‘केरला स्टोरी’ को राष्ट्रीय पुरस्कार, एक बेहूदा मज़ाक़
ज्योति
आज भारत में कला का इस्तेमाल सत्ता में बैठे फ़ासीवादी गिरोह द्वारा न केवल राष्ट्रवादी भावनाओं को भड़काने के लिए, बल्कि समाज के “अवांछनीय” समुदायों व वर्गों को सांस्कृतिक रूप से हाशिये पर धकेलने के लिए भी किया जा रहा है। इसी कड़ी में ‘केरला स्टोरी’, ‘जहाँगीर नेशनल यूनिवर्सिटी’, ‘कश्मीर फ़ाइल्स’, ‘उरी’, ‘साबरमती रिपोर्ट’ जैसी कई या तो सड़कछाप सस्ती लोकरंजक या सीधे तौर पर भड़काऊ फ़िल्मों की एक क़तार सी लग गई है, जो या तो दो टूक तौर पर या छिपते-छिपाते हिन्दुत्ववादी फ़ासीवादी एजेण्डा को अवाम के बीच परोसने का काम कर रही हैं । ऐसी फ़िल्मों के प्रचार के लिए अक़सर भाजपा सरकार थियेटर की टिकटें सस्ती कर देती है, या फ़िल्म को टैक्स मुक्त कर देती है क्योंकि लाख चाहकर भी फ़ासीवादियों के पास कला नहीं आ पाती और ये फ़िल्में इतनी बुरी बनी होती हैं कि उन्हें देखना मुश्किल होता है। जहाँ मोदी सरकार अपने पूरे प्रचार तन्त्र को ऐसी प्रोपोगैण्डा फ़िल्मों के प्रसार में लगा रही है, वहीं दूसरी तरफ़ ये फ़िल्में सिनेमा और कला आलोचकों से लेकर हर सोचने-समझने वाले व्यक्ति के लिए सिर्फ़ हँसी का पात्र ही बन पा रही हैं। हाल ही मैं ‘केरल स्टोरी’ नामक फ़िल्म को वापिस चर्चा में लाने के लिए भारत सरकार ने इसे राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया। वह भी एक नहीं! दो-दो राष्ट्रीय पुरस्कार! सर्वश्रेष्ठ निर्देशन और सर्वश्रेष्ठ चित्रण कला यानी सिनेमेटोग्राफी! यह पुरस्कार एक सीधा संकेत है, कलाकारों तथा फ़िल्म निर्देशकों के लिए – सेवा करोगे, तो मेवा मिलेगा, यानी, मोदी सरकार की चाटुकारिता करने पर भारत सरकार तुमको पदकों से सम्मानित करेगी, और जनता की बात करने पर मुकदमों और प्रतिबन्ध से!
ये बात अपने आप में ही बेहद मज़ाकिया होने के साथ, बेहद अपमानजनक भी है। जिन पुरस्कारों के विजेताओं की श्रेणी में सत्यजीत रे, श्याम बेनेगल, मृणाल सेन जैसे फ़िल्म निर्देशकों का नाम जुड़ा हो वहाँ ऐसी बेहूदी, ज़हरीली प्रोपगैण्डा फ़िल्म को शामिल करना फ़िल्म जगत में काम कर रहे वास्तविक कलाकारों के ऊपर एक भद्दा मज़ाक है। दूसरा पुरस्कार फ़िल्म की सिनेमेटोग्राफी को मिला है। वैसे जिस अन्दाज़ में फ़िल्म की शूटिंग की गयी है वह कोई यूट्यूब का 10 मिनट वाला वीडियो लगता है!
अन्त में जब इस फ़िल्म को पुरस्कृत करने के पीछे की वजह पूछी गई तो ज्यूरी के कुछ महानुभावों ने व्यक्त किया की ये फ़िल्म “स्पष्ट”, “वास्तविक” और “कथा-केन्द्रित” होने की वजह से सबसे अलग है । वैसे यहाँ जिन “तथ्यों” की बात हो रही है, वे तो फ़िल्म के रिलीज़ होने से पहले ही झूठे साबित हो गये थे और सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के आने से पहले ही ये “तथ्य” बदल दिए गये। और तो और जिस कुत्सा-प्रचार, साम्प्रदायिक व दंगाई उन्माद फैलाने को ज्यूरी ने “यथार्थ” और “जटिल” बताया है, उसी को निर्देशक महोदय यानी थर्ड क्लास दंगाई निर्देशक सुदिप्तो सेन ख़ुद मिथ्या और अतिशयोक्तिपूर्ण मानते हैं। वाक़ई में इस फ़िल्म में एक “रचनात्मक” पहलू तो है – कैसे एक झूठ को बार-बार दोहरा कर उसे सच बना दो और जनता में साम्प्रदायिक फ़ासीवादी प्रचार का ज़हर घोलो। अगर ‘दंगा फैलाने में उत्कृष्टता’ नाम की कोई श्रेणी राष्ट्रीय पुरस्कारों में होती तो हम भी इस फ़िल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार दिये जाने के लिए नामित करना चाहते!
करोड़ों के बजट के बाद भी ‘केरला स्टोरी’ में दर्शक को सिर्फ़ भद्दी एक्टिंग और फूहड़ सिनेमेटोग्राफी ही देखने को मिलती है। इस फ़िल्म में झूठ को सच बता कर पेश करने के अलावा किसी भी चीज़ पर ख़ास ध्यान दिया ही नहीं गया है। फ़िल्म के ज्यादातर फ्रेम्स में जिस प्रकार बिना किसी ठोस शोध किये केरल राज्य और वहाँ की संस्कृति को दर्शाया गया है वह तो बेहद भोंड़ा और हास्यास्पद है ही, साथ ही, समाज में जो पितृसत्तात्मक और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का ज़हर इस फ़िल्म में घोलने की कोशिश की गई है वह भी बेहद मज़ाकिया है। जहाँ से फ़िल्म की कहानी की शुरुआत होती है वहीं से आप पायेंगे की हर मुस्लिम किरदार को एक विशेष प्रकार के संगीत, चेहरे पर एक कुटिल हाव-भाव और हिंदी सिनेमा के “बी” ग्रेड विलेन के तरीक़े से पेश किया जाता है, और महिलाओं को मंदबुद्धि दिखाया जाता है । निर्देशक के मुताबिक ‘द केरला स्टोरी’ केरल में “लव जिहाद” के ज़रिए “मुस्लिम आतंकवादियों” द्वारा “मासूम” अनजान हिन्दू लड़कियों को बहलाकर आतंकी संगठन आईएसआईएस में शामिल करवाने की साज़िश का पर्दाफाश करने वाली एक साहसी फ़िल्म है! इस फ़िल्म की मुख्य किरदार अदा शर्मा, फ़िल्म के टीज़र में दावा करती हैं कि, “मेरे जैसी 32,000 लड़कियाँ सीरिया और अफ़गानिस्तान के रेगिस्तान में दफ़्न हैं।” लेकिन जब इन्हीं मिथ्या-तथ्यों पर सवाल उठाते हुए यह मामला न्यायालय ले जाया जाता है, तो निर्देशक यानी संघी गुबरैले सुदिप्तो सेन अपनी लचीली जुबान का इस्तेमाल करके 32,000 को 3 कर देते हैं! इन कथनों और तथ्यों पर विस्तार से बात ‘मज़दूर बिगुल’ के एक पिछले अंक में रखी जा चुकी है । तथ्यों की गड़बड़ी से आगे बढ़कर ये फ़िल्म महिलाओं ख़ासकर हिन्दू महिलाओं को मूर्ख और बैलबुद्धि दर्शाती है। महिलाओं को इन्सान से नहीं बल्कि एक टेबल या कुर्सी या किसी सामान की भाँति पेश किया जाता है जो किसी एक धर्म, एक समुदाय और उस समुदाय के पुरुषों की सम्पत्ति हैं और जिन्हें दूसरे धर्म और समुदाय के लोग “चुरा” लेंगे!
फ़िल्म की शुरुआत मैं नायिका की नानी द्वारा उसके अकेले बाहर जाकर पढ़ने को उचित ना ठहराना, और अन्त में लड़की के “फँस” जाने पर महिलाओं की आज़ादी पर सवाल खड़ा करना इस फ़िल्म का एक मूल आधार है। घटनाओं को इस क्रम में दर्शा कर महिलाओं द्वारा ख़ुद लिये गये अपने जीवन के फैसलों को ग़लत साबित करके पितृसत्तात्मक मूल्य-मान्यताओं को सही ठहराना इस फ़िल्म का मकसद है। इतना ही नहीं आगे बढ़कर यह फ़िल्म भारत के हर मुसलमान व्यक्ति को आतंकवादी और देशद्रोही बताकर मुस्लिम समुदाय के भारतीय नागरिक होने पर ही प्रश्न उठाती है । सामाजिक उन्माद पैदा करने के अलावा ये फ़िल्म लोगों के व्यक्तिगत जीवन घुसकर में सरकार के टाँग अड़ाने को भी उचित ठहराती है।
इस फ़िल्म के अन्त के एक दृश्य में एक किरदार पुलिस के सामने जाकर गुस्से में बेबुनियाद और फर्जी आँकड़ों का हवाला देकर उन्हें “लव जिहाद” पर हथकण्डा कसने को उकसाती है तब पुलिस की तरफ से जो उत्तर आता है, “आपकी बात ठीक है, पर बिना एविडेंस के हम दो एडल्ट्स की लाइफ़ में कैसे इण्टरफ़ेयर कर सकते हैं?” इस कथन का सम्पूर्ण मक़सद ही यह है भारत में भी हिटलर के जर्मनी के न्यूरेमबर्ग क़ानून जैसे फ़ासीवादी और पक्षपातपूर्ण क़ानूनों के लागू होने का समर्थन किया जाये, जिसके अनुसार कोई जर्मन किसी यहूदी से विवाह नहीं कर सकता था क्योंकि इससे जर्मन आर्य रक्त की शुद्धता ख़राब हो जाती! विज्ञान ही जानकारी रखने वाला हर व्यक्ति “रक्त की शुद्धता” आदि जैसे जुमलों पर केवल हँस ही सकता है और कोई भी डॉक्टर ऐसे जुमले बोलने वालों को पागलखाने भेजने की सिफ़ारिश ही कर सकता है। भारत में भी ऐसे “लव जिहाद” की झूठ के आधार पर ऐसे क़ानून बनाने की फ़िराक़ में संघ परिवार लगा हुआ है। ऐसे क़ानून जो नागरिकों ख़ासकर मुसलमानों और महिलाओं के व्यक्तिगत मसलों में फ़ासीवादी राज्य के हस्तक्षेप को सुनिश्चित करें। यूनीफार्म सिविल कोड के नाम पर एक बेहद असमान नागरिक संहिता बनाकर भी ऐसा प्रयास किया जा रहा है और उत्तराखण्ड में हाल ही में पारित क़ानून जो व्यक्तियों के आपसी सम्बन्धों, उनके प्यार करने की आज़ादी पर रोक लगा कर फ़ासीवादी सत्ता का व्यक्तिगत व निजी जीवन में हस्तक्षेप सुनिश्चित करता है, वह भी इसी नापाक कोशिश का हिस्सा है। ऐसे क़ानूनों के लिए भी यह फ़िल्म जनता के बीच राय का निर्माण करने की कोशिश करती है।
घोर स्त्री-विरोधी और मुसलमानों के प्रति नफ़रत और कुंठा से भरी यह फ़िल्म समाज को पीछे धकेलेने के सिवाय और कोई भूमिका नहीं अदा करती है। दर्शक के दिमाग में मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत बिठाकर यह फ़िल्म यह साबित करने का प्रयास करती है कि सारे मुसलमान आतंकवादी होते हैं। इतना ही नहीं बीच-बीच मैं इस फ़िल्म में कम्युनिस्टों और कश्मीर में राजकीय फौजी दमन के विरुद्ध संघर्षरत वहाँ की आम जनता को भी आतंकवादी क़रार देने की पूरी कोशिश की जाती है। कम्युनिस्टों को यहाँ जिस तरह बुरी और विदेशी विचारधारा फैलने वाले लोग और पश्चिमी संस्कृति के वाहकों के तौर पर दर्शाया गया है। वाक़ई में जो विचारधारा मज़दूरों-मेहनतकशों की बात करती है और उनकी मेहनत की लूट के ख़िलाफ़ जंग छेड़ती है उसे “विदेशी” दर्शाने का असल मकसद ही यह है की दर्शक के दिमाग़ में मज़दूर-विरोधी, न्याय-विरोधी, समानता-विरोधी भावनाएँ और सोच बिठायी जा सके और उनमें साम्प्रदायिक ज़हर घोला जा सके और इस साम्प्रदायिक उन्माद को ही देशी या “राष्ट्रीय” विचारधारा घोषित कर दिया जाय।
अन्त में यह फ़िल्म न तो सच के पैमाने पर खरी उतरती है और न ही कला के पैमाने पर। वैसे भी फ़ासीवादी विचारधारा और राजनीति कभी सच्ची कला का सृजन नहीं करती क्योंकि सच्ची कला की पहचान ही यथार्थ का ईमानदार चित्रण करना होता है जबकि फ़ासीवादी विचारधारा और राजनीति बनी ही असत्य, फ़रेब और मानवतावाद-विरोध पर है। एक ऐसा समाज जहाँ भुखमरी और बेकारी व्याप्त हो, जहाँ रोज़ बच्चे भूख और कुपोषण से मर रहे हों, जहाँ एक तरफ़ आँसुओं का समन्दर हो और दूसरी तरफ़ ऐय्याशी की इमारतें, ऐसे समाज में तो कला और कलाकारों की एक विशिष्ट सामाजिक भूमिका होती है। वह किसी न किसी रूप में इन्सानियत के पक्ष में, सत्य के पक्ष में, न्याय के पक्ष में खड़ा होकर ही इस भूमिका के साथ पूरी तरह से न्याय कर सकता है, चाहे उसकी विचारधारा कुछ भी हो। सत्यजीत रे, श्याम बेनेगल, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन, ये कुछ ऐसे नाम हैं जिन्होंने अपनी कला में किसी न किसी रूप में मानवीय संवेदनाओं को उभारा, लोगों के जीवन के सच्चे चित्र उकेरे, इन्सान की तक़लीफ़ और दुख को उभारा और किसी न किसी रूप में हमें समाज की किसी सच्चाई से वाक़िफ़ कराया। यही वजह है कि पूरी दुनिया के कलाकार और अच्छे लोग इनकी फ़िल्मों को आज भी प्यार से देखते और याद करते हैं। चाहे आप इनकी फ़िल्मों में पेश हर विचार से सहमत हों या न हों, ये फ़िल्में आम तौर पर जनपक्षधर, जनवादी, यथार्थवादी फ़िल्में हैं, ये सभी मानते हैं।
आज भारत की फासीवादी सत्ता ये बात बहुत अच्छे से जानती है कि कला की क्या ताक़त होती है। लेकिन फ़ासीवादियों के लिए कला उनके जनविरोधी प्रचार के उपकरण से ज़्यादा कुछ नहीं होती है। फासीवादी शासन कला को एक शक्तिशाली प्रचार उपकरण की तरह इस्तेमाल करता है, जो आम जनता को वास्तविक समस्याओं और उनके कारणों से भटकाकर उनके भीतर एक अन्धी प्रतिक्रिया को भड़काती है, उनके सामने से असली अपराधी यानी पूँजीवाद को हटाकर एक नक़ली दुश्मन यानी मुसलमानों को पेश कर देती है। यह काम बेहद सस्ते और भोंड़े तरीक़े से किया जाता है, लेकिन ग़रीबी और मुफ़लिसी से तंगहाल इंसान के दिमाग़ पर इसका भी असर होता है। वास्तव में, फ़ासीवादी फ़िल्में यही काम करती हैं और आज भी यही काम कर रही हैं। आज से दशकों पहले भी नात्सी जर्मनी में एडोल्फ हिटलर और उसके प्रचार-मन्त्री जोसेफ गोयबल्स ने कला को माध्यम बनाकर “आर्य श्रेष्ठता”, नस्लवाद, सैन्यवाद और अन्धराष्ट्रवाद का ज़हर जनता के दिमाग़ों में घोलने का काम किया था ताकि फ़ासीवादी राजनीति के समर्थन में जनाधार तैयार किया जा सके। नात्सी शासन जानता था कि सिनेमा, कला और संगीत जैसे माध्यम से जनता में झूठ की जड़ें ज़्यादा गहराई तक जमायी जा सकती हैं। सनसनीखेज दृश्य और और वाक्यों का इस्तेमाल करके जनता मैं भ्रम और झूठ फैलाना फ़ासीवादियों का पुराना हथकण्डा है। मोदी-शाह शासन भी अपने नात्सी पुरखों से सीख रहा है और उस सीख को नवीनतम तकनोलॉजी से मिला रहा है। इसका सही जवाब यही हो सकता है कि जनता के कलाकार जनता की वैकल्पिक कला रचें, उसे एक आन्दोलन का रूप दें और मज़दूर कालोनियों से लेकर गाँव के ग़रीबों की जर्जर झोपड़ियों तक ले जायें। ऐसी कला जो जनता को उसकी ज़िन्दगी की दुख-तक़लीफ़ की सच्चाई से अवगत कराये, जो उसे अपने दोस्तों और दुश्मनों की पहचान करने में मदद करे और जो महज़ समाज का आईना न हो बल्कि समाज को बदल डालने की लड़ाई का अंग हो।
मज़दूर बिगुल, अगस्त 2025