Category Archives: चुनावी नौटंकी

चुनावी समीकरणों और जोड़-घटाव के बूते फ़ासीवाद को फ़ैसलाकुन शिक़स्त नहीं दी जा सकती है!

जहाँ तक इन नतीजों के बाद कुछ लोगों को धक्का लगने का सवाल है तो अब इस तरह के धक्के और झटके चुनावी नतीजे आने के बाद तमाम छद्म आशावादियों को अक्सर ही लगा करते हैं! 2014 के बाद से हुए कई चुनावों के बाद हम यह परिघटना देखते आये हैं। ऐसे सभी लोग भाजपा की चुनावी हार को ही फ़ासीवाद की फ़ैसलाकुन हार समझने की ग़लती बार-बार दुहराते हैं और जब ऐसा होता हुआ नहीं दिखता है तो यही लोग गहरी निराशा और अवसाद से घिर जाते है। इसका यह मतलब नहीं है कि भाजपा की चुनावी हार से देश की मेहनतकाश अवाम और क्रान्तिकारी शक्तियों को कुछ हासिल नहीं होगा। ज़ाहिरा तौर पर उन्हें कुछ समय के लिए थोड़ी-बहुत राहत और मोहलत मिलेगी और इससे हरेक इन्साफ़पसन्द व्यक्ति को तात्कालिक ख़ुशी भी मिलेगी। लेकिन जो लोग चुनावों में भाजपा की हार को ही फ़ासीवाद के विरुद्ध संघर्ष का क्षितिज मान लेते हैं वे दरअसल फ़ासीवादी उभार की प्रकृति व चरित्र और उसके काम करने के तौर-तरीक़ों को नहीं समझते हैं। 

लोकसभा चुनाव-2024 के नतीजों में हुई थी हेरा-फेरी- एडीआर और वोट फ़ॉर डेमोक्रेसी की रिपोर्ट

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट की 538 सीटों में पड़े कुल वोटों और गिने गए वोटों की संख्या में लगभग छह लाख वोटों का अन्तर था। रिपोर्ट के मुताबिक, अमरेली, अहिंगल, लक्षद्वीप, दादरा नगर हवेली एवं दमन दीव को छोड़कर 538 सीटों पर डाले गए कुल वोटों और गिने गए वोटो की संख्या अलग-अलग है। सूरत सीट पर मतदान नहीं हुआ था। एडीआर के संस्थापक जगदीप छोकर के मुताबिक़ चुनाव में वोटिंग प्रतिशत देर से जारी करने और निर्वाचन क्षेत्रवार तथा मतदान केन्द्रवार आँकड़े उप्लब्ध न होने को लेकर सवाल है।

लोकसभा चुनाव : बहुमत से पीछे रहने के बावजूद फ़ासीवादी भाजपा के  दाँत, नख और पंजे राज्यसत्ता में और अन्दर तक धँसे

लोकसभा चुनाव के नतीजे सामने आ चुके हैं। भाजपा भले ही अपने “400 पार” के नारे के बोझ तले धड़ाम से गिर चुकी हो, मगर जिस तरह पूरे चुनाव में गोदी मीडिया, ईडी, सीबीआई, चुनाव आयोग समेत पूँजीवादी राज्यसत्ता की समस्त मशीनरी ने भाजपा के पक्ष में सम्भावनाएँ पैदा करने का काम किया है, यह भाजपा-आरएसएस द्वारा राज्यसत्ता की मशीनरी में अन्दर तक की गयी घुसपैठ और उसके भीतर से किये गये ‘टेक ओवर’ के बारे में काफी कुछ बता देता है। इसके बावजूद एक तबका चुनाव के नतीजों के बाद भाजपा के 240 सीट पर सिमट जाने से ख़ुशी की लहर पर सवार है और वह “लोकतंत्र की जीत” व “संविधान की मज़बूती” की दुहाई देते थक नहीं रहा है। ऐसे में “लोकतंत्र के त्यौहार” यानी 18वें  लोकसभा चुनाव (जिसका कुल ख़र्च लगभग 1.35 ट्रिलियन रुपये बताया जा रहा है) को समग्रता में देखने की ज़रूरत है, ताकि चुनाव नतीजों के शोर में व्यवस्थित तरीक़े से, पूँजीवादी औपचारिक मानकों से भी, लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के हो रहे विघटन से दृष्टि ओझल न हो।

मज़दूरों-मेहनतकशों के लिए लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजों के मायने – भावी सम्भावनाएँ, भावी चुनौतियाँ और हमारे कार्यभार

लोकसभा चुनाव के इस नतीजे का मुख्य कारण यह है कि बेरोज़गारी, महँगाई, भयंकर भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता से जनता त्रस्त थी और भाजपा की जनविरोधी और अमीरपरस्त नीतियों की वजह से उसकी जनता में भारी अलोकप्रियता थी। यही वजह थी कि आनन-फ़ानन में अपूर्ण राम मन्दिर के उद्घाटन करवाने का भी भाजपा को कोई फ़ायदा नहीं मिला और फ़ैज़ाबाद तक की सीट भाजपा हार गयी, जिसमें अयोध्या पड़ता है।

अ टेल ऑफ़ टू सिटीज़ (दो शहरों की कहानी): सूरत और इन्दौर की लोकसभा सीट जीतने के लिए भाजपा का षड्यंत्रकारी हथकण्डा

यह बात अब तथ्य के तौर पर स्थापित हो चुका है कि बेरोज़गारी, महँगाई, शिक्षा, चिकित्सा, आवास आदि बुनियादी सवालों पर मोदी सरकार फ़ेल है। यही वजह है कि वह नये सिरे से साम्प्रदायिक आधार पर आम आबादी को बाँटने का काम कर रही है। प्रधानमंत्री मोदी अब चुनावी रैलियों में अपनी सरकार की उपलब्धियाँ भी नहीं गिना पा रहे हैं, घूम फिर कर अपनी हर चुनावी सभा में मोदी हिन्दुत्व की रक्षा के वायदे, मुस्लिम विरोधी बयान और कांग्रेस के मैनीफ़ेस्टो की अपनी अनोखी झूठी व्याख्यायों व ग़लतबयानी तक सिमट गये हैं। लेकिन इसके बावजद भी भाजपा इस चुनाव में अपने विजय  को लेकर आश्वस्त नहीं है। और शायद यही कारण है कि सूरत और इन्दौर की लोकसभा सीटों पर साम-दाम-दण्‍ड-भेद की नीति के तहत भाजपा ने अपनी जीत सुनिश्चित कर ली। यह पूरा घटनाक्रम 90 के दशक की मसाला हिन्दी फ़िल्मों की पटकथा सरीखा था, जहाँ माफ़िया सरगनाओं के इशारे पर चुनावों के नतीजे पहले से ही फ़िक्स होते है। लेकिन जो कभी काल्पनिक प्रतीत होता था, अब वह वास्तविकता में घटित हो रहा है।

भगतसिंह जनअधिकार यात्रा के तहत ईवीएम के ख़िलाफ़ देशभर में अभियान!

देश के कई जाने-माने वकील, अवकाशप्राप्त न्यायाधीश, विधिवेत्ता, चुनाव विशेषज्ञ और विपक्षी पार्टियाँ ईवीएम की विश्वसनीयता पर लगातार सवाल उठाती रही हैं, लेकिन गोदी मीडिया की कृपा से उनकी बातें आम लोगों तक नहीं पहुँच पातीं। दूसरी ओर, चुनाव आयोग की बेहद कमज़ोर व अविश्वसनीय सफ़ाइयों का जमकर प्रचार किया जाता है। बुनियादी सवालों को नज़रों से ओझल कर दिया जाता है। ग़ौरतलब है कि ईवीएम पर सबसे पहले भारतीय जनता पार्टी ने ही सवाल उठाया था।

चुनाव आते ही मोदी के साम्प्रदायिक बयानों, झूठों और ग़लतबयानियों की अन्धाधुन्ध बमबारी के मायने

अपने दस साल के कार्यकाल में मोदी सरकार ने जनता की ज़िन्दगी को बद से बदतर बनाने का काम किया है। आम मेहनतकश जनता पर अप्रत्यक्ष करों का बोझ लाद कर विजय माल्या, मेहुल चौकसी जैसे पूँजीपतियों का कर्ज़ा माफ़ करने का काम किया है। जनता से किये हुए वायदों को पूरा करने में ये सरकार पूरी तरह से विफल रही है। यही कारण है कि फ़ासीवादी मोदी सरकार चुनाव दर चुनाव जाति-धर्म, मन्दिर-मस्जिद का मुद्दा उठाकर अपनी चुनावी नैया पार करने की कोशिश करती रही है।

बिगुल पॉडकास्ट – 5 – मोदी सरकार का महाघोटाला : इलेक्टोरल बॉण्ड घोटाला

मोदी सरकार का महाघोटाला : इलेक्टोरल बॉण्ड घोटाला, इलेक्टोरल बॉण्ड के ज़रिये पूँजीपतियों से चन्दे वसूलकर बदले में उन्हें लाखों करोड़ का मुनाफ़ा पहुँचाने का कुत्सित फ़ासीवादी षड्यंत्र : चन्दा दो, मुनाफ़ा लो!

क्या ईवीएम सचमुच अभेद्य है?

विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि चुनाव आयोग की जानकारी के बिना बड़ी संख्या में छेड़छाड़ की गयी या नकली ईवीएम को असली ईवीएम से बदलना तीन चरणों में सम्भव है। पहला, ईवीएम निर्माण करने वाली कम्पनियों भारत इलेक्ट्रॉनिक लिमिटेड (बीईएल) और इलेक्ट्रॉनिक कॉर्पोरेशन ऑफ इण्डिया लिमिटेड (ईसीआईएल) में ईवीएम-निर्माण चरण में; दूसरा, गैर-चुनाव अवधि के दौरान जिला स्तर पर जब ईवीएम को अपर्याप्त सुरक्षा प्रणालियों के साथ कई स्थानों पर पुराने गोदामों में संग्रहीत किया जाता है; और तीसरा, चुनाव से पहले प्रथम-स्तरीय जाँच के चरण में जब ईवीएम की सेवा बीईएल और ईसीआईएल के अधिकृत तकनीशियनों द्वारा की जाती है।

चण्डीगढ़ मेयर चुनाव: फ़ासीवादी दौर में मालिकों के लोकतन्त्र का फूहड़ नंगा नाच

चण्डीगढ़ मेयर चुनाव में सब कुछ सामने होने के बाद भी अगर सुप्रीम कोर्ट फैसला नहीं देता, तो वैसे भी व्यवस्था के पास शरीर को ढकने के लिए जो थोड़ा बहुत सूत का धागा बचा है, वो भी निकल जाता। पूँजीवादी लोकतन्त्र के खोल को बचाये रखना आज के दौर के फ़ासीवादी ख़ासियत है। इसी के साथ व्यवस्था के कुछ आन्तरिक अन्तरविरोध भी पैदा होते हैं। व्यवस्था और पूँजीपति वर्ग की दूरदर्शी पहरेदार के तौर पर न्यायपालिका के कुछ फ़ैसले मोदी सरकार के हितों के विपरीत जा सकते हैं। लेकिन इसके आधार पर अगर कोई न्यायपालिका या क़ानूनी एक्टिविज़्म के ज़रिये, संविधान की माला जपते फ़ासीवादी संघ परिवार व मोदी-शाह सरकार से टकराने का सोच रहा है तो भविष्य में उसे लगने वाला सदमा उसे पागलखाने भी पहुँचा सकता है।