Category Archives: मज़दूर आन्दोलन की समस्‍याएँ

खेती क़ानूनों की वापसी और मज़दूर वर्ग के लिए इसके मायने

पिछले 23 नवम्बर को मोदी सरकार ने धनी किसान-कुलक आन्दोलन के क़रीब 1 साल बाद धनी किसानों की यूनियनों के संयुक्त मोर्चे की माँगें मानते हुए तीनों खेती क़ानून वापस ले लिये। 29 नवम्बर को संसद में इन तीनों क़ानूनों को रद्द करने वाला बिल पारित हो गया। लेकिन कुलक आन्दोलन अब इस माँग पर अड़ गया है कि उसे लाभकारी मूल्य, यानी एमएसपी की क़ानूनी गारण्टी दी जाये। हम पहले भी ‘मज़दूर बिगुल’ के पन्नों पर विस्तार से लिखते रहे हैं कि एमएसपी की माँग एक प्रतिक्रियावादी और जनविरोधी माँग है, जो कि सरकारी इजारेदारी के मातहत तय इजारेदार क़ीमत द्वारा खेतिहर पूँजीपति वर्ग को एक बेशी मुनाफ़ा देती है, खाद्यान्न की क़ीमतों को भी बढ़ाती है और वहीं सार्वजनिक वितरण प्रणाली को भी बर्बाद करती है।

मौजूदा धनी किसान आन्दोलन का वर्ग चरित्र और उसकी हालिया अभिव्यक्तियाँ

धनी किसान आन्दोलन को दिल्ली के बॉर्डरों पर शुरू हुए एक साल पूरा होने को है। इस एक साल के दौरान आन्दोलन के धनी किसान-कुलक वर्ग चरित्र को बेनक़ाब करती हुई कई घटनाएँ सामने आयी हैं। हाल में ही दिल्ली के सिंघु बॉर्डर पर धार्मिक कट्टरपन्थी निहंगों द्वारा एक दलित मज़दूर को बेरहमी से मार देने की घटना भी इसी वर्ग चरित्र को उजागर करने वाली एक प्रातिनिधिक घटना है। धार्मिक ग्रन्थ की कथित बेअदबी के नाम पर एक दलित मज़दूर को प्रदर्शन स्थल पर मार दिया जाता है और इसका कोई प्रतिकार तक नहीं होता है! उल्टे, इस आन्दोलन के नेतृत्व द्वारा ख़ुद को उक्त घटना से अलग करने के प्रयास तत्काल शुरू हो गये थे।

वज़ीरपुर के मज़दूर आन्‍दोलन को पुन: संगठित करने की चुनौतियाँ

22 अगस्त को सी-60/3 फ़ैक्टरी में पॉलिश के कारख़ाने में छत गिरने से एक मज़दूर की मौत हो गयी। सोनू नाम का यह मज़दूर वज़ीरपुर की झुग्गियों में रहता था। मलबे के नीचे दबने के कारण सोनू की तत्काल मौत हो गयी, हादसा होने के बाद फ़ैक्टरी पर पुलिस पहुँची और पोस्टमार्टम के लिए मज़दूर के मृत शरीर को बाबू जगजीवन राम अस्पताल में ले गयी। मुनाफ़े की हवस में पगलाये मालिक की फ़ैक्टरी को जर्जर भवन में चलाने के कारण एक बार फिर एक और मज़दूर को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।

धनी किसान आन्दोलन में लग रहे ‘मज़दूर-किसान एकता’ के नारों के बीच भी जारी है खेत मज़दूरों का शोषण-उत्पीड़न!

दिल्ली की सीमाओं पर जारी धनी किसान आन्दोलन को चलते हुए सात महीने का समय बीत चुका है। इन सात महीनों के दौरान धनी किसान आन्दोलन का वर्ग चरित्र अधिकाधिक बेपर्द होता गया है। हमारा यह शुरू से ही कहना रहा है कि मौजूदा किसान आन्दोलन धनी किसानों और कुलकों का आन्दोलन है। यह हम इस आन्दोलन के वर्ग चरित्र के कारण कहते रहे हैं।

भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन की सफलता-असफलता को लेकर कुछ ज़रूरी बातें

फ़ेसबुक आदि पर होने वाली चर्चाओं में और समाज में आम तौर पर अक्सर भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन की विफलता को लेकर तरह-तरह की बातें की जाती हैं। कुछ लोग इस तरह की बातें करते हैं कि देश में वामपन्थी आन्दोलन के सौ साल हो गये पर अब भी पूँजीवाद का ही हर ओर बोलबाला है। ‘क्रान्तिकारी’ लोग पता नहीं कब जनता के रक्षक की भूमिका में उतरेंगे। अब तो फ़ासीवाद भी आ गया लेकिन कम्युनिस्ट कोई देशव्यापी आन्दोलन नहीं खड़ा कर पा रहे हैं।

पंजाब के खेत मज़दूरों के बदतर हालात का ज़िम्मेदार कौन?

पंजाब का नाम आते ही हरेक के मन में एक ख़ुशहाल प्रदेश की छवि ही आती होगी। आये भी क्यों नहीं? यह राज्य हरित क्रान्ति की प्रयोगशाला बना और इसने खाद्यान्न उत्पादन के नये-नये कीर्तिमान स्थापित किये। लेकिन इस ख़ुशहाल छवि के पीछे एक चीज़ को हमसे छिपा दिया जाता है। वह चीज़ है इस चमक-दमक के पीछे ख़ून-पसीना बहाने वाले खेत मज़दूरों का जीवन।

धनी किसान-कुलक आन्दोलन का हालिया घटनाक्रम और “किसान-मज़दूर एकता” के नारे की असलियत

धनी किसान आन्दोलन को शुरू हुए छह महीने से ज़्यादा का वक़्त बीत चुका है। हाल ही में आन्दोलन के छह महीने पूरे होने पर 26 मई को किसानों द्वारा ‘काला दिवस’ मनाया गया था। लेकिन इस मौक़े पर हुए तमाम विरोध प्रदर्शनों में वैसी तादाद और तेवर नहीं दिखे, जो धनी किसान आन्दोलन के शुरुआती दौर में मौजूद थे। दिल्ली की सरहदों पर जारी इस आन्दोलन की जुटानों में पहले के मुक़ाबले किसानों की शिरक़त भी काफ़ी घटी है।

पूँजीवादी किसान, पूँजीवादी ज़मींदार, आढ़तिये, व्यापारी और बिचौलिये किस तरह गाँव के ग़रीबों को लूटते हैं?

हमारे देश में क़रीब 25 करोड़ लोग खेती में लगे हैं। इसमें से क़रीब 14.5 करोड़ खेतिहर मज़दूर हैं और 10.5 करोड़ किसान हैं। लेकिन किसान कोई एक वर्ग नहीं होता है। धनी किसान होते हैं, उच्च मध्यम किसान, मध्य मध्यम किसान, निम्न मध्यम किसान होते हैं और ग़रीब व सीमान्त किसान होते हैं।

एक ऐतिहासिक फ़ासिस्ट नरसंहार में बदल चुकी कोविड महामारी और हठान्ध कोविडियट्स का ऐतिहासिक अपराध

नदियों में सैकड़ों की तादाद में लाशें उतरा रही हैं। नीचे उन्हें कुत्ते किनारे घसीटकर नोच रहे हैं और ऊपर गिद्ध-चील मँड़रा रहे हैं। ‘भास्कर’ जैसे सत्ता-समर्थक अख़बार भी कोविड से वास्तविक मौतों की संख्या सरकारी आँकड़ों से पाँच गुनी अधिक बता रहे हैं। कई शहरों में कोविड से हुई मौतों के सरकारी आँकड़ों और श्मशानों में पहुँची ऐसे मरीज़ों की लाशों की संख्या के बीच दस गुने तक का अन्तर पाया गया है। उत्तर प्रदेश में निजी अस्पताल कोविड से हुई अधिकांश मौतों का कारण दस्तावेज़ों में कुछ और दर्ज कर रहे हैं।

भारत के मज़दूर आन्दोलन के मीरजाफ़र, जयचन्द और वि‍भीषण

इतिहास किसी को कभी माफ़ नहीं करता और साथ ही इतिहास को कभी भुलाया नहीं जा सकता। भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन में जितना पुराना इतिहास संसदमार्गी संशोधनवादी भाकपा, माकपा, भाकपा मा.ले.(लिबरेशन) के धोखे, छल, प्रपंच और विश्वासघात का है उतना ही गहरा है मज़दूर वर्ग के बीच इनकी राजनीति के प्रति अविश्वास, शंका और सन्देह का इतिहास। संशोधनवाद का रास्ता पकड़ने के बाद और उससे निकली भाकपा, माकपा और भाकपा मा.ले. (लिबरेशन) ने सर्वहारा वर्ग को उनके ऐतिहासिक मिशन से दूर रखकर पूरे मज़दूर आन्दोलन को बर्बाद करने में अहम भूमिका निभाई है।