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मज़दूर वर्ग को एक दिवसीय हड़तालों के वार्षिक अनुष्ठानों से आगे बढ़ना होगा!

हड़ताल की पाठशाला ही मज़दूर वर्ग को मालिकों की पूरी जमात को दुश्मन के तौर पर देखना सिखलाती है। लेनिन बताते हैं कि “हड़ताल मज़दूरों को सिखाती है कि मालिकों की शक्ति तथा मज़दूरों की शक्ति किसमें निहित होती है; वह उन्हें केवल अपने मालिक और केवल अपने साथियों के बारे में ही नहीं, बल्कि तमाम मालिकों, पूँजीपतियों के पूरे वर्ग, मज़दूरों के पूरे वर्ग के बारे में सोचना सिखाती है। जब किसी फ़ैक्टरी का मालिक, जिसने मज़दूरों की कई पीढ़ियों के परिश्रम के बल पर करोड़ों की धनराशि जमा की है, मज़दूरी में मामूली वृद्धि करने से इन्कार करता है, यही नहीं, उसे घटाने का प्रयत्न तक करता है और मज़दूरों द्वारा प्रतिरोध किये जाने की दशा में हज़ारों भूखे परिवारों को सड़कों पर धकेल देता है, तो मज़दूरों के सामने यह सर्वथा स्पष्ट हो जाता है कि पूँजीपति वर्ग समग्र रूप में पूरे मज़दूर वर्ग का दुश्मन है और मज़दूर केवल अपने ऊपर और अपनी संयुक्त कार्रवाई पर ही भरोसा कर सकते हैं।

देशभर में 9 जुलाई को हुई ‘आम हड़ताल’ से मज़दूरों ने क्या पाया?

हमें समझना होगा कि हड़ताल मज़दूर वर्ग का एक बहुत ताक़तवर हथियार है, जिसका इस्तेमाल बहुत तैयारी और सूझबूझ के साथ किया जाना चाहिए। हड़ताल के नाम पर एक या दो दिन की रस्मी क़वायद से इस हथियार की धार ही कुन्द हो सकती है। ऐसी एकदिनी हड़तालें मज़दूरों के गुस्से की आग को शान्त करने के लिए आयोजित की जाती हैं, ताकि कहीं मज़दूर वर्ग के क्रोध की संगठित शक्ति से इस पूँजीवादी व्यवस्था के ढाँचे को ख़तरा न हो। ये एकदिवसीय हड़ताल इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा रस्मी क़वायद है, जो मज़दूरों को अर्थवाद के जाल से बाहर नहीं निकलने देने का एक उपक्रम ही साबित होती है। यह अन्ततः मज़दूरों के औज़ार हड़ताल को भी धारहीन बनाने का काम करती है।

मई दिवस की है ललकार, लड़कर लेंगे सब अधिकार!

आज़ादी के बाद से केन्द्र व राज्य में चाहे जिस पार्टी की सरकार रही हो, सभी ने पूँजीपति वर्ग के पक्ष में मज़दूरों के मेहनत की लूट का रास्ता ही सुगम बनाया है। लेकिन 1990-91 में आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद और ख़ास-कर मोदी के सत्तासीन होने के बाद से मज़दूरों पर चौतरफ़ा हमला बोल दिया गया है। चार नए लेबर कोड के ज़रिये मज़दूरों के 8 घण्टे काम के नियम, यूनियन बनाने, कारख़ानों में सुरक्षा उपकरण आदि के अधिकार को ख़त्म कर दिया गया है। विरोध प्रदर्शनों को कुचलने लिए प्रशासन और पूँजीपतियों को वैध-अवैध तरीक़ा अपनाने की खुली छूट दे दी गयी है। जर्जर ढाँचे और सुरक्षा उपकरणों की कमी के चलते कारख़ाने असमय मृत्यु और अपंगता की जगहों में तब्दील हो गये हैं। हवादार खिड़कियाँ, ऊँची छत, दुर्घटना होने पर त्वरित बचाव के साधन नहीं हैं।

केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों ने एक बार फिर से की ग़द्दारी! 20 मई की एकदिवसीय देशव्यापी हड़ताल स्थगित!

दुअन्नी-चवन्नी की लड़ाई लड़ते-लड़ते मज़दूरों की जुझारू चेतना की धार भोथरी कर देने वाले और उन्हें इसी पूँजीवादी व्यवस्था में जीते रहने की शिक्षा देने वाले ट्रेड यूनियनों के ये मौक़ापरस्त, अर्थवादी, सुधारवादी, दलाल, धन्धेबाज़ नेता अब महज़ आर्थिक माँगों के लिए भी दबाव बना पाने की इच्छाशक्ति और ताक़त खो चुके हैं। संसदीय वामपन्थी और उनके सगे भाई ट्रेड यूनियनवादी मौक़ापरस्त शुरू से ही मज़दूर आन्दोलन के भितरघातियों के रूप में पूँजीवादी व्यवस्था की दूसरी-तीसरी सुरक्षा पंक्ति की भूमिका निभाते रहे हैं। आज इनका यह चरित्र इतना नंगा हो चुका है कि मज़दूरों को ये ठग और बरगला नहीं पा रहे हैं। मज़दूरों की भारी असंगठित आबादी के बीच तो इनकी उपस्थिति ही बहुत कम है। विकल्पहीनता में कहीं-कहीं मज़दूर इन बगुला भगतों के चक्कर में पड़ भी जाते हैं, तो जल्दी ही उनकी असलियत पहचानकर दूर भी हो जाते हैं। यह एक अच्छी बात है। लेकिन चिन्ता और चुनौती की बात यह है कि सही नेतृत्व की कमज़ोरियों और बिखराव के कारण मज़दूरों का क्रान्तिकारी आन्दोलन अभी संगठित नहीं हो पा रहा है। किसी विकल्प के अभाव, अपनी चेतना की कमी और संघर्ष के स्पष्ट लक्ष्य की समझ तथा आपस में एका न होने के कारण बँटी हुई मज़दूर आबादी अभी धन्धेबाज़ नेताओं के जाल में फँसी हुई है।

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (बारहवीं क़िस्त)

अर्थवादियों की दिक़्क़त ही यही होती है कि अपनी राजनीतिक अंधता और सांगठनिक संकीर्णता के चलते उन्हे ये सारी बातें “जनता से काट देनेवाली” दिखलायी पड़ती हैं। जबकि जनता से सबसे घनिष्ठ रूप में सम्पर्क स्थापित करने के लिए क्रान्तिकारियों का यह कार्यभार है कि वे न सिर्फ़ शुद्ध आर्थिक संघर्षों से आगे बढ़ें और राजनीतिक प्रचार, उद्वेलन और भण्डाफोड़ की अनवरत कार्यवाई को बिना रुके बिना थके निरन्तरतापूर्वक चलायें बल्कि इसी प्रक्रिया में जनता से सीखते हुए उसे राजनीतिक तौर पर शिक्षित-प्रशिक्षित भी करें। इसलिए आज भारत के क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं और साथ ही आम मज़दूरों-मेहनतकशों के लिए अर्थवाद के खिलाफ़ लेनिन के नेतृत्व मे चले इस विचारधारात्मक संघर्ष का इतिहास जानना बेहद आवश्यक है ताकि आज भी आन्दोलन में मौजूद इस हानिकारक प्रवृत्ति के विरुद्ध वैचारिक और व्यावहारिक जंग छेड़ी जा सके। 

हालिया मज़दूर आन्दोलनों में हुए बिखराव की एक पड़ताल

आज के दौर के अलग-अलग कारख़ानों में अलग से हड़ताल करके जीतना पहले के मुकाबले कहीं ज़्यादा मुश्किल है। अगर आज मज़दूर आन्दोलन को आगे बढ़ाना है तो समूचे सेक्टर, या ट्रेड यानी, समूचे पेशे, के आधार पर सभी मज़दूरों को अपनी यूनियन व संगठन बनाने होंगे। इसके ज़रिये ही कारख़ानों में यूनियनों को भी मज़बूत किया जा सकता है और कारख़ाना-आधारित संघर्ष भी जीते जा सकते हैं। इसी आधार पर ठेका, कैजुअल, परमानेन्ट मज़दूरों को साथ आना होगा और अपने सेक्टर और इलाक़े का चक्का जाम करना होगा। तभी मालिकों और सरकार को झुकाया जा सकता है। एक फैक्ट्री के आन्दोलन तक ही सीमित होने के कारण उपरोक्त तीनों आन्दोलन आगे नहीं बढ़ सके। ऐसी पेशागत यूनियनों के अलावा, इलाकाई आधार पर मज़दूरों को संगठित करते हुए उनकी इलाकाई यूनियनों को भी निर्माण करना होगा। इसके ज़रिये पेशागत आधार पर संगठित यूनियनों को भी अपना संघर्ष आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी।

वेतन बढ़ोत्तरी व यूनियन बनाने के अधिकार को लेकर सैम्संग कम्पनी के मज़दूरों की 37 दिन से चल रही हड़ताल समाप्त – एक और आन्दोलन संशोधनवाद की राजनीति की भेंट चढ़ा!

सैम्संग मज़दूरों की यह हड़ताल इस बात को और पुख़्ता करती है कि आज के नवउदारवादी पूँजीवाद के दौर में सिर्फ़ अलग-अलग कारख़ानों में अलग से हड़ताल करके जीतना बहुत ही मुश्किल है। अगर आज मज़दूर आन्दोलन को आगे बढ़ाना है तो इलाक़े व सेक्टर के आधार पर सभी मज़दूरों को अपनी यूनियन व संगठन बनाने होंगे, इसके ज़रिये ही कारख़ानों में यूनियनों को भी मज़बूत किया जा सकता है और कारख़ाना-आधारित संघर्ष भी जीते जा सकते हैं। इसी आधार पर ठेका, कैजुअल, परमानेण्ट मज़दूरों को साथ आना होगा और अपने सेक्टर और इलाक़े का चक्का जाम करना होगा। तभी हम मालिकों और सरकार को सबक़ सिखा पायेंगे। दूसरा सबक़ जो हमें स्वयं सीखने की ज़रूरत है वह यह है कि बिना सही नेतृत्व के किसी लड़ाई को नहीं जीता जा सकता है। भारत के मज़दूर आन्दोलन में संशोधनवादियों के साथ-साथ कई अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी भी मौजूद हैं, जो मज़दूरों की स्वतःस्फूर्तता के दम पर ही सारी लड़ाई लड़ना चाहते हैं और नेतृत्व या संगठन की ज़रूरत को नकारते हैं। ऐसी सभी ग़ैर-सर्वहारा ताक़तों को भी आदोलन से बाहर करना होगा।

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (ग्यारहवीं किश्त)

हमारे आन्दोलन के सक्रिय कार्यकर्ताओं के लिए एकमात्र गम्भीर और सच्चा सांगठनिक उसूल यही होना चाहिए कि वे संगठन के कामों को सख्ती से गुप्त रखें, सदस्यों का चुनाव करते समय ज़्यादा से ज़्यादा सख्ती बरतें और पेशेवर क्रान्तिकारी तैयार करें। इतना हो जाये, तो “जनवाद” से भी बड़ी एक चीज़ की हमारी लिए गारण्टी हो जायेगी: वह यह कि क्रान्तिकारियों के बीच सदा पूर्ण, कॉमरेडाना और पारस्परिक विशवास क़ायम रहेगा।

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (दसवीं किश्त)

अपनी रचना ‘क्या करें?’ में लेनिन अर्थवादियों की इस बात के लिए आलोचना करते हैं जब वे कहते हैं कि मज़दूर चूँकि साढ़े ग्यारह-बारह घण्टे कारख़ाने में बिताता है इसलिए आन्दोलन के काम को छोड़कर (यानी कि आर्थिक संघर्ष को छोड़कर) बाक़ी सभी कामों का बोझ “लाज़िमी तौर पर मुख्यतया बहुत ही थोड़े-से बुद्धिजीवियों के कन्धों पर आ पड़ता है”। लेनिन इस अर्थवादी समझदारी का विरोध करते हैं और कहते हैं कि ऐसा होना कोई “लाज़िमी” बात नहीं है। लेनिन बताते हैं कि ऐसा वास्तव में इसलिए होता है क्योंकि क्रान्तिकारी आन्दोलन पिछड़ा हुआ है और इस भ्रामक समझदारी से ग्रस्त है कि हर योग्य मज़दूर को पेशेवर उद्वेलनकर्ता, संगठनकर्ता, प्रचारक, साहित्य-वितरक, आदि बनाने में मदद करना उसका कर्तव्य नहीं है। लेनिन कहते हैं कि इस मामले में हम बहुत शर्मनाक ढंग से अपनी शक्ति का अपव्यय करते हैं; “जिस चीज़ की हमें विशेष ज़ोर देकर हिफ़ाज़त करनी चाहिए, उसकी देखरेख करने की हममें क़ाबिलियत नहीं है”। लेनिन इस अर्थवादी सोच का भी खण्डन करते हैं जो केवल मज़दूरों को उन्नत, औसत और पिछड़े तत्वों में बाँटती है। लेनिन के अनुसार न केवल मज़दूर बल्कि बुद्धिजीवियों को भी इन तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है।

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (नौवीं किश्त)

जो व्यक्ति सिद्धान्त के मामले में ढीला-ढाला और ढुलमुल है, जिसका दृष्टिकोण संकुचित है, जो अपनी काहिली को छिपाने के लिए जनता की स्वतःस्फूर्तता की दुहाई देता है, जो जनता के प्रवक्ता के तौर पर कम बल्कि ट्रेड यूनियन सचिव के तौर पर अधिक काम करता है, जो ऐसी कोई व्यापक तथा साहसी योजना पेश करने में असमर्थ है जिसका विरोधी भी आदर करें और जो ख़ुद अपने पेशे की कला में – राजनीतिक पुलिस को मात देने की कला में – अनुभवहीन और फूहड़ साबित हो चुका है, ज़ाहिर है ऐसा आदमी क्रान्तिकारी नहीं, दयनीय नौसिखुआ है!