महाराष्ट्र में भाजपा-नीत गठबन्धन की जीत और झारखण्ड में कांग्रेस-नीत इण्डिया गठबन्धन की जीत के मज़दूर वर्ग के लिए मायने
सम्पादकीय अग्रलेख
महाराष्ट्र में इस वर्ष हुए लोकसभा चुनावों में भाजपा-नीत गठबन्धन के बुरे प्रदर्शन के बाद से क़यास लगाये जा रहे थे कि विधानसभा चुनावों में भी भाजपा और उसके नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन की हालत पतली रहने वाली है। कुछ लोगों का मानना था कि जरांगे पाटिल के नेतृत्व में चल रहे मराठा आरक्षण आन्दोलन के कारण भाजपा का सफ़ाया होगा, क्योंकि पाटिल के निशाने पर अधिकांशत: भाजपा-शिवसेना (एकनाथ शिन्दे)-एनसीपी (अजित पवार) गठबन्धन की सरकार रही है और विशेष तौर पर भाजपा का प्रमुख नेता और महाराष्ट्र का उपमुख्यमन्त्री देवेन्द्र फडनवीस रहा है। अपना पूरा विश्लेषण ही जाति की गतिकी पर टिका देने वाले और समाज में वर्गीय गतिकी को भूल जाने वालों को लग रहा था कि इस मराठा अस्मितावादी राजनीति का फ़ायदा कांग्रेस-नीत गठबन्धन और विशेष तौर पर एनसीपी (शरद पवार) गुट को पहुँचेगा। लेकिन हुआ इसका उल्टा। इसी तरह से कुछ लोगों को यह भी लग रहा था कि भाजपा को शिवसेना और एनसीपी को तोड़ने वाली पार्टी होने के नाते जनता के ग़ुस्से का सामना करना पड़ेगा और इसके कारण भी लोग भाजपा को वोट नहीं देंगे। फ़ासीवाद की हार के वास्ते केवल प्रार्थना करने और मन्नतें माँगने वाले उदारवादी लोगों की इस आशा पर भी तुषारापात हो गया। वजह यह कि जनता इस मसले पर ग़ुस्सा लोकसभा चुनावों में जता चुकी थी।
महाराष्ट्र में भाजपा और उसके सहयोगियों की जीत की असल वजहों को समझने के लिए समाज में मौजूद वर्गीय अन्तरविरोधों और फ़ासीवादी ताक़तों द्वारा उन अन्तरविरोधों का अपनी फ़िरकापरस्त राजनीति और विचारधारा के ज़रिये इस्तेमाल कर उसे एक ग़लत रूप देने की प्रक्रिया को समझना होगा। जातिगत राजनीति के सभी कारक इसी वर्गीय विश्लेषण द्वारा उपस्थित सीमाओं के भीतर ही काम करते हैं और महाराष्ट्र के बीते विधानसभा चुनावों में भी यही बात देखने को मिली। दूसरी बात यह कि जो लोग कुछ अख़बारी विश्लेषण या ऑनलाइन चर्चाओं को देखकर भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बीच मौजूद तनाव का विश्लेषण करते हुए वह भी पढ़ लेते हैं जो लिखा नहीं है, वे भी कुछ निराश और हतप्रभ हैं। वास्तव में, वे समझ नहीं पाते कि फ़ासीवादी राजनीति और संगठन के भीतर मौजूद झगड़े और अन्तरविरोध एक ही परिवार के भीतर होने वाले झगड़ों के समान हैं। देश की जनता और मेहनतकश लोगों के ख़िलाफ़ फ़ासीवादी एक हैं। यह बात इस तथ्य से सिद्ध हुई कि इस बार महाराष्ट्र में सात दशकों के इतिहास में किसी भी पार्टी को मिली सबसे बड़ी जीत के पीछे, यानी भाजपा की जीत के पीछे, संघ और उसकी काडर ताक़त का बहुत बड़ा योगदान था। संघ ने अपने व्यापक सांगठनिक नेटवर्क, अपनी काडर शक्ति का जमकर और बहुत चालाकी के साथ इस्तेमाल किया और उसका नतीजा भी सामने आया। इसके अलावा, चुनिन्दा सीटों पर ईवीएम घपले के इस्तेमाल, राज्य की मशीनरी के इस्तेमाल और अन्य प्रकार के गोरखधन्धे के इस्तेमाल की भी एक भूमिका निश्चित ही थी, जो कि इक्कीसवीं सदी में फ़ासीवादी शासन की ख़ासियत है। इसलिए इन कारकों को वैसे भी विश्लेषण में शामिल करके चला जाना चाहिए। इसके अलावा, ख़ैराती कल्याणवाद का भी चुनावों में भाजपा-नीत गठबन्धन को पर्याप्त लाभ मिला। एक-एक करके महाराष्ट्र के चुनाव नतीजों का विश्लेषण करने से इनके पीछे काम कर रहे वर्गीय कारण स्पष्ट हो जायेंगे।
ख़ैराती कल्याणवाद + साम्प्रदायिक उन्माद
फ़ासीवादी मोदी सरकार के पिछले दस सालों में फ़ासीवादी सत्ता ने पहले देश की सबसे ग़रीब मेहनतकश आबादी को बदहाली के सबसे निचले स्तरों पर पहुँचा दिया। विश्व भूख सूचकांक से लेकर अमीर व ग़रीब के बीच मोदी सरकार के दौरान बढ़ी खाई पर आयी देशी-विदेशी रपटों से यह बात आईने की तरह साफ़ है। एक दफ़ा जब देश की मेहनतकश जनता के सबसे ग़रीब हिस्सों को भुखमरी की कगार पर पहुँचा दिया गया तो उन्हें अलग-अलग तरह की ख़ैरात बाँटी गयी। चाहे वह 5/10 किलो अनाज हो, खातों में मामूली नकद राशि स्थानान्तरित करना हो, विभिन्न स्त्री कल्याण योजनाओं के तहत कौड़ियाँ बाँटना हो, ख़ैराती कल्याण की ये योजनाएँ मोदी सरकार और इस दौर में अलग-अलग राज्यों में फ़ासीवादी सरकारों की पद्धति का एक हिस्सा रही हैं।
महाराष्ट्र में भी दो ऐसी योजनाएँ लोकसभा चुनावों में झटके के बाद भाजपा-नीत गठबन्धन की सरकार (जो मूलत: और मुख्यत: भाजपा की ही सरकार है) लागू कीं। इसमें पहली है लड़की-बहिन योजना। इस योजना के तहत इस सरकार ने 2.3 करोड़ औरतों को प्रति माह रु. 1500 देने की शुरुआत की गयी थी। इस रक़म को बढ़ाकर रु. 2100 कर दिया गया। इसके जवाब में कांग्रेस-नीत गठबन्धन ने वायदा किया कि वह इस योजना की रक़म को बढ़ाकर रु. 3000 कर देगा, अगर वह चुनाव जीतता है। लेकिन इस ख़ैराती कल्याणवाद की नीति पर वास्तविक चोट करने के लिए महाविकास अघाड़ी ने कोई क़दम नहीं उठाया। उल्टे ख़ैराती कल्याणवाद के मामले में ही प्रतिस्पर्द्धा की। इसका कोई लाभ उसे नहीं मिला। दूसरी ओर, इस योजना के तहत दी जा रही रक़म को बढ़ाने का वायदा शिन्दे सरकार ने फ़ौरन ही लागू कर दिया। यह एक प्रकार से वोटों को ख़रीदने के लिए चलायी गयी ख़ैराती योजना थी। आम जनता के परिवारों को रोज़गार देने, उनको शिक्षा, चिकित्सा और आवास देने, ग़रीब किसानों को सरकारी सहायता देने के वास्तविक क़दमों के बजाय, भाजपा सरकार इसी प्रकार के क़दम उठाती रही है और प्रभावी राजनीतिक विरोध की अनुपस्थिति और राजनीतिक चेतना के अभाव के कारण भाजपा के ये क़दम किसी-न-किसी हद तक कामयाब भी होते रहे हैं। विकल्पहीनता में, निरन्तर अभाव और ग़रीबी में रहने और आशाओं के स्तर के ही चेतना की कमी के कारण नीचे आ जाने के कारण यह ख़ैरात भी लोगों के वोटों को भाजपा की ओर मोड़ देने में कामयाब हो जाती है। ज़ाहिर है, इस ख़ैराती कल्याणवाद के साथ फ़ासीवादी साम्प्रदायिकता के प्रचार, जोड़-तोड़, चुनावी घपलों, पूँजी की ताक़त के ज़रिये डमी उम्मीदवाद खड़ा करने, राजनीतिक विरोधियों या विपक्षी उम्मीदवारों को ख़रीद लेने या नामांकन वापस लेने पर मजबूर कर देने जैसी तरक़ीबों के मिश्रण के साथ ही यह ख़ैराती कल्याणवाद काम कर सकता है। लेकिन निश्चय ही इसका असर होता है।
ऐसी ही एक अन्य नीति जो भाजपा-नीत शिन्दे सरकार ने लागू की थी वह थी भवान्तर भरपाई योजना (बीबीवाई)। इस योजना के तहत सरकार से नाराज़ चल रहे सोयाबीन और कॉटन फार्मरों के गुस्से को शान्त किया गया और उन्हें भारी राहत दी गयी। इसके अलावा, जो केन्द्रीय ख़ैराती कल्याणवाद पहले से जारी था, उसका भाजपा और संघ परिवार की सांगठनिक मशीनरी द्वारा प्रभावी तरीक़े से प्रचारित भी किया गया।
इस ख़ैराती कल्याणवाद के साथ भाजपा ने उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान समेत कई राज्यों में साम्प्रदायिक उन्माद फैलाने की रणनीति को मिश्रित किया है। महाराष्ट्र में भी भाजपा ने यही रणनीति अपनायी। ‘बँटेंगे तो कटेंगे’ और ‘एक हैं तो सेफ़ हैं’ सीधे-सीधे मुसलमान-विरोधी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी उन्माद भड़काने के नारे थे। एक नकली दुश्मन का भय पैदा करने के लिए यह नारे दिये गये थे और क्रान्तिकारी हस्तक्षेप की कमी या उसकी पूर्ण अनुपस्थिति के कारण बेरोज़गारी, महँगाई, सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा और अनिश्चितता से दिमाग़ी तौर पर थकी हुई आम आबादी का एक विचारणीय हिस्सा ऐसे फ़िरकापरस्त नारों से पैदा की जाने वाली अन्धी प्रतिक्रिया में बह भी जाता है। निश्चित तौर पर, इस बार भी ऐसे नारों का आम जनता के बीच असर हुआ था। वहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपनी पूरी सांगठनिक मशीनरी को इस प्रचार को असरदार बनाने में लगा दिया था।
जरांगे पाटिल, मराठा आरक्षण का आन्दोलन और अन्य पिछड़ी जातियों के वोटों का भाजपा की ओर जाना
जरांगे पाटिल के आन्दोलन के अस्पष्ट तौर पर ही सही पर भाजपा-विरोधी रुख़ के कारण कई लोगों का यह अनुमान था कि भाजपा को भारी नुकसान होगा और मराठा वोट उसके पास नहीं जायेंगे। लेकिन जो ज़िला मराठा आन्दोलन का गढ़ था, यानी जालना, वहाँ चारों सीटें भाजपा-नीत महायुति को मिलीं। इसका कारण यह था कि ग़ैर-मराठा ओबीसी वोट एकजुट होकर महायुति की ओर गया। कांग्रेस की जो रणनीति हरियाणा में नाकामयाब हुई थी, उसी को यहाँ भी उसने लगाया: यानी केवल प्रमुख और प्रभुत्वशाली पिछड़ी जाति पर सारा ध्यान केन्द्रित करना। हरियाणा में जाटों के वोटों पर ही पूरा फ़ोकस था और इसका नकारात्मक नतीजा सामने भी आया। महाराष्ट्र में भी भाजपा ने हरियाणा की अपनी रणनीति को लागू किया, यानी प्रभुत्वशाली पिछड़ी जाति को छोड़कर अन्य पिछड़ी जातियों के वोटों को अपने पक्ष में सुदृढ़ करना। अन्य पिछड़ी जातियों के बीच मराठा आरक्षण आन्दोलन के कारण और अधिकांश बुर्जुआ पार्टियों का इस आन्दोलन के प्रति समझौते का रुख़ होने के कारण एक अलगावग्रस्त होने की और राजनीतिक नुमाइन्दगी कम कम होने की भावना व्याप्त थी। इसका पूरा फ़ायदा भाजपा ने उठाया।
इसके अलावा, मराठा वोट भी एकजुट होकर कांग्रेस, एनसीपी और शिवसेना (यूबीटी) को ओर नहीं गया। एक हिस्सा भाजपा की ओर गया। लेकिन भाजपा की प्रमुख रणनीति थी पैसे के बल पर बहुत-सी सीटों पर मराठा निर्दलीय उम्मीदवारों को खड़ा करना और मराठा वोटों को बाँट देना। यह चाल काफ़ी हद तक कामयाब भी रही। मसलन, नान्देड़ दक्षिण की सीट पर कांग्रेस का उम्मीदवार 2,132 वोटों से हार गया, जबकि एक निर्दलीय उम्मीदवार को 15,454 वोट प्राप्त हुए। इसी प्रकार कई अन्य सीटों पर भी मराठा वोटों के विभाजन के कारण महायुति के उम्मीदवार हारे।
भाजपा द्वारा उम्मीदवारों के चयन से लेकर, निर्दलीय उम्मीदवारों को खड़ाकर विपक्ष के वोट काटने, तृणमूल धरातल पर अपनी काडर मशीनरी के द्वारा अपने जुमलों और नारों के कहीं ज़्यादा सघन और व्यापक प्रचार और ग़ैर-मराठा वोटों के अपने पक्ष में सुदृढ़ीकरण तक, कई कारक मौजूद रहे जिन्होंने भाजपा की जीत में योगदान किया। दूसरी तरफ़, समाज में मौजूद वर्गीय असन्तोष, जिसमें महँगाई और बेरोज़गारी के कारण आम मेहनतकश जनता में असन्तोष, कृषि संकट के कारण ग़रीब और मँझोले किसानों में नाराज़गी और आम मध्यवर्ग में मौजूद महाविकास अघाड़ी की सरकार के प्रति नाराज़गी का प्रभावी तरीक़े से इस्तेमाल करने में भारी असफलता रही। जातिगत समीकरणों को बैठाने और मराठा वोटों पर ध्यान केन्द्रित करने के चक्कर में समाज में मौजूद वास्तविक वर्गीय अन्तरविरोधों पर कोई ठोस नारा या बात प्रभावी तरीक़े से कहने में विपक्ष बुरी तरह से नाकामयाब रहा। नतीजा यह था कि भाजपा-विरोधी वोटों की संख्या भी कम हुई और जो थे वे भ्रम और अस्पष्टता की स्थिति में बँट गये।
चुनावी जोड़-तोड़, ईवीएम घपला और धनशक्ति
पूँजीपति वर्ग का बड़ा हिस्सा भाजपा के साथ खड़ा है, यह बात सभी जानते हैं। भाजपा की पूँजीपरस्त तानाशाहाना नीतियों ने मौजूदा आर्थिक संकट के दौर में उसे लम्बे समय से पूँजीपतियों की पहली पसन्द बना रखा है। यही वजह है कि भाजपा के पास पूँजी की अकूत शक्ति है। इसके बूते विपक्ष के उम्मीदवारों को ख़रीद लेने, बिठा देने और केन्द्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल कर उन्हें डरा-धमका देने की ताक़त भाजपा के पास मौजूद थी, जिसका इस बार भी कहीं खुले तो कहीं छिपे तरीक़े से इस्तेमाल किया गया।
इसके अलावा, चुनाव की प्रक्रिया में घपलेबाज़ी की कई रिपोर्टें सामने आ चुकी हैं। वोटों की संख्या व प्रतिशत में हेराफेरी, ईवीएम मशीनों के ज़रिये हेराफेरी और प्रशासनिक ताने-बाने का इस्तेमाल अपने पक्ष में वोटिंग को बढ़ाने व विपक्षी खेमे के वोटों को घटाने में जमकर किया गया। इस जगह कांग्रेस के उम्मीदवार को शून्य वोट मिले, जबकि वहाँ कांग्रेस वोटरों की भारी आबादी थी। वहाँ पर वोटरों ने इसके ख़िलाफ़ प्रदर्शन भी किया। लेकिन चुनाव आयोग हमेशा की तरह कान में तेल डालकर बैठा रहा। चुनाव प्रचार से लेकर नतीजों के आने तक के पूरे दौर में भाजपा और उसके सहयोगियों के विरुद्ध होने वाली शिकायतों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई और न ही ईवीएम के मसले पर आने वाली शिकायतों पर कोई सुनवाई हुई।
निश्चित तौर पर, ये ही कारक भाजपा की जीत के लिए अकेले ज़िम्मेदार नहीं थे। लेकिन इन कारकों की भी भाजपा की जीत में महती भूमिका थी, इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है। विपक्षी पार्टियों में सड़क पर उतरकर ईवीएम के विरद्ध कोई आन्दोलन करने और जनता को इस मसले पर एकजुट करने और साथ ही स्वयं एकजुट होकर ईवीएम का बहिष्कार करने का दम-ख़म और हिम्मत नहीं है। नतीजतन, यह घपला जारी है और जारी ही रहेगा। इसका मुकाबला केवल जनबल के आधार पर किया जा सकता है और कोई पूँजीवादी दल इसमें कुछ करेगा, इसका गुंजाइश कम ही है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संगठित काडर ढाँचे की भूमिका
भाजपा और संघ परिवार के पास एक ऐसा ताक़त है, जो किसी भी अन्य पूँजीवादी पार्टी के पास नहीं है: एक विशाल, संगठित, अनुशासित काडर ढाँचा। इसके बूते पर हर चुनाव में ही उसे एक एडवाण्टेज मिलता है। निश्चित तौर पर, इसके बावजूद आर्थिक व सामाजिक असन्तोष के ज़्यादा होने पर भाजपा हार भी सकती है। लेकिन जब ऐसा होने वाला होता है, तो संघ अपने आपको चुनाव की प्रक्रिया से कुछ दूर दिखाने लगता है, ताकि हार का बट्टा उसके सिर पर लगे। ऐसी सूरत में, वह अपने आपको अचानक शुद्ध रूप से सांस्कृतिक संगठन दिखलाने लगता है और भाजपा और उसकी सरकारों के बारे में कुछ आलोचनात्मक टिप्पणी भी कर देता है। इसी को कई लोग भाजपा और संघ के बीच झगड़े के रूप में देखकर तालियाँ बजाने लगते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि यह संघ परिवार की पद्धति का एक हिस्सा है। वह पहले भी ऐसे ही काम करता रहा है। इसी के ज़रिये वह संघ की छवि को सँवारे रखने का काम करता है। भाजपा भी इसे समझती है और जानती है कि संघ की छवि का बरक़रार रहना आवश्यक है।
अब इस बात की कई रिपोर्टें सामने आ चुकी हैं कि महाराष्ट्र चुनावों में भाजपा के पक्ष में संघ ने अपने काडर ढाँचे के ज़रिये तृणमूल धरातल पर माहौल बनाने के लिए चुपचाप बेहद सघन और व्यापक प्रचार कार्य किया है। इसका निश्चित ही असर भी पड़ा है। जब आम मेहनतकश जनता के पास सच्चाई तक पहुँचने के वैज्ञानिक विश्लेषण के उपकरण नहीं होते, कोई क्रान्तिकारी शक्ति अपने राजनीतिक हस्तक्षेप के ज़रिये इस सच्चाई को व्यापक पैमाने पर जनता के सामने उजागर नहीं कर पाती, तो फिर यह बात भी काफ़ी मायने रखने लगती है कि कौन-सी शक्ति अपनी बात को सबसे ज़्यादा बार दुहरा सकती है और ज़्यादा से ज़्यादा आम लोगों के पास जा सकती है। संघ के काडर ढाँचे ने यह विशेष फ़ायदा इस बार भी महाराष्ट्र चुनावों में भाजपा को पहुँचाया है।
एक फ़ासीवादी संगठन होने के नाते भाजपा को मिलने वाली इस वरीयता का मुक़ाबला केवल क्रान्तिकारी सर्वहारा पार्टी ही कर सकती है। वास्तव में, काडर-आधारित सांगठनिक ढाँचे को फ़ासीवादियों ने कम्युनिस्टों से ही चुराया था। एक अनुशासित काडर ढाँचे के बूते किये जाने वाले फ़ासीवादी प्रचार का मुकम्मिल जवाब तो एक क्रान्तिकारी पार्टी के काडर ढाँचे के आधार पर किया जाने वाला क्रान्तिकारी प्रचार ही हो सकता है।
झारखण्ड चुनावों का मामला
झारखण्ड के चुनावों में कांग्रेस-नीत इण्डिया गठबन्धन को जीत मिली, और उदारवादियों को कुछ सान्त्वना भी मिली! इसकी वजहें कई हैं। पहली वजह तो यह है कि यहाँ की सरकार ने अपनी तरीके़ कुछ ख़ैराती कल्याणवाद किया था जिसके कारण आदिवासी वोटों का उसके पक्ष में ध्रुवीकरण क़ायम रहा। ऐसी एक ख़ैराती कल्याणवादी योजना थी मैय्या सम्मान योजना। यहाँ पर भाजपा के वोट शेयर में कोई ज़्यादा अन्तर नहीं आया, वह मोटा-मोटी पहले की तरह बरक़रार रहा।
भाजपा ने यहाँ बुनियादी मुद्दों पर कोई ख़ास चुनाव प्रचार नहीं चलाया और पूरा फ़ोकस बाहरी (मुसलमान) घुसपैठियों पर आधारित अपने झूठे फ़ासीवादी प्रचार पर रखा। यह रणनीति ज़्यादा काम नहीं आयी और व्यापक मेहनतकश व आदिवासी आबादी ने इस पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया, वह उसके लिए मुद्दा बन ही नहीं पाया। हिमन्त बिस्वा सरमा ने यह रणनीति बनायी थी, जिसके तहत पूरा ज़ोर भाजपाइयों ने “लैण्ड और लव जिहाद” के मसले पर लगाया और यह झूठा प्रचार किया कि आदिवासी अस्मिता को बंगलादेशी मुसलमान घुसपैठियों के कारण ख़तरा पैदा हो गया है, जो उनकी ज़मीनों पर कब्ज़ा कर रहे और “उनकी औरतों” से शादियाँ कर रहे हैं, जिसके कारण आदिवासी जनसंख्या घटती जा रही है। इस झूठे प्रचार का कोई ख़ास असर नहीं हो पाया।
उत्तरी छोटा नागपुर क्षेत्र में भाजपा की यह रणनीति कुछ कारगर हुई, लेकिन संथाल परगना में उसका खाता भी नहीं खुल पाया। नौकरी का मसला और भ्रष्टाचार वहाँ की जनता के लिए बड़ा मसला बना हुआ था जिस पर भाजपा का कोई विशेष प्रचार नहीं हुआ। हेमन्त सोरेन के ऊपर ही भ्रष्टाचार के तमाम आरोप थे, जिनका इस्तेमाल करने में भाजपा नाकामयाब रही।
इसके अलावा, एक जयराम महतो का कारक भी था। झारखण्ड लोकतान्त्रिक क्रान्तिकारी मोर्चा (जेएलकेएम) ने लगभग सभी निर्वाचन मण्डलों में वोट काटे और मुख्य तौर पर भाजपा के वोट काटे। इसका फ़ायदा सीधे झारखण्ड मुक्ति मोर्चा को मिला। 11 सीटों पर जेएलकेएम को मिले वोट भाजपा और उसके सहयोगी दलों के ऊपर जीत के अन्तर से ज़्यादा थे।
इसके अलावा, महिलाओं के लिए लायी गयी कई कल्याणकारी योजनाओं का असर भी साफ़ दिखा। इसमें मैय्या सम्मान योजना और कल्पना सोरेन को इस योजना का चेहरा बनाया जाना काम कर गया। इस योजना के तहत 21 से 49 वर्ष की महिलाओं को हर माह रु. 1000 दिये जाते हैं। महिलाओं की संख्या वोट देने के मामले में पुरुषों से छह लाख ज़्यादा रही और इन वोटों का हेमन्त सोरेन की जीत में एक अहम योगदान था। यहाँ पर झामुमो का अपना ख़ैराती कल्याणवाद काम कर गया।
अन्य कई कारण थे, लेकिन भाजपा का वोट शेयर कम नहीं हुआ, यह भी एक विचारणीय बात है। वह पहले के समान 33 प्रतिशत के क़रीब बना रहा। लेकिन वोटों की अलग-अलग सीटों पर उस प्रकार की गोलबन्दी भाजपा नहीं कर सकती जो उसे ज़्यादा सीटें भी दिलाती। इसलिए झारखण्ड में फ़ासीवादी भाजपा की जनता में अपील कुल मिलाकर कम हो गयी हो, यह नतीजा निकालना भारी ग़लती होगी।
चूँकि महाराष्ट्र में भाजपा को ईवीएम समेत चुनावी घपलों को बड़े पैमाने पर अंजाम देना था, इसलिए झारखण्ड में यह काम भाजपा ने उस पैमाने पर नहीं किया। वैसे भी ऐसे छोटे राज्यों में चुनावों में हार होना भाजपा के नैरेटिव को बनाये रखने में मदद करता है कि ईवीएम से कोई घपला नहीं किया जाता। ब्रेष्ट के शब्दों में, हमें छोटे-छोटे न्याय दिये जाते हैं, ताकि ज़्यादा बड़ा अन्याय हम पर थोपा जा सके। ईवीएम के मसले पर लगने वाले आरोप वाजिब आरोप हैं। लेकिन भाजपा कुछ छोटे राज्यों में चुनावों में बड़े पैमाने पर घपले नहीं करती और कई बार उनमें हार भी जाती है। ऐसे में, वह यह सवाल पूछती है कि अगर ईवीएम घपला होता है, तो भाजपा फलाँ राज्य में कैसे हार गयी?! वैसे भी ईवीएम घपला हर सीट पर किया जायेगा तो पकड़ा जायेगा। इसलिए उन्हें उन सीटों पर ज़्यादा किया जाता है, जहाँ पारम्परिक तौर पर कम अन्तर से जीत-हार का इतिहास रहा है।
अन्त में, इन विधानसभा चुनावों ने एक बार फिर साबित किया है कि भाजपा और फ़ासीवाद को चुनावों के रास्ते हराने का सपना देखना एक ख़ामख़याली पालना है। भाजपा और संघ परिवार का फ़ासीवाद कोई चुनाव हार कर किसी राज्य में या देश में सरकारी सत्ता से कुछ समय के लिए बाहर भी हो जाये, तो राज्य के पूरे ढाँचे में उसने अपनी आन्तरिक पकड़ बना रखी है, चाहे वह कार्यपालिका हो या न्यायपालिका। ये बातें हर दिन साबित हो रही हैं। संघी फ़ासीवाद को शिकस्त देने का काम अपनी हिरावल पार्टी के नेतृत्व में सर्वहारा वर्ग ही कर सकता है। इसलिए सर्वहारा वर्ग की ऐसी पार्टी का निर्माण, उसके नेतृत्व में जनता के ठोस मसलों पर जनता के जुझारू जनान्दोलनों का निर्माण और जनता के वर्गों के बीच दीर्घकालिक सघन और व्यापक संस्थागत सुधार कार्य व रचनात्मक कार्य के ज़रिये सामाजिक आधार और राजनीतिक चेतना का विकास ही वह रास्ता है, जिसके ज़रिये फ़ासीवाद को निर्णायक शिकस्त दी जा सकती है।
मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2024
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