Category Archives: चुनावी नौटंकी

एसआईआर के फ़र्जीवाड़े से लाखों प्रवासी मज़दूरों, मेहनतकशों, स्त्रियों, अल्पसंख्यकों के मताधिकार के हनन के बीच बिहार विधानसभा चुनाव – जनता के सामने क्या है विकल्प?

दूसरी ख़ास बात जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए वह यह है कि एसआईआर के ज़रिये मोदी-शाह जोड़ी ने वास्तव में वह काम करने का प्रयास किया है जो जनता के जुझारू आन्दोलनों के कारण वे देश में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) और नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के ज़रिये नहीं कर पायी थी। वास्तव में, चुनाव आयोग को नागरिकता की वैधता जाँचने, उसे क़ायम रखने या रद्द करने का कोई अधिकार नहीं है। 2003 एसआईआर के दिशा-निर्देश स्पष्ट शब्दों में यह बात कहते हैं कि नागरिकता निर्धारित करने का अधिकार सिर्फ़ गृह मन्त्रालय को है। शाह का गृह मन्त्रालय देशव्यापी जनविरोध के कारण देश के पैमाने पर एनआरसी नहीं करवा सका, तो अब यह काम चोर-दरवाज़े से एसआईआर के ज़रिये करवाया जा रहा है। यही कारण है कि जब सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने वाले पक्षों ने 2003 के दिशा-निर्देशों को ज़ाहिर करने की बात की तो केचुआ ने कहा कि उसको वह दिशा-निर्देशों वाली फ़ाइल नहीं मिल रही है! यह भी मोदी-राज की एक ख़ासियत है! वही फ़ाइलें मिलती हैं जिसका फ़ायदा मोदी-शाह उठा सकते हैं! बाक़ी या तो ग़ायब हो जाती हैं, या फिर जल जाती हैं!

जीएसटी 2.0 : पाँव के नीचे से ज़मीन खिसकती देखकर मोदी-शाह सरकार द्वारा जनता के साथ एक और धोखाधड़ी

सच तो यह है कि जीएसटी में “सुधार” से कोई बुनियादी फ़र्क नहीं आयेगा और महँगाई दर में मामूली-सा अन्‍तर आयेगा, जबकि ज़रूरत यह थी कि इन अप्रत्‍यक्ष करों को समाप्‍त या लगभग समाप्‍त किया जाता, विशेष तौर पर उन वस्‍तुओं और सेवाओं पर जिनका उपयोग आम तौर पर आम मेहनतकश जनता करती है। शिक्षा, चिक‍ित्‍सा, आदि बुनियादी सुविधाओं और उनसे जुड़ी वस्‍तुओं व सेवाओं पर तो जीएसटी लगाने का कोई अर्थ ही नहीं है। मोदी सरकार ने उन्‍हें ख़त्‍म करने के बजाय उनमें मामूली-सी कमी की है और इसी का डंका बजाकर श्रेय लेने की कोशिश कर रही है।

मोदी सरकार व केचुआ के वोट-घोटाले के विरुद्ध देशव्यापी जनान्दोलन खड़ा करो! मतदान और निष्पक्ष व स्वतन्त्र चुनावों का अधिकार जनता का एक बुनियादी राजनीतिक जनवादी अधिकार है!

मौजूदा फ़ासीवादी निज़ाम में हमसे पहला अधिकार, यानी ‘चुनने का अधिकार’ भी प्रभावत: और व्यवहारत: छीन लिया गया है। ईवीएम घोटाले और वोट-चोरी घोटाले का यही अर्थ है। वोट किसी को भी दें, पहले से ही विजेता तय है, यानी भाजपा। हमने पहले भी लिखा है कि इक्कीसवीं सदी के फ़ासीवाद की एक ख़ासियत यह है कि यह खुले तानाशाही क़ानून लाकर चुनावों, संसदों, विधानसभाओं आदि को भंग नहीं करता है। उल्टे यह पूँजीवादी लोकतन्त्र के खोल को, यानी उसके रूप को बनाये रखता है। लेकिन साथ ही यह पूँजीवादी राज्यसत्ता के समूचे उपकरण पर एक लम्बी प्रक्रिया में अन्दर से कब्ज़ा करता है, यानी सेना, पुलिस, नौकरशाही, समस्त संवैधानिक संस्थाएँ, न्यायपालिका, आदि सभी में फ़ासीवादी संगठन एक लम्बी प्रक्रिया में घुसपैठ कर अपनी जगहें बना लेता है। उसी प्रकार, फ़ासीवादी संगठन समाज के भीतर भी अपनी शाखाओं, स्कूलों, मीडिया, सुधार-कार्य की संस्थाओं जैसे अस्पताल आदि के ज़रिये अपनी अवस्थितियाँ बाँध लेता है, यानी अपनी खन्दकें खोद लेता है।

फ़ासिस्ट मोदी सरकार की धुन पर केचुआ का केंचुल नृत्य

केन्द्रीय चुनाव आयोग अर्थात ‘केचुआ’। इसकी कोई रीढ़ की हड्डी नहीं बची है। वह इस बात को बार-बार नंगे रूप में साबित भी कर रहा है। खासकर पिछले कुछ सालों में वह भाजपा की गोद में लोट-लोट कर फ़ासीवाद की गटरगंगा से लगातार पूरे समाज में गन्द फैला रहा है। आज यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि केचुआ भाजपा के विंग की तरह ही काम कर रहा है। पिछले कुछ समय से हर दिन ऐसे तथ्य सामने आ रहे हैं जो इसे और पुख़्ता कर रहे हैं। हालिया समय में बिहार में ‘स्पेशल इण्टेन्सिव रिविज़न’ (एसआईआर) के तहत नागरिकता प्रमाण के आधार पर 65 लाख लोगों को वोटर लिस्ट से काटने और पिछले 7 अगस्त को राहुल गाँधी द्वारा पेश किये गए तथ्यों के बाद यह जगज़ाहिर हो गया कि आज इक्कीसवीं सदी का फ़ासीवाद किस तरीक़े से हमारे जनवादी अधिकार छीन रहा है। पिछले कुछ चुनावों में सीधे-सीधे धाँधली करके भाजपा की डूबती नैया को बचाना हो या फिर लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के ख़िलाफ़ खड़े हो रहे लोगों की उम्मीदवारी को ही रद्द कर देना हो, केचुआ द्वारा फ़ासीवादी मोदी सरकार के समक्ष साष्टांग दण्डवत करने की कई मिसालें मिल जायेंगी।

मतदाता सूची संशोधन, 2025 : जनता के मताधिकार को चुराने के लिए भाजपा का हथकण्डा और पीछे के दरवाज़े से एनआरसी लागू करने की नयी साज़िश

इस पूरी प्रक्रिया को लागू करने की असली मंशा पीछे के दरवाज़े से NRC को लागू करने की भी है। NRC के द्वारा देश की मेहनतकश जनता के एक विचारणीय हिस्से से उसकी नागरिकता छीनने की साज़िश मोदी सरकार ने 6 साल पहले ही रची थी लेकिन उस समय जनान्दोलनों के दबाव के कारण वह उसे लागू नहीं कर पाई थी। आज चुनाव आयोग द्वारा पिछले दरवाज़े से उसी NRC को लागू करने की कोशिश की जा रही है। इसके द्वारा लोगों से पहले वोट देने का अधिकार छीना जायेगा उसके बाद उसे विदेशी व घुसपैठिया साबित कर उसके सारे जनवादी अधिकारों को छीन लिया जायेगा। इस मौक़े पर भी देश की मुख्य धारा की मीडिया (गोदी मीडिया ) सरकार के पक्ष में राय का निर्माण करने के अपने कर्तव्य को बख़ूबी निभा रही है। सुबह-शाम चीख-चीखकर मीडिया के एंकर इसे “देशहित” में बता रहे हैं।

दिल्ली में भाजपा सरकार के तीन माह! चुनाव से पहले दिल्ली की जनता से किये वायदों से अब मुकर रही भाजपा सरकार!

भाजपा ने वायदा किया था कि रसोई गैस सिलेण्डर 500 रुपये का मिलेगा और होली व दीवाली के त्यौहार पर एक सिलेण्डर मुफ़्त दिया जायेगा। यह वायदा भी एक बड़ा जुमला निकला। इस बीच होली आयी और चली गयी, पर किसी को कोई सिलेण्डर मुफ़्त नहीं मिला। इसके उलट मोदी सरकार ने घरेलू सिलेण्डर 50 रुपये महँगा कर दिया है। साथ ही पेट्रोल और डीज़ल पर भी 2 रुपये की बढ़ोतरी की है। मोदी सरकार को असल में चिन्ता इस देश के कॉरपोरेट घरानों, पूँजीपतियों, धन्नासेठों और पेट्रोलियम उपक्रमों के मुनाफ़े की है और इसके लिए हम सबका खून चूसकर भी इस मुनाफ़े को बढ़ाया जायेगा! भाजपा दिल्ली में जनता से किये वायदों से अब धीरे-धीरे मुकर रही है। इसमें कोई हैरानी नहीं है। मज़दूर विरोधी भाजपा सरकार के राज में ग़रीबों-मज़दूरों के लिए खाने-पीने से लेकर हर वस्तु और महँगी हो जायेगी और दिल्ली के बहुसंख्यक मेहनकश आबादी की जिन्दगी और बद से बदतर होगी।

दिल्ली विधानसभा के चुनावी मौसम में चुनावबाज़ पूँजीवादी पार्टियों को याद आया कि ‘मज़दूर भी इन्सान हैं!’

मेहनतकशों-मज़दूरों के इस भयंकर शोषण के ख़िलाफ़ क्या ये चुनावबाज़ पार्टियाँ असल में कोई क़दम उठायेंगी? नहीं। क्यों? क्योंकि ये सभी पार्टियाँ दिल्ली के कारखाना-मालिकों, ठेकेदारों, बड़े दुकानदारों और बिचौलियों के चन्दों पर ही चलती हैं।  अगर करावलनगर, बवाना, वज़ीरपुर, समयपुर बादली औद्योगिक क्षेत्र से लेकर खारी बावली, चाँदनी चौक या गाँधी नगर जैसी मार्किट में 12-14 घण्टे काम करने वाले मज़दूरों का भंयकर शोषण वही मालिक या व्यापारी कर रहे हैं जो ‘आप’ ‘भाजपा’ या ‘कांग्रेस’ के व्यापार प्रकोष्ठ और उद्योग प्रकोष्ठ में भी शामिल हैं और इन्हीं के चन्दों से चुनावबाज पार्टियाँ अपना प्रचार-प्रसार करती है। साफ़ है कि ये पार्टियों अपने सोने के अण्डे देने वाली मुर्गी के खिलाफ़ मज़दूर हितों के लिए कोई संघर्ष चलाना दूर इस मुद्दे पर एक शब्द भी नहीं बोलने वालीं।

महाराष्ट्र में भाजपा-नीत गठबन्धन की जीत और झारखण्ड में कांग्रेस-नीत इण्डिया गठबन्धन की जीत के मज़दूर वर्ग के लिए मायने

भाजपा और संघ परिवार के पास एक ऐसा ताक़त है, जो किसी भी अन्य पूँजीवादी पार्टी के पास नहीं है: एक विशाल, संगठित, अनुशासित काडर ढाँचा। इसके बूते पर हर चुनाव में ही उसे एक एडवाण्टेज मिलता है। निश्चित तौर पर, इसके बावजूद आर्थिक व सामाजिक असन्तोष के ज़्यादा होने पर भाजपा हार भी सकती है। लेकिन जब ऐसा होने वाला होता है, तो संघ अपने आपको चुनाव की प्रक्रिया से कुछ दूर दिखाने लगता है, ताकि हार का बट्टा उसके सिर पर लगे। ऐसी सूरत में, वह अपने आपको अचानक शुद्ध रूप से सांस्कृतिक संगठन दिखलाने लगता है और भाजपा और उसकी सरकारों के बारे में कुछ आलोचनात्मक टिप्पणी भी कर देता है। इसी को कई लोग भाजपा और संघ के बीच झगड़े के रूप में देखकर तालियाँ बजाने लगते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि यह संघ परिवार की पद्धति का एक हिस्सा है। वह पहले भी ऐसे ही काम करता रहा है। इसी के ज़रिये वह संघ की छवि को सँवारे रखने का काम करता है। भाजपा भी इसे समझती है और जानती है कि संघ की छवि का बरक़रार रहना आवश्यक है।

चुनावी समीकरणों और जोड़-घटाव के बूते फ़ासीवाद को फ़ैसलाकुन शिक़स्त नहीं दी जा सकती है!

जहाँ तक इन नतीजों के बाद कुछ लोगों को धक्का लगने का सवाल है तो अब इस तरह के धक्के और झटके चुनावी नतीजे आने के बाद तमाम छद्म आशावादियों को अक्सर ही लगा करते हैं! 2014 के बाद से हुए कई चुनावों के बाद हम यह परिघटना देखते आये हैं। ऐसे सभी लोग भाजपा की चुनावी हार को ही फ़ासीवाद की फ़ैसलाकुन हार समझने की ग़लती बार-बार दुहराते हैं और जब ऐसा होता हुआ नहीं दिखता है तो यही लोग गहरी निराशा और अवसाद से घिर जाते है। इसका यह मतलब नहीं है कि भाजपा की चुनावी हार से देश की मेहनतकाश अवाम और क्रान्तिकारी शक्तियों को कुछ हासिल नहीं होगा। ज़ाहिरा तौर पर उन्हें कुछ समय के लिए थोड़ी-बहुत राहत और मोहलत मिलेगी और इससे हरेक इन्साफ़पसन्द व्यक्ति को तात्कालिक ख़ुशी भी मिलेगी। लेकिन जो लोग चुनावों में भाजपा की हार को ही फ़ासीवाद के विरुद्ध संघर्ष का क्षितिज मान लेते हैं वे दरअसल फ़ासीवादी उभार की प्रकृति व चरित्र और उसके काम करने के तौर-तरीक़ों को नहीं समझते हैं। 

लोकसभा चुनाव-2024 के नतीजों में हुई थी हेरा-फेरी- एडीआर और वोट फ़ॉर डेमोक्रेसी की रिपोर्ट

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट की 538 सीटों में पड़े कुल वोटों और गिने गए वोटों की संख्या में लगभग छह लाख वोटों का अन्तर था। रिपोर्ट के मुताबिक, अमरेली, अहिंगल, लक्षद्वीप, दादरा नगर हवेली एवं दमन दीव को छोड़कर 538 सीटों पर डाले गए कुल वोटों और गिने गए वोटो की संख्या अलग-अलग है। सूरत सीट पर मतदान नहीं हुआ था। एडीआर के संस्थापक जगदीप छोकर के मुताबिक़ चुनाव में वोटिंग प्रतिशत देर से जारी करने और निर्वाचन क्षेत्रवार तथा मतदान केन्द्रवार आँकड़े उप्लब्ध न होने को लेकर सवाल है।