Category Archives: मज़दूर आन्दोलन की समस्‍याएँ

केरल की आशाकर्मियों का संघर्ष ज़िन्दाबाद! नकली मज़दूर पार्टी सीपीएम और इसकी ट्रेड यूनियन सीटू का दोमुहाँपन एक बार फिर उजागर!!

केरल में चल रहे आशाकर्मियों के आन्दोलन ने एक बार फ़िर से सीपीएम और सीटू जैसे ग़द्दारों को बेपर्द करने का काम किया है। आज देश भर में आन्दोलनरत स्कीम वर्करों के बीच इन जैसे विभीषणों, जयचन्दों और मीर जाफ़रों की सच्चाई उजागर करना बेहद ज़रूरी कार्यभार बनता है। किसी भी जुझारू आन्दोलन के लिए बुनियादी ज़रूरत है एक इन्क़लाबी और स्वतन्त्र यूनियन का गठन। सभी चुनावबाज़ पार्टियों से स्वतन्त्र यूनियन ही बिना किसी समझौते के किसी संघर्ष को उसके सही मुक़ाम तक पहुँचाने में सक्षम हो सकती है। केरल की आशाकर्मियों को हमारी दोस्ताना सलाह है कि वे हमारी बातों पर ज़रूर ग़ौर करें। ‘दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन’ केरल की आशाकर्मियों की माँगों का पुरज़ोर समर्थन करती है। बकाये के भुगतान; मानदेय बढ़ोत्तरी, सामाजिक सुरक्षा और नियमितीकरण की माँगें हमारी बेहद ही बुनियादी और ज़रूरी माँगें हैं। दिल्ली की आँगनवाड़ीकर्मी अपनी जायज़ माँगों के लिए संघर्षरत केरल की जुझारू आशाकर्मी बहनों के साथ हर क़दम पर खड़ी हैं।

केरल में ग़द्दार वामपन्थ के कारनामे – ‘धन्धा करने की आसानी’ को बढ़ावा, आशा कार्यकर्ताओं का दमन, अवसरवादियों का स्वागत

आशा कर्मियों की हड़ताल पर सबसे उग्र हमला सीटू नेताओं की ओर से हुआ। सामाजिक-जनवादियों के बीच के श्रम विभाजन के अनुसार, वामपन्थी सरकार पूरी तरह से नवउदारवादी नीतियों को लागू करके पूँजीपति वर्ग की सेवा करती है। उसके ट्रेड यूनियन मोर्चे के रूप में, सीटू का ‘वर्गीय कर्तव्य’ यह सुनिश्चित करना होता है कि मज़दूरों पर लगाम कसी रहे और वे इन नीतियों का विरोध क़तई न कर पायें। इसलिए, कोई भी हड़ताल जो सीटू की हड़तालों के ‘अनुष्ठानिक’ दायरे से आगे बढ़ती है, पूँजीपति वर्ग और सामाजिक-जनवाद के लिए ख़तरा बन जाती है। ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं कि सीटू के राज्य उपाध्यक्ष हर्षकुमार ने हड़ताल की एक महिला नेता को “संक्रामक रोग फैलाने वाला कीट” कहकर पुकारा।

The Renegade ‘Left’ in Kerala – Promoting ‘Ease of Doing Business’, Suppressing ASHA Workers, Courting Opportunists.

The Indian institutionalised Left, led by the CPIM, had abandoned Marxism and drifted into the line of social democracy decades ago. Lenin remarked that social democracy is the renegade inside the working class which, in the guise of a working class party, carries out bourgeois policies. This renegade nature of the Left is being unmasked before the public every day. Their prostration before Capital is complete. In power, they work as a facilitator to the bourgeoisie in ensuring the smooth exploitation of workers. Using the party structure and trade unions, they make sure that the working class is kept under control.

मारुति सुज़ुकी के अस्थायी मज़दूरों के प्रदर्शन पर दमन से पुलिस-प्रशासन और मारुति सुज़ुकी प्रबन्धन का गठजोड़ एक बार फिर से नंगा!

आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए ऑटोमोबाइल सेक्टर के सभी मज़दूरों को भी इसमें शामिल करना होगा। हम लोग जानते हैं कि 80-90 प्रतिशत आबादी तमाम अस्थायी मज़दूरों यानी ठेका, अप्रेण्टिस, फिक्सड टर्म ट्रेनी, नीम ट्रेनी, कैज़ुअल, टेम्परेरी मज़दूर आदि विभिन्न श्रेणी के अस्थायी मज़दूर हैं। इनकी भी वहीं माँगे हैं जो मारुति सुज़ुकी-सुज़ुकी के तमाम अस्थायी मज़दूरों की माँगें हैं।

बरगदवा (गोरखपुर) के मज़दूरों को अतीत के संघर्षों के सकारात्मक व नकारात्मक पहलुओं से सीखते हुए नये संघर्षों की नींव रखनी होगी

एकजुटता और यूनियन के अभाव में मज़दूरों में काम छूटने का डर बना रहता है। वास्तव में, फ़ासीवादी मोदी सरकार के आने के बाद से खाने-पीने आदि चीज़ों के रेट जिस रफ़्तार से बढ़े हैं उसमें मज़दूरों को अपने परिवार सहित गुजारा करना बहुत मुश्किल हो गया है। इसलिए भी कई मज़दूर चाहते हुए भी जोखिम लेने से डरते हैं। लेकिन इस डर से मज़दूरों को मुक्त होकर मालिक की अँधेरगर्दी के ख़िलाफ़ एकजुट होना होगा। क्योंकि वैसे भी मज़दूरों पर छँटनी की तलवार लटकती ही रहती है।

हालिया मज़दूर आन्दोलनों में हुए बिखराव की एक पड़ताल

आज के दौर के अलग-अलग कारख़ानों में अलग से हड़ताल करके जीतना पहले के मुकाबले कहीं ज़्यादा मुश्किल है। अगर आज मज़दूर आन्दोलन को आगे बढ़ाना है तो समूचे सेक्टर, या ट्रेड यानी, समूचे पेशे, के आधार पर सभी मज़दूरों को अपनी यूनियन व संगठन बनाने होंगे। इसके ज़रिये ही कारख़ानों में यूनियनों को भी मज़बूत किया जा सकता है और कारख़ाना-आधारित संघर्ष भी जीते जा सकते हैं। इसी आधार पर ठेका, कैजुअल, परमानेन्ट मज़दूरों को साथ आना होगा और अपने सेक्टर और इलाक़े का चक्का जाम करना होगा। तभी मालिकों और सरकार को झुकाया जा सकता है। एक फैक्ट्री के आन्दोलन तक ही सीमित होने के कारण उपरोक्त तीनों आन्दोलन आगे नहीं बढ़ सके। ऐसी पेशागत यूनियनों के अलावा, इलाकाई आधार पर मज़दूरों को संगठित करते हुए उनकी इलाकाई यूनियनों को भी निर्माण करना होगा। इसके ज़रिये पेशागत आधार पर संगठित यूनियनों को भी अपना संघर्ष आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी।

वेतन बढ़ोत्तरी व यूनियन बनाने के अधिकार को लेकर सैम्संग कम्पनी के मज़दूरों की 37 दिन से चल रही हड़ताल समाप्त – एक और आन्दोलन संशोधनवाद की राजनीति की भेंट चढ़ा!

सैम्संग मज़दूरों की यह हड़ताल इस बात को और पुख़्ता करती है कि आज के नवउदारवादी पूँजीवाद के दौर में सिर्फ़ अलग-अलग कारख़ानों में अलग से हड़ताल करके जीतना बहुत ही मुश्किल है। अगर आज मज़दूर आन्दोलन को आगे बढ़ाना है तो इलाक़े व सेक्टर के आधार पर सभी मज़दूरों को अपनी यूनियन व संगठन बनाने होंगे, इसके ज़रिये ही कारख़ानों में यूनियनों को भी मज़बूत किया जा सकता है और कारख़ाना-आधारित संघर्ष भी जीते जा सकते हैं। इसी आधार पर ठेका, कैजुअल, परमानेण्ट मज़दूरों को साथ आना होगा और अपने सेक्टर और इलाक़े का चक्का जाम करना होगा। तभी हम मालिकों और सरकार को सबक़ सिखा पायेंगे। दूसरा सबक़ जो हमें स्वयं सीखने की ज़रूरत है वह यह है कि बिना सही नेतृत्व के किसी लड़ाई को नहीं जीता जा सकता है। भारत के मज़दूर आन्दोलन में संशोधनवादियों के साथ-साथ कई अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी भी मौजूद हैं, जो मज़दूरों की स्वतःस्फूर्तता के दम पर ही सारी लड़ाई लड़ना चाहते हैं और नेतृत्व या संगठन की ज़रूरत को नकारते हैं। ऐसी सभी ग़ैर-सर्वहारा ताक़तों को भी आदोलन से बाहर करना होगा।

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (ग्यारहवीं किश्त)

हमारे आन्दोलन के सक्रिय कार्यकर्ताओं के लिए एकमात्र गम्भीर और सच्चा सांगठनिक उसूल यही होना चाहिए कि वे संगठन के कामों को सख्ती से गुप्त रखें, सदस्यों का चुनाव करते समय ज़्यादा से ज़्यादा सख्ती बरतें और पेशेवर क्रान्तिकारी तैयार करें। इतना हो जाये, तो “जनवाद” से भी बड़ी एक चीज़ की हमारी लिए गारण्टी हो जायेगी: वह यह कि क्रान्तिकारियों के बीच सदा पूर्ण, कॉमरेडाना और पारस्परिक विशवास क़ायम रहेगा।

मोदी सरकार की फ़ासीवादी श्रम संहिताओं के विरुद्ध तत्काल लम्बे संघर्ष की तैयारी करनी होगी

अगर ये श्रम संहिताएँ लागू होती हैं तो मज़दूर वर्ग को गुलामी जैसे हालात में काम करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। अभी भी 90 फ़ीसदी अनौपचारिक मज़दूरों के जीवन व काम के हालात नारकीय हैं। अभी भी मौजूद श्रम क़ानून लागू ही नहीं किये जाते, जिसके कारण इन मज़दूरों को जो मामूली क़ानूनी सुरक्षा मिल सकती थी, वह भी बिरले ही मिलती है। लेकिन अभी तक अगर कहीं पर अनौपचारिक व औपचारिक, संगठित व असंगठित दोनों ही प्रकार के मज़दूर, संगठित होते थे, तो वे लेबर कोर्ट का रुख़ करते थे और कुछ मसलों में आन्दोलन की शक्ति के आधार पर क़ानूनी लड़ाई जीत भी लेते थे। लेकिन अब वे क़ानून ही समाप्त हो जायेंगे और जो नयी श्रम संहिताएँ आ रही हैं उनमें वे अधिकार मज़दूरों को हासिल ही नहीं हैं, जो पहले औपचारिक तौर पर हासिल थे। इन चार श्रम संहिताओं का अर्थ है मालिकों और कारपोरेट घरानों, यानी बड़े पूँजीपति वर्ग, को जीवनयापन योग्य मज़दूरी, सामाजिक सुरक्षा और गरिमामय कार्यस्थितियाँ दिये बग़ैर ही उनका भयंकर शोषण करने की इजाज़त ओर मौक़ा देना।

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (दसवीं किश्त)

अपनी रचना ‘क्या करें?’ में लेनिन अर्थवादियों की इस बात के लिए आलोचना करते हैं जब वे कहते हैं कि मज़दूर चूँकि साढ़े ग्यारह-बारह घण्टे कारख़ाने में बिताता है इसलिए आन्दोलन के काम को छोड़कर (यानी कि आर्थिक संघर्ष को छोड़कर) बाक़ी सभी कामों का बोझ “लाज़िमी तौर पर मुख्यतया बहुत ही थोड़े-से बुद्धिजीवियों के कन्धों पर आ पड़ता है”। लेनिन इस अर्थवादी समझदारी का विरोध करते हैं और कहते हैं कि ऐसा होना कोई “लाज़िमी” बात नहीं है। लेनिन बताते हैं कि ऐसा वास्तव में इसलिए होता है क्योंकि क्रान्तिकारी आन्दोलन पिछड़ा हुआ है और इस भ्रामक समझदारी से ग्रस्त है कि हर योग्य मज़दूर को पेशेवर उद्वेलनकर्ता, संगठनकर्ता, प्रचारक, साहित्य-वितरक, आदि बनाने में मदद करना उसका कर्तव्य नहीं है। लेनिन कहते हैं कि इस मामले में हम बहुत शर्मनाक ढंग से अपनी शक्ति का अपव्यय करते हैं; “जिस चीज़ की हमें विशेष ज़ोर देकर हिफ़ाज़त करनी चाहिए, उसकी देखरेख करने की हममें क़ाबिलियत नहीं है”। लेनिन इस अर्थवादी सोच का भी खण्डन करते हैं जो केवल मज़दूरों को उन्नत, औसत और पिछड़े तत्वों में बाँटती है। लेनिन के अनुसार न केवल मज़दूर बल्कि बुद्धिजीवियों को भी इन तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है।