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देशभर में 9 जुलाई को हुई ‘आम हड़ताल’ से मज़दूरों ने क्या पाया?

हमें समझना होगा कि हड़ताल मज़दूर वर्ग का एक बहुत ताक़तवर हथियार है, जिसका इस्तेमाल बहुत तैयारी और सूझबूझ के साथ किया जाना चाहिए। हड़ताल के नाम पर एक या दो दिन की रस्मी क़वायद से इस हथियार की धार ही कुन्द हो सकती है। ऐसी एकदिनी हड़तालें मज़दूरों के गुस्से की आग को शान्त करने के लिए आयोजित की जाती हैं, ताकि कहीं मज़दूर वर्ग के क्रोध की संगठित शक्ति से इस पूँजीवादी व्यवस्था के ढाँचे को ख़तरा न हो। ये एकदिवसीय हड़ताल इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा रस्मी क़वायद है, जो मज़दूरों को अर्थवाद के जाल से बाहर नहीं निकलने देने का एक उपक्रम ही साबित होती है। यह अन्ततः मज़दूरों के औज़ार हड़ताल को भी धारहीन बनाने का काम करती है।

फ़ासीवादियों द्वारा इतिहास के साम्प्रदायिकीकरण का विरोध करो! अपने असली इतिहास को जानो! (भाग-1)

फ़ासिस्ट इतिहास से ख़ौफ़ खाते हैं। ये इतिहास को इसलिए भी बदल देना चाहते हैं क्योंकि इनका अपना इतिहास राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन से ग़द्दारी, माफ़ीनामे लिखने, क्रान्तिकारियों की मुख़बिरी करने, साम्प्रदायिक हिंसा और उन्माद फैलाने का रहा है। जब भगतसिंह जैसे क्रान्तिकारी राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन में अपनी शहादत दे रहे थे, तो उस दौर में संघी फ़ासिस्टों के पुरखे लोगों को समझा रहे थे कि अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ने की बजाय मुसलमानों और कम्युनिस्टों के ख़िलाफ़ लड़ना चाहिए! संघी फ़ासिस्टों के गुरु “वीर” सावरकर का माफ़ीनामा, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे लोगों द्वारा मुख़बिरी और गाँधी की हत्या में संघ की भूमिका और ब्रिटिश सत्ता के प्रति वफ़ादारी के इतिहास को अगर फ़ासिस्ट सात परतों के भीतर छिपा देना चाहते हैं तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

पहलगाम आतंकी हमला : कश्मीर में शान्ति स्थापना के दावे हुए हवा! सैलानियों और आम नागरिकों की सुरक्षा में चूक के लिए कौन है ज़िम्मेदार ?

कश्मीर दुनिया भर में सबसे ज़्यादा सैन्यकृत जगहों में से एक है। इसके बावजूद कैसे पुलवामा जैसी घटना हो जाती है जिसमें सीआरपीएफ़ के 40 जवान मारे गये थे? और अब कैसे पहलगाम जैसी घटना हो गयी, जिसमें 27 बेगुनाहों की जान चली गयी!? यदि इन हमलों के पीछे सचमुच पाकिस्तान का ही हाथ है तो सीमापार से घुसपैठ हो कैसे जाती है! मोदी सरकार ने अपना छप्पन इंची सीना फुलाकर नोटबन्दी के साथ “आतंकवाद की कमर तोड़नी” शुरू की थी, लेकिन उसके बाद भी “आतंकवाद की कमर टूटती” नज़र नहीं आ रही है। निश्चय ही जहाँ न्याय नहीं है वहाँ शान्ति नहीं हो सकती है।

दिल्ली के मज़दूरों के लिए न्यूनतम वेतन बढ़ाने की घोषणा! भाजपा सरकार द्वारा फेंका गया एक और जुमला !!

यह भी बता दें कि यही “मज़दूर हितैषी” भाजपा सरकार है, जो चार लेबर कोड लेकर आयी है, जिसके लागू होने के बाद न्यूनतम वेतन जैसे क़ानूनों का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा। मोदी सरकार द्वारा पूँजीपतियों को रहे-सहे श्रम क़ानूनों की अड़चन से मुक्त कर मज़दूरों के बेहिसाब शोषण करने के लिए 44 केन्द्रीय श्रम क़ानूनों की जगह चार कोड या संहिताएँ बनायी गयी हैं- मज़दूरी पर श्रम संहिता, औद्योगिक सम्बन्धों पर श्रम संहिता, सामाजिक सुरक्षा पर श्रम संहिता और औद्योगिक सुरक्षा एवं कल्याण पर श्रम संहिता। मज़दूरी श्रम संहिता के तहत पूरे देश के लिए वेतन का न्यूनतम तल-स्तर निर्धारित किया जायेगा। सरकार का कहना है कि एक त्रिपक्षीय समिति इस तल- स्तर का निर्धारण करेगी, मगर इस सरकार के श्रम मन्त्री पहले ही नियोक्ताओं के प्रति अपनी उदारता दिखाते हुए प्रतिदिन के लिए तल-स्तरीय मज़दूरी 178 रुपये करने की घोषणा कर चुके हैं। यानी, मासिक आमदनी होगी महज़ 4,628 रुपये! यह राशि आर्थिक सर्वेक्षण 2017 में सुझाये गये तथा सातवें वेतन आयोग द्वारा तय किये गये न्यूनतम मासिक वेतन 18,000 रुपये का एक-चौथाई मात्र है।

केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों ने एक बार फिर से की ग़द्दारी! 20 मई की एकदिवसीय देशव्यापी हड़ताल स्थगित!

दुअन्नी-चवन्नी की लड़ाई लड़ते-लड़ते मज़दूरों की जुझारू चेतना की धार भोथरी कर देने वाले और उन्हें इसी पूँजीवादी व्यवस्था में जीते रहने की शिक्षा देने वाले ट्रेड यूनियनों के ये मौक़ापरस्त, अर्थवादी, सुधारवादी, दलाल, धन्धेबाज़ नेता अब महज़ आर्थिक माँगों के लिए भी दबाव बना पाने की इच्छाशक्ति और ताक़त खो चुके हैं। संसदीय वामपन्थी और उनके सगे भाई ट्रेड यूनियनवादी मौक़ापरस्त शुरू से ही मज़दूर आन्दोलन के भितरघातियों के रूप में पूँजीवादी व्यवस्था की दूसरी-तीसरी सुरक्षा पंक्ति की भूमिका निभाते रहे हैं। आज इनका यह चरित्र इतना नंगा हो चुका है कि मज़दूरों को ये ठग और बरगला नहीं पा रहे हैं। मज़दूरों की भारी असंगठित आबादी के बीच तो इनकी उपस्थिति ही बहुत कम है। विकल्पहीनता में कहीं-कहीं मज़दूर इन बगुला भगतों के चक्कर में पड़ भी जाते हैं, तो जल्दी ही उनकी असलियत पहचानकर दूर भी हो जाते हैं। यह एक अच्छी बात है। लेकिन चिन्ता और चुनौती की बात यह है कि सही नेतृत्व की कमज़ोरियों और बिखराव के कारण मज़दूरों का क्रान्तिकारी आन्दोलन अभी संगठित नहीं हो पा रहा है। किसी विकल्प के अभाव, अपनी चेतना की कमी और संघर्ष के स्पष्ट लक्ष्य की समझ तथा आपस में एका न होने के कारण बँटी हुई मज़दूर आबादी अभी धन्धेबाज़ नेताओं के जाल में फँसी हुई है।

हालिया मज़दूर आन्दोलनों में हुए बिखराव की एक पड़ताल

आज के दौर के अलग-अलग कारख़ानों में अलग से हड़ताल करके जीतना पहले के मुकाबले कहीं ज़्यादा मुश्किल है। अगर आज मज़दूर आन्दोलन को आगे बढ़ाना है तो समूचे सेक्टर, या ट्रेड यानी, समूचे पेशे, के आधार पर सभी मज़दूरों को अपनी यूनियन व संगठन बनाने होंगे। इसके ज़रिये ही कारख़ानों में यूनियनों को भी मज़बूत किया जा सकता है और कारख़ाना-आधारित संघर्ष भी जीते जा सकते हैं। इसी आधार पर ठेका, कैजुअल, परमानेन्ट मज़दूरों को साथ आना होगा और अपने सेक्टर और इलाक़े का चक्का जाम करना होगा। तभी मालिकों और सरकार को झुकाया जा सकता है। एक फैक्ट्री के आन्दोलन तक ही सीमित होने के कारण उपरोक्त तीनों आन्दोलन आगे नहीं बढ़ सके। ऐसी पेशागत यूनियनों के अलावा, इलाकाई आधार पर मज़दूरों को संगठित करते हुए उनकी इलाकाई यूनियनों को भी निर्माण करना होगा। इसके ज़रिये पेशागत आधार पर संगठित यूनियनों को भी अपना संघर्ष आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी।

चुनावों में भाजपा के फ़र्ज़ी मुद्दों से सावधान!

हर असली और ज़रूरी मुद्दे पर भाजपा सरकार नंगी हो चुकी है। इसलिए ही इन्हें ग़ैर-ज़रूरी और नक़ली मुद्दों की ज़रूरत होती है, जिसपर जनता को बाँट सकें। वहीं बिके हुए गोदी मीडिया की मदद से यह काम उनके लिए और भी आसान हो गया है। साथ में इनके आईटी-सेल सोशल मीडिया के ज़रिये भी इसी काम में लगे हुए हैं। फ़ेक न्यूज़ फ़ैलाकर यह पहले से ही लोगों के अन्दर ज़हर भरने का काम कर रहे हैं, पर चुनाव के आते ही बंगलादेश और रोहिंग्या मुसलमानों के “घुसपैठ” और “हमले” का डर लोगों के दिमाग़ में डालना शुरू कर देते हैं, जिसका सच्चाई से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता।

रतन टाटा : अच्छे पूँजीवाद का ‘पोस्टर बॉय’

जब टाटा की तुलना रिलायंस या अडानी से की जाती है तो कई ‘प्रगतिशील’ नाराज़ हो जाते हैं और दावा करते हैं कि टाटा समूह ने अद्वितीय नैतिक मानकों को बनाये रखा है और इसकी तुलना इन भ्रष्ट समूहों से नहीं की जा सकती। या तो ये उदारवादी घोर अज्ञानता में जी रहे होते हैं, या अपने पसन्दीदा ब्राण्डों के कारनामों को भूलने का सचेत प्रयास कर रहे होते हैं। आइए देखते हैं टाटा ग्रुप की कुछ उपलब्धियाँ।

एक बार फिर न्यूनतम वेतन बढ़ाने के नाम पर नौटंकी करती सरकारें!

न्यूनतम वेतन का सवाल बाज़ार से और अन्ततः इस पूँजीवादी व्यवस्था से जुड़ता है। इस व्यवस्था में मज़दूरों का वेतन असल में मालिक का मुनाफ़़े और मज़दूर की ज़िन्दगी की बेहतरी के लिए संघर्ष का सवाल है। वेतन बढ़ोतरी के लिए मज़दूरों को यूनियन में संगठित होकर लड़ना ही होगा। फैक्ट्री में मज़दूर को बस उसके जीवनयापन हेतु वेतन भत्ता दिया जाता है और बाक़ी जो भी मज़दूर पैदा करता है, उसे मालिक अधिशेष के रूप में लूट लेता है। अधिक से अधिक अधिशेष हासिल करने के लिए मालिक वेतन कम करने, काम के घण्टे बढ़ाने या श्रम को ज़्यादा सघन बनाने का प्रयास करते हैं और इसके खि़लाफ़ मज़दूर संगठित होकर ही संघर्ष कर सकता है। हमें यह बात समझनी होगी कि न्यूनतम वेतन के क़ानून को भी अपनी एकता के दम पर लड़कर ही लागू कराया जा सकता है। दिल्ली में आँगनवाड़ी कर्मियों, वज़ीरपुर के स्टील मज़दूर, करावल नगर के बादाम मज़दूर हमारे सामने उदाहरण भी है जिन्होंने एकजुट होकर हड़ताल के दम पर अपना न्यूनतम वेतन बढ़वाया है। लेकिन इस माँग को उठाते हुए यह भी समझना चाहिए कि महज़ इतना ही करते रहेंगे तो चरखा कातते रह जायेंगे और वेतन-भत्ते की लड़ाई के गोल-गोल चक्कर में घूमते रह जायेंगे। महँगाई बढ़ेगी तो बढ़ी मज़दूरी फिर कम होने लगती है।

देश में बेतहाशा बढ़ती बेरोज़गारी

भारत में बेरोज़गारी तेजी से बढ़ रही है। भले ही लोगों का विकास नहीं हो रहा हो, पर बेरोज़गारी में लगातार ‘विकास’ देखने को मिल रहा है। करोड़ों मज़दूर और पढ़े-लिखे नौजवान, जो शरीर और मन से दुरुस्त हैं और काम करने के लिए तैयार हैं, उन्हें काम के अवसर से वंचित कर दिया गया है और मरने, भीख माँगने या अपराधी बन जाने के लिए सड़कों पर धकेल दिया गया है। आर्थिक संकट के ग़हराने के साथ हर दिन बेरोज़गारों की तादाद में बढ़ोत्तरी होती जा रही है। बहुत बड़ी आबादी ऐसे लोगों की है, जिन्हें बेरोज़गारी के आँकड़ों में गिना ही नहीं जाता लेकिन वास्तव में उनके पास साल में कुछ दिन ही रोज़गार रहता है या फिर कई तरह के छोटे-मोटे काम करके भी वे मुश्किल से जीने लायक कमा पाते हैं। हमारे देश में काम करने वालों की कमी नहीं है, प्राकृतिक संसाधनों की कोई कमी नहीं है, जीवन के हर क्षेत्र में बुनियादी सुविधाओं के विकास और रोज़गार के अवसर पैदा करने की अनन्त सम्भावनाएँ मौजूद हैं, फिर भी आज देश में बेरोज़गारी आसमान छू रही है।