ख़र्चीला और विलासी बुर्जुआ लोकतन्त्र : जनता की पीठ पर भारी-भरकम बोझ सा सवार
हर बार के लोकसभा चुनावों की ही तरह इस बार भी लोकसभा चुनावों के दौरान राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय मीडिया में भारतीय लोकतन्त्र की शान में कसीदे पढ़े गये। किसी ने इन चुनावों को लोकतन्त्र के महाकुम्भ की संज्ञा दी तो किसी ने महापर्व की। लेकिन किसी ने ये बुनियादी सवाल पूछने की जहमत नहीं उठायी कि महीनों तक चली इस क़वायद से इस देश की आम जनता को क्या मिला और किस क़ीमत पर। चुनावी क़वायद ख़त्म होने के बाद जारी होने वाले ख़र्च के आँकड़े पर निगाह दौड़ाने भर से इसमें कोई शक नहीं रह जाता है कि इस तथाकथित लोकतन्त्र को वास्तव में धनतन्त्र की संज्ञा दी जानी चाहिए।