लघु कथा – रेल का सफर
आशु
बिहार से दिल्ली जाने वाली ट्रेन का जनरल डिब्बा खचाखच भरा हुआ था। भीड़ में कुछ नये युवा चेहरे चमक रहे थे — बिहार से आए नौजवान और नवदम्पति, जिनकी आँखों में नये जीवन के सपने थे। गाँव की बेरोज़गारी, जातिगत अपमान और ग़रीबी से दूर, उन्हें शहर की फैक्ट्रियों और चमक-दमक में सुनहरे भविष्य की उम्मीद दिखायी देती थी।
सामने बैठी एक नवविवाहिता मुस्कुरा रही थी। वह पहली बार अपने गाँव से हज़ारों किलोमीटर दूर दिल्ली जैसे महानगर में आयी थी। उसकी आँखों में अपना घर बनाने, बच्चों को पढ़ाने और सम्मानित जीवन जीने के सपने की चमक थी। उसका नौजवान पति भी कुछ महीने पहले ही शहर आया था और एक बड़ी कम्पनी की वेंडर कम्पनी में मज़दूरी कर रहा था। वह जीवन के तीसरे दशक के पूर्वार्ध में था — आशा, उम्मीद और अपनी मेहनत करने की क्षमता पर भरोसा रखते हुए, वह अपनी पत्नी को धीरे-धीरे, प्यार से, बार-बार समझाता — “यहाँ मेहनत करेंगे, पैसे कमायेंगे, सब बदल जाएगा।” डिब्बा मानो युवासुलभ सपनों का छोटा संसार बन गया था।
दो साल बाद वही जोड़ा इत्तेफ़ाक से उसी ट्रेन में लौट रहा था। उनके चेहरे पर अब थकान, टूटन और नाउम्मीदी थी। फैक्ट्री की मशीनों ने पति को कोल्हू का बैल बना दिया था और पत्नी को भी बेहद कम मज़दूरी में खटना पड़ रहा था। दोनों दिन-रात खट रहे थे, फिर भी कमरे का किराया, राशन, फ़ोन की किश्त तथा अन्य ज़रूरी खर्चों की पूर्ति बमुश्किल कर पा रहे थे। मालिक और ठेकेदार का शोषण, मकान मालिक की धमकियाँ और रोज़गार की असुरक्षा — सब मिलकर उनके जीवन को अदृश्य कैदखाना बना चुके थे। पिछली बार के विपरीत पति और पत्नी के बीच न तो प्यार के नाज़ुक पल दिख रहे थे, न कोई युवासुलभ आशापूर्ण चुलबुलापन। एक अवसाद था। लगातार अन्याय झेलने की मजबूरी से पैदा हुआ अवसाद। पति की आँखों में अपनी पत्नी और गाँव में परिवार को कुछ न दे पाने का तक़लीफ़-भरा अफ़सोस था, जो पितृसत्ता और मर्दानगी हमारे समाज में पुरुषों पर थोप ही देती है। पत्नी की आँखों में ज़िन्दगी की जद्दोजहद की थकान और पति के प्रति हमदर्दी थी। जिस तरह सुख से सुख पैदा होता है, उसी प्रकार अक्सर दुख से दुख पैदा होता है। इस युवा दम्पति के जीवन को शोषण, अन्याय, असमानता और दमन ने समय से पहले प्रौढ़ करना शुरू कर दिया था।
इसी बीच उनके बीच कुछ नौजवान, हाथ में पर्चे और अख़बार लिये ट्रेन के डिब्बे में प्रवेश करते हैं। वे चलती ट्रेन में मेहनत की भट्टी में पके चेहरों के बीच नारे लगा रहे थे, ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहे थे, उनकी गर्दन की नसें खिंची हुईं थीं, मुट्ठियाँ तनी हुईं थीं और क्रोध और आवेश उनके स्वर में भरा हुआ था। उनके नारे क्रान्तिकारियों को याद कर रहे थे, मज़दूरों और ग़रीबों को एकजुट होने का आह्वान कर रहे थे। उनके बीच एक नौजवान अख़बार के बारे में विस्तार से बता रहा था। उसने कहा कि यह मेहनतकश जनता का अख़बार है — उनका शिक्षक, उनका संगठनकर्ता।
युवा मज़दूर जोड़े में जिज्ञासा पैदा हो रही थी और कुछ सकुचाहट के बाद इस अभियानी टोली के एक नौजवान के आग्रह पर उससे अख़बार की एक प्रति ख़रीद ली। दूसरे पन्ने पर किसी मज़दूर द्वारा लिखा गया उसी औद्योगिक क्षेत्र का चित्रण करने वाली एक रपट थी, जहाँ वे ख़ुद काम करते थे। वे कुछ आश्चर्य में पड़ गये। इस रपट को पढ़ते हुए उन्हें ऐसा लगा मानो उनके ही जीवन की तस्वीर उकेरी गयी हो। आगे के पन्ने पर दुनिया के मज़दूरों के संघर्ष की कहानियाँ थीं। मज़दूर कैसे अपने ऊपर हो रहे अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ते हैं, यह उन्होंने पहली बार जाना। एक अन्य लेख से उन्हें पता चला कि गाँव और शहर मिलाकर, उनके जैसे करोड़ों मज़दूर हैं। वे जानते थे लेकिन उन्हें नये सिरे से अहसास हुआ कि वे अकेले इस बदहाली के शिकार नहीं हैं। उनके गाँव के बाकी लोग, जो शहर आए थे, उनकी हालत भी तो ऐसी ही थी। उनके कारखाने के मज़दूर भी उन्हीं की तरह घिस रहे थे। जो मेहनतकश और मज़दूर गाँवों में रुक गये थे, उनकी हालत से भी वे वाक़िफ़ थे। उन हालात को छोड़कर एक नये बेहतर जीवन की तलाश में ही तो वे शहर आये थे।
अखबार के कुछ पन्नों ने ही उनके मन में कुछ हलचल पैदा कर दी थी। पति के मन में युवा टोली के सदस्यों से बात करने का ख़याल आया। लेकिन तब तक युवाओं का यह जत्था उस बोगी से आगे जा चुका था। पति ने पत्नी से कहा, “तुम बैठो, मैं अभी आता हूँ।” वह उसी दिशा में हाथ में अख़बार लिये आगे चला गया।
मज़दूर बिगुल, अगस्त 2025