केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों ने एक बार फिर से की ग़द्दारी! 20 मई की एकदिवसीय देशव्यापी हड़ताल स्थगित!

भारत

आगामी 20 मई को केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों ने देशव्यापी एकदिवसीय हड़ताल की घोषणा की थी। फिर अचानक से 15 मई को हड़ताल स्थगित करने की घोषणा की गयी। इसका कारण बताया गया कि अभी सरकार और मालिकों को हड़ताल की सूचना नहीं दी गयी है। इससे ही इनके चरित्र को साफ़ समझा जा सकता है। अब ये ग़द्दार ट्रेड यूनियनें सिर्फ़ इसलिए हड़ताल वापस ले रहीं हैं, ताकि मालिकों को सूचना दी जा सके। यह तो पूरी तरह मालिकों और पूँजीपतियों की गोद में ही बैठना हुआ। क्या अब मज़दूर हड़ताल करने के लिए अपने मालिकों से अनुमति लेंगे? क्या इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों ने हड़ताल वापस लेने से पहले मज़दूरों की राय लेना ज़रूरी नहीं समझा? यह केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की मालिकों के प्रति भक्ति को ही दर्शाता है। असल बात यह है कि इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की स्थिति यह है कि अब एक दिन की हड़ताल की रस्मी क़वायद भी ठीक से नहीं कर पा रहे हैं। धीरे-धीरे संगठित मज़दूरों के बीच से भी इनका आधार ख़त्म होता जा रहा है। बता दें कि किसी भी औद्योगिक क्षेत्र में 20 मई की हड़ताल को लेकर कोई हलचल नहीं थी, अधिकतम मज़दूरों को इसके बारे में जानकारी ही नहीं थी। इसलिए अपनी साख़ बचाने के लिए भी मजबूरन इन्हें हड़ताल वापस लेना पड़ा।

मज़दूरों के हड़ताल के हथियार को धारहीन बनाती केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें!

अभी तो केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों ने हड़ताल वापस ले लिया है। पर अगर हड़ताल हो भी जाती तो क्या हम सिर्फ़ इस बात से सन्तोष कर लेंते कि एकदिवसीय हड़ताल में देश के करोड़ों मज़दूरों ने भागीदारी की और अपनी ताक़त दिखायी? क्या केवल एक दिन से मज़दूरों द्वारा अपना गुस्सा निकाल लेने से मज़दूर वर्ग और मालिक वर्ग के बीच संघर्ष में कोई निर्णायक अन्तर आयेगा? मालिकों की ताक़त के समक्ष मज़दूरों की ताक़त उनकी एकता ही होती है और एकता के दम पर मालिकों के मुनाफ़े पर चोट करने का काम हड़ताल ही करती है। लेकिन यह हड़ताल भी तभी कारगर होगी जब मालिकों और उनकी प्रतिनिधि मोदी सरकार को झुकाकर मज़दूरों की माँगों को मनवाया जा सके और यह काम यह एक दिनी रस्मी हड़ताल हमें करने नहीं देती हैं।

मालिकों के चक्रव्यूह को तोड़ने के लिए हड़ताल हमारा ब्रह्मास्त्र है। लेकिन हथियार अगर भोथरा यानी धारहीन हो जाये और उससे शत्रु को चोट न पहुँचे तो यह बेअसर होगा। आज हड़ताल जैसे हथियार को धारहीन करने का काम केन्द्रीय ट्रेड यूनियन कर रही हैं। कैसे? देश भर में इस हड़ताल का आह्वान सीटू, एटक, एच.एम.एस सरीखी ट्रेड यूनियनों ने किया था। इन ट्रेड यूनियनों का मक़सद मज़दूरों के बीच गुस्से को केवल एक दिन की रस्मी हड़ताल के ज़रिये शान्त करना होता है, ताकि मज़दूरों का यह गुस्सा फूटकर मुनाफ़े पर टिकी व्यवस्था को ही न चकनाचूर कर दे। केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें व्यवस्था को बचाने के लिए दूसरी सुरक्षा पंक्ति के तौर पर अपनी भूमिका निभाती हैं। साल दर साल ऐसी रस्मी हडतालों के ज़रिये केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें मज़दूरों को सड़कों पर एक दिन के लिए उतरने को मजबूर करती हैं, लेकिन मालिकों और उनकी प्रतिनिधि सरकारों पर दबाव बनाये बिना ही मज़दूर काम पर वापस लौट चुके होते हैं। कई औद्योगिक क्षेत्रों में यह केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें एक दिन की हड़ताल की नौटंकी करती हैं और उसके बाद साल भर वहाँ नज़र तक नहीं आती। इनके साथ ही अर्थवादी व संघाधिपत्यवादी संगठन जो ख़ुद को “इंक़लाबी” और “मज़दूरों का सहयोगी” बताते हैं, इन्हीं ट्रेड यूनियनों की पूँछ पकड़कर एकदिवसीय हड़ताल में शामिल होते हैं और मज़दूरों के आन्दोलन को सिर्फ़ वेतन-भत्ते की लड़ाई तक सीमित कर देते हैं। देश के मज़दूरों को भी इन मज़दूर वर्ग के ग़द्दारों से सावधान रहना होगा। हमें समझना होगा कि अगर हड़ताल अनिश्चितकालीन नहीं होगी यानी जब तक हमारी माँगें नहीं मानी जाती तब तक हड़ताल जारी न रहे, तो मालिक और सरकार को रत्ती भर भी फ़र्क नहीं पड़ने वाला और वह मिलकर मज़दूर विरोधी नीतियों को लागू करते रहेंगे।

केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की ग़द्दारी का इतिहास काफ़ी पुराना है!

भाँति-भाँति के चुनावी वामपन्थी दलों की ट्रेड यूनियन दुकानदारियों में सबसे बड़े साइनबोर्ड सीटू और एटक के हैं जो क्रमश: माकपा और भाकपा से जुड़े हुए हैं। ये पार्टियाँ मज़दूर क्रान्ति के लक्ष्य और रास्ते को तो पचास साल पहले ही छोड़ चुकी हैं और अब संसद और विधानसभाओं में हवाई गोले छोड़ने के अलावा कुछ नहीं करतीं। सीपीआई, सीपीएम और सीपीआई (एम.एल) जैसे संसदीय वामपन्थियों समेत सभी चुनावी पार्टियाँ संसद और वि‍धानसभाओं में हमेशा मज़दूर विरोधी नीतियाँ बनवाने में मदद करती आयी हैं, तो फिर इनसे जुड़ी ट्रेड यूनियनें मज़दूरों के हक़ों के लिए कैसे लड़ सकती हैं? जब कांग्रेस और भाजपा की सरकारें मज़दूरों के हक़ों को छीनती हैं, तब भारतीय मज़दूर संघ, इण्टक आदि जैसी यूनियनें चुप्पी क्यों साधे रहती हैं? पश्चिम बंगाल में टाटा का कारख़ाना लगाने के लिए ग़रीब मेहनतकशों का क़त्लेआम हुआ, तब सीपीआई व सीपीएम से जुड़ी ट्रेड यूनियनों ने इसके ख़िलाफ़ कोई आवाज़ क्यों नहीं उठायी? जहाँ और जब इन्हें सत्ता में शामिल होने का मौक़ा मिलता है वहाँ ये पूँजीपतियों को मज़दूरों को लूटने की खुली छूट देने में किसी से पीछे नहीं रहतीं। लेकिन अपना वोट बैंक बचाये रखने के लिए इन्हें समाजवाद के नाम का जाप तो करना पड़ता है और नक़ली लाल झण्डा उड़ाकर मज़दूरों को भरमाते रहना पड़ता है, इसलिए बीच-बीच में मज़दूरों की आर्थिक माँगों के लिए कुछ क़वायद करना इनकी मजबूरी होती है। ज़्यादा से ज़्यादा चुनावी पार्टियों से जुड़ी ये ट्रेड यूनियनें इस तरह रस्मी प्रदर्शन या विरोध‍ की नौटंकी ही करती हैं।

1990 में नवउदारवाद और निजीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद से केवल दिल्ली राज्य के स्तर पर नहीं बल्कि 24 बार देश के स्तर पर ‘भारत बन्द’, ‘आम हड़ताल’, ‘प्रतिरोध दिवस’ का आह्वान ये केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें दे चुकी हैं, परन्तु ये अनुष्ठानिक हड़तालें महज़ मज़दूरों के गुस्से के फटने से पहले प्रेशर को कम करने वाले सेफ़्टी वाल्व का काम कर इस व्यवस्था की ही रक्षा करती हैं। तमाम केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें इस व्यवस्था की ही रक्षक हैं, जो इस तरह के एकदिवसीय प्रदर्शनों या हड़तालों से व्यवस्था को संजीवनी प्रदान करती हैं।

 दूसरी बात यह कि 5 करोड़ संगठित पब्लिक सेक्टर के मज़दूरों की सदस्यता वाली ये यूनियनें इन मज़दूरों के हक़ों को ही सबसे प्रमुखता से उठाती हैं। असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों की माँग इनके माँगपत्रक में निचले पायदान पर जगह पाती है और इस क्षेत्र के मज़दूरों का इस्तेमाल महज़ भीड़ जुटाने के लिए किया जाता है। देश की 51 करोड़ खाँटी मज़दूर आबादी में 84 फ़ीसदी आबादी असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों की हैं, परन्तु ये न तो उनके मुद्दे उठाती हैं और न ही उनके बीच इनका कोई आधार है। तीसरी बात, अगर ये वाक़ई न्यूनतम वेतन को नयी दर से लागू करवाना चाहती हैं और केन्द्र व राज्य सरकार के मज़दूर विरोधी संशोधनों को सच में वापस करवाने की इच्छुक हैं तो क्या इन्हें इस हड़ताल को अनिश्चितकाल तक नहीं चलाना चाहिए था? यानी कि तब तक जब तक सरकार मज़दूरों से किये अपने वादे पूरे नहीं करती और उनकी माँगों के समक्ष झुक नहीं जाती है।

अब चलो नयी शुरुआत करो! मज़दूर मुक्ति की बात करो!!

इस समय दिल्ली, नोएडा से लेकर ऑटो-सेक्टर और पूरे देश के मज़दूरों की स्थिति नरक सरीखी है। ऑटो-सेक्टर की मारुति, हीरो या होण्डा सरीखी ऑटो फैक्ट्रियाँ हों या मैट्रिक्स सरीखी गारमेण्ट फैक्ट्री हों, बवाना की दाना लाइन की फैक्ट्रियाँ हों या नोएडा में फैली कम्पनियाँ हों, हर जगह मज़दूरों की स्थिति भयंकर है। ठेका, कैज़ुअल या अपरेंटिस हों या दिल्ली की फैक्ट्रियों में बिना पहचान कार्ड, ई.एस.आई-पी.एफ़ के काम करने वाली आबादी हो, सभी जगह मालिकों को मज़दूरों को लूटने की खुली छूट मिली हुई है। आज़ाद हिन्दुस्तान में पहले से ही विशाल अनौपचारिक क्षेत्र मौजूद था, जो नवउदारवाद के दौर में और तेज़ी से फैला है। ठेका प्रथा, कैज़ुअलाइज़ेशन व दिहाड़ीकरण के ज़रिये मज़दूरों का शोषण भीषण से भीषणतम हो रहा है। आज भारत के 93 से 94 प्रतिशत मज़दूर अनौपचारिक व असंगठित क्षेत्रों के कारख़ानों, वर्कशॉपों, दुकानों, खेतों व अन्य कार्यस्थलों पर काम करते हैं। हालत यह है कि भारत के कुल मज़दूरों के 90 प्रतिशत से भी ज़्यादा हिस्से को आठ घण्टे का कार्यदिवस हासिल नहीं है। इन मज़दूरों को पी.एफ़, ई.एस.आई, पेंशन, बोनस, स्वैच्छिक ओवरटाइम व ओवरटाइम के डबल रेट से भुगतान आदि जैसे श्रम अधिकार तक प्राप्त नहीं हैं।

अब मोदी सरकार चार लेबर कोड के माध्यम से सभी श्रम क़ानूनों को भी ख़त्म करने करने जा रही है। चार लेबर कोड के ज़रिये श्रम क़ानूनों को दन्त नख विहीन बना दिया जायेगा, जिसके बाद काग़ज़ी तौर पर भी मज़दूरों को लूटने का हक़ इस देश के पूँजीपतियों को मिल जायेगा। मोदी सरकार इन चार श्रम संहिताओं को लागू करने के लिए क़दम-ब-क़दम आगे बढ़ रही है। लोकसभा, राज्यसभा में पारित होने के बाद अभी इन्हें राज्य सरकारों की मुहर लगवाने के लिए भेजा गया है, जिसके बाद यह राष्ट्रपति की मुहर के बाद फैक्ट्रियों में लागू हो जायेंगे। इस दौरान देशभर में करोड़ों की सदस्यता का दम्भ भरने वाली सीटू, एटक, एच.एम.एस, इंटक से लेकर ऐक्टू जैसी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों ने केवल रस्मी क़वायदें की हैं और सिर्फ़ चिट्ठी-विनती की है यानी एक तरह से मोदी सरकार के सामने इन्हें लागू करने में कोई बाधा उपस्थित नहीं की है। दूसरी तरफ़ इसके ख़िलाफ़ मज़दूरों का आन्दोलन किसी जन उभार में तब्दील न हो इसलिए समय-समय पर रस्मी क़वायदें कर मज़दूरों के आक्रोश को एक दिवसीय हड़ताल तक सीमित कर देती हैं।

दरअसल, दुअन्नी-चवन्नी की लड़ाई लड़ते-लड़ते मज़दूरों की जुझारू चेतना की धार भोथरी कर देने वाले और उन्हें इसी पूँजीवादी व्यवस्था में जीते रहने की शिक्षा देने वाले ट्रेड यूनियनों के ये मौक़ापरस्त, अर्थवादी, सुधारवादी, दलाल, धन्धेबाज़ नेता अब महज़ आर्थिक माँगों के लिए भी दबाव बना पाने की इच्छाशक्ति और ताक़त खो चुके हैं। संसदीय वामपन्थी और उनके सगे भाई ट्रेड यूनियनवादी मौक़ापरस्त शुरू से ही मज़दूर आन्दोलन के भितरघातियों के रूप में पूँजीवादी व्यवस्था की दूसरी-तीसरी सुरक्षा पंक्ति की भूमिका निभाते रहे हैं। आज इनका यह चरित्र इतना नंगा हो चुका है कि मज़दूरों को ये ठग और बरगला नहीं पा रहे हैं। मज़दूरों की भारी असंगठित आबादी के बीच तो इनकी उपस्थिति ही बहुत कम है। विकल्पहीनता में कहीं-कहीं मज़दूर इन बगुला भगतों के चक्कर में पड़ भी जाते हैं, तो जल्दी ही उनकी असलियत पहचानकर दूर भी हो जाते हैं। यह एक अच्छी बात है। लेकिन चिन्ता और चुनौती की बात यह है कि सही नेतृत्व की कमज़ोरियों और बिखराव के कारण मज़दूरों का क्रान्तिकारी आन्दोलन अभी संगठित नहीं हो पा रहा है। किसी विकल्प के अभाव, अपनी चेतना की कमी और संघर्ष के स्पष्ट लक्ष्य की समझ तथा आपस में एका न होने के कारण बँटी हुई मज़दूर आबादी अभी धन्धेबाज़ नेताओं के जाल में फँसी हुई है। इनकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि आज पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर मज़दूरों के उन आर्थिक हितों और सीमित राजनीतिक अधिकारों की हिफाज़त करने की भी गुंजाइश लगातार कम होती जा रही है, जिनके लिए आवाज़ उठाने की कमाई माकपा-भाकपा जैसी पार्टियाँ और सीटू-एटक जैसी यूनियनें खाती रही हैं। निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों ने अर्थवाद और संशोधनवाद की नक़ली मज़दूर राजनीति की ज़मीन ही खिसका दी है। जो भी पूँजीवादी व्यवस्था में सरकार चलायेगा, उसे पूँजीवादी संकट का समाधान व्यवस्था की चौहद्दी के भीतर ही ढूँढ़ना होगा। और समाधान के मामले में विकल्प सिकुड़ते जा रहे हैं। इसलिए आज एटक और सीटू जैसी ट्रेड यूनियनों के नेता कुछ हवाई गोले छोड़ने और विरोध के नाम पर अपनी नपुंसकता के प्रदर्शन के सिवा कर भी क्या सकते हैं? मज़दूर वर्ग इन मीरजाफ़रों और जयचन्दों से पीछा छुड़ाकर ही ऐसी लड़ाई में उतर सकता है जो पूँजीवाद के बूढ़े राक्षस को उसकी क़ब्र में धकेलने के बाद ही ख़त्म होगी।

आज असली चुनौती मज़दूर वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली क्रान्तिकारी ताक़तों के सामने है, जो आज भी खण्ड-खण्ड में बिखरी हुई हैं और उनमें आगे बढ़ने के स्पष्ट लक्ष्य और दिशा का अभाव है। उन्हें देश और दुनिया की नयी परिस्थितियों का ठोस विश्लेषण करने और विचारधारात्मक भटकावों से मुक्त होने के साथ ही मज़दूर आन्दोलन में सही क्रान्तिकारी जनदिशा अपनाकर काम करना होगा। उन्हें विशाल मज़दूर वर्ग के बीच सघन क्रान्तिकारी राजनीतिक प्रचार और संगठन काम काम तेज़ करना होगा। मज़दूर वर्ग के बीच राजनीतिक प्रचार और उसके राजनीतिक एवं आर्थिक आन्दोलनों में भागीदारी की प्रक्रिया मज़दूर वर्ग की सच्ची हिरावल पार्टी के निर्माण की प्रक्रिया को भी तेज़ करेगी। उन्हें भयंकर पूँजीवादी शोषण-उत्पीड़न और अपमान से कसमसा रहे मज़दूर वर्ग को यह समझा देना होगा कि अपने तमाम लाव-लश्कर के बावजूद पूँजीवाद का कवच अभेद्य नहीं है। यदि मज़दूर वर्ग सही राजनीति पर संगठित होकर लड़े और व्यापक मेहनतकश अवाम की अगुवाई करे तो उसे चूर-चूर किया जा सकता है। इसलिए पराजय की मानसिकता से, निराशा से मुक्त होना होगा और नये सिरे से संघर्ष की ठोस तैयारी में लग जाना होगा।

 

मज़दूर बिगुल, मई 2025

 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन