Category Archives: गतिविधि रिपोर्ट

काम की माँग व बेरोजगारी भत्ते की माँग को लेकर मनरेगा यूनियन का प्रदर्शन

मज़दूरों ने बताया कि यूँ तो सरकार मनरेगा में 100 दिन के काम की गारण्टी देती है लेकिन वह अपनी ज़ुबान पर कहीं भी खरी नहीं उतरती। मनरेगा में पहले से ही बजट की कमी के साथ धाँधली होने का आरोप लगता रहा है। अब गाँव में मज़दूरों की संख्या बढ़ने से मनरेगा पर भार बढ़ना लाज़िमी था। ऐसे में सरकार को कायदे से मनरेगा के बजट, कार्यदिवस व दिहाड़ी में बढ़ोत्तरी करनी चाहिए थी। लेकिन मोदी सरकार ने उल्टा मनरेगा बजट में कटौती कर मज़दूरों के हालातों को और बदतर बनाने की योजना बना रखी है।

पाँच दिवसीय सातवीं अन्तरराष्ट्रीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी हैदराबाद में सम्पन्न हुई! फ़ासीवाद की सही समझ के साथ इसके विरुद्ध संघर्ष तेज़ करने का संकल्प

हमारे देश के कम्युनिस्ट आन्दोलन में फ़ासीवाद की समझदारी को लेकर आम तौर पर काफ़ी विभ्रम मौजूद हैं। कई संगठन और समूह बीसवीं सदी के फ़ासीवाद के हूबहू दोहराव की अपेक्षा कर रहे हैं तो कई आज मौजूदा सत्ता को फ़ासीवादी कहते हैं मगर उनमें फ़ासीवाद की स्पष्ट समझदारी की कमी है और वे फ़ासीवाद से लड़ने के लिए बीसवीं सदी में अपनायी गयी रणनीतियों से आगे नहीं बढ़ पा रहें हैं। ऐसे में, भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन में अरविन्द स्मृति न्यास द्वारा आयोजित यह संगोष्ठी  एक पथ प्रदर्शक के तौर पर उन तमाम लोगों के लिए मददगार है जो फ़ासीवाद को समझने और उसके ख़िलाफ़ सही सर्वहारा रणनीति बनाने के काम में जुटे हुए हैं।

उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग के ख़िलाफ़ छात्रों के आन्दोलन से हम मजदूरों को क्या सीखना चाहिए?

बिना किसी क्रान्तिकारी नेतृत्व के कोई भी स्वत:स्फूर्त आन्दोलन या जनउभार कुछ सफलताओं और अराजकता के साथ अन्ततः ज़्यादा से ज़्यादा किसी समझौते या अक्सर असफलता पर ही ख़त्म होता है। पिछले एक दशक में ही ऐसे तमाम जनान्दोलन दुनिया भर में देखने में आये हैं, जो स्वत:स्फूर्त थे, अपनी ताक़त से शासक वर्ग को भयभीत कर रहे थे, लेकिन किसी स्पष्ट राजनीतिक लक्ष्य, कार्यक्रम और नेतृत्व के अभाव में अन्त में वे दिशाहीन हो गये, जनता अन्तत: थककर वापस लौटी और शासक वर्गों को अपने आपको और अपनी सत्ता को वापस सम्भाल लेने का अवसर मिल गया। ऐसा ही हमें श्रीलंका और बंगलादेश में अचानक से हुए जनउभार में देखने को मिला। यही हमें अरब जनउभार में भी देखने को मिला था। इसलिए जो एक नकारात्मक सबक हमें इन उदाहरणों से मिलता है, वह यह कि हमें अपना ऐसा स्वतन्त्र राजनीतिक नेतृत्व और संगठन विकसित करना चाहिए जो पूँजीपति वर्ग के सभी चुनावबाज़ दलों के असर से मुक्त हो, पूर्ण रूप से मज़दूर वर्ग की नुमाइन्दगी करता हो, उसकी राजनीति और विचारधारा मज़दूर वर्ग की राजनीति और विचारधारा हो। ऐसे क्रान्तिकारी सर्वहारा संगठन के बिना जनसमुदाय कभी भी अपने जनान्दोलनों के उद्देश्यों की पूर्ति तक नहीं पहुँच सकते।

क्रान्तिकारी मनरेगा यूनियन (हरियाणा) द्वारा सदस्यता कार्ड जारी किये गये और आगामी कार्य योजना बनायी गयी

कलायत, कैथल में मनरेगा के काम की जाँच-पड़ताल में पता चला है कि यहाँ किसी भी मज़दूर परिवार को पूरे 100 दिन का रोज़गार नहीं मिलता है, जैसा कि क़ानूनन उसे मनरेगा के तहत मिलना चाहिए। असल में सरकारी क़ानून के तहत 1 वर्ष में एक मज़दूर परिवार को 100 दिन के रोज़गार की गारण्टी मिलना चाहिए। साथ ही क़ानूनन रोज़गार के आवदेन के 15 दिन के भीतर काम देने या काम ना देने की सूरत में बेरोज़गारी भत्ता देने की बात कही गयी है।

दिल्ली के करावल नगर में जारी बादाम मज़दूरों का जुझारू संघर्ष : एक रिपोर्ट

हड़ताल मज़दूरों को सिखाती है कि मालिकों की शक्ति तथा मज़दूरों की शक्ति किसमें निहित होती है; वह उन्हें केवल अपने मालिक और केवल अपने साथियों के बारे में ही नहीं, वरन तमाम मालिकों, पूँजीपतियों के पूरे वर्ग, मज़दूरों के पूरे वर्ग के बारे में सोचना सिखाती है। जब किसी फ़ैक्टरी का मालिक, जिसने मज़दूरों की कई पीढ़ियों के परिश्रम के बल पर करोड़ों की धनराशि जमा की है, मज़दूरी में मामूली वृद्धि करने से इन्कार करता है, यही नहीं, उसे घटाने का प्रयत्न तक करता है और मज़दूरों द्वारा प्रतिरोध किये जाने की दशा में हज़ारों भूखे परिवारों को सड़कों पर धकेल देता है, तो मज़दूरों के सामने यह सर्वथा स्पष्ट हो जाता है कि पूँजीपति वर्ग समग्र रूप में समग्र मज़दूर वर्ग का दुश्मन है और मज़दूर केवल अपने ऊपर और अपनी संयुक्त कार्रवाई पर ही भरोसा कर सकते हैं।

‘भगतसिंह जनअधिकार यात्रा’ का दूसरा चरण : समाहार रपट

3 मार्च को दिल्ली में यात्रा के समापन के तौर पर होने वाले विशाल प्रदर्शन को रोकने के लिए दिल्ली पुलिस ने एड़ी-चोटी का पसीना एक कर दिया, बवाना औद्योगिक क्षेत्र में यात्रा के समर्थन में हुई हड़ताल को कुचलने के लिए गिरफ्तारियाँ और हिरासत में यातना तक का सहारा लिया, जन्तर-मन्तर से कई लहरों में हज़ारों लोगों को बार-बार हिरासत में लिया और शहर में जगह-जगह जत्थों में आ रहे मज़दूरों, मेहनतकशों, छात्रों-युवाओं को रोकने की कोशिश की और जन्तर-मन्तर पर कई दफ़ा लाठी चार्ज तक किया। लेकिन इससे भी वह प्रदर्शन को रोकने में कामयाब नहीं हो पायी। जन्तर-मन्तर पर तो बार-बार प्रदर्शन हुए ही, दिल्ली के करीब आधा दर्जन पुलिस थानों में भी प्रदर्शन होते रहे। प्रदर्शन का सन्देश सीमित होने के बजाय पूरे शहर में और भी ज़्यादा व्यापकता के साथ फैला।

राष्ट्रीय पेंशन योजना : कर्मचारियों के हक़ों पर मोदी सरकार का एक और हमला

सरकारी कर्मचारियों को सामाजिक सुरक्षा के नाम पर जो कुछ भी मिलता था, उसको भी ख़त्म कर देने की योजना है। 2014 में “अच्छे दिन” का सपना दिखाकर सत्ता में पहुँची फ़ासीवादी मोदी सरकार ने अपने 10 सालों के शासनकाल में आम मेहनतकश आबादी पर कहर ही बरपाया है। पिछले 5 सालों में मोदी सरकार पूँजीपतियों के 10.6 लाख करोड़ का कर्ज़ माफ़ कर चुकी है। जिसकी भरपाई आम जनता के जेब से कर रही है। लगतार अप्रत्यक्ष करों को बढ़ाकर महँगाई बढ़ाई जा रही है। विभागों के निजीकरण से रोज़गार का संकट और भी विकराल होता जा रहा है। मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था आर्थिक संकट के लाइलाज़ भँवरजाल में फँस चुकी है। 1990–91 में आर्थिक उदारीकरण–निजीकरण की नीतियाँ इसी भँवरजाल से निकल पाने की कवायद थीं। इन नीतियों के तहत सार्वजनिक उपक्रमों का तेजी से निजीकरण किया गया जिसका परिणाम है कि रोज़गार के अवसर तेजी से कम हुए और आज बेरोज़गारी विकराल रूप ले चुकी है।

भगतसिंह जनअधिकार यात्रा (दूसरा चरण : 10 दिसम्बर से 3 मार्च) – एक संक्षिप्त रिपोर्ट

जनता के बीच सरकार की नीतियों के खिलाफ़ भयंकर असन्तोष और गुस्सा है। भाजपा के पक्ष में आज 15 से 20 फ़ीसदी वही आबादी बोल रही है जिसका फ़ासीवादियों ने व्यवस्थित रूप से साम्प्रदायीकरण किया है बाक़ी एक बड़ी आबादी वो है जो इनकी असलियत से वाकिफ़ हो चुकी है और इसलिए ही इस बार 2024 के चुनाव से पहले ये बेहद की आक्रामक तरीके से हिन्दू-मुसलमान, मन्दिर-मस्जिद का खेल खेल रहे हैं। महँगाई और बेरोज़गारी के मुद्दे पर फ़ेल मोदी सरकार अब आम जनता को बता रही है कि यह सब तो ईश्वर का प्रकोप है, रामलला आयेंगे और सब ठीक हो जाएगा!

ग्लोबल डे ऑफ़ एक्शन फ़ॉर गाज़ा के मौक़े पर भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी व अन्य जन संगठनों ने कई शहरों में प्रदर्शन किया

गाज़ा की जनता तक न तो पर्याप्त मात्रा में भोजन पहुँचने दिया जाता है, न ईंधन और न ही अन्य आवश्यक वस्तुएँ और सेवाएँ। नतीजतन, दुनिया में सबसे ज़्यादा जनसंख्या घनत्व रखने वाली यह ‘खुली जेल’ फ़िलिस्तीनियों के लिए एक क़ब्रगाह बनी हुई है, जहाँ फ़िलिस्तीनी बच्चे-बूढ़े और जवान एक धीमी मौत मर रहे हैं। 7 अक्टूबर को फ़िलिस्तीनी जनता ने जेल तोड़ी और अपने औपनिवेशिक उत्पीड़कों, यानी ज़ायनवादी इज़रायल पर हमला बोला। इस हमले के विरुद्ध इज़रायली उपनिवेशवादियों को “आत्मरक्षा” का उतना ही अधिकार है, जितना कि भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों को भगतसिंह व उनके साथियों व अन्य क्रान्तिकारियों द्वारा की गयी कार्रवाइयों के ख़िलाफ़ था, या अल्जीरिया में अल्जीरियाई मुक्ति योद्धाओं के हमले के विरुद्ध फ्रांसीसी उपनिवेशवादियों को था जिन्होंने हथियारों के दम पर अल्जीरिया पर कब्ज़ा कर रखा था।

फ़िलिस्तीन के समर्थन में और हत्यारे इज़रायली ज़ायनवादियों के ख़िलाफ़ देशभर में विरोध प्रदर्शनों को कुचलने में लगी फ़ासीवादी मोदी सरकार

भारत इज़रायल के हथियारों का सबसे बड़ा ख़रीदार है। वहीं दोनो के खुफिया तन्त्र में भी काफ़ी समानता है। ज्ञात हो कि जासूसी उपकरण पेगासस भारत को देने वाला देश इज़रायल ही है। यह भी एक कारण है कि मोदी सरकार देश भर में जारी इज़रायल के प्रतिरोध से घबरायी हुई है, कि कहीं इससे उनके ज़ायनवादी दोस्त नाराज़ न हो जायें। वहीं फ़िलिस्तीन मसले पर इन्दिरा गाँधी के दौर तक भारत ने कम-से-कम औपचारिक तौर पर फ़िलिस्तीनी मुक्ति के लक्ष्य का समर्थन किया था और इज़रायल द्वारा फ़िलिस्तीनी ज़मीन पर औपनिवेशिक क़ब्ज़े को ग़लत माना था। 1970 के दशक से प्रमुख अरब देशों का फ़िलिस्तीन के मसले पर पश्चिमी साम्राज्यवाद के साथ समझौतापरस्त रुख़ अपनाने के साथ भारतीय शासक वर्ग का रवैया भी इस मसले पर ढीला होता गया और वह “शान्ति” की अपीलों और ‘दो राज्यों के समाधान’ की अपीलोंमें ज़्यादा तब्दील होने लगा। अभी भी औपचारिक तौर पर तो भारत फ़िलिस्तीन का समर्थन करता है, पर वह सिर्फ़ नाम के लिए ही है।