Category Archives: नेताशाही व नौकरशाही

लोकसभा चुनाव : बहुमत से पीछे रहने के बावजूद फ़ासीवादी भाजपा के  दाँत, नख और पंजे राज्यसत्ता में और अन्दर तक धँसे

लोकसभा चुनाव के नतीजे सामने आ चुके हैं। भाजपा भले ही अपने “400 पार” के नारे के बोझ तले धड़ाम से गिर चुकी हो, मगर जिस तरह पूरे चुनाव में गोदी मीडिया, ईडी, सीबीआई, चुनाव आयोग समेत पूँजीवादी राज्यसत्ता की समस्त मशीनरी ने भाजपा के पक्ष में सम्भावनाएँ पैदा करने का काम किया है, यह भाजपा-आरएसएस द्वारा राज्यसत्ता की मशीनरी में अन्दर तक की गयी घुसपैठ और उसके भीतर से किये गये ‘टेक ओवर’ के बारे में काफी कुछ बता देता है। इसके बावजूद एक तबका चुनाव के नतीजों के बाद भाजपा के 240 सीट पर सिमट जाने से ख़ुशी की लहर पर सवार है और वह “लोकतंत्र की जीत” व “संविधान की मज़बूती” की दुहाई देते थक नहीं रहा है। ऐसे में “लोकतंत्र के त्यौहार” यानी 18वें  लोकसभा चुनाव (जिसका कुल ख़र्च लगभग 1.35 ट्रिलियन रुपये बताया जा रहा है) को समग्रता में देखने की ज़रूरत है, ताकि चुनाव नतीजों के शोर में व्यवस्थित तरीक़े से, पूँजीवादी औपचारिक मानकों से भी, लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के हो रहे विघटन से दृष्टि ओझल न हो।

मज़दूरों-मेहनतकशों के लिए लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजों के मायने – भावी सम्भावनाएँ, भावी चुनौतियाँ और हमारे कार्यभार

लोकसभा चुनाव के इस नतीजे का मुख्य कारण यह है कि बेरोज़गारी, महँगाई, भयंकर भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता से जनता त्रस्त थी और भाजपा की जनविरोधी और अमीरपरस्त नीतियों की वजह से उसकी जनता में भारी अलोकप्रियता थी। यही वजह थी कि आनन-फ़ानन में अपूर्ण राम मन्दिर के उद्घाटन करवाने का भी भाजपा को कोई फ़ायदा नहीं मिला और फ़ैज़ाबाद तक की सीट भाजपा हार गयी, जिसमें अयोध्या पड़ता है।

अ टेल ऑफ़ टू सिटीज़ (दो शहरों की कहानी): सूरत और इन्दौर की लोकसभा सीट जीतने के लिए भाजपा का षड्यंत्रकारी हथकण्डा

यह बात अब तथ्य के तौर पर स्थापित हो चुका है कि बेरोज़गारी, महँगाई, शिक्षा, चिकित्सा, आवास आदि बुनियादी सवालों पर मोदी सरकार फ़ेल है। यही वजह है कि वह नये सिरे से साम्प्रदायिक आधार पर आम आबादी को बाँटने का काम कर रही है। प्रधानमंत्री मोदी अब चुनावी रैलियों में अपनी सरकार की उपलब्धियाँ भी नहीं गिना पा रहे हैं, घूम फिर कर अपनी हर चुनावी सभा में मोदी हिन्दुत्व की रक्षा के वायदे, मुस्लिम विरोधी बयान और कांग्रेस के मैनीफ़ेस्टो की अपनी अनोखी झूठी व्याख्यायों व ग़लतबयानी तक सिमट गये हैं। लेकिन इसके बावजद भी भाजपा इस चुनाव में अपने विजय  को लेकर आश्वस्त नहीं है। और शायद यही कारण है कि सूरत और इन्दौर की लोकसभा सीटों पर साम-दाम-दण्‍ड-भेद की नीति के तहत भाजपा ने अपनी जीत सुनिश्चित कर ली। यह पूरा घटनाक्रम 90 के दशक की मसाला हिन्दी फ़िल्मों की पटकथा सरीखा था, जहाँ माफ़िया सरगनाओं के इशारे पर चुनावों के नतीजे पहले से ही फ़िक्स होते है। लेकिन जो कभी काल्पनिक प्रतीत होता था, अब वह वास्तविकता में घटित हो रहा है।

भगतसिंह जनअधिकार यात्रा के तहत ईवीएम के ख़िलाफ़ देशभर में अभियान!

देश के कई जाने-माने वकील, अवकाशप्राप्त न्यायाधीश, विधिवेत्ता, चुनाव विशेषज्ञ और विपक्षी पार्टियाँ ईवीएम की विश्वसनीयता पर लगातार सवाल उठाती रही हैं, लेकिन गोदी मीडिया की कृपा से उनकी बातें आम लोगों तक नहीं पहुँच पातीं। दूसरी ओर, चुनाव आयोग की बेहद कमज़ोर व अविश्वसनीय सफ़ाइयों का जमकर प्रचार किया जाता है। बुनियादी सवालों को नज़रों से ओझल कर दिया जाता है। ग़ौरतलब है कि ईवीएम पर सबसे पहले भारतीय जनता पार्टी ने ही सवाल उठाया था।

चुनाव आते ही मोदी के साम्प्रदायिक बयानों, झूठों और ग़लतबयानियों की अन्धाधुन्ध बमबारी के मायने

अपने दस साल के कार्यकाल में मोदी सरकार ने जनता की ज़िन्दगी को बद से बदतर बनाने का काम किया है। आम मेहनतकश जनता पर अप्रत्यक्ष करों का बोझ लाद कर विजय माल्या, मेहुल चौकसी जैसे पूँजीपतियों का कर्ज़ा माफ़ करने का काम किया है। जनता से किये हुए वायदों को पूरा करने में ये सरकार पूरी तरह से विफल रही है। यही कारण है कि फ़ासीवादी मोदी सरकार चुनाव दर चुनाव जाति-धर्म, मन्दिर-मस्जिद का मुद्दा उठाकर अपनी चुनावी नैया पार करने की कोशिश करती रही है।

चण्डीगढ़ मेयर चुनाव: फ़ासीवादी दौर में मालिकों के लोकतन्त्र का फूहड़ नंगा नाच

चण्डीगढ़ मेयर चुनाव में सब कुछ सामने होने के बाद भी अगर सुप्रीम कोर्ट फैसला नहीं देता, तो वैसे भी व्यवस्था के पास शरीर को ढकने के लिए जो थोड़ा बहुत सूत का धागा बचा है, वो भी निकल जाता। पूँजीवादी लोकतन्त्र के खोल को बचाये रखना आज के दौर के फ़ासीवादी ख़ासियत है। इसी के साथ व्यवस्था के कुछ आन्तरिक अन्तरविरोध भी पैदा होते हैं। व्यवस्था और पूँजीपति वर्ग की दूरदर्शी पहरेदार के तौर पर न्यायपालिका के कुछ फ़ैसले मोदी सरकार के हितों के विपरीत जा सकते हैं। लेकिन इसके आधार पर अगर कोई न्यायपालिका या क़ानूनी एक्टिविज़्म के ज़रिये, संविधान की माला जपते फ़ासीवादी संघ परिवार व मोदी-शाह सरकार से टकराने का सोच रहा है तो भविष्य में उसे लगने वाला सदमा उसे पागलखाने भी पहुँचा सकता है।

इलेक्टोरल बॉण्ड – पूँजीपतियों से चन्दे वसूलकर बदले में उन्हें लाखों करोड़ का मुनाफ़ा पहुँचाने का कुत्सित फ़ासीवादी षड्यंत्र

मोदी-शाह और समूचा संघ परिवार और भाजपा अपने भयंकर भ्रष्टाचार और कुकर्मों को धर्म की आड़ में छिपाते हैं। वे समूची हिन्दू आबादी के अकेले प्रवक्ता बनने का दावा करते हैं। एक ऐसा माहौल निर्मित किया जाता है, जिसमें भाजपा और संघ परिवार की आलोचना या उस पर होने वाले हर हमले को हिन्दू धर्म, हिन्दू धर्म मानने वाली जनता और “राष्ट्र” पर हमला क़रार दे दिया जाता है। उनके तमाम कुकर्म, व्यभिचार, दुराचार और भ्रष्टाचार के ऊपर एक रामनामी दुपट्टा डाल दिया जाता है। कभी मोदी को मन्दिरों में पूजा-अर्चना करते, कभी योग करते, कभी ध्यान लगाते दिखलाया जाता है और समूचा गोदी मीडिया इस छवि को निरन्तर प्रचारित-प्रसारित करता है। इसका मक़सद यह होता है कि जब भी आपके मन में उनके प्रति कोई सवाल आये, तो इस धार्मिक छवि के आभामण्डल में वह ओझल हो जाये, आप इस झूठी छवि के घटाटोप में अपना सवाल ही भूल जाते हैं। यह एक पूरा षड्यंत्र है जिसमें देश का पूँजीपति वर्ग और उसके द्वारा संचालित मीडिया हमारे देश के साम्प्रदायिक फ़ासीवादियों का साथ देता है।

छह राज्यों की सात विधानसभा सीटों पर उपचुनाव के नतीजे और उनके मायने

महॅंगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार और मोदी सरकार की जन विरोधी नीतियों के कारण देश के व्यापक आबादी में एक असन्तोष का वातावरण है। विधानसभा उपचुनाव के नतीजे इस तरफ संकेत कर रहा है। साथ ही यह नज़र आ रहा है कि बुर्जुआ व्यवस्था के भीतर विकल्पहीनता के दायरे में ही सही, अगर बुर्जुआ विपक्ष मोदी सरकार द्वारा बाँह मरोड़ने के प्रयासों से आतंकित नहीं हुआ और कम-से-कम 300 सीटों पर विपक्ष का एक अकेला उम्मीदवार खड़ा करने में कामयाब हुआ, तो भाजपा के लिए 2024 के चुनावों में दिक्कत पैदा हो सकती है। इसीलिए भाजपा अभी से साम्प्रदायिक दंगे व लहर फैलाने और अन्धराष्ट्रवाद फैलाने की कोशिशों में लग गयी है। जनता को सावधान रहना होगा।

लगातार बाधित संसद सत्र, जनता के टैक्स के पैसों की बर्बादी

यह किसी से छिपा नहीं है की कैसे 2014 में सत्ता में आने के बाद से ही, इस फ़ासीवादी मोदी सरकार ने, जनता के पैसों पर चलने वाले संसद से, जनता के जीवन से जुड़े मुद्दों को गायब किया है। इसका ताज़ा उदाहरण अभी मणिपुर घटना के रूप में सामने आया। मणिपुर में जो भी हुआ वह एक इन्साफपसन्द समाज के माथे पर कलंक से कम नहीं है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी गुण्डा वाहिनियों तथा बीजेपी सरकार द्वारा दो समुदायों के बीच दंगे कराए गए,महिलाओं को निर्वस्त्र करके घुमाया गया और सामूहिक बलात्कार किया गया। इस घटना पर प्रधानमन्त्री हमेशा की तरह चुप्पी मारकर बैठे रहे। चौतरफा आलोचना होने के बाद संसद में 2 घण्टे के अपने लम्बे चौड़े लफ़्फ़ाज़ी भरे भाषण में प्रधानमन्त्री मोदी ने मात्र 2 मिनट मणिपुर की घटना पर बात की। हालाँकि यह कोई पहली बार नहीं हुआ है। 2014 के बाद से ही संसद मोदी जी के भाषणबाजी का अड्डा बना हुआ है। इसी क्रम में बीजेपी के नेता संसद में ऐसी तमाम हरकतें कर चुके हैं जिससे, इस पार्टी का फ़ासीवादी चरित्र उजागर हो चुका है। “बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ” की डींगे हाँकने वाली इसी सरकार के कर्नाटक के दो नेता और त्रिपुरा का एक नेता संसद में बैठकर अश्लील फिल्में देखते हुए पकड़े गये थे।

विपक्ष का नया गठबन्धन ‘इण्डिया’ और मज़दूर वर्ग व मेहनतकश आबादी का नज़रिया

क्या आपको लगता है कि कांग्रेस या किसी अन्य बुर्जुआ चुनावी गठबन्धन की सरकार भाजपा और संघ परिवार की गुण्डा वाहिनियों पर कोई लगाम लगायेगी? नहीं। क्योंकि पूँजीपति वर्ग को इन फ़ासीवादी ताक़तों की ज़रूरत है, चाहे वे सत्ता में रहें या न रहें। साथ ही, किसी भी अन्य बुर्जुआ गठबन्धन की सरकार भी पूँजीपति वर्ग को संकट से निजात नहीं दिला सकती और न ही जनता को बेरोज़गारी, महँगाई, आदि से निजात दिला सकती है। उसके द्वारा किये जाने वाले दिखावटी कल्याणवाद के जवाब में पूँजीपति वर्ग और मज़बूती से दोबारा फ़ासीवादियों को ही फिर से सत्ता में लाने की जुगत भिड़ायेगा और जनता के बीच मौजूद आर्थिक व सामाजिक असुरक्षा का लाभ उठाकर फ़ासीवादी संघ परिवार और भी आक्रामक तरीके से टुटपुँजिया वर्गों का प्रतिक्रियावादी उभार पैदा करेगा, जिसकी लहर पर सवार होकर वह फिर से सत्ता में पहुँचेगा। यानी, पूँजीवाद के दायरे के भीतर फ़ासीवाद की निर्णायक हार किसी चुनाव के ज़रिये नहीं हो सकती।