Tag Archives: दिल्‍ली

पूँजीवादी गणतन्त्र के जश्न में खो गयीं मुनाफ़े की हवस में मारे गये मज़दूरों की चीख़ें

26 जनवरी की पूर्व संध्या पर देश की राजधानी में 61वें गणतन्त्र की तैयारियाँ ज़ोर-शोर से चल रही थीं। ठीक उसी वक्‍त दिल्ली के तुगलकाबाद में चल रही अवैध फैक्ट्री में हुए विस्फोट में 12 मज़दूर मारे गये और 6 से ज्यादा घायल हो गए। बेकसूर मज़दूरों की मौत देश के शासक वर्ग के जश्न में कोई ख़लल न डाल सके, इसके लिए मज़दूरों की मौत की इस ख़बर को दबा दिया गया। कुछ दैनिक अख़बारों ने खानापूर्ति के लिए इस घटना की एक कॉलम की छोटी-सी ख़बर दे दी। वह भी न जाने ज़नता के सामने इस घटना को लाने के लिए दी थी, या कारख़ाना मालिक से अपना हिस्सा लेने के लिए।

लक्ष्मीनगर हादसा : पूँजीवादी मशीनरी की बलि चढ़े ग़रीब मज़दूर

मुनाफा! हर हाल में! हर कीमत पर! मानव जीवन की कीमत पर। नैतिकता की कीमत पर। नियमों और कानूनों की कीमत पर। यही मूल मन्त्र है इस मुनाफाख़ोर आदमख़ोर व्यवस्था के जीवित रहने का। इसलिए अपने आपको ज़िन्दा बचाये रखने के लिए यह व्यवस्था रोज़ बेगुनाह लोगों और मासूम बच्चों की बलि चढ़ाती है। इस बार इसने निशाना बनाया पूर्वी दिल्ली के लक्ष्मीनगर के ललिता पार्क स्थित उस पाँच मंज़िला इमारत में रहने वाले ग़रीब मज़दूर परिवारों को जो देश के अलग-अलग हिस्सों से काम की तलाश में दिल्ली आये थे।

अन्तरराष्ट्रीय मजदूर दिवस पर पूँजी की सत्ता के ख़िलाफ लड़ने का संकल्प लिया मजदूरों ने

गोरखपुर में पिछले वर्ष महीनों चला मजदूर आन्दोलन कोई एकाकी घटना नहीं थी, बल्कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में उठती मजदूर आन्दोलन की नयी लहर की शुरुआत थी। आन्दोलन के खत्म होने के बाद बहुत से मजदूर अलग-अलग कारख़ानों या इलाकों में भले ही बिखर गये हों, मजदूरों के संगठित होने की प्रक्रिया बिखरी नहीं बल्कि दिन-ब-दिन मजबूत होकर आगे बढ़ रही है। इस बार गोरखपुर में अन्तरराष्ट्रीय मजदूर दिवस के आयोजन में भारी पैमाने पर मजदूरों की भागीदारी ने यह संकेत दे दिया कि पूर्वी उत्तर प्रदेश का मजदूर अब अपने जानलेवा शोषण और बर्बर उत्पीड़न के ख़िलाफ जाग रहा है।
यूँ तो विभिन्न संशोधनवादी पार्टियों और यूनियनों की ओर से हर साल मजदूर दिवस मनाया जाता है लेकिन वह बस एक अनुष्ठान होकर रह गया है। मगर बिगुल मजदूर दस्ता की अगुवाई में इस बार गोरखपुर में मई दिवस मजदूरों की जुझारू राजनीतिक चेतना का प्रतीक बन गया।

शीला जी? आपको पता है, न्यूनतम मजदूरी कितने मजदूरों को मिलती है?

दिल्ली में काम करने वाला हर मजदूर जानता है कि इससे बड़ा झूठ कुछ नहीं हो सकता। क्या दिल्ली सरकार नहीं जानती कि दिल्ली के 98 प्रतिशत मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती है। राजधनी के दो दर्जन से अधिक औद्योगिक क्षेत्रों में लाखों स्त्री-पुरुष मजदूर हर महीने 1500 से लेकर 3000 रुपये तक पर खटते हैं। उन्हें ईएसआई, जॉब कार्ड, साप्ताहिक छुट्टी जैसी बुनियादी सुविधएँ भी नहीं मिलती हैं। ”दिल्ली की शान” कहे जाने वाले मेट्रो तक में न्यूनतम मजदूरी माँगने पर मजदूरों से गुण्डागर्दी की जाती है।

मालिकों के मुनाफे की हवस का शिकार – एक और मजदूर

घटना वाले दिन रंजीत तथा तीन अन्य मज़दूरों को सुपरवाइज़र ने ज़बरदस्ती तार के बण्डलों के लोडिंग-अनलोडिंग के काम पर लगा दिया। उन चारों ने क्रेन की हालत देखकर सुपरवाइज़र को पहले ही चेताया था कि क्रेन की हुक व जंज़ीर बुरी तरह घिस चुके हैं जिससे कभी भी कोई अनहोनी घटना घट सकती है इसके बावजूद उन्हें काम करने के लिए मजबूर किया गया। ऐसे में वही हुआ जिसकी आशंका थी। चार टन का तारों का बण्डल रंजीत पर आ गिरा जिससे उसकी मौके पर ही मौत हो गयी। रंजीत की मौत कोई हादसा नहीं एक ठण्डी हत्या है।

एक तो महँगाई का साया, उस पर बस किराया बढ़ाया

डीटीसी के किरायों में इस बढ़ोत्तरी का असर सबसे ज्यादा उस निम्नमध्‍यवर्गीय आबादी और मज़दूरों पर पड़ेगा जो बसो के जरिए ही अपने कार्यस्थल पर पहुंचते हैं। मेट्रो के आने से उनके लिए बहुत फर्क नहीं पड़ा है। क्योंकि एक तो मेट्रो अभी सब जगह नहीं पहुंची है, दूसरा, उसका किराया वे लोग उठा नहीं सकते। और मज़दूरों और निम्नमध्‍यवर्ग के लोगों की बड़ी आबादी बसों से ही सफर करती है और एक अच्छी-खासी आबादी को रोज काम के लिए दूर-दूर तक सफर करना पड़ता है क्योंकि दिल्ली के सौंदर्यीकरण आदि के नाम पर गरीबों-मज़दूरों की बस्तियों को उजाड़कर दिल्ली के बाहरी इलाकों में पटक दिया गया है। अब कॉमनवेल्थ गेम के नाम पर उन्हें दिल्ली से और दूर खदेड़ा जा रहा है। अब डीटीसी के किरायों में सीधे दोगुनी वृद्धि से हर महीने 12-14 घंटे हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद 2000 से 2600 रुपये पाने वाले मज़दूर को किराये पर ही 600 से लेकर 900 रुपये तक खर्च करने होंगे। जो मज़दूर पहले ही अपने और अपने बच्चों का पेट काटकर जी रहा है, वह अब कैसे जियेगा और काम करेगा ये सोचकर भी कलेजा मुँह को आता है।

जाँच समितियाँ नहीं बतायेंगी खजूरी स्कूल हादसे के असली कारण

दिल्ली नगर निगम यानी एमसीडी द्वारा संचालित लगभग 1746 स्कूलों में से 1628 में आग लगने की स्थिति में सुरक्षा के बन्दोबस्त नहीं हैं। 70 प्रतिशत स्कूलों में पीने के पानी और शौचालय की कोई व्यवस्था नहीं है। ज्यादातर स्कूलों में प्रति 100 से अधिक छात्रों पर 1 अधयापक है, बहुतेरे स्कूलों के पास कोई बिल्डिंग भी नहीं है और वे टेण्टो में चल रहे हैं। जिस विद्यालय में यह घटना हुई उसमें भी उस दिन करीब 2600 विद्यार्थी थे। स्कूल के टिन शेड में पानी भर गया था। साथ ही ग्राउण्ड भी पानी से भरा था। बाहर निकलने का केवल एक ही गेट था जिस तक पहुँचने के लिए 2600 बच्चों को 4-5 फुट चौड़ी सीढ़ियों से उतरकर जाना था ऐसे में आज नहीं तो कल यह घटना होनी ही थी।

ग्लोबल सिटी दिल्ली में बच्चों की मृत्यु दर दोगुनी हो गयी है!

दिल्ली को तेजी से आगे बढ़ते भारत की प्रतिनिधि तस्वीर बताया जाता है। वर्ष 2010 में पूरी दुनिया के सामने कॉमनवेल्थ खेलों के जरिये हिन्दुस्तान की तरक्की क़े प्रदर्शन की तैयारी भी जोर-शोर से चल रही है। दिल्ली को ग्लोबल सिटी बनाने के लिए जहाँ दिल्ली मेट्रो चलायी गयी है, वहीं सड़कों-लाइटों से लेकर आलीशान खेल परिसर और स्टेडियमों तक हर चीज का कायापलट करने की कवायद भी चल रही है। लेकिन करोड़ों-अरबों रुपया पानी की तरह बहाने वाली सरकार ग़रीबों की बुनियादी सुविधाओं के प्रति कितनी संवेदनहीन है, इसका एक नमूना इस तथ्य से मिल सकता है कि दिल्ली में एक साल से कम उम्र के बच्चों की शिशु मृत्यु दर पिछले दो सालों में थोड़ी-बहुत नहीं सीधे 50 प्रतिशत बढ़ गयी है। यानी दिल्ली में पैदा होने वाले बच्चों में से मरने वाले बच्चों की संख्या दोगुनी हो गयी है!

मई दिवस पर याद किया मज़दूरों की शहादत को

मई दिवस के दिन सुबह ही गोरखपुर की सड़कें ”दुनिया के मज़दूरों एक हो”, ”मई दिवस ज़िन्दाबाद”, ”साम्राज्यवाद-पूँजीवाद का नाश हो”, ”भारत और नेपाली जनता की एकजुटता ज़िन्दाबाद”, ”इंकलाब ज़िन्दाबाद” जैसे नारों से गूँज उठीं। नगर निगम परिसर में स्थित लक्ष्मीबाई पार्क से शुरू हुआ मई दिवस का जुलूस बैंक रोड, सिनेमा रोड, गोलघर, इन्दिरा तिराहे से होता हुआ बिस्मिल तिराहे पर पहुँचकर सभा में तब्दील हो गया। जुलूस में शामिल लोग हाथों में आकर्षक तख्तियाँ लेकर चल रहे थे जिन पर ”मेहनतकश जब जागेगा, तब नया सवेरा आयेगा”, ”मई दिवस का है पैगाम, जागो मेहनतकश अवाम” जैसे नारे लिखे थे।

दमन-उत्पीड़न से नहीं कुचला जा सकता मेट्रो कर्मचारियों का आन्दोलन

दिल्ली मेट्रो की ट्रेनें, मॉल और दफ्तर जितने आलीशान हैं उसके कर्मचारियों की स्थिति उतनी ही बुरी है और मेट्रो प्रशासन का रवैया उतना ही तानाशाहीभरा। लेकिन दिल्ली मेट्रो रेल प्रशासन द्वारा कर्मचारियों के दमन-उत्पीड़न की हर कार्रवाई के साथ ही मेट्रो कर्मचारियों का आन्दोलन और ज़ोर पकड़ रहा है। सफाईकर्मियों से शुरू हुए इस आन्दोलन में अब मेट्रो फीडर सेवा के ड्राइवर-कण्डक्टर भी शामिल हो गये हैं। मेट्रो प्रशासन के तानाशाही रवैये और डीएमआरसी-ठेका कम्पनी गँठजोड़ ने अपनी हरकतों से ठेके पर काम करने वाले कर्मचारियों की एकजुटता को और मज़बूत कर दिया है।