मोदी सरकार व केचुआ के वोट-घोटाले के विरुद्ध देशव्यापी जनान्दोलन खड़ा करो!
मतदान और निष्पक्ष व स्वतन्त्र चुनावों का अधिकार जनता का एक बुनियादी राजनीतिक जनवादी अधिकार है!
सम्पादकीय अग्रलेख
अक्सर आपने बसों में, ट्रेनों में, नुक्कड़-चौराहों पर, चाय की दुकानों पर लोगों को आपस में इस बात पर आश्चर्य प्रकट करते सुना होगा कि 2024 में भाजपा को 240 सीटें भी कैसे आ गयीं, भाजपा पिछले उत्तर प्रदेश चुनाव को कैसे जीत गयी, महाराष्ट्र में भाजपा-नीत गठबन्धन चुनाव कैसे जीत गया, आदि। क्योंकि सभी पाते थे कि सभी ने भाजपा को वोट नहीं दिया था! सभी को शक़ था कि दाल में कुछ काला है। सभी को अन्दाज़ा था कि ईवीएम के ज़रिये तो घोटाला किया ही जा रहा है और चुनावों को चुराया जा रहा है। लेकिन हाल ही में संसदीय विपक्ष के नेता राहुल गाँधी द्वारा चुनाव आयोग, यानी केचुआ, के आँकड़ों के ज़रिये ही सिद्ध करके दिखाया गया कि भाजपा और उसकी शह पर केचुआ वोटर लिस्ट में हेरा-फेरी कर बड़े पैमाने पर चुनावी घोटाला कर रहे हैं। फ़ासीवादी भाजपा वोट-चोरी कर जनादेश को ही चुरा ले रही है। विपक्षी नेता का कहना है कि आगे वे और भी सुबूत पेश करेंगे। यह अच्छी बात है। यह दीगर सवाल है कि संसदीय विपक्ष यानी विपक्ष में मौजूद मालिकों के चन्दों पर ही पलने वाली पार्टियाँ जनता के मताधिकार को बचाने की मुहिम को कितने सघन, कितने व्यापक रूप में और कितने समय तक चला पायेंगी। अभी तक तो उनके वोट-चोरी-विरोधी अभियान का केन्द्र बिहार ही बना हुआ है क्योंकि वहीं पर सबसे पहले विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। लेकिन वोट-चोरी के विरुद्ध व्यापक जनान्दोलन में क्रान्तिकारी मज़दूर वर्ग को अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता को बरक़रार रखते हुए ज़रूर शिरक़त करनी चाहिए और न सिर्फ़ बिहार के चुनावों के मद्देनज़र, बल्कि आम तौर पर पूरे देश में जनता के इस बुनियादी बुर्जुआ जनवादी अधिकार को बेअसर और बेमतलब बना देने की मोदी-शाह सरकार की साज़िश के विरुद्ध एक व्यापक और जुझारू जनान्दोलन संगठित करना चाहिए।
हम मज़दूर, ग़रीब किसान व आम मेहनतकश लोग जानते हैं कि एक ऐसे समाज में जहाँ सभी कारखानों, खेतों, खदानों आदि पर देश के मुट्ठी-भर मालिकों का मालिकाना व नियन्त्रण है, जहाँ समूची राज्यसत्ता यानी सरकार से लेकर नौकरशाही, सेना व पुलिस के अधिकारियों तक में इसी मालिक वर्ग के नुमाइन्दे बैठे हैं जिनका काम ही इस मालिक वर्ग के शासन को सुचारू रूप से चलाना है, वहाँ पर महज़ मताधिकार का वास्तविक अधिकार मिल जाने और ‘स्वतन्त्र और निष्पक्ष’ चुनाव हो जाने मात्र से कोई क्रान्ति नहीं हो जायेगी! इससे ही मज़दूरों और आम मेहनतकश आबादी को अपने समस्त सामाजिक-आर्थिक व राजनीतिक बुनियादी अधिकार नहीं मिल जायेंगे। इससे ही उन्हें एक इज्जत, आसूदगी भरी ज़िन्दगी नहीं मिल जायेगी। जब तक समाज में हर वस्तु व सेवा का उत्पादन व वितरण समाज की आवश्यकताओं को पूरा करने के उद्देश्य से नहीं बल्कि मुट्ठी-भर धन्नासेठों के मुनाफ़े और उनकी सेवा करने वाली व्यवस्था को चलाने वाले अहलकारों की ऐय्याश ज़िन्दगी की ज़रूरत को केन्द्र में रखकर होगा, तब तक हम मेहनतकशों का शोषण, हमारा दमन-उत्पीड़न, हमारे विरुद्ध अन्याय और असमानता किसी न किसी रूप में जारी रहेगी। कहने का अर्थ यह है कि एक आर्थिक शोषण व असमानता वाले समाज में हम मेहनतकशों व मज़दूरों को यदि वास्तविक अर्थों में मताधिकार और स्वतन्त्र व निष्पक्ष चुनावों का हक़ मिल भी जाये, तो भी हमारे लिए यह लोकतान्त्रिक अधिकार हमेशा बाधित, अधूरा और बौना रहेगा। क्यों? क्योंकि समाज के सभी भौतिक संसाधनों पर कब्ज़ा पूँजीपतियों का है, मीडिया उनके हाथ में है, शिक्षा व्यवस्था उनके हाथों में है, समूचा राजकाज (महज़ सरकार नहीं, जो पाँच सालों में बदल सकती है, बल्कि नौकरशाही, सेना, पुलिस, जो स्थायी निकाय हैं) उनके हाथों में है; क्योंकि विशाल निर्वाचन मण्डलों की चुनाव व्यवस्था में जीत-हार का खेल मूलत: और मुख्यत: पूँजी तय करती है; कोई मज़दूर प्रतिनिधि अगर इन पूँजीवादी चुनावों में किसी तरह से खड़ा हो भी जाये, तो आपवादिक स्थितियों को छोड़कर उसकी जीत असम्भव है; हमें चुने गये प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का हक़ यानी ‘राइट टू रीकॉल’ प्राप्त नहीं है; नतीजतन, चुने गये प्रतिनिधि हमें पाँच साल सिर पर जूते भी मारते रहें, तो आप कुछ नहीं कर सकते; चुनाव लड़ने की औक़ात ही उन लोगों की है जो पूँजीपतियों के नुमाइन्दे हैं क्योंकि करोड़ों रुपये ख़र्च किये बिना औसतन 18.25 लाख वोटर वाले निर्वाचन मण्डल में और कौन चुनाव लड़ सकता है? ज़ाहिर है कि पूरी व्यवस्था ही इस प्रकार निर्मित है कि मज़दूर, मेहनतकश, ग़रीब किसान इसमें ‘चुनने का अधिकार’ तो रखता है, मगर ‘चुने जाने का अधिकार’ नहीं रखता है और इन दोनों अधिकारों के बिना एक सच्चा व मेहनतकश जनता का जनवाद कभी व्यवहार में नहीं उतर सकता और इन दोनों अधिकारों को एक क्रान्तिकारी समाजवादी व्यवस्था ही सुनिश्चित कर सकती है।
लेकिन मौजूदा फ़ासीवादी निज़ाम में हमसे पहला अधिकार, यानी ‘चुनने का अधिकार’ भी प्रभावत: और व्यवहारत: छीन लिया गया है। ईवीएम घोटाले और वोट-चोरी घोटाले का यही अर्थ है। वोट किसी को भी दें, पहले से ही विजेता तय है, यानी भाजपा। हमने पहले भी लिखा है कि इक्कीसवीं सदी के फ़ासीवाद की एक ख़ासियत यह है कि यह खुले तानाशाही क़ानून लाकर चुनावों, संसदों, विधानसभाओं आदि को भंग नहीं करता है। उल्टे यह पूँजीवादी लोकतन्त्र के खोल को, यानी उसके रूप को बनाये रखता है। लेकिन साथ ही यह पूँजीवादी राज्यसत्ता के समूचे उपकरण पर एक लम्बी प्रक्रिया में अन्दर से कब्ज़ा करता है, यानी सेना, पुलिस, नौकरशाही, समस्त संवैधानिक संस्थाएँ, न्यायपालिका, आदि सभी में फ़ासीवादी संगठन एक लम्बी प्रक्रिया में घुसपैठ कर अपनी जगहें बना लेता है। उसी प्रकार, फ़ासीवादी संगठन समाज के भीतर भी अपनी शाखाओं, स्कूलों, मीडिया, सुधार-कार्य की संस्थाओं जैसे अस्पताल आदि के ज़रिये अपनी अवस्थितियाँ बाँध लेता है, यानी अपनी खन्दकें खोद लेता है। राज्यसत्ता में घुसपैठ और समाज के पोरों में पकड़ बनाने के साथ फ़ासीवादी शक्तियों के लिए यह सम्भव हो जाता है कि वे बिना संसद, विधानसभा व चुनावों को खुले तौर पर भंग किये इन सभी संस्थाओं व प्रक्रियाओं को विविध रूपों में बेअसर व बेमतलब बना देता है। यह एक ऐसी फ़ासीवादी परियोजना होती है, जो कभी अपनी पूर्णता तक नहीं पहुँचती, बल्कि लगातार जारी रहती है। आर.एस.एस. के बनने के समय से, उससे ज़्यादा आज़ादी के बाद से और विशेष तौर पर 1960 व 1970 के दशक से हम अपने देश में इसी फ़ासीवादी परियोजना को घटित होता देख रहे हैं। आज जिस प्रकार समूची चुनाव की व्यवस्था को ही भाजपा के फ़ासीवादी निज़ाम ने भीतर से कब्ज़ा कर निष्प्रभावी बना दिया है, वह उसी की एक नवीनतम मिसाल है।
नतीजतन, कागज़ पर चुनने का अधिकार भी अभी बरक़रार है, मगर वास्तव में उस अधिकार का कोई मतलब नहीं रह गया है। न्यायपालिका इस बाबत कोई सुनवाई नहीं कर रही है। मसलन, 20 लाख ईवीएम ग़ायब हैं। ऐसा कैसे हो सकता है? लेकिन इसके बावजूद अदालतें इस पर कोई सुनवाई नहीं कर रही हैं। अब वोट-चोरी के मसले पर भी उच्चतम न्यायालय को क़ायदे से स्वयं संज्ञान लेना चाहिए, जो वह आवारा कुत्तों के सवाल पर ले लेती है, लेकिन व्यवस्था में चुनावों की व्यवस्था को ही हाईजैक कर लिये जाने पर नहीं लेती! यह संयोग नहीं है कि हाल ही में कई न्यायाधीशों ने गर्व से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के फ़ासीवादी संगठन से अपने रिश्तों पर काफ़ी बेबाकी से बात की! वोट-चोरी, फर्जी वोटर लिस्टों, वोटों की गणना तक में प्रशासनिक मशीनरी का इस्तेमाल कर फर्जीवाड़े और अचानक वोटिंग के आँकड़ों को बढ़ा दिये जाने जैसे स्पष्ट प्रमाणों के बावजूद न्यायपालिका हस्तक्षेप नहीं कर रही है। इसमें डर भी एक वजह होगी क्योंकि किसी जज को अपना ‘लोया’ नहीं करवाना है!
अब सवाल यह उठता है कि अगर चुनावों से कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं होना है तो हम मज़दूरों-मेहनतकशों को चुनावी व्यवस्था को फ़ासीवादी भाजपा द्वारा हाईजैक कर लिये जाने से तक़लीफ़ क्यों होनी चाहिए?
पहला कारण यह है कि मताधिकार और बुर्जुआ जनवादी अधिकार भी मज़दूर वर्ग के आन्दोलनों के कारण मिले। इससे पहले, व्यापक मेहनतकश जनता के पास अपने राजनीतिक मत को प्रकट करने, संगठन बनाने, एकजुट होने, सभाएँ करने, पर्चे निकालने आदि का कोई अधिकार नहीं था। सार्वभौमिक मताधिकार के लिए दुनिया भर के पूँजीवादी देशों में मज़दूर वर्ग ही सबसे आगे आकर लड़ा क्योंकि पूँजीवादी जनवाद प्राक्-पूँजीवादी ज़मीन्दारों के निरंकुश राज से बेहतर था और मज़दूरों, ग़रीब किसानों, आम मेहनतकशों को अपने वर्ग संघर्ष को आगे ले जाने के लिए कहीं बेहतर ज़मीन मुहैया कराता था। बुर्जुआ जनवादी राजनीतिक व्यवस्था में सर्वहारा वर्ग अपने प्रचार, उद्वेलन, राजनीति व संगठन को खड़ा करने के लिए अपेक्षाकृत ज़्यादा मुफ़ीद माहौल पाता है। ये ही अधिकार पूँजीवाद की सड़ती हुई अवस्था में पैदा होने वाली राजनीतिक प्रतिक्रिया के रूप में फ़ासीवाद खुलेआम या प्रच्छन्न तौर पर छीन लेता है। यह मन्दी के दौर में बुर्जुआ वर्ग के हितों की सेवा करता है और इस सेवा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है मज़दूरों-मेहनतकशों को विसंगठित करना और उनका दमन करना। इसलिए संकटग्रस्त पूँजीवाद अक्सर फ़ासीवाद का राजनीतिक विकल्प चुनता है, ताकि मज़दूरों व आम मेहनतकश जनता को आतंकित और “अनुशासित” रखने के लिए एक टुटपुँजिया लम्पट अन्धी प्रतिक्रिया का उपकरण फ़ासीवादी ताक़तों के हाथों में रहे। बीच-बीच में फ़ासीवादी इसका प्रदर्शन भी करते हैं, जैसे कि हाल ही में काँवड़ यात्रा में उन्होंने किया।
दूसरा कारण यह है कि पूँजीवादी जनवाद की व्यवस्था में मार्क्स के शब्दों में यदि सार्वभौमिक मताधिकार मज़दूरों-मेहनतकशों को और कुछ नहीं देता तो वह उन्हें अपनी राजनीतिक शक्ति का आकलन करने का एक सम्भव उपकरण देता है। इसके ज़रिये मज़दूर-मेहनतकश अपने क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट प्रचार व उद्वेलन को संगठित करते हैं, समाजवादी कार्यक्रम के प्रचार के कार्य को संगठित करते हैं, मज़दूरों की व्यापक आबादी में पूँजीवादी व्यवस्था का भण्डाफोड़ करते हैं और इसके ज़रिये अपने स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष के निर्माण का प्रयास करते हैं। इसके ज़रिये, क्रान्तिकारी मज़दूर वर्ग एक ऐसे समय में जनसमुदायों में अपनी राजनीतिक लाइन को लेकर हस्तक्षेप करता है जब जनता का मस्तिष्क राजनीतिक तौर पर गतिमान होता है, खुला होता है। इसके ज़रिये सर्वहारा वर्ग अपनी शक्तियों को संचित करने के काम को आगे बढ़ाता है।
तीसरा कारण यह है कि इस अधिकार के ज़रिये जनता कोई क्रान्ति तो नहीं ला सकती, लेकिन पूँजीवादी राजनीति, बुर्जुआ वर्ग के राजनीतिज्ञों द्वारा नीति-निर्माण, आदि में एक आंशिक दख़ल रखती है। वह किसी पार्टी की सरकार से असन्तुष्ट होने पर और कुछ नहीं तो उसे हराकर दण्डित कर सकती है। यह दीगर बात है कि किसी अन्य पूँजीवादी दल की सरकार भी येन-केन-प्रकारेण अन्तत: उन्हीं नीतियों को लागू करती है, जो बुर्जुआ वर्ग के हितों की सेवा करते हैं। लेकिन इसके बावजूद जनता द्वारा अपनी ‘राजनीतिक इच्छा’ प्रकट करने की कार्रवाई से तात्कालिक तौर पर कुछ राहतें, कुछ सुधार मिलने की गुंजाइश होती है और यह पूँजीवादी व्यवस्था के समूचे प्रचालन में एक प्रतिसन्तुलनकारी कारक का काम करता है। किसी क्रान्तिकारी विकल्प की मौजूदगी न होने पर पूँजीवादी व्यवस्था की सीमाओं के भीतर जनसमुदाय इसी रूप में अपना असन्तोष व्यक्त कर सकते हैं। इस अभिव्यक्ति से ही कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं होता, महज़ कुछ तात्कालिक राहत मिलने की कुछ सम्भावना होती है, पार्टियों को अपने नीति-निर्माण में इस कारक को भी अपनी चिन्ताओं में जोड़कर चलना पड़ता है। अगर मताधिकार को ही चुरा लिया जाय, तो यह आंशिक जवाबदेही भी समाप्त हो जाती है। यही हुआ भी है। आज एक बुर्जुआ जनवाद में भी जनादेश व जनता के प्रति जो आंशिक जवाबदेही मौजूद होती है, वह समाप्त हो चुकी है। रंगा-बिल्ला की जोड़ी जो चाहे वह कर रही है, भाजपा नेता पूरे देश में गुण्डागर्दी, मनमानी, बदतमीज़ी, अपराध, बलात्कार, भ्रष्टाचार, व्यभिचार पर आमादा हैं, क्योंकि अमित शाह के शब्दों में उन्हें पता है कि “भाजपा अभी 40 साल राज करने वाली है!” यह अमित शाह को कैसे पता है, अब यह सबको पता चल चुका है। भाजपा सरकार जो कर रही है, वह लोकतन्त्र के खोल के भीतर मनमानी निरंकुश तानाशाही से कम कुछ नहीं है।
चौथा कारण यह है बुर्जुआ जनवाद पर होने वाले हर हमले का निशाना वास्तव में और अन्तिम विश्लेषण में मज़दूर वर्ग ही होता है। मज़दूर वर्ग के श्रम शोषण पर ही समूची पूँजीवादी व्यवस्था और पूँजीपति वर्ग का शासन टिका होता है। मज़दूर वर्ग का व्यवस्थित दमन और शोषण पूँजीवादी व्यवस्था और पूँजीपति वर्ग की ज़रूरत होता है। इसलिए जनवादी अधिकारों पर होने वाले हर हमले पर सर्वहारा वर्ग ही सबसे मुकम्मिल तौर पर लड़ सकता है और उसे लड़ना चाहिए। चाहे यह हमला हमारे देश में किसी भी समुदाय के ख़िलाफ़ हो या पूरी दुनिया में कहीं भी हो, हमे मज़दूरों और मेहनतकशों को सबसे अगली कतारों में आकर और अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता क़ायम रखते हुए इसके विरुद्ध संघर्ष करना चाहिए।
पाँचवा कारण यह है कि जब भी हम फ़ासीवाद और आम तौर पर पूँजीवाद द्वारा जनवादी अधिकारों पर होने वाले तमाम हमलों पर चुप रहते हैं, तो एक प्रकार से हम फ़ासीवाद और पूँजीवाद के ऐसे हमले करने, दमन करने, उत्पीड़न करने के “अधिकार” को जायज़ ठहराते हैं, उसका समर्थन करते हैं। इसका क़हर अन्त में हमारे ऊपर ही टूटता है और टूट रहा भी है। इसलिए हमारी चुप्पी हमें बहुत भारी पड़ेगी।
ठीक उपरोक्त कारणों के ही चलते हमें वोटचोरी के ख़िलाफ़ जनान्दोलन खड़ा करना होगा। यह काम हम कांग्रेस व अन्य विपक्षी पार्टियों पर नहीं छोड़ सकते हैं। न ही हम इस जनान्दोलन में उनके पिछलग्गू बन सकते हैं। इस मसले पर हम उनके साथ मोर्चा ज़रूर बना सकते हैं। लेकिन इस मोर्चे में रहते हुए भी हमें अपनी, यानी सर्वहारा वर्ग की, राजनीतिक स्वतन्त्रता को बरक़रार रखना होगा। क्यों? क्योंकि पूँजीपति वर्ग का कोई भी नुमाइन्दा फ़ासीवाद के इन हमलों का मुकम्मिल जवाब नहीं दे सकता है। आज अगर फ़ासीवादी शक्तियाँ एक विकराल दानव का रूप ग्रहण कर हमारे लिए प्राणान्तक ख़तरा बनी हुईं हैं, तो इसमें कांग्रेस समेत अन्य सभी विपक्षी दलों की कोई कम भूमिका नहीं है। ये पार्टिंयाँ केन्द्र में या फिर राज्यों में सत्ता में रहते हुए भी फ़ासीवादी संघ परिवार पर कोई लगाम नहीं कसती हैं। कर्नाटक में चुनावों में जीत के पहले कांग्रेस ने बजरंग दल पर प्रतिबन्ध लगाने का दावा किया था, लेकिन जीत के बाद कांग्रेस सरकार इस वायदे से मुकर गयी। उसी प्रकार, संघ परिवार की आतंकी गतिविधियों के बारे में पर्याप्त सबूत होने के बावजूद कांग्रेस व अन्य विपक्षी दलों की सरकारों ने कभी उसे प्रतिबन्धित नहीं किया। उन्हें खुला हाथ देकर रखा गया। वजह यह है कि कांग्रेस व अन्य पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टियाँ भी अदानी, अम्बानी, टाटा, बिड़ला जैसे पूँजीपतियों और आम तौर पर पूँजीपति वर्ग के हितों की ही नुमाइन्दगी करती हैं और उन्हीं के फेंके टुकड़ों पर पलती हैं। और मौजूदा दीर्घकालिक मन्दी के दौर में और विशेष तौर पर साम्राज्यवाद, यानी पूँजीवाद के मरणासन्न दौर में, फ़ासीवादी शक्तियों की मौजूदगी पूँजीपति वर्ग की आम ज़रूरत है, क्योंकि पूँजीपति वर्ग को मज़दूरों-मेहनतकशों व आम जनता के दमन के लिए एक ऐसा प्रतिक्रियावादी उपकरण हर सूरत में चाहिए। यही वजह है कि चुनावी खेल के गणित और आपसी अन्तरविरोधों के कारण आज राहुल गाँधी-नीत कांग्रेस व अन्य विपक्षी पार्टियाँ वोटचोरी पर पुरज़ोर मुहिम चला रही हैं लेकिन उनका ज़ोर महज़ बिहार पर है, जबकि ज़रूरत यह है कि पूरे देश में जनता को इसके विरुद्ध सड़कों पर उतारा जाय और एक जुझारू समझौताविहीन संघर्ष खड़ा किया जाय। नतीजतन, पूँजीवादी संसदीय विपक्ष के साथ हमारा रणकौशलात्मक मोर्चा अवश्य बन सकता है, लेकिन हम उस मोर्चे में अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता के साथ ही शिरक़त कर सकते हैं और साथ ही हम उस मोर्चे की गतिविधियों तक ही ख़ुद को सीमित नहीं रख सकते हैं, बल्कि उससे इतर भी हमें सर्वहारा अवस्थिति के साथ इस आन्दोलन को आम मेहनतकश आबादी तक ले जाने के लिए तैयार रहना चाहिए।
साथ ही, हमारी माँग महज़ वोटचोरी व घपले के मसले तक ही नहीं सीमित रह सकतीं। हमें समूची चुनाव प्रणाली में आमूलगामी सुधारों की माँग उठानी होगी। यह माँग उठानी होगी कि ईवीएम को पूरी तरह से हटाकर बैलेट पेपर व्यवस्था पर वापस जाया जाय; यह माँग उठानी होगी कि छोटे निर्वाचन मण्डलों की एक बहुसंस्तरीय व्यवस्था का निर्माण किया जाय जिससे कि मज़दूरों-मेहनतकशों का वर्ग भी चुनाव में केवल चुनने के अधिकार तक सीमित न रह जाये बल्कि उसे वास्तव में चुने जाने का अधिकार भी मिले; हमें यह माँग उठानी चाहिए कि हर रूप में चुनाव की प्रक्रिया में पूँजीपतियों के धनबल व बाहुबल की भूमिका को समाप्त करने की दिशा में प्रभावी क़दम उठाये जायें; हमें यह माँग उठानी चाहिए कि चुनने व चुने जाने के अधिकार के साथ जनता के पास चुने गये प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार, यानी राइट टू रीकॉल, भी होना चाहिए क्योंकि केवल तभी इन जनप्रतिनिधियों पर जनता का सापेक्षिक नियन्त्रण स्थापित हो सकता है और उनके निरंकुश तौर-तरीक़ों पर जनता एक हद तक लगाम कस सकती है; साथ ही हमें समानुपातिक प्रतिनिधित्व की एक व्यावहारिक व्यवस्था की भी माँग उठानी चाहिए। इसी के ज़रिये पूँजीवादी जनवाद के दायरों के भीतर एक स्वतन्त्र व निष्पक्ष चुनाव आयोजित किये जा सकते हैं। हमें यह जाँचना चाहिए कि और कौन-से चुनावी दल इन माँगों का समर्थन करते हैं। इसी से पता चलेगा कि कांग्रेस समेत ये तमाम विपक्षी दल वास्तव में जनता के हिमायती हैं या नहीं। पहला सवाल तो यही है कि वे ख़ुद ये माँगें क्यों नहीं उठा रहे हैं?
यह सच है कि अगर उपरोक्त जनवादी माँगें पूरी भी हो जायें, तो यह पूँजीवादी व्यवस्था के बुनियादी चरित्र में कोई परिवर्तन नहीं लायेगा, क्योंकि तब भी पूँजीपतियों की निजी सम्पत्ति का अधिकार और इस प्रकार मज़दूर वर्ग के श्रम के शोषण का “अधिकार” उनके पास सुरक्षित रहेगा। लेकिन ये माँगें पूरी हों तो जनता की शक्तियों के पास समूची पूँजीवादी व्यवस्था के असली चरित्र को उजागर करने और उसे समझने का अधिक मौक़ा होगा, अपने वर्ग संघर्ष को संगठित करने के लिए ज़्यादा जनवादी स्पेस होगा और पूँजीवादी व्यवस्था के राजनीतिक अन्तरविरोधों को चरम पर ले जाने का अवसर होगा। हम इन जनवादी अधिकारों को जीतना ही अन्तिम लक्ष्य नहीं मानते, बल्कि एक क्रान्तिकारी मेहनतकश सत्ता और समाजवाद के लिए लम्बी लड़ाई में हमारे लिए इन अधिकारों के लिए संघर्ष करना एक अहम हिस्सा मात्र है। वास्तव में, ये जनवादी अधिकार जीते जायें या न जीते जायें, केवल इनके लिए जुझारू जनसंघर्ष ही उपरोक्त लक्ष्यों में से कई लक्ष्य पूरे कर देगा।
इसी वजह से हमें आज फ़ासीवादी भाजपा द्वारा समूची चुनावी व्यवस्था को ही बेअसर और बेमतलब बना देने के उपक्रम के ख़िलाफ़ सर्वहारा वर्ग और आम मेहनतकश आबादी की अवस्थिति से एक देशव्यापी जुझारू जनान्दोलन खड़ा करने की आवश्यकता है। हमें इस जनान्दोलन में हर उस ग़ैर-फ़ासीवादी शक्ति से मुद्दा-आधारित रणकौशलात्मक मोर्चा भी बनाना चाहिए जो सुसंगत तरीक़े से वोटचोरी के विरुद्ध लड़ने को तैयार है। लेकिन ऐसे किसी भी रणकौशलात्मक मोर्चे में हमें सर्वहारा उद्वेलन व प्रचार और सर्वहारा राजनीति और विचारों के प्रचार-प्रसार की समूची सर्वहारा स्वतन्त्रता को क़ायम रखना चाहिए और इस या उस पूँजीवादी दल का पिछलग्गू कतई नहीं बनना चाहिए। यह आज का प्रमुख तात्कालिक कार्यभार है।
मज़दूर बिगुल, अगस्त 2025