Category Archives: मज़दूर आन्दोलन की समस्‍याएँ

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (पाँचवी क़िस्त)

यह सर्वहारा वर्ग की पार्टी का राजनीतिक कार्यभार है कि वह केवल मज़दूर वर्ग को संगठित करने पर ही अपनी शक्तियों को केन्द्रित नहीं करती है बल्कि “सिद्धान्तकारों के रूप में, प्रचारकों, उद्वेलनकर्ताओं और संगठनकर्ताओं के रूप में” आबादी के सभी वर्गों के बीच जाती है। ऐसा करना सर्वहारावर्गीय दृष्टिकोण से पीछे हटना नहीं होता है बल्कि कम्युनिस्ट पार्टी यह काम ठीक सर्वहारा दृष्टिकोण से ही करती है। यानी कम्युनिस्ट पार्टी जनता के सभी संस्तरों के बीच राजनीतिक प्रचार और उद्वेलन का काम करती है और इसी प्रक्रिया में सर्वहारा वर्ग बाक़ी मेहनतकश जनसमुदायों को नेतृत्व प्रदान करने की मंज़िल में पहुँच सकता है।

मोनोपोली बनाम ‘बाकी सभी’! अपने वर्ग सहयोगवाद को जायज़ ठहराने के लिए “महासचिव” अजय सिन्हा की नयी “खोजें”!

माटसाब अब कुलकों के साथ-साथ, पटना के ठेकेदारों, एफ़डीआई से मार खा रहे बड़े दुकानदारों, मायापुरी-नारायणा के फैक्ट्री मालिकों को भी मुक्ति दिलायेंगे और उनके बीच भी समाजवाद का नारा बुलन्द करेंगे, जिनके बीच इनका संगठन कुछ कवायदें करता रहा है! कहा जा सकता है कि माटसाब ने मार्क्सवाद में नया इज़ाफ़ा करके यह नया नारा दिया है, “दुनिया के कुलकों, ठेकेदारों, व्यापारियों, छोटे-मँझोले फैक्ट्री मालिकों, एक हो!” माटसाब का तर्क है कि अब चूँकि ये छोटे और मध्यम पूँजीपति भी इज़ारेदार वित्तीय पूँजी की मार से त्रस्त है इसलिए इनका हित जनता के साथ साझा है। और ये भी मुक्ति की चाहत रखते हैं, और इन्हें मुक्ति सिर्फ़ समाजवाद में मिल सकती है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार ये समाजवाद में कुलकों को “उचित दाम” दिलायेंगे!

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (चौथी क़िस्त)

अर्थवाद दरअसल मज़दूरों द्वारा किसी स्वतन्त्र राजनीतिक पार्टी के नेतृत्व में संगठित होने की कोई ज़रूरत समझता ही नहीं है। अर्थवादियों की माने तो मज़दूरों के जन संगठन यानी कि ट्रेड यूनियन ही मज़दूरों के आर्थिक व अन्य अधिकारों की नुमाइन्दगी करने के लिए काफ़ी है। जहाँ तक रूस के अर्थवादियों का प्रश्न था तो उनका मत था कि मज़दूर वर्ग को आर्थिक हक़ों की लड़ाई तक ही ख़ुद को महदूद रखना चाहिए और राजनीतिक संघर्ष और नेतृत्व का काम उदार बुर्जुआ वर्ग पर छोड़ देना चाहिए, वहीं लेनिन का मानना था कि रूस में राजनीतिक संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए जोकि उस वक़्त जनवादी कार्यभारों को पूरा करने का कार्यभार था, उदार पूँजीपति वर्ग के भरोसे नहीं रहा जा सकता है, जो सर्वहारा वर्ग के उग्र होते संघर्ष के समक्ष किसी भी समय प्रतिक्रियावाद की गोद में बैठने को तैयार है।

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (तीसरी क़िस्त)

लेनिन अर्थवादियों की इस समझदारी की आलोचना भी प्रस्तुत करते हैं जो कहती थी कि आर्थिक संघर्ष ही जनता को राजनीतिक संघर्ष में खींचने का वह तरीक़ा है जिसका सबसे अधिक व्यापक ढंग से इस्तेमाल किया जा सकता है। लेनिन के अनुसार यह राजनीतिक आन्दोलन को आर्थिक आन्दोलन के पीछे घिसटने की अर्थवादी नसीहत है। ज़ोर-ज़ुल्म और निरंकुशता की हर अभिव्यक्ति जनता को आन्दोलन में खींचने के लिए रत्ती भर भी कम व्यापक उपयोगयोग्य तरीक़ा नहीं है। इसपर सही अवस्थिति यह कि आर्थिक संघर्षों को भी अधिक से अधिक व्यापक आधार पर चलाना चाहिए और उनका इस्तेमाल हमेशा और शुरुआत से ही राजनीतिक उद्वेलन के लिए किया जाना चाहिए। इसके विपरीत कोई भी समझदारी दरअसल राजनीति को अर्थवादी ट्रेड-यूनियनवादी जामा पहनाने जैसा है।

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (दूसरी क़िस्त)

लेनिन ने अर्थवाद का खण्डन करते हुए बार-बार दुहराया कि विचारधारा का प्रवेश मज़दूर आन्दोलन में बाहर से होता है और यह भी कि आम मज़दूरों द्वारा अपने आन्दोलन की प्रक्रिया के दौरान विकसित किसी “स्वतन्त्र” विचारधारा का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता है, इसलिए केवल दो ही रास्ते बचते हैं, या तो बुर्जुआ विचारधारा को चुना जाये या फिर समाजवादी विचारधारा को चुना जाये। बीच का कोई रास्ता नहीं है

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (पहली क़िस्त)

अर्थवाद दरअसल मज़दूरों के लिए आर्थिक संघर्ष को ही, यानी वेतन-भत्ते और बेहतर कार्यस्थितियों के लिए संघर्ष को ही, समस्त आन्दोलन का फलक बना देता है और इस मुग़ालते में रहता है कि मज़दूर वर्ग के बीच राजनीतिक चेतना स्वतःस्फूर्त तरीक़े से इन्‍हीं आर्थिक संघर्षों मात्र से पैदा हो जायेगी। अर्थवाद के कारण ही मज़दूर वर्ग राजनीतिक प्रश्न उठाने में, जिसमें राजनीतिक सत्ता का प्रश्न सर्वोपरि है, असमर्थ हो जाता है और केवल दुवन्नी-अट्ठन्नी, भत्तों-सहूलियतों की लड़ाई के गोल चक्कर में घूमता रहता है। मज़दूर वर्ग एक राजनीतिक वर्ग के तौर पर संघटित और संगठित हो ही नहीं सकता है अगर उसके संघर्ष का क्षितिज केवल आर्थिक माँगों तक सीमित है। इसका मतलब यह नहीं है कि मज़दूर वर्ग आर्थिक माँगों की लड़ाई नहीं लड़ेगा बल्कि इसका अर्थ केवल इतना है कि एक राजनीतिक वर्ग के बतौर वह इन आर्थिक संघर्षों को भी राजनीतिक तौर पर लड़ेगा।

कविता कृष्णन : सर्वहारा वर्ग की नयी ग़द्दार

कविता कृष्णन : भाकपा (माले) लिबरेशन जैसी पतिततम संशोधनवादी पार्टी में परवरिश और कम्युनिज़्म-विरोधी अमेरिकी साम्राज्यवादी दुष्प्रचार की बौद्धिक ख़ुराक से तैयार हुई सर्वहारा वर्ग की नयी ग़द्दार आनन्द वैसे…

सशस्त्र बलों के बीच प्रचार की लेनिनवादी अवस्थिति क्या है?

“जब भी इन सेनाओं और जत्थों की सामाजिक संरचना और भ्रष्ट आचरण के चलते ऐसा अवसर उत्पन्न हो जाये; तो (सेना में) विघटन की स्थिति उत्पन्न करने के लिए आन्दोलनात्मक प्रचार के हर अनुकूल क्षण का पूरा उपयोग किया जाना चाहिए। जहाँ पर भी इसका पूँजीवादी चरित्र एकदम उजागर हो, मिसाल के तौर पर अफ़सरों की कोर में, वहाँ पूरी जनता के सामने उसे बेनक़ाब करना चाहिए तथा उन्हें इतनी अधिक घृणा और सार्वजनिक तिरस्कार का पात्र बना देना चाहिए कि अपने ख़ुद के अलगाव के कारण वे भीतर से ही विघटन के शिकार हो जायें।”

ऑटो सेक्टर के मज़दूरों के लिए कुछ ज़रूरी सबक़ और भविष्य के लिए एक प्रस्ताव

कोविड काल के बाद शुरू हुए कई आन्दोलनों में से एक आन्दोलन धारूहेडा में शुरू हुआ। 6 से लेकर 22 साल की अवधि से काम कर रहे 105 ठेका मज़दूरों को बीती 28 फ़रवरी 2022 को हुन्दई मोबिस इण्डिया लिमिटेड कम्पनी ने बिना किसी पूर्वसूचना के काम से निकाल दिया। प्रबन्धन के साथ मज़दूरों का संघर्ष पिछले साल से ही चल रहा था। लेकिन प्रबन्धन ने 28 फ़रवरी को सभी पुराने मज़दूरों का ठेका ख़त्म होने का बहाना बनाकर छँटनी कर दी।

धनी किसान-कुलक आन्दोलन के नवीनतम दौर में कुछ ज़रूरी सवाल जिन्हें इस आन्दोलन के नेतृत्व से पूछा जाना चाहिए

जब हमने धनी किसान-कुलक आन्दोलन के शुरू होते ही कहा था कि इस आन्दोलन का मूल और मुख्य लक्ष्य लाभकारी मूल्य (एमएसपी) को बचाना और बढ़ाना है, तो इस आन्दोलन के पीछे घिसट रहे कई कॉमरेडों ने कहा था कि इस आन्दोलन का लक्ष्य केवल लाभकारी मूल्य बचाना नहीं है, बल्कि यह फ़ासीवाद-विरोधी आन्दोलन है, यह खेतिहर मज़दूरों को भी फ़ायदा पहुँचाएगा और यह ग़रीब किसानों को भी फ़ायदा पहुँचाएगा, वग़ैरह। लेकिन अब जबकि मोदी सरकार ने उत्तर प्रदेश व पंजाब चुनावों के मद्देनज़र तीन खेती क़ानूनों को वापस ले लिया है, तो मौजूदा धनी किसान-कुलक आन्दोलन के नेतृत्व ने स्वयं ही अपने चरित्र को साफ़ कर दिया है।