Category Archives: अर्थवाद लेखमाला

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (दसवीं किश्त)

अपनी रचना ‘क्या करें?’ में लेनिन अर्थवादियों की इस बात के लिए आलोचना करते हैं जब वे कहते हैं कि मज़दूर चूँकि साढ़े ग्यारह-बारह घण्टे कारख़ाने में बिताता है इसलिए आन्दोलन के काम को छोड़कर (यानी कि आर्थिक संघर्ष को छोड़कर) बाक़ी सभी कामों का बोझ “लाज़िमी तौर पर मुख्यतया बहुत ही थोड़े-से बुद्धिजीवियों के कन्धों पर आ पड़ता है”। लेनिन इस अर्थवादी समझदारी का विरोध करते हैं और कहते हैं कि ऐसा होना कोई “लाज़िमी” बात नहीं है। लेनिन बताते हैं कि ऐसा वास्तव में इसलिए होता है क्योंकि क्रान्तिकारी आन्दोलन पिछड़ा हुआ है और इस भ्रामक समझदारी से ग्रस्त है कि हर योग्य मज़दूर को पेशेवर उद्वेलनकर्ता, संगठनकर्ता, प्रचारक, साहित्य-वितरक, आदि बनाने में मदद करना उसका कर्तव्य नहीं है। लेनिन कहते हैं कि इस मामले में हम बहुत शर्मनाक ढंग से अपनी शक्ति का अपव्यय करते हैं; “जिस चीज़ की हमें विशेष ज़ोर देकर हिफ़ाज़त करनी चाहिए, उसकी देखरेख करने की हममें क़ाबिलियत नहीं है”। लेनिन इस अर्थवादी सोच का भी खण्डन करते हैं जो केवल मज़दूरों को उन्नत, औसत और पिछड़े तत्वों में बाँटती है। लेनिन के अनुसार न केवल मज़दूर बल्कि बुद्धिजीवियों को भी इन तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है।

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (नौवीं किश्त)

जो व्यक्ति सिद्धान्त के मामले में ढीला-ढाला और ढुलमुल है, जिसका दृष्टिकोण संकुचित है, जो अपनी काहिली को छिपाने के लिए जनता की स्वतःस्फूर्तता की दुहाई देता है, जो जनता के प्रवक्ता के तौर पर कम बल्कि ट्रेड यूनियन सचिव के तौर पर अधिक काम करता है, जो ऐसी कोई व्यापक तथा साहसी योजना पेश करने में असमर्थ है जिसका विरोधी भी आदर करें और जो ख़ुद अपने पेशे की कला में – राजनीतिक पुलिस को मात देने की कला में – अनुभवहीन और फूहड़ साबित हो चुका है, ज़ाहिर है ऐसा आदमी क्रान्तिकारी नहीं, दयनीय नौसिखुआ है!

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (आठवीं क़िस्त)

आर्थिक संघर्षो के लिए किये जाने वाले ट्रेड यूनियन आन्दोलन की सफलता की पूर्वशर्त भी क्रान्तिकारियों के संगठन यानी कि हिरावल पार्टी का निर्माण है। और यहीं पर लेनिन पेशेवर क्रान्तिकारी की अवधारणा को लाते हैं जिसके बिना लेनिनवादी बोल्शेविक पार्टी की बात करना अकल्पनीय है। पेशेवर क्रान्तिकारियों से लेनिन का अभिप्राय ऐसे कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं से है जो पार्टी और क्रान्ति के काम के अलावा और सभी कामों से आज़ाद हों और जिनके पास आवश्यक सैद्धान्तिक ज्ञान यानी मार्क्सवादी दर्शन और विज्ञान की समझ हो, राजनीतिक अनुभव हो और संगठन का अभ्यास हो।

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (सातवीं क़िस्त)

“व्यवहार” पर इस प्रकार का ग़ैर-द्वंद्वात्मक ज़ोर दरअसल अपनी सैद्धान्तिक व विचारधारात्मक कमज़ोरियों को ही छिपाने का एक तरीक़ा होता है। कारण यह है कि क्रान्तिकारी सिद्धान्त भी किसी एक व्यक्ति या ग्रुप के व्यवहार से पैदा नहीं होता है। क्रान्तिकारी सिद्धान्त वर्ग संघर्ष के ऐतिहासिक अनुभवों के वैज्ञानिक अमूर्तन, सामान्यीकरण और समाहार के आधार पर अस्तित्व में आता है। यानी क्रान्तिकारी सिद्धान्त मज़दूर वर्ग और मेहनतकश जनता द्वारा सदियों से जारी वर्ग संघर्ष के ऐतिहासिक अनुभवों के समाहार से निकलता है। दूसरी अहम बात यह है कि क्रान्तिकारी सिद्धान्त को सही तरीक़े से समझना, सीखना और लागू करना सीखना स्वयं क्रान्तिकारी व्यवहार का ही अंग है, कोई शुद्ध सिद्धान्तवाद नहीं। इसलिए ऐसे लोगों का यह शुद्ध “व्यवहारवाद” उनके विचारधारात्मक दिवालियापन का परिचायक है और अर्थवादी प्रवृत्ति की ही एक अभिव्यक्ति है।

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (छठी क़िस्त)

अर्थवाद सांगठनिक मामलों में भी सचेतनता के बरक्स स्वतःस्फूर्तता को ही प्राथमिकता देता है और सांगठनिक रूपों में सचेतन तत्व की अनिवार्यता को नकारता है। इसके अनुसार सर्वहारा को राजनीतिक क्रान्ति के लिए प्रशिक्षित करने वाला मार्क्सवादी दर्शन, विचारधारा और विज्ञान से लैस क्रान्तिकारियों का एक मज़बूत व केन्द्रीयकृत संगठन बनाने की कोई ज़रूरत नहीं है। जबकि क्रान्तिकारी मार्क्सवाद का मानना है कि मज़दूर आन्दोलन का सबसे प्राथमिक तथा आवश्यक व्यावहारिक कार्यभार क्रान्तिकारियों का ऐसा संगठन खड़ा करना है जो “राजनीतिक संघर्ष की शक्ति, उसके स्थायित्व और उसके अविराम क्रम को क़ायम रख सके।” इसके विपरीत कोई भी अन्य समझदारी दरअसल नौसिखुएपन और स्वतःस्फूर्तता का स्तुति-गान है और उसका समर्थन है। इसके आगे की चर्चा अगले अंक में जारी रहेगी।

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (पाँचवी क़िस्त)

यह सर्वहारा वर्ग की पार्टी का राजनीतिक कार्यभार है कि वह केवल मज़दूर वर्ग को संगठित करने पर ही अपनी शक्तियों को केन्द्रित नहीं करती है बल्कि “सिद्धान्तकारों के रूप में, प्रचारकों, उद्वेलनकर्ताओं और संगठनकर्ताओं के रूप में” आबादी के सभी वर्गों के बीच जाती है। ऐसा करना सर्वहारावर्गीय दृष्टिकोण से पीछे हटना नहीं होता है बल्कि कम्युनिस्ट पार्टी यह काम ठीक सर्वहारा दृष्टिकोण से ही करती है। यानी कम्युनिस्ट पार्टी जनता के सभी संस्तरों के बीच राजनीतिक प्रचार और उद्वेलन का काम करती है और इसी प्रक्रिया में सर्वहारा वर्ग बाक़ी मेहनतकश जनसमुदायों को नेतृत्व प्रदान करने की मंज़िल में पहुँच सकता है।

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (चौथी क़िस्त)

अर्थवाद दरअसल मज़दूरों द्वारा किसी स्वतन्त्र राजनीतिक पार्टी के नेतृत्व में संगठित होने की कोई ज़रूरत समझता ही नहीं है। अर्थवादियों की माने तो मज़दूरों के जन संगठन यानी कि ट्रेड यूनियन ही मज़दूरों के आर्थिक व अन्य अधिकारों की नुमाइन्दगी करने के लिए काफ़ी है। जहाँ तक रूस के अर्थवादियों का प्रश्न था तो उनका मत था कि मज़दूर वर्ग को आर्थिक हक़ों की लड़ाई तक ही ख़ुद को महदूद रखना चाहिए और राजनीतिक संघर्ष और नेतृत्व का काम उदार बुर्जुआ वर्ग पर छोड़ देना चाहिए, वहीं लेनिन का मानना था कि रूस में राजनीतिक संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए जोकि उस वक़्त जनवादी कार्यभारों को पूरा करने का कार्यभार था, उदार पूँजीपति वर्ग के भरोसे नहीं रहा जा सकता है, जो सर्वहारा वर्ग के उग्र होते संघर्ष के समक्ष किसी भी समय प्रतिक्रियावाद की गोद में बैठने को तैयार है।

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (तीसरी क़िस्त)

लेनिन अर्थवादियों की इस समझदारी की आलोचना भी प्रस्तुत करते हैं जो कहती थी कि आर्थिक संघर्ष ही जनता को राजनीतिक संघर्ष में खींचने का वह तरीक़ा है जिसका सबसे अधिक व्यापक ढंग से इस्तेमाल किया जा सकता है। लेनिन के अनुसार यह राजनीतिक आन्दोलन को आर्थिक आन्दोलन के पीछे घिसटने की अर्थवादी नसीहत है। ज़ोर-ज़ुल्म और निरंकुशता की हर अभिव्यक्ति जनता को आन्दोलन में खींचने के लिए रत्ती भर भी कम व्यापक उपयोगयोग्य तरीक़ा नहीं है। इसपर सही अवस्थिति यह कि आर्थिक संघर्षों को भी अधिक से अधिक व्यापक आधार पर चलाना चाहिए और उनका इस्तेमाल हमेशा और शुरुआत से ही राजनीतिक उद्वेलन के लिए किया जाना चाहिए। इसके विपरीत कोई भी समझदारी दरअसल राजनीति को अर्थवादी ट्रेड-यूनियनवादी जामा पहनाने जैसा है।

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (दूसरी क़िस्त)

लेनिन ने अर्थवाद का खण्डन करते हुए बार-बार दुहराया कि विचारधारा का प्रवेश मज़दूर आन्दोलन में बाहर से होता है और यह भी कि आम मज़दूरों द्वारा अपने आन्दोलन की प्रक्रिया के दौरान विकसित किसी “स्वतन्त्र” विचारधारा का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता है, इसलिए केवल दो ही रास्ते बचते हैं, या तो बुर्जुआ विचारधारा को चुना जाये या फिर समाजवादी विचारधारा को चुना जाये। बीच का कोई रास्ता नहीं है

मज़दूर आन्दोलन में मौजूद किन प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग का लड़ना ज़रूरी है? – (पहली क़िस्त)

अर्थवाद दरअसल मज़दूरों के लिए आर्थिक संघर्ष को ही, यानी वेतन-भत्ते और बेहतर कार्यस्थितियों के लिए संघर्ष को ही, समस्त आन्दोलन का फलक बना देता है और इस मुग़ालते में रहता है कि मज़दूर वर्ग के बीच राजनीतिक चेतना स्वतःस्फूर्त तरीक़े से इन्‍हीं आर्थिक संघर्षों मात्र से पैदा हो जायेगी। अर्थवाद के कारण ही मज़दूर वर्ग राजनीतिक प्रश्न उठाने में, जिसमें राजनीतिक सत्ता का प्रश्न सर्वोपरि है, असमर्थ हो जाता है और केवल दुवन्नी-अट्ठन्नी, भत्तों-सहूलियतों की लड़ाई के गोल चक्कर में घूमता रहता है। मज़दूर वर्ग एक राजनीतिक वर्ग के तौर पर संघटित और संगठित हो ही नहीं सकता है अगर उसके संघर्ष का क्षितिज केवल आर्थिक माँगों तक सीमित है। इसका मतलब यह नहीं है कि मज़दूर वर्ग आर्थिक माँगों की लड़ाई नहीं लड़ेगा बल्कि इसका अर्थ केवल इतना है कि एक राजनीतिक वर्ग के बतौर वह इन आर्थिक संघर्षों को भी राजनीतिक तौर पर लड़ेगा।