लद्दाख से लेकर उत्तराखण्ड तक, नेपाल से लेकर बंगलादेश तक नयी युवा पीढ़ी का सड़कों पर उबलता रोष, लेकिन क्या स्वत:स्फूर्त विद्रोह पर्याप्त है ?
जनता के गुस्से का स्वत:स्फूर्त रूप से फूटना कितना भी हिंस्र और भयंकर हो, उसका स्वत:स्फूर्त विद्रोह कितना भी जुझारू हो, वह अपने आप में पूँजीवादी व्यवस्था को पलटकर कोई आमूलगामी बदलाव नहीं ला सकता है। वजह यह है कि ऐसे विद्रोह के पास कोई विकल्प नहीं होता है, कोई स्पष्ट राजनीतिक कार्यक्रम और नेतृत्व नहीं होता है। वह पूँजीवादी व्यवस्था के कुछ लक्षणों का निषेध करता है, लेकिन वह समूची पूँजीवादी व्यवस्था को कठघरे में नहीं खड़ा करता और न ही उसका कोई व्यावहारिक विकल्प पेश कर पाता है। क्या नहीं चाहिए, यह उसे कुछ लक्षणों के रूप में समझ आता है, लेकिन क्या चाहिए इसका कोई एक सुव्यवस्थित विचार उसके पास नहीं होता है।





















