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फ़ासिस्ट मोदी सरकार की धुन पर केचुआ का केंचुल नृत्य

केन्द्रीय चुनाव आयोग अर्थात ‘केचुआ’। इसकी कोई रीढ़ की हड्डी नहीं बची है। वह इस बात को बार-बार नंगे रूप में साबित भी कर रहा है। खासकर पिछले कुछ सालों में वह भाजपा की गोद में लोट-लोट कर फ़ासीवाद की गटरगंगा से लगातार पूरे समाज में गन्द फैला रहा है। आज यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि केचुआ भाजपा के विंग की तरह ही काम कर रहा है। पिछले कुछ समय से हर दिन ऐसे तथ्य सामने आ रहे हैं जो इसे और पुख़्ता कर रहे हैं। हालिया समय में बिहार में ‘स्पेशल इण्टेन्सिव रिविज़न’ (एसआईआर) के तहत नागरिकता प्रमाण के आधार पर 65 लाख लोगों को वोटर लिस्ट से काटने और पिछले 7 अगस्त को राहुल गाँधी द्वारा पेश किये गए तथ्यों के बाद यह जगज़ाहिर हो गया कि आज इक्कीसवीं सदी का फ़ासीवाद किस तरीक़े से हमारे जनवादी अधिकार छीन रहा है। पिछले कुछ चुनावों में सीधे-सीधे धाँधली करके भाजपा की डूबती नैया को बचाना हो या फिर लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के ख़िलाफ़ खड़े हो रहे लोगों की उम्मीदवारी को ही रद्द कर देना हो, केचुआ द्वारा फ़ासीवादी मोदी सरकार के समक्ष साष्टांग दण्डवत करने की कई मिसालें मिल जायेंगी।

मेट्रो रेल कॉरपोरेशन और प्रशासन की लापरवाही की वजह से पटना मेट्रो के निर्माण कार्य में लगे मज़दूरों की हुई मौतें

सवाल यह है कि क्या हम अपने जीवन की कीमत समझते हैं? क्या यूँ कीड़े-मकोड़ों के समान गुमनाम मौतें मरने रहना हमें स्वीकार है? क्या अपने बच्चों के लिए यह भविष्य हमें स्वीकार है? क्या हम इंसानी जीवन की गरिमा का अहसास रखते हैं? अगर हाँ, तो हमें इस समूचे मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था के विरुद्ध गोलबन्द और एकजुट होना ही होगा। वरना हम यूँ ही जानवरों की तरह मारे जाते रहेंगे।

धर्म के बाज़ार में एक और नया पाखण्डी – धीरेन्द्र शास्त्री

पूँजीवादी समाज में धर्म एक धन्धा और व्यापार ही होता है। जब यह बुर्जुआ राजनीति के साथ मिलता है तो प्रतिक्रियावाद के सबसे घिनौने रूपों को जन्म देता है। आज पूँजीवादी राज्यसत्ता अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए धार्मिक कुरीति, अन्धविश्वास और “चमत्कारी बाबाओं” को बढ़ावा दे रही है ताकि पूँजीवादी व्यवस्था के तमाम “तोहफ़ों” जैसे सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा, बेरोज़गारी, महँगाई, भुखमरी, ग़रीबी को ‘किस्मत का लेखा’, ‘रेखाओं का खेल’, ‘पूर्वजन्म के पाप’ आदि के रूप में प्रस्तुत किया जा सके और जनता को ‘जाहि बिधी रखे राम ताहि बिधी रहना’ पर भरोसा रखकर हर अन्याय और शोषण-उत्पीड़न को स्वीकार करने और ‘सन्तोषम् परम सुखम’ की नसीहत मानने के लिए राज़ी किया जा सके।

लगातार होती छँटनी और गहराता आर्थिक संकट

एक तरफ़ देश के पूँजीपतियों की दौलत अनन्त गति से बढ़ रही है वहीं दूसरी तरफ़ जनता छँटनी और बेरोज़गारी के रसातल में धँसती चली जा रही है। 2008 की विश्वव्यापी मन्दी से उबरने के लिए पूँजीवादी नीम हकीमों और हुक्मरानों ने जो उपाय दिये थे उसी के गर्भ में आनेवाले समय के भीषण संकट का बुलबुला पल रहा था। आज यह बुलबुला बड़ा होकर अपनी सन्तृप्ति तक पहुँच चुका है और यह अब फूटने के कगार पर खड़ा है। दुनियाभर की तमाम बड़ी कम्पनियों ने बड़े पैमाने पर छँटनी का ऐलान किया है।