Category Archives: मज़दूर आन्दोलन की समस्‍याएँ

खेतिहर मज़दूरों की बढ़ती आत्महत्याओं के लिए कौन ज़िम्मेदार है?

2011 की जनगणना के अनुसार देश में खेती में लगे हुए कुल 26.3 करोड़ लोगों में से 45% यानी 11.8 करोड़ किसान थे और शेष लगभग 55% यानी 14.5 करोड़ खेतिहर मज़दूर थे। पिछले 10 वर्षों में यदि किसानों के मज़दूर बनने की दर वही रही हो, जो कि 2000 से 2010 के बीच थी, तो माना जा सकता है कि खेतिहर मज़दूरों की संख्या 15 करोड़ से काफ़ी ऊपर जा चुकी होगी, जबकि किसानों की संख्या 11 करोड़ से और कम रह गयी होगी। मगर ग्रामीण क्षेत्र की सबसे बड़ी आबादी होने के बावजूद खेतिहर मज़दूरों की बदहाली और काम व जीवन के ख़राब हालात की बहुत कम चर्चा होती है।

मज़दूर आन्दोलन में नौसिखियापन और जुझारू अर्थवाद की प्रवृत्ति से लड़ना होगा

हाल ही में दिल्ली से लगे कुण्डली औद्योगिक क्षेत्र में ‘मज़दूर अधिकार संगठन’ के कार्यकर्ता नौदीप कौर और शिवकुमार को हरियाणा पुलिस ने गिरफ़्तार किया और उनका हिरासत के दौरान भयानक दमन किया गया। नौदीप कौर को न सिर्फ़ बेरहमी से पीटा गया बल्कि पुरुष पुलिस वालों द्वारा उनके गुप्तांगों पर प्रहार किया गया। शिवकुमार को पुलिस ने गैर क़ानूनी तरीके से हिरासत में रखकर पीटा और गिरफ़्तारी के लम्बे समय बाद काफ़ी विरोध होने पर उनकी मेडिकल जाँच करायी गयी। शिवकुमार के पैरों के नाखून तक नीले पड़ गये हैं।

कौन हैं देविन्दर शर्मा और उनका “अर्थशास्त्र” और राजनीति किन वर्गों की सेवा करती है?

कोई भी संजीदा कम्युनिस्ट मौजूदा धनी किसान आन्दोलन की माँगों (मूलत: लाभकारी मूल्य की माँग) का समर्थन नहीं कर सकता है, क्योंकि पिछले कई दशकों के दौरान मार्क्सवादी और ग़ैर-मार्क्सवादी अध्येता यह दिखला चुके हैं कि लाभकारी मूल्य की पूरी व्यवस्था ग़रीब-विरोधी है और शुद्धत: धनी किसानों को राजकीय हस्तक्षेप द्वारा व्यापक मेहनतकश ग़रीब जनता की क़ीमत पर दिया जाने वाला बेशी मुनाफ़ा व लगान है।

किसान आन्दोलन में भागीदारी को लेकर ग्राम पंचायतों और जातीय पंचायतों का ग़ैर-जनवादी रवैया

अपनी आर्थिक माँगों के लिए विरोध करना हरेक नागरिक, संगठन और यूनियन का जनवादी हक़ है। बेशक लोगों के जनवादी हक़ों को कुचलने के सत्ता के हर प्रयास का विरोध भी किया जाना चाहिए। इसी प्रकार किसी मुद्दे पर असहमति रखना और विरोध न करना भी हरेक नागरिक और समूह का जनवादी हक़ है। इस हक़ को कुचलने के भी हरेक प्रयास को अस्वीकार किया जाना चाहिए और इसके लिए दबाव बनाने के हर प्रयत्न का विरोध किया जाना चाहिए।

नेपाल में राजनीतिक-संवैधानिक संकट: संशोधनवाद का भद्दा बुर्जुआ रूप खुलकर सबके सामने है!

नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (नेकपा) के भीतर के.पी. शर्मा ओली और पुष्प कमल दाहाल (प्रचण्ड) के धड़ों के बीच महीनों से सत्ता पर क़ब्ज़े के लिए चल रही कुत्ताघसीटी की परिणति पिछले साल 20 दिसम्बर को ओली द्वारा नेपाल की संसद के निचले सदन प्रतिनिधि सभा को भंग करने की अनुशंसा और के रूप में हुई। राष्ट्रपति विद्या भण्डारी ने बिना किसी देरी के प्रतिनिधि सभा को भंग करने के फैसले पर मुहर लगा दी। आगामी 30 अप्रैल व 10 मई को मध्यावधि चुनावों की घोषणा भी कर दी गयी है।

क्या सारे किसानों के हित और माँगें एक हैं?

जब तक सामन्तवाद था और सामन्ती भूस्वामी वर्ग था, तब तक धनी किसान, उच्च मध्यम किसान, निम्न मध्यम किसान, ग़रीब किसान व खेतिहर मज़दूर का एक साझा दुश्मन था। आज निम्न मँझोले किसानों, ग़रीब किसानों व खेतिहर मज़दूरों के वर्ग का प्रमुख शोषक और उत्पीड़क कौन है? वे हैं गाँव के पूँजीवादी भूस्वामी, पूँजीवादी फ़ार्मर, सूदखोर और आढ़तियों-बिचौलियों का पूरा वर्ग। इस शोषक वर्ग की माँगें और हित बिल्कुल अलग हैं और गाँव के ग़रीबों की माँगें और हित बिल्कुल भिन्न हैं।

किसान आन्दोलन के सन्दर्भ में मेरे गाँव के कुछ अनुभव

अभी हाल ही में मेरा गाँव जाना हुआ (जो उत्तर प्रदेश के फै़ज़ाबाद ज़ि‍ले में है)। मुझे पहले थोड़ा आश्चर्य हुआ कि गाँव में या रास्ते में बस और टैक्सी में लोगों के बीच किसान आन्दोलन की कोई सुगबुगाहट या चर्चा तक नहीं सुनाई पड़ी। जबकि शहरों में “अन्नदाताओं के आन्दोलन” को लेकर मध्यम वर्ग में काफ़ी भावुकतापूर्ण उद्गार सुनने को मिल रहे थे। मेरे परिचितों में भी और सोशल मीडिया के ज़रिए भी।

मौजूदा किसान आन्दोलन और लाभकारी मूल्य का सवाल

किसान आन्दोलन को चलते हुए अब क़रीब डेढ़ महीना बीत चुका है। हज़ारों किसान दिल्ली के बॉर्डरों पर इकट्ठा हैं। हम मज़दूरों और मेहनतकशों को जानना चाहिए कि इस आन्दोलन की माँगें क्या हैं। केवल तभी हम यह तय कर सकते हैं कि हमारा इसके प्रति क्या रवैया हो। हम मज़दूरों और मेहनतकशों के लिए सरकार के उन तीन कृषि क़ानूनों का क्या अर्थ है, जिनके ख़िलाफ़ यह आन्दोलन जारी है? हमारे लिए यह समझना भी ज़रूरी है, क्योंकि तभी हम इन तीन क़ानूनों को अलग-अलग समझ सकते हैं और आन्दोलन के प्रति अपना रुख़ तय कर सकते हैं।

भारत के नव-नरोदवादी “कम्युनिस्टों” और क़ौमवादी “मार्क्सवादियों” को फ़्रेडरिक एंगेल्स आज क्या बता सकते हैं?

28 नवम्बर 1820 को सर्वहारा वर्ग के महान शिक्षक और कार्ल मार्क्स के अनन्य मित्र फ़्रेडरिक एंगेल्स का जन्म हुआ था। द्वन्द्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद और वैज्ञानिक समाजवाद के सिद्धान्तों का कार्ल मार्क्स के साथ विकास करने वाले हमारे इस महान नेता ने पहले कार्ल मार्क्स के साथ और 1883 में मार्क्स की मृत्यु के बाद 1895 तक विश्व सर्वहारा आन्दोलन को नेतृत्व दिया। मार्क्सवाद के सार्वभौमिक सिद्धान्तों को स्थापित करने के अलावा इन सिद्धान्तों की रोशनी में उन्होंने इतिहास, विचारधारा, एंथ्रोपॉलजी और प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में ऐसे शोध-कार्य किये, जिन्‍हें पढ़ना आज भी इस क्षेत्र के विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य और अपरिहार्य है।

नोएडा के शोषण-उत्पीड़न झेलते दसियों लाख मज़दूर, पर एकजुट संघर्ष और आन्दोलन का अभाव

उत्तर प्रदेश औद्योगिक क्षेत्र विकास क़ानून नोएडा में 1976 में आपातकाल के दौर में से अस्तित्व में आया। नोएडा भारतीय पूँजीवादी व्यवस्था की महत्वाकांक्षी परियोजना दिल्ली-मुम्बई इण्डस्ट्रियल कॉरीडोर का प्रमुख बिन्दु बनता है। आज नोएडा में भारत की सबसे उन्नत मैन्युफ़ैक्चरिंग इकाइयों के साथ ही सॉफ़्टवेयर उद्योग, प्राइवेट कॉलेज, यूनिवर्सिटी और हरे-भरे पार्कों के बीच बसी गगनचुम्बी ऑफ़िसों की इमारतें और अपार्टमेण्ट स्थित हैं। दूसरी तरफ़ दादरी, कुलेसरा, भंगेल सरीखे़ गाँवों में औद्योगिक क्षेत्र के बीचों-बीच और किनारे मज़दूर आबादी ठसाठस लॉजों और दड़बेनुमा मकानों में रहती है।