Category Archives: लेखमाला

मज़दूर वर्ग की पार्टी कैसी हो? (सातवीं किस्त)

“कम्युनिस्ट हर देश की मज़दूर पार्टियों के सबसे उन्नत और कृतसंकल्प हिस्से होते हैं, ऐसे हिस्से जो औरों को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं; दूसरी ओर, सैद्धान्तिक दृष्टि से, सर्वहारा वर्ग के विशाल जन-समुदाय की अपेक्षा वे इस अर्थ में उन्नत हैं कि वे सर्वहारा आन्दोलन के आगे बढ़ने के रास्ते की, उसके हालात और सामान्य अन्तिम नतीजों की सुस्पष्ट समझ रखते हैं।”

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (दसवीं किश्त)

अपनी रचना ‘क्या करें?’ में लेनिन अर्थवादियों की इस बात के लिए आलोचना करते हैं जब वे कहते हैं कि मज़दूर चूँकि साढ़े ग्यारह-बारह घण्टे कारख़ाने में बिताता है इसलिए आन्दोलन के काम को छोड़कर (यानी कि आर्थिक संघर्ष को छोड़कर) बाक़ी सभी कामों का बोझ “लाज़िमी तौर पर मुख्यतया बहुत ही थोड़े-से बुद्धिजीवियों के कन्धों पर आ पड़ता है”। लेनिन इस अर्थवादी समझदारी का विरोध करते हैं और कहते हैं कि ऐसा होना कोई “लाज़िमी” बात नहीं है। लेनिन बताते हैं कि ऐसा वास्तव में इसलिए होता है क्योंकि क्रान्तिकारी आन्दोलन पिछड़ा हुआ है और इस भ्रामक समझदारी से ग्रस्त है कि हर योग्य मज़दूर को पेशेवर उद्वेलनकर्ता, संगठनकर्ता, प्रचारक, साहित्य-वितरक, आदि बनाने में मदद करना उसका कर्तव्य नहीं है। लेनिन कहते हैं कि इस मामले में हम बहुत शर्मनाक ढंग से अपनी शक्ति का अपव्यय करते हैं; “जिस चीज़ की हमें विशेष ज़ोर देकर हिफ़ाज़त करनी चाहिए, उसकी देखरेख करने की हममें क़ाबिलियत नहीं है”। लेनिन इस अर्थवादी सोच का भी खण्डन करते हैं जो केवल मज़दूरों को उन्नत, औसत और पिछड़े तत्वों में बाँटती है। लेनिन के अनुसार न केवल मज़दूर बल्कि बुद्धिजीवियों को भी इन तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है।

मज़दूर वर्ग की पार्टी कैसी हो? (छठी किस्त)

सर्वहाराओं का एक वर्ग के रूप में संगठन और फलतः एक राजनीतिक पार्टी के रूप में उनका संगठन उनकी आपसी होड़ के कारण बराबर गड़बड़ी में पड़ जाता है। लेकिन हर बार वह फिर उठ खड़ा होता है – पहले से भी अधिक मज़बूत, दृढ़ और शक्तिशाली बनकर। ख़ुद बुर्जुआ वर्ग की भीतरी फूटों का फायदा उठाकर वह मज़दूरों के अलग-अलग हितों को क़ानूनी तौर पर भी मनवा लेता है। इंग्लैण्ड में दस घण्टे के काम के दिन का क़ानून इसी तरह पारित  हुआ था।

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (नौवीं किश्त)

जो व्यक्ति सिद्धान्त के मामले में ढीला-ढाला और ढुलमुल है, जिसका दृष्टिकोण संकुचित है, जो अपनी काहिली को छिपाने के लिए जनता की स्वतःस्फूर्तता की दुहाई देता है, जो जनता के प्रवक्ता के तौर पर कम बल्कि ट्रेड यूनियन सचिव के तौर पर अधिक काम करता है, जो ऐसी कोई व्यापक तथा साहसी योजना पेश करने में असमर्थ है जिसका विरोधी भी आदर करें और जो ख़ुद अपने पेशे की कला में – राजनीतिक पुलिस को मात देने की कला में – अनुभवहीन और फूहड़ साबित हो चुका है, ज़ाहिर है ऐसा आदमी क्रान्तिकारी नहीं, दयनीय नौसिखुआ है!

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 20 : पूँजीवादी संचय का आम नियम

पूँजी के सान्‍द्रण की विपरीत गति भी पूँजीवादी व्‍यवस्‍था में मौजूद होती है। यह गति होती है पूँजियों के टूटने की और एक-दूसरे को विकर्षित करने की। मिसाल के तौर पर, पूँजीवादी घरानों या कम्‍पनियों को टूट जाना। उत्‍तराधिकारियों के बीच पूँजीवादी घरानों की सम्‍पत्ति का बँट जाना इसमें एक अहम कारक होता है। मिसाल के तौर पर, धीरूभाई अम्‍बानी के पूँजीवादी साम्राज्‍य का उसके दोनों बेटों के बीच विभाजित हो जाना, या इसी प्रकार घनश्‍यामदास बिड़ला के उत्‍तराधिकारियों में उसकी सम्‍पत्ति का बँट जाना, इसी के उदाहरण हैं।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 19 : पूँजी का संचय

श्रम की उत्पादकता बढ़ने के साथ पूँजीपति के लिए अपने उत्पादन के साधनों के हिस्सों को बदलना, उनकी मरम्मत करना, कच्चे माल व सहायक मालों की भरपाई करना भी सस्ता हो जाता है क्योंकि ये सारी चीज़ें सस्ती हो जाती हैं। न सिर्फ़ ये चीज़ें सस्ती हो जाती हैं, बल्कि इन चीज़ों की गुणवत्ता और प्रभाविता भी श्रम की उत्पादकता बढ़ने के साथ बढ़ती जाती है। इसलिए वे पलटकर श्रम की उत्पादकता को और भी ज़्यादा बढ़ाती हैं। इसलिए ख़र्च होने वाले उत्पादन के साधन पूर्ण रूप में या आंशिक रूप में पहले से कम ख़र्च पर बदले जा सकते हैं और साथ ही वे उत्पादकता को और भी बढ़ाते हैं, क्योंकि उनकी प्रभाविता भी पहले से बढ़ती जाती है। यह सच है कि इसी प्रक्रिया में पहले से उत्पादन में लगी पूँजी का अवमूल्यन होता है। लेकिन यह अवमूल्यन आम तौर पर पूँजीपति वर्ग के लिए प्रतिस्पर्द्धा की प्रक्रिया में होता है और इसलिए इसकी कीमत भी पूँजीपति श्रमशक्ति के शोषण की दर को बढ़ाकर मज़दूर वर्ग से ही वसूलता है।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 18 : पूँजी का संचय

पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के विकास के साथ, संचय और समृद्धि की वृद्धि के साथ, पूँजीपति महज़ पूँजी का अवतरण मात्र नहीं रह जाता। वह अपने भीतर के आदम के प्रति एक मानवीय ऊष्‍मा महसूस करने लगता है, और उसकी शिक्षा धीरे-धीरे उसे अपने पुराने वैराग्य भाव पर मुस्कराना सिखाती है, मानो वह किसी पुराने ज़माने के कंजूस का पूर्वाग्रह हो। जहाँ क्लासिकी किस्म का पूँजीपति व्यक्तिगत उपभोग को अपने प्रकार्य के विरुद्ध एक पाप मानता है, संचय करने से ‘परहेज़’ मानता है, वहीं आधुनिकीकृत पूँजीपति संचय को आनन्द के ‘त्याग’ के रूप में देखने में सक्षम होता है। ‘हाय, उसके दिल में बसती हैं दो आत्माएँ; और एक की दूसरे से नहीं बनती।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 17 : पूँजी का संचय

पूँजीवादी पुनरुत्पादन में जिस प्रकार मज़दूर पूँजी का उत्पादन करता जाता है उसी प्रकार पूँजीपति श्रमशक्ति का उत्पादन करता जाता है। यह पूँजीवादी पुनरुत्पादन की पूर्वशर्त है। श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन के बिना पूँजीवादी पुनरुत्पादन जारी नहीं रह सकता। वास्तव में, श्रमशक्ति का उत्पादन व पुनरुत्पादन पूँजीपति के सबसे प्रमुख उत्पादन के साधन का उत्पादन व पुनरुत्पादन है: यानी, स्वयं मज़दूर। श्रमशक्ति को ख़रीदकर पूँजीपति मज़दूर पर अहसान नहीं करता। उल्टे इसके ज़रिये उसे दो तरीके से फ़ायदा होता है। मज़दूरी के बदले में पूँजीपति मज़दूर से जो लेता है न सिर्फ़ उससे उसका मुनाफ़ा आता है, बल्कि पूँजीपति मज़दूर को जो देता है, उससे भी उसे फ़ायदा होता है। पूँजीपति द्वारा दी गयी मज़दूरी से मज़दूर अपने और अपने परिवार के जीवन के लिए आवश्यक उपभोग की वस्तुएँ ख़रीदकर अपनी श्रमशक्ति का पुनरुत्पादन करता है। लेकिन मज़दूर का व्यक्तिगत उपभोग ही उसकी श्रमशक्ति के उत्पादक उपभोग को सम्भव बनाता है। यह उस सबसे ज़रूरी उत्पादन के साधन को पैदा करता है, जिसकी आवश्यकता पूँजीपति को है, यानी स्वयं मज़दूर जो कि उसके लिए उस श्रमशक्ति का वाहक मात्र है।

क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 16 : मज़दूरी

हम मज़दूर पूँजीपति को श्रम नहीं बेचते हैं, बल्कि श्रमशक्ति बेचते हैं। पूँजीवादी समाज में यह दृष्टिभ्रम पैदा होता है कि हम अपना श्रम बेच रहे हैं और पूँजीपति हमें हमारी “मेहनत का मोल” या श्रम का मूल्य दे रहा है। यह विभ्रम पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजीपतियों की साज़िश से नहीं पैदा होता है, बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था का चरित्र स्वत: इस भ्रम को जन्म देता है और स्वयं पूँजीपति भी अधिकांशत: इस भ्रम से ग्रस्त होते हैं कि उन्होंने मज़दूरों को मेहनत का मोल दे दिया है। लेकिन यदि यह सच है और श्रम स्वयं एक माल है जिसे पूँजीपति मज़दूर से ख़रीदता है, तो श्रम का मूल्य कैसे पैदा होगा? ज़ाहिरा तौर पर उसी प्रकार जिस प्रकार एक पूँजीवादी माल उत्पादक समाज में किसी भी अन्य माल का मूल्य तय होता है, यानी, उस माल के उत्पादन में लगने वाले कुल सामाजिक श्रम की मात्रा से। लेकिन इसका एक बेतुका नतीजा निकलेगा: श्रम का मूल्य उसके उत्पादन व पुनरुत्पादन में लगने वाले श्रम से तय होता है! यह नतीजा निकालते ही हम एक तार्किक दुष्चक्र में फँस जाते हैं : श्रम का मूल्य श्रम से तय होता है!

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (आठवीं क़िस्त)

आर्थिक संघर्षो के लिए किये जाने वाले ट्रेड यूनियन आन्दोलन की सफलता की पूर्वशर्त भी क्रान्तिकारियों के संगठन यानी कि हिरावल पार्टी का निर्माण है। और यहीं पर लेनिन पेशेवर क्रान्तिकारी की अवधारणा को लाते हैं जिसके बिना लेनिनवादी बोल्शेविक पार्टी की बात करना अकल्पनीय है। पेशेवर क्रान्तिकारियों से लेनिन का अभिप्राय ऐसे कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं से है जो पार्टी और क्रान्ति के काम के अलावा और सभी कामों से आज़ाद हों और जिनके पास आवश्यक सैद्धान्तिक ज्ञान यानी मार्क्सवादी दर्शन और विज्ञान की समझ हो, राजनीतिक अनुभव हो और संगठन का अभ्यास हो।