क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षणमाला – 29 : मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के सिद्धान्त : खण्ड-2 अध्याय – 3 पूँजी के परिपथ – III
मार्क्स बताते हैं कि पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के विकसित होने के साथ अधिकांश माल माल-पूँजी के रूप में ही अस्तित्वमान होते हैं। पूँजीवादी उत्पादन बड़े पैमाने का उत्पादन होता है और पूँजीवादी उत्पादक आम तौर पर अपने उत्पादन के साधन के तौर पर जब ऐसे माल भी ख़रीदता है जो साधारण माल उत्पादक पैदा करते हैं, तो वह सीधे साधारण माल उत्पादक से नहीं ख़रीदता क्योंकि आम तौर पर कोई एक साधारण माल उत्पादक उस मात्रा में मालों की आपूर्ति कर ही नहीं सकता है, जिसकी पूँजीवादी माल उत्पादन को आवश्यकता होती है, और साथ ही पूँजीपति उत्पादन के साधनों को ख़रीदने के लिए दस माल उत्पादकों के पास नहीं दौड़ता है। वह ये उत्पादन के साधन जो कि साधारण माल उत्पादक पैदा कर रहे हैं, व्यापारी से ख़रीदता है जो कि साधारण माल उत्पादकों के मालों को उनके मूल्य से कम क़ीमत पर असमान विनिमय के ज़रिये ख़रीदता है। व्यापारिक पूँजीपति के हाथों में ये माल उसकी माल-पूँजी का ही अंग बन जाते हैं। इसलिए पूँजीपति या तो स्वयं उत्पादन के साधनों का उत्पादन करने वाले पूँजीपतियों से ये माल ख़रीदता है या फिर व्यापारिक पूँजीपति से ख़रीदता है। दोनों ही सूरत में ये उत्पादन के साधन किसी पूँजीपति की माल-पूँजी के रूप में अस्तित्वमान होते हैं। अन्य पूँजीपतियों की ये माल-पूँजी बाज़ार में ख़रीदार औद्योगिक पूँजीपति के लिए महज़ माल ही होते हैं, लेकिन जब उन्हें ख़रीद लिया जाता है तो वह उसकी उत्पादक-पूँजी के तत्व बन जाते हैं। श्रमशक्ति हर सूरत में साधारण माल के रूप में ही अस्तित्वमान होती है और श्रम बाज़ार में भी वह एक माल के रूप में ही अस्तित्वमान होती है और केवल ख़रीदे जाने के बाद ही वह ख़रीदार पूँजीपति के उत्पादक-पूँजी का एक तत्व बन जाती है।






















