श्रीराम सेने नामक साम्प्रदायिक संगठन के नेता की शर्मनाक हरकत
मुस्लिम प्रिंसिपल से थी चिढ़ तो स्कूल की पानी टंकी में मिला दिया ज़हर

नौरीन

हममें से अधिकतर लोगों ने फ़िल्मों में देखा होगा, कहानियों में पढ़ा होगा, इतिहास में पढ़ा होगा कि कैसे 1857 के विद्रोह के बाद, ब्रिटिश हुक़ूमत को यह बात समझ आ गयी थी कि अगर भारत में शासन करना है तो हिन्दू-मुस्लिम एकता को तोड़ना होगा। इसके बाद अंग्रेज़ों ने शुरू किया ‘फूट डालो-राज करो’ की नीति। इसी कड़ी में हिन्दू-मुसलमान के बीच दंगा कराने के लिये कभी मस्ज़िदों के सामने सुअर का मांस तो कभी मन्दिरों के सामने गाय का मांस फेंक दिया जाता था, ताकि लोग आपस में लड़ते रहें। आज़ादी के समय ये काम अंग्रेज़ों और उनके दलालों ने किया था। लेकिन आज कुछ इसी तरह का काम उस समय अंग्रेज़ों की पूँछ में कँघी करने वाले सावरकर की सियासी औलादें कर रही हैं।

अभी हाल ही में एक घटना सामने आयी है जिसमें कर्नाटक के बेलगावी ज़िले में एक सरकारी स्कूल में मुस्लिम प्रिंसिपल को हटाने के लिये पानी की टंकी में ज़हर डाला गया। पानी पीने से बारह छात्रों के बीमार पड़ने की ख़बर है। 14 जुलाई को घटित इस घटना में तीन लोगों को गिरफ़्तार किया गया है। इसमें श्री राम सेने नामक साम्प्रदायिक दक्षिणपन्थी समूह से सम्बद्ध एक स्थानीय नेता सागर पाटिल भी शामिल है।  इस घटना का मक़सद हिन्दू-मुसलमान के  बीच तनाव पैदा करना था ताकि प्रिंसिपल को हटाया जा सके। पुलिस का कहना है कि पूछताछ के दौरान पाटिल ने क़बूल किया कि ‘उसे स्थानीय सरकारी स्कूल में एक मुस्लिम के प्रधानाध्यापक पद पर आसीन होने से चिढ़ थी|’ पीने के पानी में ज़हर मिलाने की यह घटना  मुसलमानों के ख़िलाफ़ सालों से भरे जा रहे नफ़रत को दर्शाती है। अपना राजनीतिक हित साधने के लिये, धर्म के नाम पर लोगों को बाँटकर और लड़ाकर अपना उल्लू सीधा करने में लगी फ़ासीवादी ताक़तें पूरे देश को साम्प्रदायिकता की आग में झोंक रही हैं।

सत्ता में आने के बाद से फ़ासीवादी मोदी सरकार एक तरफ़ लोगों को महँगाई, बेरोज़गारी, महँगी शिक्षा, महँगी चिकित्सा के तले रौंद रही है, वहीं दूसरी तरफ़ लोग सरकार से सवाल न करें इसलिये उन्हें जाति-धर्म, भाषा, क्षेत्र जैसे नक़ली मुद्दों में बाँटा जा रहा है। मुसलमानों के रूप में एक नक़ली दुश्मन खड़ा करके उन्हें देश में मौजूद सभी समस्याओं के लिये ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है। देश के अलग-अलग हिस्सों में मॉब लिंचिंग की घटनाएँ हों या फ़िर मुसलमानों को घुसपैठिया क़रार देकर देश में साम्प्रदायिक तनाव पैदा करना हो, फ़ासीवादी भाजपा, आरएसएस और उसकी गुण्डा वाहिनियाँ बिना किसी संकोच के ये काम कर रही हैं। अपने जन्म से लेकर ही, संघ की तरफ़ से फैलाया गया साम्प्रदायिक ज़हर कितना ख़तरनाक और व्यापक रूप धारण कर चुका है, इसके परिणाम हमें पिछले 11 वर्षों में मोदी सरकार के कार्यकाल में देखने को मिल चुका है। आँकड़ों की बात करें तो बीते साल 2024 में भारत में हुए साम्प्रदायिक दंगों में 84 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी देखी गयी, जिनमें सबसे बड़ा निशाना ज़ाहिरा तौर पर मुस्लिम आबादी रही। 2020 में साम्प्रदायिक हिंसा की कुल 857 घटनाएँ हुईं, यह 2019 की तुलना में 94 प्रतिशत ज़्यादा थी। ऐसा नहीं है कि भारत में 2014 से पहले दंगे नहीं होते थे या साम्प्रदायिक घटनाएँ नहीं घटती थी। लेकिन 2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से देश भर में होने वाली साम्प्रदायिक घटनाओं में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है।

इस घटना के बाद उठते कुछ ज़रूरी सवाल

कर्नाटक में घटित इस घटना ने हमें सोचने पर मज़बूर कर दिया है कि आख़िर हमारा समाज किस ओर जा रहा है। यह घटना दिखाती है कि फ़ासीवादी भाजपा और आरएसएस की नफ़रती राजनीति और ज़हरीली मानसिकता कितनी गहराई में अपनी पैठ बना चुकी है। सत्ता में आने के बाद से फ़ासीवादी मोदी सरकार ने साम्प्रदायिकता की आग में देश को धकेला है, उसके परिणाम अब नग्न रूप में दिखने लगा है। एक ख़ास क़ौम के ख़िलाफ़ कभी टीवी मीडिया के रीढ़विहीन एंकरों द्वारा तो कभी अनुराग ठाकुर, कपिल मिश्रा, हेमन्ता बिस्वा शर्मा जैसे दंगाइयों के द्वारा नफ़रत उगला जाता है। इससे स्थानीय स्तर पर मौजूद छोटे-छोटे साम्प्रदायिक संगठनों को खुली छूट मिलती है, जो किसी न किसी रूप में सीधे या घुमा-फिराकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की समूची मशीनरी का ही हिस्सा होते हैं। इसलिये श्री राम सेने नामक दक्षिणपन्थी संगठन के नेता द्वारा पानी में ज़हर मिलाने की घटना को आरएसएस और भाजपा की साम्प्रदायिक फ़ासीवादी राजनीति से अलग करके नहीं देखा जा सकता।

आज हमारा देश ज्वालामुखी के दहाने पर खड़ा है।  अगर अब भी हम चुप रहें तो आने वाली नस्लें हमसे ज़रूर सवाल करेंगी कि जब देश को दंगों की आग में धकेला जा रहा था, तब आप क्या कर रहे थे ? अगर आप ठहरकर इत्मीनान से सोचेंगे कि आख़िर हमारे दिमाग में इतना ज़हर कहाँ से आ रहा है तो पायेंगे कि इस ज़हरीली मानसिकता को खाद पानी देने का काम आज की फ़ासीवादी व्यवस्था कर रही है। आज जब जनता अपनी ज़िन्दगी से जुड़े बुनियादी सवालों के ज़वाब माँग रही है तो उसे बहकाने, भरमाने और आपस में बाँटने के लिए फ़ासिस्ट सत्ता और उसके टुकडों पर पलने वाले गिरोह  जाति और धर्म के झूठे नारे उछाल रहे हैं और हिन्दू राष्ट्र के हवाई सपने के नाम पर साम्प्रदायिकता को खुलेआम बढ़ावा दे रहे हैं। टंकी के पानी में ज़हर मिलाने की घटना कोई मामूली घटना नहीं है। ये फ़ासिस्ट प्रोपैगेण्डा का एक हिस्सा है। ऐसी घटनाओं को सोचे समझे तरीक़े से अंज़ाम दिया जाता है ताकि समाज में तनाव का माहौल बना रहे। अभी तक के अपने कार्यकाल में मोदी सरकार हर मोर्चे पर विफ़ल रही है। इसलिये अपनी नाकामियों को छुपाने के लिये जनता के बीच नक़ली मुद्दा उछालती रहती है।

अशफ़ाक़बिस्मिल की यारी
साझी विरासत है हमारी!

हमें यह बात अपने दिमाग में बैठा लेना होगा कि फ़ासीवादी मोदी सरकार सिर्फ़ मुसलमानों की नहीं, बल्कि उन तमाम लोगों की दुश्मन है जो अपने हक़ अधिकारों के लिये आवाज़ उठा रहें हैं। इसलिये हम मेहनतकशों को जाति-धर्म की दीवार को तोड़कर अपनी फ़ौलादी एकजुटता क़ायम करनी होगी।

हमारा देश भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव, चन्द्रशेखर आज़ाद का देश है। सावित्री – फ़ातिमा का देश है। हमारी विरासत अशफ़ाक़ – बिस्मिल की यारी है। अशफ़ाक़ उल्ला खाँ पाँच वक़्ती नमाज़ी थे और रामप्रसाद बिस्मिल आर्य समाजी हिन्दू थे। इसके बावजूद दोनों एक साथ हँसते-हँसते अपने देश की ख़ातिर फाँसी के फन्दे पर चढ़ गये थे। जैसा कि अशफ़ाक़ उल्ला खाँ ने कहा था कि “सात करोड़ मुसलमानों को शुद्ध करना नामुमकिन है, और इसी तरह यह सोचना भी फ़िज़ूल है कि पच्चीस करोड़ हिन्दुओं से इस्लाम क़बूल करवाया जा सकता है। मगर हाँ, यह आसान है कि हम सब गुलामी की ज़ंजीरें अपनी गर्दन में डाले रहें।” दूसरी तरफ़ रामप्रसाद बिस्मिल देशवासियों से अपील कर रहे थे कि “यदि देशवासियों को हमारे मरने का ज़रा भी अफ़सोस है तो वे जैसे भी हो हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करें। यही हमारी आख़िरी इच्छा थी, यही हमारी यादगार हो सकती है।” इसी बात को अपनी भाषा में समझाते हुए भगतसिंह ने कहा था कि धर्म सबका निजी मसला है। कोई व्यक्ति कौन सा धर्म मानता है या कोई भी धर्म नहीं मानता इसका समाज और राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है। हर ग़रीब, दमित, कुचले गये वर्ग की राजनीति एक है, जबकि जो दूसरों को लूटते हैं, दबाते हैं, ख़ुद कोई मेहनत नहीं करते, उनकी एक राजनीति है। तय हमें करना है कि हम अपनी राजनीति कैसे चुनते हैं। साम्प्रदायिकता की फ़ासीवादी राजनीति में बहने का अर्थ है अपने दुश्मनों की राजनीति का टट्टू बनना। हमारे क्रान्तिकारियों ने हिन्दू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल पेश की थी आज उस विरासत को आगे बढ़ाने का कार्यभार हम मेहनतकशों के कन्धों पर है। हमें फ़ासीवादी साम्प्रदायिक राजनीति के बरक्स आम मेहनतकश जनता की एकता बनानी होगी। अपने जीवन के असली मुद्दों पर एकजुट और संगठित होकर इन साम्प्रदायिक ताक़तों से लड़ना होगा।

 

मज़दूर बिगुल, अगस्त 2025

 

 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
     

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन