मई दिवस 2025 – रस्म-अदायगी से आगे बढ़कर मज़दूर वर्ग के अधिकारों पर असली जुझारू लड़ाई के लिए जागो! गोलबन्द हो! संगठित हो!

सम्पादकीय अग्रलेख

आज से 139 साल पहले शिकागो में अमेरिकी मज़दूरों ने एक लड़ाई की शुरुआत की थी। लड़ाई का मक़सद था एक इन्सानी ज़िन्दगी का हक़। उसका नारा था : ‘आठ घण्टे काम, आठ घण्टे आराम, आठ घण्टे मनोरंजन’। उस दौर में पूरी दुनिया में ही मज़दूरों से 12-14 और कहीं-कहीं 16 घण्टे तक काम करवाया जाना आम था। कई जगहों पर साप्ताहिक छुट्टी भी नहीं मिलती थी। ओवरटाइम करना मजबूरी था। ऐसे दौर में, 1856 में ऑस्ट्रेलिया के निर्माण मज़दूरों के सफल संघर्ष से प्रेरणा लेते हुए आठ घण्टे के कार्यदिवस की लड़ाई को शिकागो के मज़दूरों ने एक नये स्तर पर पहुँचाया। इसी आन्दोलन के दौरान हे-मार्केट मज़दूर सभा में बम काण्ड के बाद झूठे आरोप लगाकर कई मज़दूर नेताओं को फाँसी दे दी गयी। कुछ वर्षों बाद अमेरिकी न्यायपालिका और पूँजीवादी व्यवस्था को मानना पड़ा था कि ये फाँसियाँ नाजायज़ थीं और पूँजीपतियों को तुष्ट करने के लिए दी गयी थीं। 11 नवम्बर 1887 को पार्सन्स, एंजेल, स्पाइस व फ़िशर को फाँसी दे दी गयी थी। उसके एक दिन पहले ही लिंग्ग नामक एक अन्य फाँसी की सज़ा पाये मज़दूर ने आत्महत्या कर ली थी। 1893 में एक मज़दूर-समर्थक डेमोक्रैट जज ऑल्टगेल्ड ने बचे हुए सज़ायाफ्ता मज़दूर कैदियों को दण्डमुक्त कर दिया था और 1887 में दी गयी फाँसी की सज़ा को अन्यायपूर्ण क़रार दिया था।

आज पूरी दुनिया में यह तथ्य स्वीकार किया जाता है कि इन मज़दूर नेताओं को केवल उनके क्रान्तिकारी विचारों और मज़दूर वर्ग को उसकी जायज़ माँगों के लिए संगठित करने के लिए पूँजीपति वर्ग की शह पर सज़ा दी गयी थी। पूँजीपति वर्ग को यह लगता था कि इसके ज़रिये वे मज़दूरों के आठ घण्टे के कार्यदिवस व अन्य माँगों के लिए उभरते आन्दोलन को कुचल सकेंगे। लेकिन हुआ इसका उल्टा। फाँसी पाने वाले एक मज़दूर नेता ऑगस्ट स्पाइस ने फाँसी की सज़ा सुनाये जाने के बाद कठघरे से ही पूँजीपति वर्ग को चुनौती देते हुए एलान किया था : “एक दिन हमारी ख़ामोशी उन आवाज़ों से कहीं ज़्यादा ताक़तवर साबित होगी, जिनका आज तुम गला घोंट रहे हो।” स्पाइस के इस एलान को इतिहास ने सही साबित किया।

उस लड़ाई और उसमें बहादुर मज़दूरों की क़ुर्बानियों की बदौलत आने वाले कुछ दशकों के दौरान पूरी दुनिया में मज़दूरों ने अथक संघर्ष और अद्वितीय साहस के साथ संघर्ष कर आठ घण्टे के कार्यदिवस को क़ानूनी तौर पर हासिल किया। 1937 आते-आते अमेरिका में आठ घण्टे का कार्यदिवस लगभग सभी उद्योगों में लागू हो चुका था। पूरी दुनिया में भी अधिकांश देशों में यह आने वाले कुछ ही वर्षों में लागू हो गया।

हमारे देश में भी 1920 का दशक मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के उभार का दौर था और 1920 और 1930 के दशक में ही मज़दूर आन्दोलन के दबाव के कारण अंग्रेज़ी सरकार को काम के घण्टों को वास्तव में विनियमित करने की शुरुआत करनी पड़ी थी और काग़ज़ी तौर पर आठ घण्टे के कार्यदिवस की भी बातें होने लगीं थीं। इन संघर्षों का ही नतीजा था कि 1948 में बने कारख़ाना अधिनियम ने हफ़्ते में 48 घण्टे काम के अधिकार को स्वीकार किया, हालाँकि यह क़ानून उतने सख़्त तौर पर हर दिन के काम के घण्टों को 8 घण्टे पर सीमित नहीं करता था और न ही यह हमारे देश में मौजूद अनौपचारिक व असंगठित क्षेत्र के उद्योगों पर कभी ढंग से लागू किया गया। लेकिन इसके बावजूद संगठित व औपचारिक क्षेत्र के कारख़ानों में यह क़ानून कमोबेश लागू करने को पूँजीपति वर्ग मजबूर हुआ। यह मज़दूर वर्ग के जुझारू आन्दोलन का ही नतीजा था।

आज़ादी के तत्काल बाद हमारे देश में जनता की ही संचित बचत और सार्वजनिक ऋण के बूते (जिसे जनता ही करों के ज़रिये भरती है) पब्लिक सेक्टर उद्यमों का एक विराट ढाँचा खड़ा किया गया। वजह यह थी कि उस समय देश का निजी पूँजीपति वर्ग देश के पूँजीवादी विकास को तेज़ गति से बढ़ाने के लिए आवश्यक पूँजी निवेश करने में सक्षम नहीं था। नतीजतन, “समाजवाद” का नारा उछालकर जनता का समर्थन, उसकी बचत और धन को बटोरा गया और विशाल संगठित सार्वजनिक क्षेत्र खड़ा किया गया। 1980 का दशक आते-आते देश का पूँजीपति वर्ग अब जनता को लूटकर बटोरे गये अक़ूत मुनाफ़े के बूते आर्थिक तौर पर इतना ताक़तवर हो चुका था कि अब वह समूची अर्थव्यवस्था में निजीकरण चाहता था, सरकारी विनियमन की समाप्ति चाहता था, “लाइसेंस राज – कोटा राज” से मुक्ति चाहता था, संक्षेप में, वह मज़दूर वर्ग की लूट और शोषण पर लगे हर प्रकार के राजकीय विनियमन को और ट्रेड यूनियनों की शक्ति को समाप्त करना चाहता था। पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी के रूप में भारत में पूँजीवादी सरकार ने क्रमिक प्रक्रिया में यह काम किया भी।

पहले 1980 के दशक में इन्दिरा गाँधी और राजीव गाँधी ने पूँजीपति वर्ग को धीरे-धीरे “धन्धा करने की सहूलियत” देने की शुरुआत की और फिर 1991 में कांग्रेस की नरसिंह राव सरकार ने इस प्रक्रिया को ज़ोर-शोर ने ‘नयी आर्थिक नीतियों’ के साथ आगे बढ़ाया। 1998 से 2004 के दौरान भाजपा की वाजपेयी सरकार ने मज़दूरों की पूँजीपतियों द्वारा लूट पर लगी रोकों को हटाने का काम कांग्रेस सरकार से भी तेज़ी से किया। उसी समय वाजपेयी सरकार ने वह श्रम आयोग गठित किया था जिसकी सिफ़ारिशों को लागू करते हुए आज मोदी सरकार नये लेबर कोड ला रही है। इसके बाद 2004 से 2014 तक वाजपेयी सरकार के दौरान हुई अन्धाधुन्ध पूँजीवादी लूट से पैदा जन असन्तोष को कुछ शान्त करने के लिए पहले वर्ष में माकपा व भाकपा जैसे मज़दूर वर्ग के ग़द्दार संसदीय वामपन्थियों के सहयोग-सहकार से और उसके बाद उसके बिना ही कांग्रेस-नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार ने कुछ दिखावटी कल्याणवाद किया, कुछ सामाजिक सुरक्षा आदि के दिखावटी क़ानून लाये, लेकिन वास्तव में पूँजीपतियों को भारी छूटें देना जारी रखा।

2014 से मोदी की फ़ासीवादी सरकार ने नवउदारवादी और मज़दूर-विरोधी नीतियों को लागू करने की गति के सारे रिकार्ड ध्वस्त कर दिये हैं। नये लेबर कोडों को क्रमिक प्रक्रिया में लागू करने की पूरी तैयारी की जा चुकी है। इसके लिए मज़दूर पक्ष और पूँजीपति पक्ष के तर्क तैयार करने का काम क्रमश: भाजपा की ट्रेड यूनियन भारतीय मज़दूर संघ और पूँजीपतियों के मंच सी.आई.आई. को दिया गया है। सुनने में रहा है कि पहले इसे 500 या उससे अधिक मज़दूरों के कारख़ानों पर लागू किया जायेगा, फिर 300 या उससे अधिक मज़दूरों के कारख़ानों पर और उसके बाद 300 से कम मज़दूरों के कारख़ानों पर। इसके ज़रिये, व्यवहारत:, आठ घण्टे के कार्यदिवस का क़ानून नष्ट कर दिया जायेगा और “काम करने की स्वतन्त्रता” के नाम पर 10-12 घण्टे काम करवाने को आम बात बना दिया जायेगा। इसके अलावा, ‘जब चाहो काम पर रखो, जब चाहे लात मारकर बाहर कर दो’ यानी ‘हायर एण्ड फ़ायर’ की नीति को क़ानूनी जामा पहना दिया जायेगा। अप्रेण्टिस, ट्रेनी, आदि के नाम पर ठेका प्रथा को और भी ज़्यादा व्यापक पैमाने पर लागू किया जायेगा। यूनियन बनाने को बेहद मुश्किल बना दिया जायेगा और ‘बाहरी’ तत्वों को यूनियन में पदाधिकारी या सदस्य बनाने पर रोक लगाकर यूनियनों को उनके नेतृत्व और राजनीतिक शक्ति से वंचित कर दिया जायेगा। ये हैं फ़ासीवादी मोदी सरकार के मंसूबे। इसका नतीजा यह होगा कि मज़दूर वर्ग ने पिछले 100 सालों में जो हक़ जुझारू और बहादुरी भरे संघर्षों से हासिल किये हैं, उन्हें क्रमिक प्रक्रिया में छीन लिया जायेगा। नतीजा यह होगा कि अनौपचारिक व असंगठित क्षेत्र भारतीय उद्योगों में और भी ज़्यादा विस्तारित होगा। यह मज़दूरी को नीचे गिरायेगा और मन्दी से बिलबिला रहे पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े की औसत दर को बढ़ाकर उसे कुछ राहत देगा। असल में, मन्दी के दौर में पूँजीपति वर्ग जो एकमत से मोदी की फ़ासीवादी सरकार को समर्थन दे रहा है, उसके पीछे का असल कारण यही है : फ़ासीवादी मोदी में ही उसे वह नेता दिखता है जो हर प्रकार से मज़दूर व जन प्रतिरोध को निर्ममता से कुचलकर मुनाफ़े के रथ के चक्के के रास्ते में आने वाली हर बाधा पर पाटा चला सकता है। इसके लिए वह जनता को धर्म के उन्माद में बहाकर उसकी एकता को तोड़ सकता है, उसे बाँट सकता है।

वास्तव में अनौपचारिकीकरण की यह प्रक्रिया 1970 के दशक के उत्तरार्द्ध से ही शुरू हो चुकी थी। उसके पहले भी भारत में एक विशाल अनौपचारिक क्षेत्र मौजूद था। लेकिन 1970 के दशक के उत्तरार्द्ध से यह लगातार बढ़ता रहा है और आज स्थिति यह है कि भारत में मैन्युफैक्चरिंग में करीब 70 से 75 फ़ीसदी मज़दूर अनौपचारिक व असंगठित मज़दूर हैं। अगर भारत की समूची अर्थव्यवस्था की बात करें तो उसमें क़रीब 93 फ़ीसदी कामगार अनौपचारिक और असंगठित हैं। ये ही वे मज़दूर भाई और बहन हैं जिन्हें न तो आठ घण्टे के कार्यदिवस का अधिकार हासिल है, न कोई सामाजिक सुरक्षा हासिल है, न काम की जगह पर सुरक्षा के इन्तज़ामात हासिल हैं और न ही स्वैच्छिक व डबल रेट भुगतान वाला ओवरटाइम, ईएसआई, पीएफ़ आदि। इनकी स्थितियाँ नये तकनोलॉजिकल व सामाजिक सन्दर्भ में कुछ मायने में उन्नीसवीं सदी और बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के मज़दूरों जैसी ही हो गयी है। देश के कल-कारख़ानों, खानों-खदानों और खेतों-खलिहानों में काम करने वाले क़रीब 60 करोड़ मज़दूरों को छोड़ भी दिया जाय तो बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में सूट-टाई पहनकर काम करने वाले मानसिक मज़दूर भी 10-12 घण्टे काम कर रहे हैं! इसके अलावा, तथाकथित ‘गिग अर्थव्यवस्था’ के नाम पर जो पूर्ण रूप में अरक्षित प्लेटफ़ॉर्म आधारित मज़दूर पैदा हुए हैं, उनके काम के घण्टों की तो कोई सीमा ही नहीं है। उनकी मालिक कम्पनियाँ इन मज़दूरों का मालिक होने से इन्कार करती हैं और उन्हें मज़दूर मानने से भी इन्कार करती हैं। वे उन्हें “पार्टनर” बोलकर उनकी मज़दूर पहचान को छिपाती हैं क्योंकि उन्हें मज़दूर मानते ही उन्हें अपने आपको मालिक भी मानना पड़ेगा और किसी न किसी रूप में किसी क़ानून के विनियमन के दायरे में आना पड़ेगा। आज ये कम्पनियाँ बिना किसी क़ानूनी तानेबाने के काम कर रही हैं और खुलकर बेरोक-टोक मज़दूरों को निचोड़ रही हैं। इनमें स्विगी, ज़ोमैटो, इंस्टामार्ट आदि जैसी दर्जनों कम्पनियाँ आती हैं।

खेती के क्षेत्र में खेतिहर मज़दूरों की स्थिति भी भयंकर है। इन कार्यस्थितियों को भी विनियमित करने वाला कोई क़ानून भारत में मौजूद नहीं है। नतीजतन, धनी किसान, कुलक और पूँजीवादी भूस्वामी फार्मर इनसे जमकर काम करवाते हैं। साथ ही यहाँ जाति का कारक भी काम करता है। चूँकि खेतिहर मज़दूरों की लगभग आधी आबादी दलित जातियों से आती है इसलिए इनकी मज़दूरी मार लिया जाना, मज़दूरी माँगने पर इनके हाथों पर ट्रैक्टर चढ़ा देना, इन्हें जला देना देश के गाँवों में आम बात है। इस जातिगत उत्पीड़न के चलते ये भारत के मज़दूर वर्ग का अतिशोषित हिस्सा भी बनते हैं। याद रखें, वे ही धनी किसान, कुलक और फ़ार्मर जो अपने लिए लाभकारी मूल्य यानी एम.एस.पी. हेतु क़ानून बनाने की माँग कर रहे हैं, वे खेतिहर श्रम को विनियमित करने, खेतिहर मज़दूरों को आठ घण्टे के कार्यदिवस व अन्य श्रम अधिकार देने वाले क़ानून को बनाने का पुरज़ोर विरोध करते हैं! लेकिन ये अपनी माँग को ऐसे पेश करते हैं, मानो वह पूरी हो गयी तो खेतिहर मज़दूरों को भी फ़ायदा होगा और इसलिए वे खेतिहर मज़दूरों से अपनी पूँजीवादी किसानी की माँग के लिए समर्थन माँगते हैं! अगर पूँजीपति का मुनाफ़ा बढ़ने से मज़दूर की मज़दूरी बढ़ती तब तो कारख़ानों में भी मज़दूरों को पूँजीपति का मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए काम करना चाहिए! ऐसी बात कोई मूर्ख ही कर सकता है। हम मज़दूर जानते हैं कि पूँजीपति का मुनाफ़ा मज़दूरों की क़ीमत पर ही बढ़ता है। इसलिए समझदार मज़दूर, चाहे वह खेतों में काम करे, खदानों में काम करे या कल-कारख़ानों में काम करे, पूँजीपति वर्ग के इस झाँसे में नहीं आता कि उसका मुनाफ़ा बढ़ने से मज़दूरों को फ़ायदा होगा।

बहरहाल, देश के 90 फ़ीसदी मज़दूरों के काम के हालात और जीवन के हालात पर एक नज़र डालते ही यह बात स्पष्ट हो जाती है कि मज़दूर वर्ग ने अपने जुझारू और साहसी संघर्षों से पिछले 100 वर्षों से ज़्यादा समय में जो कुछ हासिल किया था, वह पूँजीपति वर्ग ने विशेष तौर पर पिछले 50 वर्ष में क्रमिक प्रक्रिया में छीन लिया है। यह हमारे देश का ही नहीं बल्कि दुनिया के अधिकांश पूँजीवादी देशों का हाल है।

ऐसे में, हमें अपने हक़ों के लिए नये सिरे से जागने, गोलबन्द और संगठित होने की आवश्यकता है। लेकिन ऐसी कोई परियोजना हाथ में लेने से पहले हमें यह समझ लेना चाहिए कि हमारे दुश्मन कौन हैं। निश्चित तौर पर, हमारा दुश्मन पूँजीपति वर्ग है। लेकिन उसके ख़िलाफ़ हमारे संघर्ष से जान को खींचकर निकाल लेने वाला एक अन्दरूनी दुश्मन है, जिसे पहचानना बेहद ज़रूरी है। ये अन्दरूनी दुश्मन हैं चुनावी पार्टियों से जुड़ी और विशेषकर नक़ली कम्युनिस्ट पार्टियों, यानी संशोधनवादी पार्टियों, से जुड़ी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें, मसलन, सीटू, एटक, ऐक्टू, एचएमएस, आदि। 1991 से इन्होंने कुल 24 एकदिनी रस्मअदायगी वाली आम हड़तालें की हैं। आप इनसे पूछिए कि इनकी जितनी सदस्यता है, विशेष तौर पर संगठित क्षेत्र में, तो ये मोदी सरकार के लेबर कोड को रोकने के लिए आम अनिश्चितकालीन हड़ताल का नारा क्यों नहीं देतीं? वह कौन-सी चीज़ है जो उन्हें रोक रही है? अगर देश का संगठित क्षेत्र ठप्प पड़ गया तो सरकार का सारा कामकाज ही ठप्प पड़ जायेगा। लेकिन ये सारी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें सेफ़्टी वॉल्व का काम करते हुए हर साल सरकार और मालिकों को पहले से सूचना देकर एक दिन की हड़ताल करती हैं, जिसे अब सरकारों और मालिकों ने भी एक रस्मअदायगी के तौर पर स्वीकार कर लिया है! इस बार भी इन्होंने 20 मई को एक दिन की हड़ताल का आह्वान किया था, लेकिन उसे इन्होंने यह कहकर रद्द कर दिया कि देश में अभी “गम्भीर” हालात हैं और मालिकों को सूचित नहीं किया गया है, इसलिए अब यह एकदिनी रस्मअदायगी 9 जुलाई को की जायेगी। वाह! पहले तो इन्हीं यूनियनों ने भारत और पाकिस्तान के शासक वर्गों के आपसी पूँजीवादी युद्ध में भारत के मज़दूर वर्ग का समर्थन भारत के पूँजीपति वर्ग को पहुँचाने के लिए अन्धराष्ट्रवाद का प्रचार-प्रसार किया, और बाद में मालिक वर्ग और देश की पूँजीवादी व्यवस्था की “गम्भीर” स्थिति का हवाला देते हुए हड़ताल को ही रद्द कर दिया! यह वैसी ही बात है कि दुश्मन पतली हालत में है, इसलिए पहले उसे सम्भल जाने दो, फिर हमला करेंगे! ऐसी बातें ग़द्दार ही किया करते हैं।

हम मज़दूरों को कभी नहीं भूलना चाहिए कि हड़ताल का क्या मतलब होता है। इस हथियार का हम कैसे इस्तेमाल कर सकते हैं और क्रान्तिकारी मज़दूर वर्ग ने किस प्रकार इसका इस्तेमाल आज तक के मज़दूर आन्दोलन के इतिहास में किया है? पूँजीपति वर्ग को घुटनों पर केवल तभी लाया जा सकता है, जब उसका मुनाफ़े का चक्का ठप्प पड़े। इसके बिना, एक-दो दिन की रस्मअदायगी वाली हड़तालों से केवल उसे कुछ तात्कालिक आर्थिक नुक़सान होता है और चूँकि पूँजीपति वर्ग एक राजनीतिक वर्ग है इसलिए अपने अहम राजनीतिक फ़ायदों के लिए वह ऐसा नुक़सान उठाने को तैयार भी होता है। ऐसे में, सरकारों और मालिकों से राय-मशविरा और बातचीत करके एकदिनी हड़ताल का एक दिन तय करना और उस दिन जाकर रस्मअदायगी कर देना, इससे भला सरकार और मालिक वर्ग को क्या फ़र्क़ पड़ने वाला है? 1991 से ये केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें कुल 24 ऐसी हड़तालें कर चुकी हैं। इससे पिछले 35 सालों में क्या हासिल हुआ है? क्या अनौपचारिकीकरण रुका है? क्या ठेकाकरण रुका है? क्या हमारी काम और जीवन की स्थितियों में कोई बेहतरी आयी है? सभी मज़दूर भाई और बहन इन सवालों का जवाब जानते हैं। ऐसे में, इसी रस्मअदायगी को चालू रखने से भविष्य में भी क्या हासिल हो जायेगा? कोई मूर्ख व्यक्ति ही एक ही हरकत को दुहरा-दुहराकर अलग-अलग नतीजों की उम्मीद कर सकता है। लेकिन केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों का नेतृत्व मूर्ख नहीं है, बल्कि काफ़ी चतुर है। अपनी सारी चतुराई यह पूँजीपति वर्ग की सेवा में लगाता है। यह मज़दूर वर्ग को पूँजीपति वर्ग की व्यवस्था की वैधिकता के दायरे में क़ैद कर देना चाहता है; वह उसके हड़ताल के औज़ार की धार को भोथरा बना देना चाहता है; वह हड़तालों को एकदिनी रस्म में तब्दील कर देना चाहता है, ताकि मज़दूर वर्ग का एकत्र हो रहा गुस्सा उस दिन कुछ बाहर निकल जाये; ये केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें हमारे मज़दूर आन्दोलन को क्रान्तिकारी रुख़ अख्तियार करने से रोकने और हमारे गुस्से पर क्रमिक प्रक्रिया में ठण्डे पानी का छिड़काव करने का उपकरण हैं।

लेकिन आज भी मज़दूरों की आबादी का एक विचारणीय हिस्सा इनके प्रभाव में है क्योंकि उनके सामने कोई विकल्प उन्हें नज़र नहीं आता। पस्तहिम्मती का शिकार मज़दूर ‘मरता क्या न करता’ की तर्ज़ पर इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की सच्चाई को जानने के बावजूद इनके पीछे चल पड़ता है। आज अपने तमाम भाइयों और बहनों के सामने एक नया क्रान्तिकारी विकल्प खड़ा करने की आवश्यकता है। हरेक कल-कारख़ाने और खान-खदान में मज़दूरों को इन ग़द्दारी और हमारे हक़ों की दलाली करने वाली और शासक वर्गों के उपकरण का काम करने वाली केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों से बग़ावत कर यूनियन आन्दोलन की नेतृत्व की बागडोर अपने हाथों में लेनी होगी, अपना नया क्रान्तिकारी नेतृत्व विकसित करना होगा और नयी क्रान्तिकारी यूनियनों को खड़ा करना होगा।

ऐसे नये क्रान्तिकारी यूनियन आन्दोलन का पहला क़दम होगा मज़दूर वर्ग के जायज़ हक़ों, यानी आठ घण्टे का कार्यदिवस लागू करने, नियमित प्रकृति के कामों पर हर रूप में ठेका प्रथा का पूर्ण उन्मूलन करने, ट्रेनी व अप्रेण्टिस आदि के नाम पर अस्थायी मज़दूरों का शोषण करने पर पूर्ण रोक लगाने, मज़दूरों को ईएसआई-पीएफ़ का हक़ देने, यूनियन बनाने के रास्ते में समस्त बाधाओं को समाप्त करने आदि माँगों पर पूँजीपति वर्ग को आम अनिश्चितकालीन हड़ताल की चेतावनी देना और इन माँगों को न मानने की सूरत में क्रमिक प्रक्रिया में एक आम अनिश्चितकालीन हड़ताल की ओर आगे बढ़ना।

यह एक मुश्किल काम है। यह एक लम्बा काम है। लेकिन यही वह काम है जो आज हमारे आन्दोलन के गतिरोध और ठहराव को तोड़ सकता है। यही वह काम है जो हमारे वाजिब हक़ों को हमें दिला सकता है। यही वह काम है जिसे करने की तैयारी की हमें फ़ौरन शुरुआत करनी होगी। इसके लिए, अगुवाई करने की क्षमता रखने वाले, अनुभव व सूझबूझ रखने वाले उन्नत हिरावल मज़दूर भाइयों और बहनों को आगे आना होगा। सभी मेहनतकश-मज़दूर साथी हमारे ऐसे अगुवा तत्वों की बातों को सुनते हैं, समझते हैं। इसलिए उनकी ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है। उन्हें पहलक़दमी लेनी होगी और इस काम को पूरा करने के लिए यूनियनों के भीतर भी संघर्ष करना होगा और जहाँ पर यूनियन नेतृत्व पूर्णत: समझौतापरस्त या भ्रष्ट हो, वहाँ उसे उखाड़ फेंकना होगा और जहाँ अनिवार्य हो जाये वहाँ नयी क्रान्तिकारी यूनियनों के निर्माण और गठन की दिशा में भी आगे बढ़ना होगा।

जब तक हम यह काम नहीं शुरू करते, हमारे आन्दोलन का ठहराव टूट नहीं सकता है। ऐसे में, पूँजीपति वर्ग की नुमाइन्दगी करने वाली चुनावी पार्टियों से जुड़ी ये केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें हमारा इस्तेमाल कर अपना सिक्का चमकाती रहेंगी, उनमें मौजूद नौकरशाही पूँजीपति वर्ग की सेवा के लिए अपना मेवा भी लेती रहेगी और हमारे आन्दोलन को पूर्णत: पुंसत्वहीन बनाकर रखेंगी। इस बात को समझने के लिए आपको बस पिछले चार-पाँच दशक में हमारे आन्दोलन के इतिहास पर एक निगाह डालने की ज़रूरत है। जिन्हें यह इतिहास नहीं पता, वे बस अपनी स्मृतियों के आधार पर इन यूनियनों की भूमिका को याद कर लें कि हरेक मज़दूर संघर्ष में इन्होंने कैसे हमारे हितों और हक़ों की दलाली खायी है।

आज मई दिवस के मौक़े पर हमें इस नये संघर्ष को शुरू करने का संकल्प लेना होगा। हमें नये सिरे से जागृत, गोलबन्द और संगठित होना होगा। आने वाले समय में पूँजीपति वर्ग के हमले और भी ज़्यादा बढ़ने वाले हैं। हमारे बचे-खुचे हक़ों को भी मोदी सरकार के ज़रिये पूँजीपति वर्ग नष्ट कर देना चाहता है। प्रस्तावित लेबर कोडों के लागू होने के साथ यह प्रक्रिया आगे बढ़ेगी। हमें अभी से ही अपने भीतर मौजूद भितरघातियों की पहचान करनी होगी, ताकि आने वाले समय में जब मज़दूर-मेहनतकश आबादी पूँजीपति वर्ग के बढ़ते हमलों के विरुद्ध रोष के साथ सड़कों पर उतरे तो ये भितरघाती उन्हें गुमराह न कर सकें, उनके गुस्से को शान्त कर उनके आन्दोलन को पूँजीपति वर्ग की चौहद्दियों में न क़ैद कर सकें। यही मई दिवस की विचार, मई दिवस की स्पिरिट और मई दिवस के शहीदों का सम्मान करने का उपयुक्त तरीक़ा हो सकता है।

 

 

मज़दूर बिगुल, मई 2025

 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन