Category Archives: कारख़ाना इलाक़ों से

ऑटोमोबाइल मज़दूर विकास की चिट्ठी

मैं अपने रिश्तेदार के साथ लॉज में उनके कमरे पर रुका। उन छोटे कमरों में मेरा दम घुटता है। एक कमरे में हमलोग 4 से 5 आदमी रहते हैं।  मेरे रिश्तेदार मार्क एग्जौस्ट सिस्टम लिमिटेड मैं काम करते थे। उन्होंने मेरा काम मीनाक्षी पोलिमर्स में लगवा दिया। यहाँ पर करीब 100 लोग काम करते थे। यहाँ बहुत बुरी तरह से हमारा शोषण होता था। कम्पनी फ़र्श पर झाड़ू-पोछा भी लगवाती थी और कभी प्रोडक्शन का काम नहीं हो तो नाली वगैरह भी साफ़ करवाती थी। काम जबरिया दबाव में कराया जाता था, बारह घण्टे का काम आठ घण्टे में करवाया जाता था। अन्दर में बैठने की व्यवस्था नहीं था। बारिश के समय खाने पीने के लिए कोई जगह नहीं थी। गर्मी में काम करवाया जाता और पीने के लिए गर्म पानी दिया जाता। मैं दिन-रात मेहनत करता था ताकि कुछ पैसे कमा बचा सकूँ। लेकिन यहाँ मालिक ज़िन्दा रहने लायक भी पैसा नहीं दे रहा था। हम अपना हक माँग रहे हैं और मालिक दे नहीं रहा है, हम यूनियन बनाने का प्रयास कर रहे हैं मालिक बनने नहीं दे रहा है। मैं जीवन में आगे बढ़ना चाहता हूँ, लेकिन मैं अब समझ गया हूँ कि मैं अकेले आगे नहीं बढ़ सकता। हम सबकी ज़िन्दगी ख़राब है इसीलिए हम सभी को एक साथ मिलकर लड़ना चाहिए। इसीलिए दोस्तों और मजदूर भाइयो अपना हक माँगो और यूनियन बनाओ।

मेट्रो रेल कॉरपोरेशन और प्रशासन की लापरवाही की वजह से पटना मेट्रो के निर्माण कार्य में लगे मज़दूरों की हुई मौतें

सवाल यह है कि क्या हम अपने जीवन की कीमत समझते हैं? क्या यूँ कीड़े-मकोड़ों के समान गुमनाम मौतें मरने रहना हमें स्वीकार है? क्या अपने बच्चों के लिए यह भविष्य हमें स्वीकार है? क्या हम इंसानी जीवन की गरिमा का अहसास रखते हैं? अगर हाँ, तो हमें इस समूचे मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था के विरुद्ध गोलबन्द और एकजुट होना ही होगा। वरना हम यूँ ही जानवरों की तरह मारे जाते रहेंगे।

वेतन बढ़ोत्तरी व यूनियन बनाने के अधिकार को लेकर सैम्संग कम्पनी के मज़दूरों की 37 दिन से चल रही हड़ताल समाप्त – एक और आन्दोलन संशोधनवाद की राजनीति की भेंट चढ़ा!

सैम्संग मज़दूरों की यह हड़ताल इस बात को और पुख़्ता करती है कि आज के नवउदारवादी पूँजीवाद के दौर में सिर्फ़ अलग-अलग कारख़ानों में अलग से हड़ताल करके जीतना बहुत ही मुश्किल है। अगर आज मज़दूर आन्दोलन को आगे बढ़ाना है तो इलाक़े व सेक्टर के आधार पर सभी मज़दूरों को अपनी यूनियन व संगठन बनाने होंगे, इसके ज़रिये ही कारख़ानों में यूनियनों को भी मज़बूत किया जा सकता है और कारख़ाना-आधारित संघर्ष भी जीते जा सकते हैं। इसी आधार पर ठेका, कैजुअल, परमानेण्ट मज़दूरों को साथ आना होगा और अपने सेक्टर और इलाक़े का चक्का जाम करना होगा। तभी हम मालिकों और सरकार को सबक़ सिखा पायेंगे। दूसरा सबक़ जो हमें स्वयं सीखने की ज़रूरत है वह यह है कि बिना सही नेतृत्व के किसी लड़ाई को नहीं जीता जा सकता है। भारत के मज़दूर आन्दोलन में संशोधनवादियों के साथ-साथ कई अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी भी मौजूद हैं, जो मज़दूरों की स्वतःस्फूर्तता के दम पर ही सारी लड़ाई लड़ना चाहते हैं और नेतृत्व या संगठन की ज़रूरत को नकारते हैं। ऐसी सभी ग़ैर-सर्वहारा ताक़तों को भी आदोलन से बाहर करना होगा।

कानपुर देहात में मुनाफ़े के लिए आपराधिक लापरवाही की भेंट चढ़े 6 मज़दूर!

उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात के औद्योगिक क्षेत्र रनियां में गद्दा फ़ैक्ट्री में भीषण आग लगने से छह मज़दूरों की दर्दनाक मौत हो गयी। शनिवार सुबह 6 बजे कारख़ाने की एलपीजी यूनिट में गैस रिसाव हो गया। इसके बाद तेज़ धमाका हुआ और आग लग गयी। कारख़ाने में न तो अग्निशमन यंत्र था और न ही अलार्म। ऊपर से मानकों को धता बताकर बनाया गया टिनशेड और दीवार आग की वजह से गिर गयी जिसके नीचे कई मज़दूर दब गये। इस वक़्त कारख़ाने में काम कर रहे 11 मज़दूरों में से 10 अन्दर ही फँस गये। 3 मज़दूर कारख़ाने में ज़िन्दा जल गये और तीन ने इलाज़ के दौरान दम तोड़ दिया।

दिल्ली में सीवर लाइन बनाने वाले मज़दूरों के हालात

सीवर लाइन बिछाने वाली कम्पनी और कॉण्ट्रेक्टर दोनों गुजरात के हैं और सभी मज़दूरों को भी ठेके पर गुजरात से ही लाया गया है। इन्हें 1 मीटर लम्बाई और 1 मीटर गहराई का गड्ढा खोदने के 120 रुपये मिलते हैं। एक मज़दूर अधिकतम दिनभर में 5-6 मीटर ही गड्ढा खोद पाता है जिसके लिए उन्हें सुबह 6 बजे से लगातार रात 8 बजे तक खुदाई करनी पड़ती है। यानी औसतन 5 मीटर गड्ढे खोदने पर उनकी 600 रुपये की दिहाड़ी बनती है जिसके लिए उन्हें 14 घण्टे काम करना पड़ता है। इन मज़दूरों लिए छुट्टी का कोई मतलब नहीं है, कई बार पूरी रात भी ओवरटाइम लगाना पड़ता है। बरसात होने या किसी भी अन्य स्थिति में काम न होने पर इन्हें कुछ नहीं मिलता है क्योंकि इनका ठेका तो 120 रुपये प्रति मीटर की खुदाई का है। इस 45-50 डिग्री सेल्सियस की गर्मी में कम्पनी, काण्ट्रेक्टर या ठेकेदार की तरफ़ से लोगों के लिए पीने के पानी तक का इन्तज़ाम भी नहीं किया जाता है। ये मज़दूर साधारण प्याऊ या जनता के बीच से ही पीने के पानी का इन्तज़ाम करते हैं।

लाइफ़ लौंग (धारूहेड़ा) के कारख़ाने में हुए भयानक विस्फोट में 16 मज़दूरों की मौत

लाइफ लौंग की दुर्घटना को महज़ लापरवाही कहना इस पर पर्दा डालने के समान है। वास्तव में यह मालिकों की मुनाफ़े की अन्धी हवस का नतीज़ा है। ये हादसे दर्शाते हैं कि मालिकों के लिए मज़दूरों की जान की कोई क़ीमत नहीं है, इसलिए कारख़ानों में सुरक्षा के इन्तज़ाम नहीं होते। आख़िर क्यों कारख़ाने मौत के कारख़ाने बन रहे हैं? आख़िर क्यों हरियाणा से लेकर देश भर में कारख़ानों समेत कार्यस्थलों में आग व भयानक दुर्घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं? इसे समझे बिना आगे की संघर्ष की दिशा और व्यापक मज़दूरों की सही लामबन्दी सम्भव नहीं है।

देश के निर्माण मज़दूरों की भयावह हालत, एक क्रान्तिकारी बैनर तले संगठित एकजुटता ही इसका इलाज

निर्माण कार्य में लगे मज़दूर असंगठित मज़दूर होते हैं। आज देश में लगभग 45 करोड़ संख्या इन्हीं असंगठित मज़दूरों की है, जो कुल मज़दूरों की आबादी का 90% के क़रीब है। लेकिन देश में बैठी मोदी सरकार ने आज पूरा इन्तज़ाम कर लिया है कि मज़दूरों का खून चूसने में कोई असर न छोड़ा जाये। आपको पता हो कि अभी पहले से मौजूद श्रम क़ानून इतने काफ़ी नहीं थे जो पूर्ण रूप से मज़दूरों के हकों और अधिकारों की बात कर सके, और किसी भी तरह की दुर्घटना होने पर उनके लिए किसी भी तरह की त्वरित कार्रवाई करे। अभी कहने को सही, कागज़ पर कुछ श्रम क़ानून मौजूद होते हैं। थोड़ा हाथ-पैर मारने पर और श्रम विभाग के कुछ चक्कर काटने पर गाहे-बगाहे कुछ लड़ाइयाँ मज़दूर जीत जाते हैं। साल में एक या दो बार श्रम विभाग के अधिकारी भी सुरक्षा जाँच के लिए (जो बस रस्मअदायगी ही होती है) निकल जाते हैं। लेकिन अम्बानी-अडानी जैसे पूँजीपतियों के मुनाफ़े को और बढ़ाने के लिए सरकार पुराने सारे श्रम क़ानूनों को खत्म करके चार लेबर कोड लाने की तैयारी में है।

आपस की बात – वेल्डिंग कम्पनी के मजदूरों के हालात

मैं जहाँ काम करता हूं उसमें केबल की रबर बनाने में पाउडर (मिट्टी) का इस्तेमाल होता है। मिट्टी इतनी सूखी और हल्की होती है कि हमेशा उड़ती रहती हहै। आँखों से उतना दिखाई तो नहीं देता लेकिन शाम को जब अपने शरीर की हालत देखते हैं तो पूरा शरीर और सिर मिट्टी से भरा होता है। नाक, मुंह के जरिये फेफड़ों तक जाता है। इस कारण मजदूरों को हमेशा टी.बी., कैंसर, पथरी जैसी गम्भीर बीमारियां होने का खतरा बना रहता है। जो पाउडर केबल के रबर के ऊपर लगाया जाता है उससे तो हाथ पर काला-काल हो जाता है। जलन एवं खुजली होती रहती है। इन सबसे सुरक्षा के लिए सरकार ने जो नियम बना रखे हैं वे पूरे दिखावटी हैं।

हिन्दुस्तान यूनीलीवर, हरिद्वार में मज़दूरों का शोषण

इस बेरोज़गारी के माहौल में मज़दूर काम पाने के लिए ठेकेदारों की शर्तों पर भर्ती तो हो जाता है। मगर कम्पनी में एक बार काम पकड़ लेने के बाद उनके साथ ज्यादतियाँ चालू हो जाती हैं। जैसे कम्पनी तो आठ-आठ घण्टे की तीन शिफ्टों में चलती है लेकिन ठेका मज़दूरों को अपनी आठ घण्टे की शिफ्ट खत्म करने के बाद भी जबरन काम करने के लिए मज़बूर किया जाता है। जिससे बहुत सारे मज़़दूर बीमार पड़ जाते हैं। अगर बीमारी के दौरान छुट्टियाँ ज्यादा हो गयीं तो भी काम से हाथ धोना पड़ता है। काम से निकाले जाने और दूसरी जगह जल्दी काम न मिलने के कारण मज़़दूर सोलह-सोलह घण्टे काम करने को मजबूर होते हैं। इस कम्पनी में ठेका मज़दूरों से कभी भी कोई भी काम लिया जा सकता है। उससे लोडिंग-अनलोडिंग से लेकर मशीन पर, पैकिंग में या असेम्बली लाइन पर लगाया जा सकता है। इस कंपनी में आठ प्लाण्ट हैं, जिनमें किसी भी प्लाण्ट में ठेका मज़दूरों को कभी भी भेजा जा सकता है। ज्यादातर ठेका मज़दूरों को तीन-चार दिन बाद एक काम छोड़कर दूसरे काम या प्लाण्ट में भेज दिया जाता है।

धागा बनाने वाली कम्पनी के मजदूर की आपबीती

इस काम को करने वाले मजदूरों को अधिकतर तमाम प्रकार की बीमारियाँ हो जाती हैं। दमा और टी.बी. जैसी बीमारी अधिकतर होती है क्योंकि काम ही कुछ ऐसा है। एसीड-कास्टिक और फैक्ट्री से निकलने वाले धुआँ से और नमक सार में हाथ और पैर खराब होते हैं। सोडा नमक एसिड, और तमाम कैमिकलों का पानी हाथ पैरों में लगता रहता है। ये अकेली कम्पनी नहीं है, ऐसी लाखों कम्पनियाँ हैं। इनमें करोड़ों लोगो की जिन्दगी नर्क कुण्ड में झुलस रही है।