‘बंगलादेशी घुसपैठियों’ के नाम पर देशभर में मेहनतकश ग़रीब जनता पर पुलिस, प्रशासन और संघी संगठनों की गुण्डागर्दी व बर्बरता

तनुष

बीते महीने भारत सरकार द्वारा देश के कई राज्यों में 2000 से अधिक बांग्लाभाषी प्रवासी मज़दूरों को सारी क़ानूनी प्रक्रियाओं की धज्जियाँ उड़ा कर गिरफ़्तार किया गया और हिरासत केन्द्र में डाल दिया गया। गुजरात, दिल्ली, हरियाणा आदि जैसे राज्यों से प्रवासियों को पुलिस द्वारा जबरन उठाकर सीमावर्ती राज्य जैसे त्रिपुरा, मेघालय, असम आदि में भेज कर अस्थायी हिरासत केन्द्र में डाल दिया गया और कई प्रवासियों को सीमा सुरक्षा दल द्वारा सीधे सीमा के उस पार, बंगलादेश में ढकेल दिया गया। अधिकारियों ने बताया कि उन्हें यह करने के आदेश सीधे गृह मन्त्रालय से मिले हैं और यह सब पहलगाम आतंकी हमले के बाद की जाने वाली ‘कार्रवाई’ है। हाल में गुरुग्राम पुलिस द्वारा कई बंगाली झुग्गी बस्तियों में छापा मारा गया और सैकड़ों बंगाली मुसलमानों को हिरासत में लिया गया। कई लोग जिनके पास दस्तावेज़ नहीं थे, उन्हें तो गैर-क़ानूनी ढंग से हिरासत में लिया ही गया, साथ ही साथ, जिनके पास नागरिकता के दस्तावेज़ थे, उन्हें भी हिरासत में लिया गया। ठाणे में राजमिस्त्री का काम करने वाले 36 वर्षीय मेहबूब शेख़ को 11 जून को सीमा सुरक्षा दल द्वारा हिरासत में लेकर बंगलादेश की सीमा पर भेज दिया गया, जबकि उनके परिवार और स्थानीय पुलिस ने उनकी नागरिकता साबित करने के लिए दस्तावेज़ जैसे, आधार, पहचान पत्र, और ज़मीनी कागज़ात ज़मा किये थे। मुर्शिदाबाद के शमीम खान के साथ भी यही सलूक किया गया और ऐसे ही सैकड़ों उदाहरण इस दौरान सामने आये। यह दरअसल प्रवासी व घुसपैठिये के नाम पर ग़रीब मुसलमान मज़दूरों व मेहनतकशों का उत्पीड़न और उन्हें नागरिकता से वंचित करने की मोदी-शाह सरकार की साम्प्रदायिक साज़िश है।

प्रवासियों के ख़िलाफ़ भाजपा-आरएसएस का यह नफ़रती प्रोपगैण्डा सिर्फ़ पहलगाम हमले के बाद शुरू नहीं हुआ। बल्कि बंगलादेशी, पाकिस्तानी या रोहिंग्या के नाम पर, भारतीय मुसलमान मेहनतकश आबादी के ख़िलाफ़ इन संघी फ़ासिस्टों का प्रचार काफ़ी पहले से जारी है। 2019 में सीएए-एनआरसी लाने का यही उद्देश्य था कि क़ानूनी तौर यह ध्रुवीकरण खड़ा हो और मुस्लिम आबादी को नागरिकता के नाम प्रताड़ित किया जा सके। उस समय आम अवाम के प्रतिरोध के कारण भाजपा अपना यह फ़ासीवादी प्रोजेक्ट साकार नहीं कर पायी थी।

इसी कड़ी में असम में हो रही घटनाओं पर भी नज़र डालते हैं। असम के मुख्यमन्त्री और संघी फ़ासिस्टों के उभरते पोस्टरबॉय हेमन्त बिस्वा सरमा अपने नफ़रती बयान में खुलेआम ‘बंगलादेशी घुसपैठियों’ और उनके नाम पर बांग्ला-भाषी मुसलमानों को हिरासत केन्द्र में डालने और बंगलादेश में फेंक देने की भड़काऊ बात करते हैं। असम से आए-दिन ऐसे खबरें आती हैं, जिनमें संघियों और भाजपाइयों की गुण्डा वाहिनियाँ जैसे ‘सचेतन युवा मंच’ और ‘बीर लचित सेना’ आदि जगह-जगह जाकर आम मुसलमान आबादी को प्रताड़ित कर रही हैं और उनपर संगठित रूप से हमले कर रही हैं। असम पुलिस भी लोगों को ‘बंगलादेशी’ बोलकर हिरासत में ले रही है। याद कीजिए सीएए-एनआरसी का भी पहला प्रयोग असम में ही हुआ था, जिसमें सबसे अधिक नागरिकता गँवाने वाली हिन्दू आबादी थी। अगर हम असम में संघियों और असम के अन्धराष्ट्रवादी-प्रतिक्रियावादी संगठनों द्वारा किये जा रहे इस ‘प्रवासी–बनाम–निवासी’ के नाम पर ध्रुवीकरण के पीछे की भौतिक कारणों की पड़ताल करेंगे तो पायेंगे कि आर्थिक मन्दी के दौर में बेरोज़गारी से परेशान आम जनता की बेचैनी को एक सही रास्ता नहीं मिल पा रहा है और इसका फ़ायदा फ़ासीवादी एवं प्रतिक्रियावादी शक्तियों ने उठा कर, ‘विदेशी घुसपैठियों’ के नाम पर एक नक़ली शत्रु का निर्माण कर, आम जनता को आपस में ही बाँट रही हैं, ताकि शोषणकारी पूँजीवादी व्यवस्था पर कोई सवाल खड़ा न कर सके, जो सही मायने में आम लोगों की बदहाली के लिए ज़िम्मेदार है। इस बार भी मोदी-शाह गिरोह की इस साज़िश का निशाना बेगुनाह मेहनतकश लोग बनेंगे, जिनका बंगलादेश से कोई लेना-देना नहीं है। उनका गुनाह सिर्फ़ यह है कि वे मुसलमान हैं, हालाँकि वे पुश्तों से इसी देश में रहते आये हैं, यहीं काम करते हैं, यहीं अपनी रोज़ी-रोटी कमाते हैं। यूँ तो दुनिया भर में इन्सानियत के तकाज़े के चलते अन्तरराष्ट्रीय क़ानून की यह मान्यता रही है कि अगर आम ग़रीब मेहनतकश लोग अपने देश में उत्पीड़न व दमन के कारण या ग़रीबी और बेरोज़गारी के कारण किसी अन्य देश में आप्रवासी के तौर पर जाते हैं, तो उन्हें वहाँ शरण दी जानी चाहिए और निश्चित स्थितियों में नागरिकता भी दी जानी चाहिए। वे भी आख़िर इन्सान हैं और देशों के बीच की सीमाएँ तो मानव इतिहास में अभी हाल में ही पैदा हुई हैं। सीमाओं का पूँजीपति वर्ग द्वारा अपने हितों में नियन्त्रण भी दो सौ साल से ज़्यादा पुराना नहीं है। हर देश का पूँजीपति वर्ग सस्ते श्रम के वास्ते अपने देश में ज़रूरत पड़ने पर “ग़ैर-क़ानूनी” तरीक़े से मज़दूरों व मेहनतकशों को सीमा पार कर आने भी देता है और फिर उसे देश के भीतर “ग़ैर-क़ानूनी आप्रवासी” कहकर उत्पीड़ित भी करता है, देश की जनता को उसके ख़िलाफ़ भड़काता भी है। इससे एक तीर से दो शिकार होते हैं: एक तरफ़ आप्रवासी मज़दूरों का श्रम बेहद सस्ता बना रहता है, उनका अमानवीय शोषण बेरोक होता है और वे कोई प्रतिरोध भी नहीं कर सकते क्योंकि उन्हें नागरिक पहचान से भी वंचित कर दिया जाता है; दूसरी ओर, देश की आम मेहनतकश जनता का ध्यान भी असल मसलों से “बंगलादेशी घुसपैठिये” जैसी फालतू की बकवास की ओर धकेला जा सकता है, ताकि उसके जीवन के बुरे हालात के उत्तरदायी पूँजीपति वर्ग और पूँजीवादी व्यवस्था को कठघरे से बाहर कर दोषमुक्त किया जा सके। यह है आज के फ़ासीवादी रंगा-बिल्ला गिरोह की सरकार का षड्यन्त्र।

एक और बात पर हमें गौर करना चाहिए कि किस तरह फ़ासीवादी मोदी सरकार आम जनता को प्रताड़ित करने का सारा काम संवैधानिक दायरे के भीतर रह कर और राज्य मशीनरी का इस्तेमाल करके कर रही है। सर्वोच्च न्यायालय तक ने बंगलादेशी और रोहिंग्या शरणार्थियों की मदद करने से इन्कार कर दिया। यह दर्शाता हैं कि एक तरफ़, किस प्रकार भारतीय संविधान और क़ानूनी व्यवस्था में कभी भी वह वास्तविक जनवादी गुण था ही नहीं, जो इन फ़ासीवादियों को अपनी नफ़रती करतूतों को अंजाम देने से रोक पाये और आज इक्कीसवीं सदी में हिन्दुत्व फ़ासीवादियों को इस बुर्जुआ उदारवादी लोकतंत्र के खोल को उतारने की कोई ज़रूरत नहीं रह गयी है, वहीं दूसरी ओर, सत्ता में आने से पहले से ही कई दशकों से इन संघी फ़ासिस्टों ने राज्य मशीनरी, पुलिस और कर्मचारियों के बीच में बहुत ही सोचे-समझे तरीके से घुसपैठ की है और इसलिए पूरा सरकारी तन्त्र आज इनके अनुसार काम कर रहा है। नतीजतन, जो रहे-सहे जनवादी अधिकार जनता को हासिल थे, वे भी आज फ़ासीवादी दीमक भीतर से कुतर चुके हैं।

अन्त में सवाल उठता है कि इस पूरे ध्रुवीकरण के दौर में आम मेहनतकशों-मजदूरों का क्या पक्ष होना चाहिए?

पहली बात तो यह कि हर वह व्यक्ति जो इस देश में रहता है या आता है, सिर्फ़ पेट लेकर नहीं आता बल्कि दो हाथ भी लेकर आता है और मेहनत-मशक्क़त करता है और अपने हक़ का खाता है, वह यहाँ बस सकता है क्योंकि वह परजीवी नहीं बल्कि इसी समाज में अपने श्रम से भौतिक सम्पदा का सृजन कर रहा है। अगर किसी बंगलादेशी को देश से बाहर करना चाहिए तो वह बंगलादेश की ज़ालिम भूतपूर्व शासक शेख़ हसीना है, जिसे भारत की मोदी सरकार ने पनाह दे रखी है! वह तो बस यहाँ ऐश कर रही है! लेकिन निशाना मज़दूरों को बनाया जा रहा है, जिनमें से अधिकांश तो बंगलादेश से आये भी नहीं हैं, वे बस मुसलमान हैं और बांग्लाभाषी हैं।

हमें यह भी समझना चाहिए कि बेरोज़गारी या महँगाई का कारण आबादी या “विदेशी घुसपैठिये” नहीं, बल्कि यह शोषणकारी पूँजीवादी व्यवस्था है, जो अपनी आम गतिकी से ऐसी सामाजिक आपदाओं को जन्म देती है। हमें यह भी बात गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि इस दुनिया में एक तरफ़ मेहनतकश वर्ग है, जो अपनी मेहनत का खाते हैं और दूसरी तरफ हैं लुटेरे, जो उस मेहनत को लूट कर ले जाते हैं और इन्हीं लुटेरे और धन्नासेठों की हिमायत करती हैं यह फ़ासीवादी और प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ जो आम जनता को ऐसे ही नक़ली मुद्दों में फँसा कर उन्हें अपने असली शत्रु, जो कि यह समूचा पूँजीपति वर्ग और पूँजीवादी व्यवस्था, को पहचानने नहीं देती। यहाँ से तो यह बात साफ़ हो जाती हैं कि अगर हम इन फ़ासीवादियों के ढकोसलों में फँसते हैं तो अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारेंगे। हमारी भलाई इसी में हैं कि हम तमाम मेहनतकश रंग, जाति, धर्म, राष्ट्र व राष्ट्रीयता और लिंग का भेद छोड़ कर, हमारे रोज़मर्रा के असली मुद्दे मसलन शिक्षा, चिकित्सा, रोज़गार, आवास आदि पर एकजुट होकर एक पूँजीवाद-साम्राज्यवाद विरोधी जनान्दोलन खड़ा करें और इन फ़ासीवादी शक्तियों को पीछे धकेलें।

 

मज़दूर बिगुल, अगस्त 2025

 

 

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