दिल्ली की आँगनवाड़ीकर्मियों ने मई दिवस की क्रान्तिकारी विरासत को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया!
बिगुल संवाददाता
1 मई यानी मज़दूर दिवस के मौक़े पर दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन ने आम सभा का आयोजन किया। दिल्ली के सेण्ट्रल पार्क में आयोजित होने वाली इस सभा को रोकने की पुलिस व प्रशासन द्वारा काफ़ी कोशिशें की गयी। महिलाएँ पार्क में बैठकर बातचीत न कर पायें इसलिए पार्क के सभी प्रवेश द्वारों को बन्द कर दिया गया और आसपास भी बैठ रही महिलाकर्मियों को पुलिस द्वारा फ़र्ज़ी मुकदमे का डर दिखाकर डराया-धमकाया जाने लगा। इन सबके बावज़ूद महिलाओं ने अपनी सभा चलाने की ठानी और राजीव चौक के एक अन्य पार्क में बैठकर ‘मई दिवस के क्रान्तिकारी इतिहास और आज के वक़्त में इसकी ज़रूरत’ पर अपनी बातचीत को जारी रखा।
कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए आँगनवाड़ीकर्मी रेखा ने मई दिवस पर यूनियन द्वारा निकाले गये पर्चे का पाठ किया। पर्चे पर पाठ के बाद उसपर विस्तृत चर्चा हुई। यूनियन अध्यक्षा शिवानी ने मई दिवस के शहीदों को याद करते हुए यह बताया कि “1 मई के दिन सिर्फ़ बेहतर कार्यस्थितियों की माँग तक सीमित नहीं था बल्कि दुनियाभर के मज़दूरों के लिए यह दिन हर तरह के शोषण-अत्याचार और ग़ुलामी की दासता के ख़िलाफ़ उठ खड़े होने का दिन था । मगर आज हम देखते हैं कि इस दिन को महज़ आराम और मनोरंजन के दिन में तब्दील कर दिया गया है। आज इसके बरक्स हमें मज़दूरों के संघर्षों के असल इतिहास को लोगों तक लेकर जाना होगा।”
उन्होंने बताया कि मई दिवस के संघर्ष की शुरुआत आज से तक़रीबन 139 साल पहले अमेरिका के शिकागो शहर में हुई। मज़दूरों ने अपने काम और जीवन के असहनीय हालत के ख़िलाफ़ संघर्ष का बिगुल फूँका जिसका नारा था ‘आठ घण्टे काम, आठ घण्टे मनोरंजन, आठ घण्टे आराम’। इस लड़ाई में मज़दूरों ने एक इन्सान जैसे जीवन का सवाल केन्द्र में रखा।
सभा में आगे लोगों ने इस विषय पर बात रखी कि आज क्यों देश और दुनियाभर के तमाम मेहनतकशों के लिए मई दिवस के गौरवशाली इतिहास को जानना पहले से कहीं अधिक ज़रूरी हो जाता है।
आँगनवाड़ीकर्मी चाँदनी ने बताया कि अपने क्रान्तिकारी अतीत को जाने बग़ैर हम वर्तमान समय में अपने संघर्ष को सही दिशा नहीं दे सकते हैं और न ही एक समतामूलक समाज के लिए आगे बढ़ सकते हैं। हमारे पुरखों ने सड़कों पर अपना ख़ून बहाया था और फाँसी का फन्दा चूमा था और इसी वज़ह से आज थोड़े-बहुत हक़ अधिकार हमें हासिल हो सके हैं।
चर्चा में महिलाकर्मियों ने अपनी बात रखी कि आज जब मज़दूर आबादी का एक बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र में काम करने के लिए मज़बूर है, उनके लिए किसी तरह का कोई श्रम क़ानून लागू नहीं होता है और न ही कोई सुविधा मयस्सर है तो ऐसे वक़्त में मई दिवस की विरासत हमें अपने हक़ों के लिए संघर्ष की प्रेरणा देती है।
देशभर में लगभग 39 लाख स्कीम वर्कर्स काम कर रही हैं मगर सरकार इन्हें मज़दूर तक नहीं मानती। आँगनवाड़ी, आशाकर्मियों और मिड-डे-मील वर्करों से बेहद मामूली मानदेय में काम लिया जाता है, इन्हें न तो न्यूनतम मज़दूरी दी जाती है, न ईएसआई-पीएफ़ जैसी सुविधाएँ और न उनके काम के घण्टे तय होते हैं। बच्चों की पढ़ाई से लेकर पोषण का काम, गर्भवती व स्तनपान कराने वाली माओं की देखभाल का काम हो या तमाम सरकारी स्कीमों के लिए आँकड़ें इकट्ठा करने जैसे ज़रूरी काम हों, आँगनवाड़ी व आशाकर्मियों से लिए जाते हैं। मोदी सरकार के आने के बाद से तो इन योजनाओं के तहत काम कर रही महिलाकर्मियों की स्थिति तो और भी बदतर हुई है। लोगों ने जो थोड़े-बहुत हक़ हासिल किए थे, उसे भी ये सरकार ख़त्म कर रही है – जैसे आँगनवाड़ीकर्मियों की रिटायरमेण्ट की उम्र कम कर देना, आँगनवाड़ियों को निजी हाथों में सौंपने की शुरुआत करना, पुरानी पेंशन स्कीम को बन्द करना इत्यादि।
वैसे तो पिछले 11 सालों में मोदी सरकार ने मज़दूरों के हक़ों को छीनने के नित-नये रिकॉर्ड क़ायम किये हैं। बचे-खुचे श्रम क़ानूनों को ख़त्म करके जो चार नये लेबर कोड लाये गये हैं उनके ज़रिये 8 घण्टे काम के नियम, यूनियन बनाने का अधिकार, कारख़ानों में सुरक्षा उपकरण आदि के अधिकार को ख़त्म कर दिया गया है। पक्के रोज़गार की व्यवस्था को ख़त्म करके ठेका प्रथा को बढ़ावा देने के काम को मोदी सरकार ने बुलेट ट्रेन की रफ़्तार से आगे बढ़ाया है। मज़दूरों की हड़तालों और प्रदर्शनों को कुचलने लिए प्रशासन और पूँजीपतियों को खुली छूट दे दी गयी है। आज़ादी के बाद से केन्द्र व राज्य में चाहे जिस पार्टी की सरकार रही हो उन्होंने मज़दूरों के मेहनत की लूट-खसोट को बढ़ावा देते हुए मालिकों-पूँजीपतियों के पक्ष में ही नीतियाँ बनाने का काम किया है, मगर फ़ासीवादी मोदी सरकार ने तो मज़दूरों के हक़ों-अधिकारों पर दोगुनी तेज़ी के साथ हमले किये हैं।
शायद ही कोई यह न देख पाये कि मज़दूरों-मेहनतकशों-स्कीम वर्करों के हालात पिछले कुछ सालों में बदतर हुए हैं। मई दिवस के क्रान्तिकारियों को सही अर्थों में याद करने का आज यही मतलब हो सकता है कि हम अपनी वर्गीय एकजुटता कायम करें।
अपने आर्थिक माँगो पर संघर्ष के साथ-साथ मेहनतकशों की मुक्ति के लिए एक जुझारू क्रान्तिकारी आन्दोलन खड़ा करने की ओर आगे बढ़े क्योंकि जब तक मुनाफ़े पर टिकी यह पूँजीवादी व्यवस्था बनी रहेगी, मज़दूर वर्ग के मेहनत की लूट जारी रहेगी। मेहनतकशों की वास्तविक मुक्ति तभी सम्भव है, जबकि इस मुनाफ़ा-केन्द्रित पूँजीवादी व्यवस्था को ध्वस्त कर एक मानव-केन्द्रित व्यवस्था क़ायम की जाए, जहाँ उत्पादन के साधनों पर मेहनतकशों के सामहिूक मालिकाने की व्यवस्था हो, राज-काज पर मज़दूर वर्ग के प्रतिनिधि क़ाबिज़ हों और फ़ैसला लेने की ताक़त उनके हाथ में हो। मई दिवस के शहीद ऐसे ही समाज के निर्माण की नींव रख रहे थे।
मज़दूर दिवस के मौके पर हुई इस सभा में मज़दूर आन्दोलन के इतिहास से जुड़ी व क्रान्तिकारियों के जीवन से जुड़ी किताबों को महिलाकर्मियों से परिचित कराया गया। बातचीत के बाद लोगों ने अपने संघर्षों से जुड़े गीत भी प्रस्तुत किये और यह निश्चय किया कि शिकागो के शहीदों की क़ुर्बानी को व्यर्थ नहीं जाने देंगे, अपने तात्कालिक मुद्दों पर संघर्ष के साथ-साथ एक बेहतर मानव-केन्द्रित समाज को बनाने के लिए अग्रसर होंगे।
मज़दूर बिगुल, मई 2025