह दिशा-निर्देशों वाली फ़ाइल नहीं मिल रही है! यह भी मोदी-राज की एक ख़ासियत है! वही फ़ाइलें मिलती हैं जिसका फ़ायदा मोदी-शाह उठा सकते हैं! बाक़ी या तो ग़ायब हो जाती हैं, या फिर जल जाती हैं! याचिकाकर्ताओं में से एक एसोसियेशन फॉर डेमोक्रैटिक राइट्स ने ही वे दिशा-निर्देश कोर्ट में पेश कर दिये। लेकिन इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट इस पर कोई स्पष्ट स्टैण्ड लेने के बजाय गोल-मोल बातें करता रहा। अब किसी जज को अपना ‘लोया’ करवाने का शौक़ तो है नहीं! और इतिहास गवाह है कि जब न्यायाधीश फ़ासीवादी सत्ता की सेवा करते हैं, तो उसका मेवा भी अवश्य ही मिलता है! बहरहाल, मसले का कुछ नहीं हुआ और एसआईआर के दौरान वास्तव में एनआरसी की साज़िश को ही आंशिक तौर पर लागू किया गया जिसका मक़सद है देश में दमित और शोषित जमातों के मताधिकार को छीन लिया जाय। हिटलर ने भी यहूदियों और राजनीतिक विरोधियों के मताधिकार को खुलेआम छीन लिया था। अब फ़र्क इतना है कि यह काम खुलेआम करने के बजाय पर्देदारी में और घुमा-फिराकर किया जाता है। यह आज के फ़ासीवाद की ख़ासियत है। पूँजीवादी जनवाद के खोल को नष्ट नहीं किया जाता, लेकिन उसकी अन्तर्वस्तु को क्रमिक प्रक्रिया में नष्ट किया जाता है।

तीसरी बात जो इस एसआईआर के बारे में ध्यान देने योग्य है कि इसे जून 2025 में, चुनावों से मात्र 4-5 महीने पहले शुरू किया गया और वह भी उस सीज़न में जब प्रवासी मज़दूरों की बड़ी आबादी काम के लिए बिहार से बाहर होती है। इतने कम समय में इतनी अधिक आबादी वाले राज्य में यह काम सुचारू तरीक़े से हो ही नहीं सकता था, यदि उसे उचित रूप में किया जाता। ख़ैर, यह काम ही दमित और शोषित ग़रीब आबादी का मताधिकार छीनने के लिए किया गया था तो इसे उचित रूप से करने का कोई आग्रह या ऐसी कोई मंशा केचुआ की थी भी नहीं!

एसआईआर का नतीजा औरघुसपैठियोंका फर्जी शोर

एसआईआर का नतीजा अब सामने है। क़रीब 0.4 करोड़ मतदाताओं का मताधिकार छीन लिया गया। 81 लाख को शुरू में ही अपना नाम नहीं मिला; 1.38 करोड़ के पते सन्देहास्पद निकले; 2,258 पतों पर 100 से ज़्यादा वोटर रहते थे! अन्त में, 7.8 करोड़ से घटकर बिहार के मतदाताओं की तादाद रह गयी 7.4 करोड़! किन लोगों के नाम काटे गये? आइए देखते हैं। स्त्री वोटरों का हिस्सा कुल वोटरों में 47.7 प्रतिशत से घटकर 47.2 प्रतिशत रह गया। 43 विधानसभा क्षेत्रों में कुल काटे गये नामों में से 60 प्रतिशत से ज़्यादा नाम औरतों के थे। आम तौर पर, ये दलित, ग़रीब पिछड़ी व मुसलमान औरतें थीं। नतीजतन, आज बिहार की मतदाता सूची में लिंग अनुपात घटकर 892 रह गया है, यानी 1000 पुरुष मतदाताओं पर 892 स्त्री मतदाता! बिहार की आबादी का 16.9 प्रतिशत मुसलमान आबादी है। कुल काटे गये नामों का एक-तिहाई मुसलमानों का नाम है, जैसा कि चुनाव विश्लेषक व विशेषज्ञ योगेन्द्र यादव ने बताया। आम तौर पर, जिन विधानसभा क्षेत्रों में मुसलमान मतदाता बड़ी आबादी में या बहुमत में थे, वहाँ पर कटे नामों का अनुपात पूरे राज्य के सभी विधानसभा क्षेत्रों में कटने वाले नामों की संख्या के औसत से कहीं ज़्यादा था। मिसाल के तौर पर, किशनगंज विधानसभा क्षेत्र में 12 प्रतिशत मतदाता ग़ायब हो गये! शिक़ायतों पर सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा? काफ़ी देर से कहा कि आधार कार्ड को साक्ष्य माना जाय और कहा कि 3.7 लाख शिक़ायती मतदाताओं, जिनके नाम काट दिये गये, को मुफ़्त क़ानूनी सहायता दी जाय! वाह! अब इस फोकट सहायता का क्या करेंगे, मताधिकार तो छीन लिया गया!

अमित शाह और नरेन्द्र मोदी दोनों ने खुलकर कहा कि बिहार चुनाव “घुसपैठियों” को भगाने का चुनाव है, एसआईआर के ज़रिये “घुसपैठियों” की पहचान की जायेगी। इन “घुसपैठियों” से मोदी-शाह का मतलब हमेशा बंगलादेशी मुसलमान था। यानी “घुसपैठिया” के नक़ली शोर के पीछे भी भाजपाई फ़ासीवादियों का मक़सद था समाज में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा देना ताकि जनता को असल मसलों से भटकाया जा सके। इसीलिए भाजपाइयों ने विपक्षी दलों को “घुसपैठिया” मुसलमानों का दलाल व हिमायती बताने का बोगस प्रचार करने का पूरा प्रयास किया। वैसे तो नागरिकता निर्धारित करना एसआईआर का काम ही नहीं था क्योंकि 2003 के दिशा-निर्देशों के अनुसार ही एसआईआर में चुनाव आयोग नागरिकता निर्धारित नहीं कर सकता, केवल उम्र या पते की गड़बड़ी के आधार पर नामों की जाँच कर सकता है। जहाँ तक उम्र, पते व अन्य विवरणों की बात है, तो इस मामले में तो इस एसआईआर में गड़बड़ियाँ ही गड़बड़ियाँ निकलीं! यानी जो करना था वह तो किया ही नहीं! बस ग़रीब मेहनतकश दमित आबादी के वोट काट दिये! अमित शाह ने 10 अक्टूबर को झूठ बोला कि बंगलादेशी घुसपैठियों के कारण मुसलमानों की आबादी 24.5 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है जबकि हिन्दू आबादी 4.5 प्रतिशत की रफ़्तार से घट रही है। यह दावा झूठ निकला। वैसे अगर जन्म दर की बात करें तो राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार ही मुसलमान आबादी में जन्म-दर 1992 से 2015 के बीच पौने दो गुना कम हो गयी थी।

और एसआईआर के बाद “घुसपैठिये” कितने मिले? भाजपा की झूठ-प्रचार मशीनरी ने फैलाया था कि बिहार के सीमांचल के चार जिले घुसपैठियों से भरे हुए हैं। लेकिन इन चार जिलों में नागरिकता पर मिलने वाली आपत्तियों की कुल संख्या थी मात्र 106, इनमें से भी केवल 40 के नाम ख़ारिज हुए, हालाँकि उसमें भी पर्याप्त धांधली की गयी। इन 40 ख़ारिज मतदाताओं में हिन्दू कितने थे और मुसलमान कितने? हिन्दू थे 25 और मुसलमान थे 15! यानी, “घुसपैठिये” तो मिले नहीं, लेकिन वैध नागरिकों के ही नाम काट दिये गये और मुसलमान आबादी के बढ़ने का हौव्वा फैलाकर हिन्दू आम मेहनतकश आबादी को ही चपेट में ले लिया गया! यही असम के एनआरसी में भी हुआ था जिसमें 19 लाख रद्द नागरिकताओं में 14 लाख हिन्दू निकले थे। इसलिए मेहनतकश हिन्दू आबादी को कम-से-कम अब समझ लेना चाहिए कि एनआरसी, सीएए और अब एसआईआर वास्तव में समूची जनता के ख़िलाफ़ है और जहाँ कहीं मोदी सरकार इसे फिर से करने का प्रयास करे, वहाँ हमें सड़कों पर उतरकर इसका विरोध करना चाहिए। “घुसपैठियों” का नक़ली डर दिखाकर वास्तव में सभी धर्मों व जातियों की आम मेहनतकश जनता को निशाना बनाया जा रहा है। निश्चित तौर पर, इसके ज़रिये सबसे ज़्यादा मुस्लिम आम जनता के विरुद्ध ज़हरीला माहौल बनाया जा रहा है ताकि बेरोज़गारी और महँगाई से त्रस्त जनता का गुस्सा एक नक़ली दुश्मन पर फूट जाये और मोदी सरकार को जनता कठघरे से बाहर कर दे। हिन्दू का दुश्मन मुसलमान या मुसलमान का दुश्मन हिन्दू नहीं है, बल्कि समस्त आम मेहनतकश हिन्दुओं, मुसलमानों, सिखों, ईसाइयों, दलितों, स्त्रियों, आदिवासियों की दुश्मन मोदी सरकार है और पिछले 11 वर्षों से ज़्यादा समय से जारी मोदी मृतकाल में यह बात साबित करने की कोई ज़रूरत नहीं रह गयी है, हर आम मेहनतकश इंसान को यह बात पता है।

बिहार की जनता के सामने क्या विकल्प है?

मोदी सरकार की बढ़ती अलोकप्रियता की वजह है कि मोदी सरकार नवम्बर में आने वाले बिहार चुनावों से पहले ही ईवीएम, मतगणना आदि के घपले करके सन्तुष्ट नहीं हो पा रही थी। इसी वजह से उसने अपनी कठपुतली केचुआ द्वारा एसआईआर का नया घोटाला ईजाद किया है। मक़सद यह है कि चुनाव की समूची प्रणाली को ही बेअसर बना दिया जाय। यानी, जनता की सामूहिक इच्छा चाहे कुछ भी हो, वह चुनावों की प्रक्रिया में सटीकता के साथ प्रकट ही न हो पाये और चुनावी फ्रॉड के विभिन्न तरीक़ों को अपनाकर भाजपा सत्ता में बरक़रार रहे। सभी जानते है कि देश की गद्दी बचाये रखने के मद्देनज़र उत्तर प्रदेश और बिहार के राज्यों का भारी महत्व है। इसलिए बिहार में भाजपा सत्ता गँवाना नहीं चाहती है। इसलिए साम-दाम-दण्ड-भेद के ज़रिये बिहार की कुर्सी को अपने कब्ज़े में रखने के लिए भाजपा लगी हुई है। राज्यसत्ता की समूची मशीनरी पर उसके द्वारा भीतर से किया गया कब्ज़ा इसमें उसके लिए सहायक बन रहा है। चुनाव आयोग से लेकर न्यायपालिका तक, विपक्षी दलों और नागरिक समाज के लोगों ने हर जगह गुहार लगायी और याचिकाएँ दायर कीं। लेकिन या तो कोई सुनवाई ही नहीं हुई या फिर उपयुक्त वांछनीय कार्रवाई नहीं हुई। ऐसे में, ज़ाहिर है कि महज़ आवेदन और याचिकाएँ देने से भाजपा की मोदी सरकार द्वारा किये जा रहे समूचे चुनावी फ्रॉड को रोका नहीं जा सकता है। इसके लिए व्यापक पैमाने पर जनता को सड़कों पर उतरने के लिए जागरूक, गोलबन्द और संगठित करना होगा। बिखरा हुआ असन्तोष और बिखरा हुआ गुस्सा काफ़ी नहीं है। इस बात को भाजपा व मोदी-शाह की सत्ता भी जानती और समझती है। विपक्षी दलों की रणनीति बिरले ही जनान्दोलनों के रास्ते पर जाती है। वह कुल मिलाकार चुनावी रणनीति के दायरे में ही सिमटे रह जाते हैं। ऐसे में, जनता की क्रान्तिकारी शक्तियों को जनता को इस मसले पर जागरूक, गोलबन्द और संगठित करने की मुहिम तृणमूल धरातल पर सघन और व्यापक रूप से चलानी होगी।

तमाम चुनावी घपलों और घोटालों के बावजूद भाजपा-नीत राजग गठबन्धन की स्थिति बिहार में बहुत अच्छी या सुरक्षित नज़र नहीं आ रही है। जनता में मोदी-शाह सरकार और बिहार की नीतीश सरकार के प्रति जो गुस्सा है, वह एसआईआर व चुनावी फ्रॉड के कारण और भी भड़का हुआ है। इस बात की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि तमाम फर्जीवाड़े के बावजूद भाजपा-नीत गठबन्धन के लिए बहुमत हासिल करना मुश्किल हो जाये। लेकिन अगर भाजपा और उसके टट्टू बन चुके नीतीश कुमार बिहार में हार भी जाते हैं, तो एसआईआर और समूचे चुनावी फ्रॉड के मसले पर जनान्दोलन की ज़रूरत समाप्त नहीं हो जायेगी। भाजपा पश्चिम बंगाल के चुनावों से पहले वहाँ भी एसआईआर का खेल खेलने के इरादे ज़ाहिर कर चुकी है। साथ ही, आने वाले वर्ष में, पश्चिम बंगाल के अलावा, केरल, असम, तमिलनाडु व पॉण्डीचेरी में भी चुनाव होने वाले हैं। साथ ही, भाजपा 2029 को ध्यान में रखकर भी वोटर सूचियों को बदल डालने की लम्बी योजना पर काम कर रही है। इस फ़ासीवादी मंसूबे को नाकाम करने के लिए प्रगतिशील और जनपक्षधर ताक़तों को मोर्चा बनाकर साथ आने की ज़रूरत है और इस विशिष्ट मुद्दे पर जुझारू संघर्ष के लिए विपक्षी दलों में लड़ने की इच्छा रखने वाले दलों के साथ रणकौशलात्मक मुद्दा-आधारित एकता भी बनायी जा सकती है।

तात्कालिक तौर पर, हम बिहार की जनता का आह्वान करते हैं कि अपने मताधिकार का प्रयोग करते हुए पूरी चौकसी बरतें। किसी भी प्रकार के घपले-घोटाले या फर्जीवाडे़ का सन्देह होते ही इस मसले पर हल्ला मचाएँ, शान्त न बैठें। दूसरी बात यह कि एक बात तय कर लें: भाजपा ने आपके प्रदेश के लाखों वैध मतदाताओं का मताधिकार “घुसपैठिये” के फर्जी शोर के आधार पर छीन लिया है, बदले में आप भाजपा-नीत गठबन्धन की वोटबन्दी करें, ताकि तमाम फर्जीवाड़े के बावजूद बिहार विधानसभा चुनाव इनके लिए एक सबक़ बन जाये और ये जनता के इस बुनियादी राजनीतिक जनवादी अधिकार को बेशर्मी और नंगई के साथ छीनने के भावी प्रयासों के पहले हज़ार बार सोचें। तीसरी बात यह कि विपक्ष का महागठबन्धन बिहार की जनता के लिए निश्चित ही कोई वास्तविक विकल्प नहीं है। कोई भी पूँजीवादी दल व उसकी सरकार आज जनता को कुछ ख़ैरात, कुछ तात्कालिक राहत, कुछ रेवड़ियों के अलावा कुछ नहीं दे सकती है क्योंकि इन दलों के पीछे भी पूँजीपति वर्ग की ही आर्थिक ताक़त खड़ी होती है। ये सारे दल विविध तात्कालिक सुधारात्मक कार्य से ज़्यादा कुछ कर ही नहीं सकते हैं, क्योंकि इससे ज़्यादा करने के लिए पूँजीपति वर्ग के हितों की तिलांजलि देनी होगी। इसलिए दूरगामी तौर पर जनता के क्रान्तिकारी विकल्प का निर्माण, एक क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी का निर्माण बिहार में भी करना हमारा कार्यभार है। केवल ऐसी पार्टी ही एक ओर क्रान्तिकारी परिवर्तन के जनसंघर्ष को संगठित कर सकती है और पूँजीवादी जनवादी चुनावों के क्षेत्र में भी जनता के स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष को खड़ा कर सकती है, ताकि जागरूक मेहनतकश जनता इस या उस पूँजीवादी दल की पिछलग्गू बनने को मजबूर न हो। इस लक्ष्य के लिए क्रान्तिकारी शक्तियों को आज से ही काम करना होगा, लेकिन फिर भी इसमें निश्चित ही वक़्त लगेगा।

ऐसे में, आज तात्कालिक तौर पर हमारा कार्यभार एक नकारात्मक रणकौशलात्मक कार्यभार है। सभी पूँजीवादी दलों में भाजपा एक विशेष पूँजीवादी दल है; यह एक फ़ासीवादी पूँजीवादी दल है जो विशेष तौर पर मन्दी के दौर में मेहनतकश जनता के पूँजीपति वर्ग द्वारा आर्थिक शोषण की दर को तीव्रतम बनाने का काम करता है और ठीक इसीलिए यह मेहनतकश जनता के सभी जनवादी अधिकारों का भी हनन करता है क्योंकि इसके बिना जनता की लूट की दर को तीव्रतम बनाना सम्भव नहीं होता। इसलिए आज का तात्कालिक नकारात्मक रणकौशलात्मक कार्यभार है: भाजपा और उसके नेतृत्व वाले गठबन्धन की पराजय को सुनिश्चित करना। इसके लिए जो आवश्यक हो, उसी प्रकार जनता को अपने मत का प्रयोग करना चाहिए। एक क्रान्तिकारी सर्वहारा अवस्थिति से ‘मज़दूर बिगुल’ किसी भी पूँजीवादी दल के समर्थन की हिमायत नहीं करेगा क्योंकि यह सर्वहारा वर्ग द्वारा अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता को त्यागने के समान होगा। लेकिन क्या नहीं करना है, यह स्पष्ट है: मेहनतकश जनता का मत मेहनतकश जनता के सबसे बड़े दुश्मन भाजपा व उसके गठबन्धन को नहीं जाना चाहिए। यह त्रासद है कि आज जनता के सामने कोई क्रान्तिकारी विकल्प नहीं है और इसलिए सकारात्मक तौर पर यह नहीं बताया जा सकता है किसे वोट करें। ऐसी स्थिति में यह हर मेहनतकश, मज़दूर, दमित व शोषित अल्पसंख्यक, दलित या स्त्री को ख़ुद ही विचार कर तय करना होगा। बस इतना ही बताया जा सकता है कि भाजपा की हार को सुनिश्चित करने के लक्ष्य को दिमाग़ में रखकर अपने मताधिकार का प्रयोग करें। भाजपा की हार से और कुछ नहीं होगा लेकिन इतना अवश्य होगा कि दमन का दबाव कुछ घट सकता है, जनता की शक्तियों को अपने आपको गोलबन्द और संगठित करने की मोहलत मिल सकती है, फ़ासीवादियों के हौसले कुछ पस्त होंगे, देश में व्यापक मेहनतकश जनता के बीच एक सन्देश सम्प्रेषित होगा, और सम्भवत: संघर्ष करने पर कुछ सुधार, कुछ तात्कालिक राहतें जनता के पक्ष में हासिल की जा सकें। लेकिन आज यह मोहलत और फ़ासीवादी शक्तियों को एक धक्का लगना, जनसंघर्षों के लिए एक सकारात्मक होगा।

यह याद रखना होगा कि दीर्घकालिक तौर पर, जनता को अपना क्रान्तिकारी विकल्प खड़ा करने की जद्दोजहद में लगना ही होगा। उसे मज़दूरों-मेहनतकशों की ऐसी पार्टी खड़ा करने के लिए लड़ना ही होगा जो पूँजीपतियों के धनबल पर नहीं, बल्कि आम मेहनतकश जनता के संसाधनों के आधार पर चलती हो। ऐसी क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी ही दूरगामी तौर पर क्रान्तिकारी परिवर्तन के मक़सद को पूरा कर मेहनतकशों की सत्ता को स्थापित कर सकती है और ऐसी क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी ही पूँजीवादी चुनावों में प्रभावी रणकौशलात्मक हस्तक्षेप कर आम मेहनतकश जनता को गोलबन्द व संगठित करने के काम को आगे बढ़ा सकती है। इसमें निश्चित ही समय लगेगा। लेकिन यह काम फ़ौरन शुरू न करने की वजह नहीं है, बल्कि काम बिना देरी फ़ौरन शुरू करने की वजह है।

 

मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2025

 

 

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